आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास एक उलझनपूर्ण किन्तु विकासशील कला का इतिहास है। इसके आरम्भिक सूत्र इस देश के इतिहास तथा भौगोलिक परिस्थितियों से जुड़े हुए हैं। विस्तारवादी, साम्राज्यवादी, बर्बर और लालची विदेशी शक्तियों ने इसे बार-बार आक्रान्त किया; अतः एक स्वतंत्र चेता राष्ट्र के रूप में इस देश की विचारधारा, कला एवं संस्कृति का विकास अपेक्षित दिशा में नहीं हो सका।
आधुनिक युग में भी ब्रिटिश सत्ता के भारत से चले जाने के उपरान्त इस देश की कला का विकास सम्यक रीति से नहीं हो पा रहा है न हम अपनी परम्पराओं और अतीत को ही सही ढंग से समझते हैं और न पश्चिमी आन्दोलनों के भारत देश पर पड़ने वाले आवश्यक अथवा अनावश्यक प्रभावों को ही गम्भीरता से सोच पा रहे हैं।
ऐसी परिस्थितियों में आधुनिक भारतीय चित्रकला की कोई राष्ट्रीय व्याख्या सम्भव नहीं है। जैसे कोई झरना गिर कर अनेक छोटी-छोटी धाराओं में बहने लगे (यहां तक कि कुछ पतली धाराएँ नालियों में बदल जायें) कुछ ऐसी ही स्थिति आज भारतीय चित्रकला की है।
पिछले युगों को छोड़कर यह धारा जिस प्रकार आगे बढ़ी है उसका ही संक्षिप्त इतिहास अगले पृष्ठों में प्रस्तुत किया जा रहा है।
आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास प्रचलित परम्परागत कला-शैलियों (राजस्थानी, पहाड़ी तथा मुगल) के अवसान तथा भारत में अंग्रेजी राज्य की स्थापना के साथ जुड़ा हुआ है।
यूँ तो पश्चिमी कला के तकनीक की कुछ विशेषताएँ सीखने के लिए अकबर ने भी अपने कुछ अन्य चित्रकार गोवा भेजे थे पर जैसे-जैसे भारतवर्ष में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का प्रभाव बढ़ता गया और हिन्दू तथा मुस्लिम शासकों को पदच्युत करके अनेक राज्यों का शासन सीधे ब्रिटिश सत्ता के अधीन होता गया, वैसे-वैसे राजाश्रय में पलने वाले चित्रकार भी अपने आश्रयदाताओं के दरबारों से पलायन करते गये।
भारत में कुछ पश्चिमी चित्रकार मुख्यतः ईस्ट इण्डिया कम्पनी अथवा ब्रिटिश शासन के अधिकारियों के साथ आये और कुछ अन्य चित्रकार भारत की समृद्धि की ख्याति सुनकर विदेशी व्यापारियों की भाँति भारत में अपना भाग्य आजमाने आये।
भारतीय संरक्षकों ने अपनी परम्परागत कला-शैलियों का तिरस्कार करते हुए इन पश्चिमी चित्रकारों को अप्रत्याशित प्रोत्साहन दिया किन्तु राजाश्रय से भिन्न यहाँ के लोक-जीवन में कलाओं का जो अनिवार्य प्रयोग होता रहा है. उसकी धारा इस युग में भी अविच्छिन्न बहती रही और उसके सौन्दर्य को कलाकारों की नई पीढ़ियों ने केवल तभी पहचाना जब यूरोप के कला-मर्मज्ञों ने आदिम कला तथा लोक कला की शक्ति की भूरि-भूरि प्रशंसा की भारतीय लोक-कलाओं का प्रभाव आज हम देश के मूर्धन्य कलाकारों पर देखते हैं।
भारत में अंग्रेजी शासन के फल स्वरुप कला के क्षेत्र में दो प्रभाव पड़े। एक तो यह कि स्थानीय चित्रकारों ने अपनी समझ के अनुसार पश्चिमी कला के मिश्रण से एक संकर कला-शैली का सूत्रपात किया जिसे कम्पनी शैली कहा जाता है।
दूसरा यह कि समाज के उन सभी वर्गों में, जो कलाओं के संरक्षक समझे जाते हैं, पश्चिमी कला के प्रति आदरभाव और अपनी कला के प्रति हीनता की भावना उत्पन्न हुई। स्वयं अंग्रेजों ने इस भावना को बढ़ाने तथा पश्चिमी चित्रकारों को भारत में प्रोत्साहित करने का भरपूर प्रयत्न किया। जो भारतीय चित्रकार पश्चिमी शैली में कार्य करते थे, अंग्रेजों ने उनकी भी पीठ थपथपाई।
उन्नीसवीं शताब्दी के मध्य तक आते-आते राजस्थानी, पहाड़ी तथा मुगल शैलियों में पर्याप्त ह्रास हो गया था। राजस्थान की प्रमुख शैलियों मेवाड, बूंदी, मालवा, जोधपुर, किशनगढ़ आदि की शैलियों के अत्यन्त दुर्बल हो जाने और जयपुर शैली के व्यापक प्रसार के कारण राजस्थानी कला की पहले जैसी स्थिति नहीं रही थी।
जयपुर शैली के चित्रों की मांग बढ़ जाने के कारण घटिया स्तर की असंख्य कृतियों का निर्माण होने लगा जिनमें चरबों के आधार पर प्राचीन चित्रों की अनुकृतियों की संख्या बहुत अधिक थी। 1880 तक आते-आते इस शैली पर पर्याप्त यूरोपीय प्रभाव पड़ चुका था।
पहाड़ी शैली की अन्तिम परिणति सिख चित्रकला में हुई जिसमें पर्याप्त दुर्बलता, आलंकारिकता तथा रेखांकन की कठोरता है। रंगों में भी पहले जैसा सौन्दर्य नहीं रहा। इसके साथ ही इस पर भी पश्चिमी कला का प्रभाव पड़ा।
मुगल कला में भी इस समय पहले जैसी उत्कृष्टता न रही। आकृतियों में छाया-प्रकाश दिखाने के हेतु काले रंग का प्रयोग किया जाने लगा। यूरोपीय कला के प्रभाव से अन्धकारपूर्ण वातावरण में तेज प्रकाश से चमकती आकृतियाँ भी अंकित की जाने लगीं घटिया रंगों का प्रयोग होने लगा और अनेक नकलें तैयार की जाने लगीं।
आलोचकों ने मुगल शैली के तीन रूप माने है-दरबारी, लोकप्रिय तथा बाजारू । शक्तिशाली शासकों के अन्त के साथ ही दरबारी मुगल कला भी समाप्त हो गयी। मुगल कलाकारों की परम्परा की अनुकृति करने वाले अन्य चित्रकारों की कला ‘लोकप्रिय मुगल’ अथवा प्रान्तीय मुगल कहलाई और जो दरबारी मुगल कलाकार कहीं मी आश्रय न मिलने पर बाजार में आ बैठे उनकी कला ‘बाजार मुगल’ कहलाई।
इस प्रकार मुगल कला का स्तर भी बहुत गिर गया था। उन्नीसवीं शती की दक्षिण की कला में मुगल तत्वों के साथ-साथ यूरोपीय तत्वों का बहुत अधिक सम्मिश्रण होने से इसमें भी पहले के समान सौन्दर्य नहीं रहा।
इस समय तक अनेक विदेशी चित्रकार भी विभिन्न शासकों के दरबारों में आने लगे थे। उनके कारण भारत की परम्परागत शैलियों को बड़ा आघात लगा । उन्नीसवीं शती में भारतवर्ष के कई स्थानों पर कुछ स्थानीय शैलियाँ भी चल रही थीं। इनमें निम्न शैलियाँ प्रमुख थीः
- बंगाल की पटुआ कला तथा कालीघाट की पट चित्रकला
- कालीघाट के पट-चित्र
- उड़ीसा के पट-चित्र
- नाथद्वारा के पट-चित्र
- तंजौर शैली के चित्र