श्वेताम्बर जैन धर्म की अनेक सचित्र पोथियाँ 1100 ई० से 1500 ई० के मध्य विशेष रूप से लिखी गई। इस प्रकार की चित्रित पोथियों से भविष्य की कला-शैली की एक आधारशिला तैयार होने लगी थी, इस कारण इस कलाधारा का ऐतिहासिक महत्त्व है। इस शैली के नाम के सम्बन्ध में अनेक विवाद हैं और इस शैली को जैन शैली, गुजरात शैली, पुस्तक शैली, सुलिपि शैली,पश्चिमी भारत शैली (पश्चिमी भारतीय शैली) तथा अपभ्रंश शैली के नामों से पुकारा गया है। सर्वप्रथम इस शैली का पता कुछ चित्रित जैन ग्रन्थों से लगा था अतः इसे जैन शैली कहा गया। तभी अहमदाबाद में बसन्त – विलास नामक चित्रित पट मिला तो इस शैली के जैन शैली वाला नामकरण समाप्त कर इसे गुजरात शैली कहा जाने लगा।
जैन शैली का उपयुक्त नाम– डॉ० आनन्द कुमार स्वामी ने 1642 ई० में बर्लिन म्युजियम’ में सुरक्षित ‘कल्पसूत्र’ की एक सचित्र प्रति पाई। इस ‘कल्पसूत्र’ की प्रति के चित्रों का परिचय प्रकाशित करके उन्होंने कला आलोचकों में गुजरात क्षेत्र से विकसित कला शैली के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न की।
कुछ ही समय पश्चात् कुछ ऐसे ग्रन्थ मिले जो ब्राह्मण धर्म से सम्बन्धी थे और गुजरात के बाहर के थे अतएव कुमार स्वामी ने इसे पश्चिमी भारतीय शैली का नाम दिया। ‘बालगोपाल-स्तुति’, ‘गीत-गोविंद’, ‘रतिरहस्य’ तथा ‘दुर्गासप्तशती’ आदि सचित्र ग्रंथ भी प्राप्त हुए जो इस शैली के थे। ये ग्रंथ ऐसे थे जिनका न तो गुजरात से कोई सम्बन्ध था और न जैन धर्म से ही कोई सम्बन्ध था। अतः डॉ० आनंद कुमार स्वामी ने इस शैली का नाम लामा तारानाथ के द्वारा दिये गए नाम ‘पश्चिमी भारत शैली’ का समर्थन करते हुए इस शैली का नवीन नाम ‘पश्चिम भारतीय शैली’ माना।
किन्तु इस शैली के चित्र मालवा, जौनपुर, बंगाल, उड़ीसा और दक्षिण भारत में भी प्राप्त हुए है, अत: इस शैली का नाम पश्चिमी भारतीय शैली भी नहीं हो सका और कुमार स्वामी के पश्चात रायकृष्ण दास जी ने इसे अपभ्रंश नाम दिया उनके अनुसार, “इस शैली में कोई प्रगति वाली विशेषता नहीं है और सब कुछ विकत हो गया है अत: इसे अपभ्रंश शैली (बुरी तरह बिगड़ी हुई कहा जाना चाहिए।”
स्व० नान्हलाल चमनलाल मेहता ने 1624 ई० में गुजरात शैली के नाम से इस शैली का विवेचन ‘रूपम्’ नामक पत्रिका में प्रकाशित किया स्व० मेहता के इस निबन्ध का आधार गुजरात में प्राप्त ‘वसन्तविलास’ की संस्कृत-गुजराती मिश्रित एक काव्य-पत्री थी।
कपड़े की इस पट्टी (चित्रित पट) का लिपिकाल 1451 ई० है। इस लम्बे पत्रीनुमा पट पर ७६ चित्र अंकित हैं। ये चित्र जैन धर्म से सम्बन्धित हैं। स्व० मेहता ने इन चित्रों को ‘गुजरात शैली’ के नाम से पुकारा। उन्होंने 1626 ई० में प्रकाशित अपनी पुस्तक ‘स्टडीज़ इन इंडियन पेंटिंग में इन चित्रों का उल्लेख दिया।
उन्होंने इस सम्बन्ध में स्वतंत्र रूप में एक अध्याय ‘स्टडीज़ इन इंडियन पेंटिंग ऑफ गुजरात’, लिखकर प्रमाणित विवरण प्रस्तुत किये। इस चित्रित-पट में काव्य के आधार पर बसंत की शोभा को अत्यन्त सजीव ढंग से चित्रित किया गया है।
ग्यारहवीं शताब्दी से पन्द्रहवीं शताब्दी के मध्य पश्चिमी भारत में जिन सचित्र ग्रंथों को तैयार किया गया, उनका विषय यद्यपि जैनेत्तर भी था, परन्तु इन ग्रंथों का मुख्य विषय जैन धर्म था, इसलिए इन ग्रंथों के चित्रों की शैली का एक तीसरा नाम ‘जैन शैली’ प्रस्तुत किया गया। इस नाम से सहमत होकर परसी ब्राउन तथा अन्य लेखकों ने इसे इसी नाम से सम्बोधित किया है। इन चित्रों को यह नाम इसलिए भी प्रदान किया गया कि यह विश्वास किया जाता रहा है कि ये चित्र जैन साधुओं के द्वारा बनाये गए हैं।
कालान्तर में इस शैली के अनेक सचित्र ग्रंथ, अहमदाबाद तथा गुजरात के बाहर मारवाड़, मालवा, पंजाब तथा पूर्वी भारत में जीनपुर (उत्तर प्रदेश), अवध (उत्तर प्रदेश), बंगाल, उड़ीसा, नेपाल के अतिरिक्त ब्रह्मा (बर्मा) तथा श्याम में भी प्राप्त हुए।
इस शैली की जौनपुर में बनी ‘कल्पसूत्र’ की एक चित्रित प्रति साराभाई ने प्राप्त की। जौनपुर (उत्तर प्रदेश) उत्तर भारत के पूर्व में स्थित है, अतः जो शैली पूर्वी भारत तक प्रचलित थी उसको ‘पश्चिमी भारतीय शैली’ के नाम से पुकारना ठीक नहीं और तारानाथ या डॉ० कुमार स्वामी का मत उपयुक्त नहीं है।
कल्पसूत्र की इस प्रति का समय 1465 ई० है और इस प्रति के लिपिकार पं० कर्णसिंह के पुत्र श्री देवीदास गौड़ कायस्थ हैं। गौड़ कायस्थों का निवास स्थान विशेष रूप से उत्तर प्रदेश का पूर्वी भाग, बंगाल तथा बिहार था वे गौड़ कायस्थ जो उत्तर प्रदेश की ओर आ गये थे, अब पुनः मुसलमानों के आगमन से पूर्वी भारत की ओर चले गये।
जैसे बंगाल के पाल वंश के राजा देवपाल के लेखक कायस्थ थे, ऐसा उल्लेख मिलता है। इस प्रकार यह स्पष्ट है कि यह शैली गुजरात या पश्चिम भारत तक ही सीमित नहीं रही और इसका प्रसार पूर्वी भारत तथा नेपाल में भी हुआ। इस प्रकार इस शैली के बारे में यह धारणा भी भ्रमपूर्ण सिद्ध हुई कि इसे एक सीमित क्षेत्र की कला मानकर ‘पश्चिम भारतीय शैली’ या ‘गुजरात शैली’ के नाम से पुकारा जाय।
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इसी प्रकार 1626 ई० में श्री गांगुली ने ‘बाल गोपाल स्तुति’ के वैष्णव-धर्म से सम्बन्धित चित्रों की सूचना दी जो इस शैली के थे। इसी प्रकार ‘बसन्तविलास’ और ‘चोरापंचशिखा’ आदि पोथियों के चित्र भी जैनेत्तर हैं। इस प्रकार यह शैली जैन धर्म के अतिरिक्त वैष्णव धर्म के ग्रंथों या जैनेत्तर ग्रंथों में भी प्रयुक्त हुई, अतः ‘जैन शैली’ नाम भी सार्थक सिद्ध प्रतीत नहीं होता।
अतः इन सब कारणों को ध्यान में रखते हुए डॉ० मोती चन्द्र तथा राव कृष्ण दास ने इस शैली को अपभ्रंश शैली’ के नाम से पुकारना अधिक उपयुक्त समझा है। उनका मत है कि यह शैली अपने निजत्व को खो चुकी थी और एक महान शैली (अजन्ता शैली) के विकृत रूप को प्राप्त थी, इसलिए इस शैली के लिए अपभ्रंश शब्द ही एक ऐसा शब्द है जिसके द्वारा तत्कालीन विकृति को प्राप्त शैलियों या परिवर्तनशील कला प्रवृत्तियों की अभिव्यंजना हो सकती है।
अपभ्रंश शैली के चित्रों की विशेषताएँ
इस शैली में पूर्ववर्ती शैलियों की तुलना में हास और निर्बलता के चिन्ह अधिक हैं। कदाचित इस निर्बलता का कारण यह भी हो सकता है कि ये चित्रित जैन पोथियाँ धर्म अनुयायियों द्वारा जनता में बाँटी जाती थीं। इस कारण इन पोथियों की अत्यधिक माँग थी जिसको पूरा करने के लिये जैन मुनि या आचार्य, चित्रकार तथा लिपिक शीघ्रता से कार्य करते थे और पोथियाँ लिखते थे।
इस शीघ्रता के कारण यह आशा नहीं की जा सकती कि चित्र लिखाई की सावधानी, कारीगरी और वक्रीय रेखांकन की पूर्णता को प्राप्त कर पाते। चित्र की लिखाई में जल्दबाजी होने के कारण कमजोरी और कठोरता आ गई है और आकृतियों की लिखाई में सुमधुर गोलाई के स्थान पर तीक्ष्ण कोणात्मकता का प्रयोग किया गया है।
इन चित्रों में मानव आकृतियों के चेहरे सवाचश्म है और एक ही ढंग के बने हैं। नाक अनुपात से अधिक लम्बी और नुकीली बनायी गई है जो परले गाल की सीमा रेखा से आगे निकल गई है।
चेहरे सवाचश्म और एक ही आकार-प्रकार (केंडे) के बनाये गए हैं। चिबुक (chin) आम की गुठली के समान चपटी और छोटी है, आँखें पास-पास और बड़ी बड़ी बनायी गई है और उनकी रचना दो वक्रों के द्वारा की गई है।
पुतली बनाने के लिए इन वक्रों के मध्य एक बिन्दी लगा दी गई है जो अनुपात रहित और गोलाई रहित है। नेत्र चेहरे की सीमारेखा से बाहर रहने के कारण आँखों में उग्रता का भाव है और बाहर निकली दिखाई पड़ती हैं।
उंगलियों का रेखांकन कठोर, निर्बल और अत्यधिक आलंकारिक तथा रूढ़िवद्ध है। पेट का भाग बहुत बड़ा बनाया गया है और छाती उभरी हुई बनायी गई है। पशु-पक्षी तथा मानव आकृतियाँ रुई के गुड्डों या गुजरात की कठपुतलियों के समान प्रतीत होती है। बादल रुई के ढेर के समान दिखाई पड़ते हैं।
चित्रों में अनेक आकृतियों की रेखाएँ काले रंग से अंकित की गई है। आकृतियों में गोलाई लाने के लिये छाया का प्रयोग किया गया है। यह छाया बारीक काली रेखाओं से लगायी गई है।
कुछ विद्वानों का विचार है कि ये रेखाएँ निब से बनायी गई हैं। परन्तु वास्तव में रेखाएँ तूलिका से ही बनायी गई हैं। कलाकार के हाथ में निर्बलता और कठोरता आ जाने के कारण रेखा में बारीकी और क्रमिक मोटापन तथा पतलापन नहीं है। ये रेखाएँ बराबर मोटाई की बनायी गई हैं।
इसी कारण इन रेखाओं से निब से बनी रेखाओं का भ्रम होता है। इन रेखाओं की अकुशलता का किसी सीमा तक एक कारण यह भी हो सकता है कि ये चित्र भारत की भित्तिचित्रण पद्धति पर कार्य करने वाले कलाकार ही बना रहे थे।
भित्ति पर चित्रकार को बड़े चित्र बनाने में रेखा की पूर्णता दिखाने में अपनी योग्यता दिखाने का अधिक अवसर था परन्तु जब भित्ति चित्रण परम्परा के वंशज चित्रकारों के हाथ में लघु चित्र का कार्य आया तो वह रेखा को अत्यधिक बारीक (महीन) नहीं बना सके और उनकी रेखा तालपत्रीय या कागज़ी लघुचित्रों के अनुकूल नहीं बन सकी।
कुछ लेखकों ने इन पोथीचित्रों को जैन साधुओं के द्वारा बनाया हुआ माना है परन्तु यह बाल संगत नहीं। वास्तव में यह चित्र अधिकांश साधारण व्यवसायी चित्रकारों के द्वारा बनाये जाते थे, जिनको पारिश्रमिक बहुत कम मिलता था। इस प्रकार के दो चित्रकारों के आज नाम भी प्राप्त होते हैं जिससे प्रतीत होता है कि ये चित्र साधुओं ने नहीं बनाये।
अपभ्रंश शैली के चित्रों में अधिकांश चमकदार उष्ण रंगों का प्रयोग है। पृष्ठभूमि में बहुधा लाल रंग का सपाट प्रयोग किया गया है और फाख्तई, पीले, श्वेत, नीले रंगों का समावेश किया गया है। तीर्थाांकरों के अनेक रूपों में भिन्न प्रकार के रंगों का प्रयोग है। महावीर की आकृति में पीला, पार्श्वनाथ की आकृति में नीला, नेमीनाथ की आकृति में काला और ऋषभनाथ की आकृति में स्वर्णिम वर्ण का प्रयोग है।
अपभ्रंश शैली में प्राकृतिक रूपों को भुला दिया गया है अतः स्वाभाविकता नष्ट हो गई है। प्रत्येक आकृति का रूढ़ि या परम्परा के आधार पर निर्माण किया गया है अतः चित्र निर्जीव तथा भद्दे हैं।
अपभ्रंश शैली के कुछ प्रमुख तथ्य
1. इस शैली में वस्तुओं के प्राकृतिक रूपों को भुला दिया गया है जिससे उनकी स्वाभाविकता नष्ट हो गयी है।
2. प्रत्येक आकृति की रूढ़ि बन गयी है। निरन्तर रूढ़ियों पर चलते रहने के कारण चित्रकार रूड़ियों का अर्थ भूल गये हैं और उनका निरर्थक एवं भद्दा रूप ही शेष रह गया है।
3. अपभ्रंश शैली में चेहरे आदि से भावाभिव्यक्ति समाप्त हो जाने के कारण सम्पूर्ण चित्र के वातावरण और आकृतियों की मुद्राओं से ही घटना अथवा कथा-वस्तु का अनुमान लगाना पड़ता है।
4. आकृतियों को व्यक्तिगत विशेषतायें समाप्त होकर सामान्य रूपों का विकास हुआ है। प्रत्येक आकृति के लक्षण, वेशभूषा आदि निश्चित से हो गये हैं। महान पुरूषों को बड़े में तथा अन्य जनों को छोटे आकारों में बनाया गया है।
5. प्राय: सभी चेहरे सवा चश्म तथा एक ही ढंग से बनाये गये हैं, जिनकी नाक लम्बी और परले गाल के बाहर तक निकली है। ठुड्डी बहुत छोटी और आम की गुठली के आकार की है। आँखें कुछ नुकीली, पास-पास और कटे परवल की फाँक जैसी, आँखों की कटाक्ष रेखा दूर तक बढ़ी हुई और पुतली बहुत छोटी, दूसरी आँख चेहरे से बाहर निकली हुई मानों अलग से जोड़ दी गयी हो तथा भौहे कहीं-कहीं मिली हुई बनायी गयी हैं।
6. अंगुलियाँ ऐंठी हुई सी प्रतीत होती हैं। उनके सिरे कपड़े की बत्ती जैसे प्रतीत होते हैं। वक्ष बहुत आगे निकला एवं कटि एकदम क्षीण बनायी गयी है।
7. अंग-भंगिमाओं एवं मुद्राओं में जकड़न है।
8. प्रकृति का अंकन अलंकारिक रूप में हुआ है। पशु-पक्षी ऐसे लगते हैं जैसे कपड़े के बने खिलौने हो।
9. बहुत कम रंगों का प्रयोग हुआ है। लाल-नीला तथा पीला रंग प्रमुखता के साथ लगाये गये हैं। आगे चलकर पीले रंग का स्थान सुनहरी रंग में ले लिया है।
10. सीमा रेखायें काली स्याही से बनायी हुई ऐसी प्रतीत होती है जैसे कड़ी वस्तु अथवा वारीक कलम से बनायी गयी हों। उनमें कहीं भी लोच नहीं है। प्रत्येक स्थान पर ये एक सी लोच लिये हुये हैं। काले रंग में होने के कारण वे लिखावट जैसी प्रतीत होती हैं।
11. चित्रांकन बहुत ही जल्दबाजी में किया गया जान पड़ता है और अनाड़ी अथवा कुपढ़ चित्रकारों को कला होने के कारण इस शैली में बहुत दुर्बलता है।
12. रेखायें वर्तुलाकार के स्थान पर कोणात्मक प्रभाव उत्पन्न करती हैं। फिर भी इस शैली की रंग योजना काफी आकर्षक है। सुवर्ण के प्रयोग से इसकी चमक-दमक बढ़ गयी है। मुद्राओं में अकड़ जकड़ होते हुये भी चित्रों में गति है।
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- देवी प्रसाद राय चौधरी | Devi Prasad Raychaudhariदेवी प्रसाद रायचौधुरी का जन्म 1899 ई० में पू० बंगाल (वर्तमान बांग्लादेश) में रंगपुर जिले के ताजहाट नामक ग्राम में … Read more
- अब्दुर्रहमान चुगताई (1897-1975) वंश परम्परा से ईरानी और जन्म से भारतीय श्री मुहम्मद अब्दुर्रहमान चुगताई अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के ही एक प्रतिभावान् शिष्य थे … Read more
- हेमन्त मिश्र (1917)असम के चित्रकार हेमन्त मिश्र एक मौन साधक हैं। वे कम बोलते हैं। वेश-भूषा से क्रान्तिकारी लगते है अपने रेखा-चित्रों … Read more
- विनोद बिहारी मुखर्जी | Vinod Bihari Mukherjee Biographyमुखर्जी महाशय (1904-1980) का जन्म बंगाल में बहेला नामक स्थान पर हुआ था। आपकी आरम्भिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई … Read more
- के० वेंकटप्पा | K. Venkatappaआप अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के आरम्भिक शिष्यों में से थे। आपके पूर्वज विजयनगर के दरबारी चित्रकार थे विजय नगर के पतन … Read more
- शारदाचरण उकील | Sharadacharan Ukilश्री उकील का जन्म बिक्रमपुर (अब बांगला देश) में हुआ था। आप अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रमुख शिष्यों में से थे। … Read more
- मिश्रित यूरोपीय पद्धति के राजस्थानी चित्रकार | Rajasthani Painters of Mixed European Styleइस समय यूरोपीय कला से राजस्थान भी प्रभावित हुआ। 1851 में विलियम कारपेण्टर तथा 1855 में एफ०सी० लेविस ने राजस्थान को प्रभावित … Read more
- रामकिंकर वैज | Ramkinkar Vaijशान्तिनिकेतन में “किकर दा” के नाम से प्रसिद्ध रामकिंकर का जन्म बांकुड़ा के निकट जुग्गीपाड़ा में हुआ था। बाँकुडा में … Read more
- कनु देसाई | Kanu Desai(1907) गुजरात के विख्यात कलाकार कनु देसाई का जन्म – 1907 ई० में हुआ था। आपकी कला शिक्षा शान्ति निकेतन … Read more
- नीरद मजूमदार | Nirad Majumdaarनीरद (अथवा बंगला उच्चारण में नीरोद) को नीरद (1916-1982) चौधरी के नाम से भी लोग जानते हैं। उनकी कला में … Read more
- मनीषी दे | Manishi Deदे जन्मजात चित्रकार थे। एक कलात्मक परिवार में उनका जन्म हुआ था। मनीषी दे का पालन-पोषण रवीन्द्रनाथ ठाकुर की. देख-रेख … Read more
- सुधीर रंजन खास्तगीर | Sudhir Ranjan Khastgirसुधीर रंजन खास्तगीर का जन्म 24 सितम्बर 1907 को कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता श्री सत्यरंजन खास्तगीर छत्ताग्राम (आधुनिक … Read more
- ललित मोहन सेन | Lalit Mohan Senललित मोहन सेन का जन्म 1898 में पश्चिमी बंगाल के नादिया जिले के शान्तिपुर नगर में हुआ था ग्यारह वर्ष … Read more
- नन्दलाल बसु | Nandlal Basuश्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर की शिष्य मण्डली के प्रमुख साधक नन्दलाल बसु थे ये कलाकार और विचारक दोनों थे। उनके व्यक्तित्व … Read more
- रणबीर सिंह बिष्ट | Ranbir Singh Bishtरणबीर सिंह बिष्ट का जन्म लैंसडाउन (गढ़बाल, उ० प्र०) में 1928 ई० में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा गढ़वाल में ही … Read more
- रामगोपाल विजयवर्गीय | Ramgopal Vijayvargiyaपदमश्री रामगोपाल विजयवर्गीय जी का जन्म बालेर ( जिला सवाई माधोपुर) में सन् 1905 में हुआ था। आप महाराजा स्कूल … Read more
- रथीन मित्रा (1926)रथीन मित्रा का जन्म हावड़ा में 26 जुलाई को 1926 में हुआ था। उनकी कला-शिक्षा कलकत्ता कला-विद्यालय में हुई । … Read more
- मध्यकालीन भारत में चित्रकला | Painting in Medieval Indiaदिल्ली में सल्तनत काल की अवधि के दौरान शाही महलों, शयनकक्षों और मसजिदों से भित्ति चित्रों के साक्ष्य मिले हैं। … Read more
- रमेश बाबू कन्नेकांति की पेंटिंग | Eternal Love By Ramesh Babu Kannekantiशिव के चार हाथ शिव की कई शक्तियों को दर्शाते हैं। पिछले दाहिने हाथ में ढोल है, जो ब्रह्मांड के … Read more
- प्रगतिशील कलाकार दल | Progressive Artist Groupकलकत्ता की तुलना में बम्बई नया शहर है किन्तु उसका विकास बहुत अधिक और शीघ्रता से हुआ है। 1911 में … Read more
- आधुनिक काल में चित्रकला18वीं सदी के अंत और 19वीं सदी की शुरुआत में, चित्रों में अर्द्ध-पश्चिमी स्थानीय शैली शामिल हुई, जिसे ब्रिटिश निवासियों … Read more
- रमेश बाबू कनेकांति | Painting – A stroke of luck By Ramesh Babu Kannekantiगणेश के हाथी के सिर ने उन्हें पहचानने में आसान बना दिया है। भले ही वह कई विशेषताओं से सम्मानित … Read more
- सतीश गुजराल | Satish Gujral Biographyसतीश गुजराल का जन्म पंजाब में झेलम नामक स्थान पर 1925 ई० में हुआ था। केवल दस वर्ष की आयु … Read more
- पटना चित्रकला | पटना या कम्पनी शैली | Patna School of Paintingऔरंगजेब द्वारा राजदरबार से कला के विस्थापन तथा मुगलों के पतन के बाद विभिन्न कलाकारों ने क्षेत्रीय नवाबों के यहाँ आश्रय … Read more
- रमेश बाबू कन्नेकांति | Painting – Tranquility & harmony By Ramesh Babu Kannekantiयह कला पहाड़ी कलाकृतियों की 18वीं शताब्दी की शैली से प्रेरित है। इस आनंदमय दृश्य में, पार्वती पति भगवान शिव … Read more
- आगोश्तों शोफ्त | Agoston Schofftशोफ्त (1809-1880) हंगेरियन चित्रकार थे। उनके विषय में भारत में बहुत कम जानकारी है। शोफ्त के पितामह जर्मनी में पैदा हुए … Read more
- कालीघाट चित्रकारी | Kalighat Paintingकालीघाट चित्रकला का नाम इसके मूल स्थान कोलकाता में कालीघाट के नाम पर पड़ा है। कालीघाट कोलकाता में काली मंदिर के … Read more
- प्राचीन काल में चित्रकला में प्रयुक्त सामग्री | Material Used in Ancient Artविभिन्न प्रकार के चित्रों में विभिन्न सामग्रियों का उपयोग किया जाता था। साहित्यिक स्रोतों में चित्रशालाओं (आर्ट गैलरी) और शिल्पशास्त्र … Read more
- डेनियल चित्रकार | टामस डेनियल तथा विलियम डेनियल | Thomas Daniels and William Danielsटामस तथा विलियम डेनियल भारत में 1785 से 1794 के मध्य रहे थे। उन्होंने कलकत्ता के शहरी दृश्य, ग्रामीण शिक्षक, … Read more
- मिथिला चित्रकला | मधुबनी कला | Mithila Paintingमिथिला चित्रकला, जिसे मधुबनी लोक कला के रूप में भी जाना जाता है. बिहार के मिथिला क्षेत्र की पारंपरिक कला है। यह गाँव … Read more
- भारतीय चित्रकला | Indian Artपरिचय टेराकोटा पर या इमारतों, घरों, बाजारों और संग्रहालयों की दीवारों पर आपको कई पेंटिंग, बॉल हैंगिंग या चित्रकारी दिख … Read more
- भारत में विदेशी चित्रकार | Foreign Painters in Indiaआधुनिक भारतीय चित्रकला के विकास के आरम्भ में उन विदेशी चित्रकारों का महत्वपूर्ण योग रहा है जिन्होंने यूरोपीय प्रधानतः ब्रिटिश, … Read more
- सजावटी चित्रकला | Decorative Artsभारतीयों की कलात्मक अभिव्यक्ति केवल कैनवास या कागज पर चित्रकारी करने तक ही सीमित नहीं है। घरों की दीवारों पर … Read more
- बी. प्रभानागपुर में जन्मी बी० प्रभा (1933 ) को बचपन से ही चित्र- रचना का शौक था। सोलह वर्ष की आयु में … Read more
- दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर | Dattatreya Damodar Devlalikar Biographyअपने आरम्भिक जीवन में “दत्तू भैया” के नाम से लोकप्रिय श्री देवलालीकर का जन्म 1894 ई० में हुआ था। वे … Read more
- शैलोज मुखर्जीशैलोज मुखर्जी का जन्म 2 नवम्बर 1907 दन को कलकत्ता में हुआ था। उनकी कला चेतना बचपन से ही मुखर … Read more
- नारायण श्रीधर बेन्द्रे | Narayan Shridhar Bendreबेन्द्रे का जन्म 21 अगस्त 1910 को एक महाराष्ट्रीय मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज पूना में रहते … Read more
- रवि वर्मा | Ravi Verma Biographyरवि वर्मा का जन्म केरल के किलिमन्नूर ग्राम में अप्रैल सन् 1848 ई० में हुआ था। यह कोट्टायम से 24 … Read more
- के०सी० एस० पणिक्कर | K.C.S.Panikkarतमिलनाडु प्रदेश की कला काफी पिछड़ी हुई है। मन्दिरों से उसका अभिन्न सम्बन्ध होते हुए भी आधुनिक जीवन पर उसकी … Read more
- भूपेन खक्खर | Bhupen Khakharभूपेन खक्खर का जन्म 10 मार्च 1934 को बम्बई में हुआ था। उनकी माँ के परिवार में कपडे रंगने का … Read more
- बम्बई आर्ट सोसाइटी | Bombay Art Societyभारत में पश्चिमी कला के प्रोत्साहन के लिए अंग्रेजों ने बम्बई में सन् 1888 ई० में एक आर्ट सोसाइटी की … Read more
- परमजीत सिंह | Paramjit Singhपरमजीत सिंह का जन्म 23 फरवरी 1935 अमृतसर में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा के उपरान्त वे दिल्ली पॉलीटेक्नीक के कला … Read more
- अनुपम सूद | Anupam Soodअनुपम सूद का जन्म होशियारपुर में 1944 में हुआ था। उन्होंने कालेज आफ आर्ट दिल्ली से 1967 में नेशनल डिप्लोमा … Read more
- देवकी नन्दन शर्मा | Devki Nandan Sharmaप्राचीन जयपुर रियासत के राज-कवि के पुत्र श्री देवकी नन्दन शर्मा का जन्म 17 अप्रैल 1917 को अलवर में हुआ … Read more
- ए० रामचन्द्रन | A. Ramachandranरामचन्द्रन का जन्म केरल में हुआ था। वे आकाशवाणी पर गायन के कार्यक्रम में भाग लेते थे। कुछ समय पश्चात् … Read more