नीरद (अथवा बंगला उच्चारण में नीरोद) को नीरद (1916-1982) चौधरी के नाम से भी लोग जानते हैं। उनकी कला में प्राचीन भारतीय विचारधारा तथा देवी-देवताओं की आकृतियों का प्रयोग नये संयोजनों में हुआ है। प्रो०ए०एल०वाशम का विचार है कि पिछले एक सी वर्ष में इस प्रकार की कोई भी कृति नहीं बनीं।
इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट से कला का डिप्लोमा प्राप्त करने और वहीं अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के शिष्य रहने पर भी मजूमदार पुनरूत्थानवादी या कट्टर परम्परावादी कलाकार नहीं थे। उन्होंने विभिन्न सभ्यताओं का अध्ययन करके जो सौन्दर्य दृष्टि प्राप्त की थी उसी के कारण वे प्राचीन भारत की शब्दावली और बिम्बों का प्रयोग करते थे।
मूल रूप में कला प्रतीकात्मक और अनुष्ठान मूलक रही है और केवल पिछले कुछ समय से ही यह उससे अलग होकर अपवित्र हो गयी है, ऐसा वे मानते थे।
1946 में ये एक छात्रवृत्ति पर पेरिस गये और वहाँ इकोल द लून में कला का अध्ययन किया और तीन वर्ष बाद बारबिजां गैलरी में अपनी चित्र-प्रदर्शनी की।
1950 से 1955 तक वे लन्दन में रहे और सारे इंग्लैण्ड में अनेक प्रदर्शनियाँ आयोजित की। वे पश्चिमी आधुनिक कला के आचार्यों से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने अपने पहले बनाये सभी चित्र नष्ट करदिये और नयी चित्र श्रृंखला “कुछ चुनी हुई प्रतिमाएँ’ बनाकर पेरिस में 1957 में प्रदर्शनी की उन्होंने इस प्रकार के 23 चित्र बनाये। इनके अतिरिक्त अनन्त का पंख के 15 चित्र, दृश्य-ऋचाओं के 13 तथा 9 अन्य प्रतीक चित्र भी उन्होंने 1964 तक अंकित किये। सभी चित्रों में एक प्रतीकात्मक ज्यामितीय आधार पर चित्र – अन्तराल को व्यवस्थित किया गया है।
सब में एक जैसा एक केन्द्र बिन्दु है जो हृदय पुष्कर है। इसी के अनुसार चित्रों में समस्त पैटर्न वितरित किये गये हैं। यह किसी अन्तराल पर स्थित नहीं है फिर भी सम्पूर्ण अन्तराल को देखता है। यह एक चित्र का दूसरे चित्र से दृष्ट सम्बन्ध जोड़ता है।
नीरद कला को एक क्रिया मानते थे पर पश्चिमी एक्शन-पेण्टर्स की भांति नहीं। ये कला की क्रिया के द्वारा मनको शान्त करने में विश्वास करते थे प्रतीक इसमें सहायक होते हैं। प्रतीक का अंकन इस प्रकार किया जाता है कि उसका अर्थ बहुत लचीला हो जाता है और वह अन्य अनेक वस्तुओं तथा अर्थों की ओर भी संकेत कर सकताहै, से दर्शक के अनुसार ।
अतः कलाकार केवल रूप ही अंकित नहीं करता, रूप | कुछ अन्य बात भी कहता है। नीरद ने अपने चित्रों में देवनागरी लिपि का भी प्रयोग किया है और चित्र में उसे बड़ी खूबी से पिरो दिया है।
नीरद के अनुसार ज्यामितीय व्यवस्थामें ही कलाकार अभिव्यक्ति करने में सफल होता है वह जैविक रूपों को न देखकर ब्रह्माण्डीय रूप को देखता है और उसी की एकता (Unity) दिखाने का प्रयत्न करता है।