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मेवाड़ शैली
राजस्थान के अन्य क्षेत्रों के समान मेवाड़ भी अपने प्राकृतिक सौंदर्य के लिए प्रख्यात है। यहाँ के ऊँचे नीचे टीले, विशाल मैदान, सरोवर नदियाँ प्रारम्भ से कलाकारों को चित्रण हेतु प्रेरणा देते रहे हैं। मेवाड़ भू-खण्ड अरावली पर्वत श्रृंखलाओं के मध्य में स्थित है। यहाँ पर ‘मेव’ अथवा ‘मेर’ जाति का काफी समय तक निवास रहा जिस कारण इसे ‘मेदापाट’ अथवा ‘मेवाड़’ के नाम से जाना गया है।
इसके अतिरिक्त मेवाड़ क्षेत्र आदि मानव की क्रीड़ा स्थली भी रहा है। रायकृष्ण दास के अनुसार मेवाड़ में ही सर्वप्रथम 15 वीं शताब्दी में राजस्थानी कला का उद्गम हुआ। वैसे तो मेवाड़ के सभी स्थानों पर कला रचना हुई परन्तु मुख्य रूप से जो स्थान प्रसिद्ध हुए उनमें आहड़, चित्तौड़, चावण्ड तथा उदयपुर हैं।
राजस्थानी शैली के प्रथम दर्शन वास्तव में मेवाड़ कलम से ही होते हैं। ऐतिहासिक साँस्कृतिक एवं कलात्मक दृष्टि से राजस्थानी कला के उद्भव तथा और विकास में मेवाड़ की कला का प्रमुख योगदान दिखाई देता है और विकास में मेवाड़ की कला का प्रमुख योगदान दिखाई देता है, जिसका उदय चित्तौड़ तथा उदयपुर के सिशोदिया राजाओं के समय में हुआ।
इस कालम के सबसे पहले के ज्ञात चित्र सुपासनाहचर्यम के हैं जो 1423 ई० की है।इन चित्रों में पश्चिम भारतीय कलम का प्रभाव है। अन्य प्रारम्भिक उदाहरणों में चौरपञ्चाशिका, पुराण आदि ग्रन्थचित्र हैं। इनके अतिरिक्त श्रावक प्रतिक्रमण सूत्रचूर्णी, रसिकाष्ठक, ज्ञानार्णव आदि हैं। ये रचनाएँ अपभ्रंश अथवा जैन शैली से साम्य रखती हैं।
चूँकि मेवाड़ भूखंड गुजरात की सीमाओं जुड़ा है इस लिए यहाँ पर जैन धर्मावलंबियों के कई केन्द्र रहे हैंयहाँ श्वेतांबर संप्रदाय के कई ग्रन्थ मिले है, जैन धर्म के अतिरिक्त यहाँ कृष्ण भक्ति आन्दोलन का विशिष्ट देखा गया।
मेवाड़ की भक्ति सर्वविदित है। कृष्ण की और आम जनता के झुकाव के कारण चित्रकारों भी कृष्ण सम्बन्धी साहित्य से प्रेरणा मिली। गीत-गोविन्द तथा भागवत पुराण चित्र इसका उत्तम दृष्टान्त प्रस्तुत करते हैं। मेवाड़ का एक पृथक् रूप बिल्हड़ कृत चौरपञ्चाशिका (1540 ई०) के चित्रों में मिलता है।
महाराणा (1433-1468 ई०) मेवाड़ के एक प्रतिभाशाली शासक थे जो स्वयं कवि, संगीतज्ञ एवं संरक्षक इनके काल में कला एवं साहित्य की विशेष उन्नति हुई इसलिए इस युग को स्वर्ण युग कहा गया।
इन्होंने अपने काल में गीत-गोविन्द, बाल गोपाल स्तुति एवं रसिकाष्ठक आदि कई ग्रन्थों की रचना करवाई तथा संगीतराज की रचना की जिसमें रागों मूर्तिकरण (personification) का बहुत सुन्दर विवरण मिलता है। महाराणा कुम्भा के पश्चात् महाराणा सांगा तथा तत्पश्चात् संग्राम सिंह ने गद्दी पर बैठकर सत्ता को मजबूत बनाया। महाराणा सांगा के पुत्र भोजराज ही मीरा का विवाह हुआ था।
मेवाड़ कला के विकास के पाश्र्व में यहाँ के शासकों का विशेष सहयोग रहा। महाराजा जगत् सिंह (1628-1652 ई०) भारतीय संस्कृति, साहित्य एवं स्थापत्य कला के महान उन्नायक माने जाते थे। इनके राज्यकाल में कलाकारों ने कई विशिष्ट ग्रन्थ चित्रित किए जिनमें प्रमुख गीत-गोविन्द, रसिकप्रिया, रागमाला, भागवत पुराण, सूर सागर आदि हैं।
भागवत पुराण (1648 ई०) तथा गीत-गोविन्द (1629 ई०) के चित्र साहेबदीन द्वारा बनाये गए। ऐसा कहा जाता है कि मेवाड़ शैली को एक नयी दिशा देने का श्रेय साहेबदीन को जाता है इसी संदर्भ में प्रमुख है कि साहेबदीन ने 1628 ई० में रागमाला के चित्र भी बनाए जिनमें से 12 उपलब्ध हैं जो नेशनल म्यूजियम दिल्ली, भारत कलाभवन बनारस में सुरक्षित हैं।
कुमार सम्भव में राधा कृष्ण एवम गोपियों का सुन्दर अंकन है। प्राकृतिक दृश्यों पलाश, आम, खजूर केला आदि का चित्रण आकृतियों को नैसर्गिक वातावरण प्रदान करने में सहायक है। महाराणा जगत् सिंह प्रथम वैष्णव धर्म के अनुयायी थे।
इनके समय में सूरदास के भावपूर्ण पदों पर आधारित सूर नामक ग्रन्थ (1640 चित्रित हुआ। इन चित्रों में मुख्य रूप से कृष्ण जन्म, गायों का पूजन, संगीतरत ग्वाल-बाल, गीत गाती ब्रज वनिताएँ आदि चित्रित हैं। जो मेवाड़ शैली के कलाकारों की तुलिका के उत्तम दृष्टान्त प्रस्तुत करने में पूर्णतः समर्थ हैं।
इन चित्रों में कथा की अनेक घटनाओं को एक ही चित्र में काल्पनिक परिप्रेक्ष्य तथा अनुपम दृश्यजन्यलघुता का आश्रय लेकर प्रस्तुत किया गया है। सूरसागर के कई चित्र जगदीश प्रसाद गोयरनिका म्यूजियम, कलकत्ता में सुरक्षित है।
इसी के साथ-साथ मनोहर द्वारा जो रामायण (1649) की सचित्र प्रति तैयार की गयी वह प्रिंस ऑफ वेल्स म्यूजियम मुंबई में सुरक्षित है। यहीं एक चित्र दशरथ के यज्ञ के पश्चात लौटने का मिलता है। दायीं और घोड़े पर सवार महाराज दशरथ अपनी सेना तथा दरबारियों के साथ लौट रहे हैं। बायीं ओर महारानी तथा अन्य दासियों की भीड़ है।
पृष्ठभूमि में सरल वास्तु का अंकन है। यह चित्र उस समय का है जब तक मेवाड़ शैली अपभ्रंश शैली से पूर्णतः मुक्त नहीं हो पायी थी। इस श्रृंखला के चित्र भी मनोहर द्वारा उदयपुर में चित्रित किए गए। उदयपुर में ही अन्य कई 1651 ई० में एक दूसरी रामायण की प्रति तैयार की गयी जो चित्तौड़ में लिखी गयी थी।
चूँकि इस समय मेवाड़ में वैष्णव परम्परावादी प्रवृत्ति का बोलबाला था इसलिए वैष्णव परम्परा के अनुयायियों के लिए भागवत पुराण का चित्रण एक प्रिय विषय रहा है। मेवाड़ में ही भागवत पुराण की कई बार प्रतियाँ तैयार की गयी।
वाचस्पति गैरोला के अनुसार, “बल्लभाचार्य के वैष्णव धर्म के प्रचार-प्रसार के कारण कृष्णभक्ति को ही सर्वोपरि माना जाने लगा था और तत्कालीन चित्रकारों के समक्ष ‘भागवत पुराण’ ही अपनी कलाकृतियों के लिए प्रमुख विषय रहा गया था। यही कारण है कि 17वीं शताब्दी के मध्य में भागवत् पुराण की बहुत सारी सचित्र प्रतियाँ उपलब्ध होती हैं।”
सबसे पहली 1648 ई० में उदयपुर में साहेबदीन द्वारा चित्रित हुई।
तत्पश्चात् चित्रित भागवत की प्रतियों के चित्र कोटा पुस्तकालय भारत कला भवन, बनारस और नेशनल म्यूजियम, दिल्ली में हैं। भागवत पुराण (1540 ई०) का एक प्रसिद्ध चित्र ‘पारिजात हरण’ है। चित्र के मुख्य पात्र विष्णु हैं जो लक्ष्मी के साथ गरूड़ पर आसीन हैं।
विष्णु में नीला, लक्ष्मी में पीला, वृक्षों में हरा तथा पृष्ठभूमि में लाल रंग का सुन्दर प्रयोग है। चित्र में स्वर्ग के परिजात वृक्ष को भूमि पर लाने का अंकन कलाकार ने अपनी तूलिका की कुशलता से किया है। दाहिनी ओर भवन के अन्दर स्त्री-पुरुष की आकृति है जिसमें पुरुष पात्र विष्णु के शरीर पर कई आँखे बनी हैं क्योंकि पुराणों में विष्णु को हजार आँखों वाला बताया गया है।
विष्णु के हाथ में शंख, चक्र, गदा तथा पद्म बनाए गए हैं। जगत् सिंह के काल में जो चित्र निर्मित हुए उनमें लघुचित्रण परम्परा की विशिष्टताएँ स्पष्ट दिखायी देती हैं।
जैसे गोल चेहरे, मीनाकृति नेत्र, छोटे कद की मानवाकृतियाँ, गठीली मूछों से युक्त पुरुषाकृति आदि। वेशभूषा पर मुगल प्रभाव दिखायी देने लगा था। अकबर कालीन जामें तथा पगड़ियों पर जहाँगीर कलम का प्रभाव है। स्त्रियों की वेशभूषा में चोली, धोती बनायी गयी हैं जिन पर फूल पत्तों की कढ़ाई है।
इसके अतिरिक्त हाथों तथा बाजू पर काले रंग के फुंदने हैं जो अपभ्रंश शैली की याद दिलाते हैं। स्थापत्य के क्षेत्र में इन्होंने जगदीश मन्दिर का निर्माण कराया तथा साथ ही उदयपुर के महल को पूर्ण कराने में भी सहयोग दिया। इस समय मेवाड़ कलम का काफी विकास हुआ।
महाराणा राजसिंह (1652-1680 ई०) के शासन काल में भी कला की विशिष्ट उन्नति हुई। रामायण का उत्तरकाण्ड (1653 ई०) इसी समय चित्रित हुआ। राजसिंह का हिन्दू धर्म की रक्षा में बहुत बड़ा योगदान माना जाता है।
जब औरंगजेब ने वैष्णव तथा वल्लभ सम्प्रदाय के अनुयायियों को धर्म विरोधी नीति के अनुरूप ब्रज से निकाल के दिया तो राजसिंह ने ही नाथद्वारा नामक स्थान में इन्हें सुरक्षा दी। राजा जगत् सिंह के समय राजसिंह की रूचि भी साहित्य तथा वास्तु कला में रही।
साहेबदीन नामक चित्रकार जिसने जगत् सिंह के समय में चित्र बनाए, उसने इनके समय में भी कार्य किया। इनके समय का 1659 ई० का चित्रित ‘भ्रमर गीत’ अत्यन्त महत्वपूर्ण माना जाता है।
महाराणा जयसिंह (1680-1698 ई०) के राज्य काल में रामायण तथा महाभारत के चित्रों की रचना हुई। लघु चित्रण की दृष्टि से इस समय काफी संख्या में चित्र बने परन्तु जयसिंह अपने पिता के समान प्रतिभा सम्पन्न शासक नहीं थे। इसलिए कला की बारीकी तथा तकनीकी कौशल जो इनसे पूर्व रहा, वह इस समय नहीं मिलता।
इस काल में जो चित्र ग्रन्थ निर्मित हुए उनमें एकादशी महात्म्य, मुल्ला दी प्याजा, सारतत्व, पृथ्वीराज रासो आदि प्रमुख हैं।
इन विषयों के अतिरिक्त मेवाड़ में सामाजिक जन-जीवन तथा लोक गाथाओं आदि पर भी चित्रण मिलता है। ढोलामारू एक राजस्थानी काव्य है जो कि एक वीर योद्धा ढोला राय तथा मारवाड़ की एक नायिका मारोनी की प्रेम कथा पर आधारित है। इस विषय को लेकर भी मेवाड़ के कलाकार समय-समय पर सुन्दर रचनाएँ प्रस्तुत करते रहे।
महाराणा संग्राम सिंह (1710-1734 ई०) के समय में धार्मिक चित्रों की रचना हुई क्योंकि वह बल्लभ सम्प्रदाय के विशिष्ट अनुयायी थे। इनके शासनकाल में चित्रकार जगन्नाथ ने कई काव्यों को साकार रूप दिया जिसका उदाहरण ‘बिहारी सत्सई’ पर आधारित रचनाओं से हो जाता है।
काव्यकार की भाव प्रगल्यता को चित्रकार ने उत्तमता से प्रस्तुत किया है। इस समय के मेवाड़ी चित्रों पर मुगल प्रभाव अधिक दिखायी देता है। शैली की उत्तमता के साथ-साथ यह समृद्धि का युग भी माना गया। मेवाड़ के इतिहास का अन्तिम पृष्ठ महाराणा भीमसिंह (1777-1828 ई०) का समय था जब मेवाड़ राज्य की अंग्रेजो से सन्धि हो गयी। इस काल में लघु चित्रों के अतिरिक्त भित्ति चित्रों का निर्माण मुख्य रूप से हुआ। बापना की हवेली, कोठारी जो की हवेली, गणेश लाल की हवेली, जग मन्दिर तथा मर्दाना महल में बने भित्ति चित्र प्रमुख हैं।
मेवाड़ चित्रशैली की विषय वस्तु
इस शैली में सर्वाधिक कृतियाँ कृष्ण भक्ति को लेकर बनायी गयीं। 1648 ई० में साहबदीन नामक चित्रकार द्वारा उदयपुर में श्रीमद् भागवत् गीता के चित्र अंकित किये गये।
मनोहर नामक चित्रकार ने 1649 में रामायण भी चित्रित की मेवाड़ शैली में रागमाला पर भी बहुत चित्र बनाये गये जो मेवाड़ शैली की सर्वोत्तम कृतियों में से एक हैं।
केशवदास कृत रसिक प्रिया भी इस समय चित्रकारों का प्रियविषय रही। 1650 ई० के लगभग गीतगोविन्द को भी प्रचुरता के साथ चित्रित किया गया है। 1650-51 ई० में चित्रित सूर सागर के कुछ पृष्ठ गोपीकृष्ण कानोडिया संग्रहालय में हैं। कृष्ण चरित् के आधार पर मेवाड़ शैली में ऊधो-माधो संवाद भी चित्रित किया गया।
मेवाड़ चित्र शैली की विशेषतायें
मेवाड़ में चित्र रचना की एक विशिष्ट परम्परा प्रारम्भ से दिखायी देती रही है। पीढ़ी दर पीढ़ी कलाकार इस परम्परा के आधार पर रचना करते रहे हैं जिनसे यहाँ कला की एक ऐसी सुदृढ़ कलम बन गयी जिसने राजस्थान ही नहीं भारत के अन्य कलाकारों को भी प्रेरित किया।
राधाकृष्ण वशिष्ठ के शब्दों में, “इनमें लयबद्ध रेखाओं में अंकित पशु, पक्षी, पेड़, पत्तियाँ, फल, फूल, आदि का कलात्मक सरलीकरण नारी चित्रों के पहनावे में सादगी एवं अन्य सरलीकृत आकृतियाँ तत्कालीन चित्रण परम्परा में आधुनिक रूपों एवं विरूपन को व्यक्त करती हैं। इससे स्पष्ट है कि प्रत्येक युग में चित्रकला का स्वरूप चित्रकार की निजी बौद्धिक सूझबूझ पर निर्भर रहा है। रंगों में भी भिन्न-भिन्न प्रकार की रंग श्रेणियाँ एवं झांइयों का प्रयोग है। आकारों एवं स्थान सम्बन्धित चित्रण में अध्ययन अध्यापन के साथ ही रेखा, रंग, रूप एवं संयोजन का विश्लेषणात्मक प्रयोग प्राचीन परम्परागत चित्रों में विशेषतः मेवाड़ चित्र शैली में सन्तुलित ढंग से किया गया है।”
प्रारम्भ से कलाकार चित्रण हेतु सामग्री एवं धरातल का निर्माण स्वयं करते आए हैं। मेवाड़ के कलाकार ‘ विशेष प्रयत्न से रंग, तूलिका, भित्ति, ताड़पत्र कागज आदि को स्वंय ही तैयार करते आए हैं। रंगों के निर्माण के लिए इन कलाकारों ने विभिन्न खनिजों धातुओं, काजल, वनस्पति आदि का आश्रय लिया।
विद्वान् ऐसा मानते हैं कि मेवाड़ के चित्रों का संयोजन भारतीय कला के शास्त्रीय नियमों के आधार पर किया गया है। अन्तराल विभाजन, रूपाकारों की सज्जा वर्ण का लवलीन नियोजन, प्रतीकात्मक विवरण, नायक-नायिका की भावाभिव्यञ्जना, चेहरों की बनावट आदि सभी तत्वों को विषयवस्तु के अनुरूप प्रयोग किया गया है।
पृष्ठभूमि को आकर्षक बनाने हेतु पहाड़, भवन, टीले, आकाश, वृक्ष आदि का विषय के अनुसार प्रभावपूर्ण अंकन है। चित्रों में आवश्यकतानुसार आकृतियों के प्रमाण निर्धारण में प्रभाविता के सिद्धान्त का पालन किया गया है। जैसे उच्च कुलीन, व्यक्ति या राजा को साधारण आकृतियों की तुलना में अनुपात में बड़ा बनाया गया है।
स्त्री-पुरुषों साज-सज्जा विशिष्ट है। सिर पर रत्नजटिज पगड़ी, हाथों-पैरों में मेहदी, कर्णफूल, गले में मौक्तिक मालाएँ, भुजाबन्द आदि का चित्रण कलाकार के विशिष्ट अध्ययन का परिचायक है। वस्त्रों में दुपट्टा, जामा, पायजामा, कमरबन्द, पटका, धोती, साड़ी, चोली, लहँगा आदि को पात्रों के अनुसार प्रयोग किया गया है जिन पर राजस्थानी छापे के आलेखन मिलते हैं।
पुरुषाकृतियाँ गठीली, गोल चेहरे वाली, भारी चिबुक वाली, बड़ी-बड़ी मूँछों से युक्त हैं। स्त्रियों के नेत्र मीनाकृत भरी चिबुक, लम्बी नासिका, खुले अधर वाली बनायी गयी हैं।
मेवाड़ शैली के चित्रों में आकृतियों के पार्श्व में यथासम्भव प्रकृति का अंकन है जो अलंकारिक शैली में प्रस्तुत है। कहीं-कहीं मुगल प्रभाव भी है। यह प्रकृति नायक-नायिका के साथ पूर्ण सहयोग देती है। स्थान-स्थान पर कुंजो, लताओं, वृक्षों, पुष्पों आदि की छठा देखी जा सकती है।
जल के अंकन में टोकरीनुमा अभिप्राय को अपनाया गया है। पृष्ठभूमि में रात्रि के दृश्य को गहरे रंग से बनाकर उसमें चाँद अथवा तारों को भी बनाया गया है। कुमार सम्भव (1650 ई० के लगभग) के चित्रों में प्रकृति अंकन एक पृथक् रूप को प्रस्तुत करता हुआ कलात्मक है।
पृष्ठभूमि में अंकित वृक्षों में आम, खजूर, पलाश आदि के अतिरिक्त केले के पत्तों का सुन्दर अंकन है। साथ हो फलों की लताएँ भी दिखायी गयी हैं। आकृतियों को मध्य में तथा पेड़-पौधों को ऊपर-नीचे क्रम से चित्रित किया गया है। मेवाड़ी चित्रों के सौंदर्य को और अधिक आकर्षक बनाने हेतु प्रायः लाल रंग के हाशिये हिंगूल एवं सिन्दूर से बनाए गए हैं। कहीं-कहीं ये हाशिये पीले रंग से भी बनाए गए हैं।
मेवाड़ शैली की एक और प्रमुख विशेषता उसके वर्ण सौंदर्य में निहित है। यहाँ प्रारम्भ में प्राथमिक रंगों से चित्र रचना करने की प्रक्रिया थी। मुख्य रूप से लाल, पीला, नीला, हरा, सफेद, काला रंग प्रयुक्त किया गया है। स्वर्ण का प्रयोग विद्युत्, आभूषण अथवा वस्त्रों पर लगे गोटे के प्रभाव को दर्शाने के लिए किया गया है। धीरे-धीरे इस क्षेत्र में विकास होता गया और कलाकार रंगों को मनोवैज्ञानिक तथा प्रतीकात्मक आधार पर भी प्रयुक्त करने लगे।
इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि मेवाड़ शैली के कलाकार ने अपनी तूलिका को सिद्धहस्तता द्वारा इन चित्रों में मानवीय आत्मा को साकार कर दिया है। इन चित्रों में जीवन के प्रत्येक भाव, दुःख, प्रेम, करुणा, आनन्द विरह, वैराग्य, अनुराग वात्सल्य श्रृंगार आदि को दर्शाया है जिसके आधार पर बना भारतीय रस सिद्धान्त रघुवंश (1750 ई०) पर आधारित गजेन्द्र मोक्ष के चित्र में हाथियों को विभिन्न मुद्राओं में करुण रस की अभिव्यक्ति है तो गीत गोविन्द के चित्रों में गधा व कृष्ण के प्रेम में श्रृंगार एवं शान्त रस की प्रधानता है।
इसी प्रकार पृथ्वीराज रासो एवं भागवत गीता के चित्रों में वीर तथा वीभत्स रसो का साकार दिग्दर्शन है। परन्तु मेवाड़ शैली के परवर्ती काल में चित्रों का सौन्दर्य क्षीण होता गया और साथ ही साथ पाश्चात्य प्रभाव भी लक्षित होने लगता है।
वाचस्पति गैरोला के शब्दों में, ” 17वी शताब्दी के अन्तिम दिनों में मेवाड़ शैली की प्रसिद्धि तो बढ़ रही थी किन्तु उसमें परम्परागत सौन्दर्याकर्षण कम हो रहा था। उसमें कला ध्येयों की कमी और व्यापार भावना की अधिकता हो गयी थी। इस समय मेवाड़ की चित्रकला राजाओं के अतिरिकत सामन्तों, धनिकों और आचार्यों तक फैल चुकी थी। इसलिए इस समय के चित्रों में राजाओं, मन्त्रियों, सामन्तों, राजमहलों और स्त्रियों आदि के चित्रों की अधिकता है। हाथी, घोड़े और कुत्तों के चित्र भी बार-बार बनाए गए। यूरोपीय शैली पर आधारित चित्रों की भी कुछ कमी नहीं रही।”
इस प्रकार मेवाड़ शैली के चित्रों का अध्ययन करने पर हम पाते हैं कि राजस्थानी कलम की प्रारम्भिक पोठिका में तो मेवाड़ शैली का महत्वपूर्ण स्थान है। साथ ही साथ भारतीय कला की अन्य शैलियों के विकास क्रम में भी यह शैली अपनी पहचान छोड़ती है।
इस शैली का चरमोत्कर्ष जगतसिंह के शासन काल में हुआ था अतः उस समय की मेवाड़ चित्रशैली की निम्न विशेषतायें हैं
1. इस शैली में चमकदार व तेज रंगों का प्रयोग किया गया है। चित्रकारों ने प्रायः सुर्ख लाल, केसरिया, पीले तथा लाजवर्द रंगों से चित्रांकन किया है। पृष्ठभूमि को या तो एक ही सपाट रंग द्वारा भरा गया है या आकृतियों के विरोधी रंग स्थान-स्थान पर लगाये गये हैं। उनके कारण चित्र में असाधारण चमक उत्पन्न हो गयी है।
2. मेवाड़ शैली में स्त्री पुरूषों की लम्बी नासिका, अण्डाकृति चेहरे तथा मछली जैसे नेत्र बनाये गये हैं। नारी आकृतियाँ यद्यपि कुछ बौनी हैं। तथापि सुन्दर बन पड़ी हैं।
3. मेवाड़ शैली में पुरूषों को प्रायः घेरदार जामा, अकबरी शैली के समान पट्टियों अथवा ज्यामितीय अलंकरण से युक्त लम्बा पटका, जहाँगीरी तथा शाहजहानी अटपटी पगड़ी पहनायी गयी है।
14. स्त्रियों को प्रायः बूटेदार अथवा सादा लहंगा, चोली एवं पारदर्शी ओढ़नी पहनायी गयी है।
5. पशु-पक्षियों का अंकन प्राचीन अपभ्रंश शैली की परम्परा में हुआ है। यद्यपि उसमें मुगल प्रभाव से कुछ स्वाभाविकता आने लगी है।
6. मेवाड़ शैली में वृक्ष प्रायः अलंकृत हैं किन्तु कहीं-कहीं पर अकबर व जहाँगीर शैली के प्रभाव से स्वाभाविकता लिये हुये हैं। वृक्षों में से फूलों के गुच्छे स्थान-स्थान पर निकलते चित्रित किये गये
7. इस शैली में परिप्रेक्ष्य का बहुत मोटे रूप में प्रयोग किया गया है। सम्पूर्ण धरातल को विभिन्न रंगों की पट्टियों में बाँट दिया गया है या एक स्थान को दूसरे स्थान से पृथक करने हेतु बीच में कोई टोला बना दिया गया है।
8. मेवाडू, शैली में आकृतियों को नाटकीय मुद्राओं में प्रस्तुत नहीं किया गया। में 9. रात्रि का दृश्य अंकित करने के हेतु केवल आकाश का रंग बदल दिया गया है और उसी में तारा चन्द्रादि बना दिये गये हैं।
10. चित्रों में प्राय: अकबर एवं जहाँगीर कालीन वास्तु का प्रयोग हुआ है जिसमें प्रधानतया मण्डपों और लघु मीनारों सहित मुंडेर अथवा बाउण्ड्री की दीवार का अंकन हुआ है।
11. इस शैलों में आभूषण आदि में स्वर्णकीट की कतरन का प्रयोग भी किया गया है।
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- भारतीय कला संस्कृति एवं सभ्यताकला संस्कृति का यह महत्त्वपूर्ण अंग है जो मानव मन को प्रांजल सुंदर तथा व्यवस्थित बनाती है। भारतीय कलाओं में …
- भारतीय चित्रकला की विशेषताएँभारतीय चित्रकला तथा अन्य कलाएँ अन्य देशों की कलाओं से भिन्न हैं। भारतीय कलाओं की कुछ ऐसी महत्त्वपूर्ण विशेषताएँ हैं …
- कला अध्ययन के स्रोतकला अध्ययन के स्रोत से अभिप्राय उन साधनों से है जो प्राचीन कला इतिहास के जानने में सहायता देते हैं। …
- आनन्द केण्टिश कुमारस्वामीपुनरुत्थान काल में भारतीय कला के प्रमुख प्रशंसक एवं लेखक डा० आनन्द कुमारस्वामी (1877-1947 ई०)- भारतीय कला के पुनरुद्धारक, विचारक, …
- भारतीय चित्रकला में नई दिशाएँलगभग 1905 से 1920 तक बंगाल शैली बड़े जोरों से पनपी देश भर में इसका प्रचार हुआ और इस कला-आन्दोलन …
- सोमालाल शाह | Somalal Shahआप भी गुजरात के एक प्रसिद्ध चित्रकार हैं आरम्भ में घर पर कला का अभ्यास करके आपने श्री रावल की …
- बंगाल स्कूल | भारतीय पुनरुत्थान कालीन कला और उसके प्रमुख चित्रकार | Indian Renaissance Art and its Main Paintersबंगाल में पुनरुत्थान 19 वीं शती के अन्त में अंग्रजों ने भारतीय जनता को उसकी सास्कृतिक विरासत से विमुख करके …
- तैयब मेहतातैयब मेहता का जन्म 1926 में गुजरात में कपाडवंज नामक गाँव में हुआ था। कला की उच्च शिक्षा उन्होंने 1947 …
- कृष्ण रेड्डी ग्राफिक चित्रकार कृष्ण रेड्डी का जन्म (1925 ) दक्षिण भारत के आन्ध्र प्रदेश में हुआ था। बचपन में वे माँ …
- लक्ष्मण पैलक्ष्मण पै का जन्म (1926 ) गोवा के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। गोवा की हरित भूमि और …
- आदिकाल की चित्रकला | Primitive Painting(गुहाओं, कंदराओं, शिलाश्रयों की चित्रकला) (३०,००० ई० पू० से ५० ई० तक) चित्रकला का उद्गम चित्रकला का इतिहास उतना ही …
- राजस्थानी चित्र शैली की विशेषतायें | Rajasthani Painting Styleराजस्थान एक वृहद क्षेत्र है जो “अवोड ऑफ प्रिंसेज” माना जाता है इसके पश्चिम में बीकानेर, दक्षिण में बूँदी, कोटा तथा उदयपुर …
- टीजीटी / पीजीटी कला से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न | Important questions related to TGT/PGT Artsसांझी कला किस पर की जाती है ? उत्तर: (B) भूमि पर ‘चाँद को देखकर भौंकता हुआ कुत्ता’ किस चित्रकार …
- रेखा क्या है | रेखा की परिभाषारखा वो बिन्दुओं या दो सीमाओं के बीच की दूरी है, जो बहुत सूक्ष्म होती है और गति की दिशा निर्देश करती है लेकिन कलापक्ष के अन्तर्गत रेखा का प्रतीकात्मक महत्व है और यह रूप की अभिव्यक्ति व प्रवाह को अंकित करती है।
- बसोहली की चित्रकलाबसोहली की स्थिति बसोहली राज्य के अन्तर्गत ७४ ग्राम थे जो आज जसरौटा जिले की बसोहली तहसील के अन्तर्गत आते …
- अभिव्यंजनावाद | भारतीय अभिव्यंजनावाद | Indian Expressionismयूरोप में बीसवीं शती का एक प्रमुख कला आन्दोलन “अभिव्यंजनावाद” के रूप में 1905-06 के लगभग उदय हुआ । इसका …
- तंजौर शैलीतंजोर के चित्रकारों की शाखा के विषय में ऐसा अनुमान किया जाता है कि यहाँ चित्रकार राजस्थानी राज्यों से आये …
- मैसूर शैलीदक्षिण के एक दूसरे हिन्दू राज्य मैसूर में एक मित्र प्रकार की कला शैली का विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के …
- पटना शैलीउथल-पुथल के इस अनिश्चित वातावरण में दिल्ली से कुछ मुगल शैली के चित्रकारों के परिवार आश्रय की खोज में भटकते …
- कलकत्ता ग्रुप1940 के लगभग से कलकत्ता में भी पश्चिम से प्रभावित नवीन प्रवृत्तियों का उद्भव हुआ । 1943 में प्रदोष दास …
- Gopal Ghosh Biography | गोपाल घोष (1913-1980)आधुनिक भारतीय कलाकारों में रोमाण्टिक के रूप में प्रतिष्ठित कलाकार गोपाल घोष का जन्म 1913 में कलकत्ता में हुआ था। …
- आधुनिक भारतीय चित्रकला की पृष्ठभूमि | Aadhunik Bharatiya Chitrakala Ki Prshthabhoomiआधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास एक उलझनपूर्ण किन्तु विकासशील कला का इतिहास है। इसके आरम्भिक सूत्र इस देश के इतिहास तथा भौगोलिक परिस्थितियों …
- काँच पर चित्रण | Glass Paintingअठारहवीं शती उत्तरार्द्ध में पूर्वी देशों की कला में अनेक पश्चिमी प्रभाव आये। यूरोपवासी समुद्री मार्गों से खूब व्यापार कर …
- पट चित्रकला | पटुआ कला क्या हैलोककला के दो रूप है, एक प्रतिदिन के प्रयोग से सम्बन्धित और दूसरा उत्सवों से सम्बन्धित पहले में सरलता है; दूसरे में आलंकारिकता दिखाया तथा शास्त्रीय नियमों के अनुकरण की प्रवृति है। पटुआ कला प्रथम प्रकार की है।
- कम्पनी शैली | पटना शैली | Compony School Paintingsअठारहवी शती के मुगल शैली के चित्रकारों पर उपरोक्त ब्रिटिश चित्रकारों की कला का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी कला में …
- बंगाल का आरम्भिक तैल चित्रण | Early Oil Painting in Bengalअठारहवीं शती में बंगाल में जो तैल चित्रण हुआ उसे “डच बंगाल शैली” कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि …
- कला के क्षेत्र में किये जाने वाले सरकारी प्रयास | Government efforts made by the British in the field of artसन् 1857 की क्रान्ति के असफल हो जाने से अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी और भारत के अधिकांश भागों पर …
- अवनीन्द्रनाथ ठाकुरआधुनिक भारतीय चित्रकला आन्दोलन के प्रथम वैतालिक श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म जोडासको नामक स्थान पर सन् 1871 में जन्माष्टमी …
- ठाकुर परिवार | ठाकुर शैली1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में हर प्रकार से अपने शासन को दृढ़ बनाने का प्रयत्न …
- असित कुमार हाल्दार | Asit Kumar Haldarश्री असित कुमार हाल्दार में काव्य तथा चित्रकारी दोनों ललित कलाओं का सुन्दर संयोग मिलता है। श्री हाल्दार का जन्म …
- क्षितीन्द्रनाथ मजुमदार के चित्र | Paintings of Kshitindranath Majumdar1. गंगा का जन्म (शिव)- (कागज, 12 x 18 इंच ) 2. मीराबाई की मृत्यु – ( कागज, 12 x …
- क्षितीन्द्रनाथ मजुमदार | Kshitindranath Majumdarक्षितीन्द्रनाथ मजूमदार का जन्म 1891 ई० में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में निमतीता नामक स्थान पर हुआ था। उनके …
- देवी प्रसाद राय चौधरी | Devi Prasad Raychaudhariदेवी प्रसाद रायचौधुरी का जन्म 1899 ई० में पू० बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में रंगपुर जिले के ताजहाट नामक ग्राम में …
- अब्दुर्रहमान चुगताई (1897-1975) वंश परम्परा से ईरानी और जन्म से भारतीय श्री मुहम्मद अब्दुर्रहमान चुगताई अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के ही एक प्रतिभावान् शिष्य थे …
- हेमन्त मिश्र (1917)असम के चित्रकार हेमन्त मिश्र एक मौन साधक हैं। वे कम बोलते हैं। वेश-भूषा से क्रान्तिकारी लगते है अपने रेखा-चित्रों …
- विनोद बिहारी मुखर्जी | Vinod Bihari Mukherjee Biographyमुखर्जी महाशय (1904-1980) का जन्म बंगाल में बहेला नामक स्थान पर हुआ था। आपकी आरम्भिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई …
- के० वेंकटप्पा | K. Venkatappaआप अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के आरम्भिक शिष्यों में से थे। आपके पूर्वज विजयनगर के दरबारी चित्रकार थे विजय नगर के पतन …
- शारदाचरण उकील | Sharadacharan Ukilश्री उकील का जन्म बिक्रमपुर (अब बांगला देश) में हुआ था। आप अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रमुख शिष्यों में से थे। …
- मिश्रित यूरोपीय पद्धति के राजस्थानी चित्रकार | Rajasthani Painters of Mixed European Styleइस समय यूरोपीय कला से राजस्थान भी प्रभावित हुआ। 1851 में विलियम कारपेण्टर तथा 1855 में एफ०सी० लेविस ने राजस्थान को प्रभावित …
- रामकिंकर वैज | Ramkinkar Vaijशान्तिनिकेतन में “किकर दा” के नाम से प्रसिद्ध रामकिंकर का जन्म बांकुड़ा के निकट जुग्गीपाड़ा में हुआ था। बाँकुडा में …
- कनु देसाई | Kanu Desai(1907) गुजरात के विख्यात कलाकार कनु देसाई का जन्म – 1907 ई० में हुआ था। आपकी कला शिक्षा शान्ति निकेतन …
- नीरद मजूमदार | Nirad Majumdaarनीरद (अथवा बंगला उच्चारण में नीरोद) को नीरद (1916-1982) चौधरी के नाम से भी लोग जानते हैं। उनकी कला में …
- मनीषी दे | Manishi Deदे जन्मजात चित्रकार थे। एक कलात्मक परिवार में उनका जन्म हुआ था। मनीषी दे का पालन-पोषण रवीन्द्रनाथ ठाकुर की. देख-रेख …
- सुधीर रंजन खास्तगीर | Sudhir Ranjan Khastgirसुधीर रंजन खास्तगीर का जन्म 24 सितम्बर 1907 को कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता श्री सत्यरंजन खास्तगीर छत्ताग्राम (आधुनिक …
- ललित मोहन सेन | Lalit Mohan Senललित मोहन सेन का जन्म 1898 में पश्चिमी बंगाल के नादिया जिले के शान्तिपुर नगर में हुआ था ग्यारह वर्ष …
- नन्दलाल बसु | Nandlal Basuश्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की शिष्य मण्डली के प्रमुख साधक नन्दलाल बसु थे ये कलाकार और विचारक दोनों थे। उनके व्यक्तित्व …
- रणबीर सिंह बिष्ट | Ranbir Singh Bishtरणबीर सिंह बिष्ट का जन्म लैंसडाउन (गढ़बाल, उ० प्र०) में 1928 ई० में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा गढ़वाल में ही …
- रामगोपाल विजयवर्गीय | Ramgopal Vijayvargiyaपदमश्री रामगोपाल विजयवर्गीय जी का जन्म बालेर ( जिला सवाई माधोपुर) में सन् 1905 में हुआ था। आप महाराजा स्कूल …
- रथीन मित्रा (1926)रथीन मित्रा का जन्म हावड़ा में 26 जुलाई को 1926 में हुआ था। उनकी कला-शिक्षा कलकत्ता कला-विद्यालय में हुई । …
- मध्यकालीन भारत में चित्रकला | Painting in Medieval Indiaदिल्ली में सल्तनत काल की अवधि के दौरान शाही महलों, शयनकक्षों और मसजिदों से भित्ति चित्रों के साक्ष्य मिले हैं। …
- रमेश बाबू कन्नेकांति की पेंटिंग | Eternal Love By Ramesh Babu Kannekantiशिव के चार हाथ शिव की कई शक्तियों को दर्शाते हैं। पिछले दाहिने हाथ में ढोल है, जो ब्रह्मांड के …
- प्रगतिशील कलाकार दल | Progressive Artist Groupकलकत्ता की तुलना में बम्बई नया शहर है किन्तु उसका विकास बहुत अधिक और शीघ्रता से हुआ है। 1911 में …
- आधुनिक काल में चित्रकला18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में, चित्रों में अर्द्ध-पश्चिमी स्थानीय शैली शामिल हुई, जिसे ब्रिटिश निवासियों …
- रमेश बाबू कनेकांति | Painting – A stroke of luck By Ramesh Babu Kannekantiगणेश के हाथी के सिर ने उन्हें पहचानने में आसान बना दिया है। भले ही वह कई विशेषताओं से सम्मानित …
- सतीश गुजराल | Satish Gujral Biographyसतीश गुजराल का जन्म पंजाब में झेलम नामक स्थान पर 1925 ई० में हुआ था। केवल दस वर्ष की आयु …
- पटना चित्रकला | पटना या कम्पनी शैली | Patna School of Paintingऔरंगजेब द्वारा राजदरबार से कला के विस्थापन तथा मुगलों के पतन के बाद विभिन्न कलाकारों ने क्षेत्रीय नवाबों के यहाँ आश्रय …
- रमेश बाबू कन्नेकांति | Painting – Tranquility & harmony By Ramesh Babu Kannekantiयह कला पहाड़ी कलाकृतियों की 18वीं शताब्दी की शैली से प्रेरित है। इस आनंदमय दृश्य में, पार्वती पति भगवान शिव …
- आगोश्तों शोफ्त | Agoston Schofftशोफ्त (1809-1880) हंगेरियन चित्रकार थे। उनके विषय में भारत में बहुत कम जानकारी है। शोफ्त के पितामह जर्मनी में पैदा हुए …
- कालीघाट चित्रकारी | Kalighat Paintingकालीघाट चित्रकला का नाम इसके मूल स्थान कोलकाता में कालीघाट के नाम पर पड़ा है। कालीघाट कोलकाता में काली मंदिर के …
- प्राचीन काल में चित्रकला में प्रयुक्त सामग्री | Material Used in Ancient Artविभिन्न प्रकार के चित्रों में विभिन्न सामग्रियों का उपयोग किया जाता था। साहित्यिक स्रोतों में चित्रशालाओं (आर्ट गैलरी) और शिल्पशास्त्र …
- डेनियल चित्रकार | टामस डेनियल तथा विलियम डेनियल | Thomas Daniels and William Danielsटामस तथा विलियम डेनियल भारत में 1785 से 1794 के मध्य रहे थे। उन्होंने कलकत्ता के शहरी दृश्य, ग्रामीण शिक्षक, …
- मिथिला चित्रकला | मधुबनी कला | Mithila Paintingमिथिला चित्रकला, जिसे मधुबनी लोक कला के रूप में भी जाना जाता है. बिहार के मिथिला क्षेत्र की पारंपरिक कला है। यह गाँव …
- भारतीय चित्रकला | Indian Artपरिचय टेराकोटा पर या इमारतों, घरों, बाजारों और संग्रहालयों की दीवारों पर आपको कई पेंटिंग, बॉल हैंगिंग या चित्रकारी दिख …
- भारत में विदेशी चित्रकार | Foreign Painters in Indiaआधुनिक भारतीय चित्रकला के विकास के आरम्भ में उन विदेशी चित्रकारों का महत्वपूर्ण योग रहा है जिन्होंने यूरोपीय प्रधानतः ब्रिटिश, …
- सजावटी चित्रकला | Decorative Artsभारतीयों की कलात्मक अभिव्यक्ति केवल कैनवास या कागज पर चित्रकारी करने तक ही सीमित नहीं है। घरों की दीवारों पर …
- बी. प्रभानागपुर में जन्मी बी० प्रभा (1933 ) को बचपन से ही चित्र- रचना का शौक था। सोलह वर्ष की आयु में …
- दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर | Dattatreya Damodar Devlalikar Biographyअपने आरम्भिक जीवन में “दत्तू भैया” के नाम से लोकप्रिय श्री देवलालीकर का जन्म 1894 ई० में हुआ था। वे …
- शैलोज मुखर्जीशैलोज मुखर्जी का जन्म 2 नवम्बर 1907 दन को कलकत्ता में हुआ था। उनकी कला चेतना बचपन से ही मुखर …
- नारायण श्रीधर बेन्द्रे | Narayan Shridhar Bendreबेन्द्रे का जन्म 21 अगस्त 1910 को एक महाराष्ट्रीय मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज पूना में रहते …
- रवि वर्मा | Ravi Verma Biographyरवि वर्मा का जन्म केरल के किलिमन्नूर ग्राम में अप्रैल सन् 1848 ई० में हुआ था। यह कोट्टायम से 24 …
- के०सी० एस० पणिक्कर | K.C.S.Panikkarतमिलनाडु प्रदेश की कला काफी पिछड़ी हुई है। मन्दिरों से उसका अभिन्न सम्बन्ध होते हुए भी आधुनिक जीवन पर उसकी …
- भूपेन खक्खर | Bhupen Khakharभूपेन खक्खर का जन्म 10 मार्च 1934 को बम्बई में हुआ था। उनकी माँ के परिवार में कपडे रंगने का …
- बम्बई आर्ट सोसाइटी | Bombay Art Societyभारत में पश्चिमी कला के प्रोत्साहन के लिए अंग्रेजों ने बम्बई में सन् 1888 ई० में एक आर्ट सोसाइटी की …
- परमजीत सिंह | Paramjit Singhपरमजीत सिंह का जन्म 23 फरवरी 1935 अमृतसर में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा के उपरान्त वे दिल्ली पॉलीटेक्नीक के कला …
- अनुपम सूद | Anupam Soodअनुपम सूद का जन्म होशियारपुर में 1944 में हुआ था। उन्होंने कालेज आफ आर्ट दिल्ली से 1967 में नेशनल डिप्लोमा …
- देवकी नन्दन शर्मा | Devki Nandan Sharmaप्राचीन जयपुर रियासत के राज-कवि के पुत्र श्री देवकी नन्दन शर्मा का जन्म 17 अप्रैल 1917 को अलवर में हुआ …
- ए० रामचन्द्रन | A. Ramachandranरामचन्द्रन का जन्म केरल में हुआ था। वे आकाशवाणी पर गायन के कार्यक्रम में भाग लेते थे। कुछ समय पश्चात् …