पुनरुत्थान काल में भारतीय कला के प्रमुख प्रशंसक एवं लेखक
डा० आनन्द कुमारस्वामी (1877-1947 ई०)- भारतीय कला के पुनरुद्धारक, विचारक, आलोचक तथा उसे विश्व के कला जगत् में उचित एवं सम्मानपूर्ण स्थान दिलाने के लिए जीवन भर संघर्षरत रहने वाले सरस्वती के अपर सपूत आनन्द केटिश कुमारस्वामी का योगदान भी आधुनिक भारतीय चित्रकला के पुररुत्थान काल के चित्रकारों की तुलना में कम नहीं है ।
उनका जन्म श्री लंका के कोलम्बो नामक नगर में 7 अगस्त 1877 ई० को एक सम्भ्रान्त परिवार में हुआ था। उनके पिता श्री मुत्तु कुमारस्वामी तमिल तथा माता एलिजावेथ क्ले बीबी इंग्लैण्ड के केण्ट नगर की थी ।
उस समय तक अंग्रेज लंका में से पुर्तगालियों तथा डचों का प्रभाव समाप्त कर चुके थे और उन्होंने वहां अपने पैर अच्छी तरह जमा लिये थे। उनके पिता का श्री लंका में वही सम्मान था जो भारत में राजाराम मोहन राय तथा टैगोर परिवार का था।
वे इंग्लैण्ड में जाकर कानून पढने वाले प्रथम गैर ईसाई, गर यहूदी तथा एशियाई व्यक्ति थे। ये बड़े प्रतिभावान थे और अनेक अंग्रेज उनके मित्र थे। वहीं भारतीय दर्शन पर एक व्याख्यान देते समय उनकी भेंट एलिजावेथ क्ले से हुई थी जो अपूर्व सुन्दरी थी।
श्री मुत्तु ने उनसे विवाह कर लिया और कोलम्बो लौट आये। पुत्र का जन्म होने पर उन्होंने बुद्ध के शिष्य के नाम पर उसका नाम आनन्द रखा। केण्टिश तथा कुमारस्वामी शब्द उनके नाम के साथ माता और पिता के चिन्ह के रूप में जुड़ गये।
लंका की गर्म जलवायु न सह पाने के कारण उनकी माता उन्हें लेकर दूसरे ही दिन इंग्लैण्ड चली गर्यो उनके पिता व्यस्तता के कारण पौने दो वर्ष पश्चात् जब लंका से इग्लैण्ड को चले तो उनकी मृत्यु हो गयी ।
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अतः बालक आनन्द का पालन-पोषण उनकी माता द्वारा ही हुआ। बचपन से ही उनमें कुछ विशेष आदतें विकसित हुई। वे पूर्णतः शाकाहारी थे।
कुशाग्र बुद्धि के कारण वे स्कूल में सबके प्रिय हो गये। 18 वर्ष की आयु में भूगर्भविज्ञान पर उनका एक लेख प्रकाशित हुआ। उन्होंने मांसाहार के विरोध में इंग्लैण्ड में पशु-वध रोकने का भी प्रयत्न क्रिया।
लन्दन विश्वविद्यालय से भूगर्भ विज्ञान में बी० एस० सी० की उपाधि प्राप्त करके आनन्द लका लौटे।
लंका में उन्होंने खनिजों तथा भूगर्भ पर प्रशंसनीय खोज की जिसके परिणाम स्वरूप ब्रिटिश सरकार ने उनको डाइरेक्टर बनाते हुए लंका में खनिज विज्ञान का एक विभाग खोला।
यहां शोध करके उन्होंने खनिज विज्ञान पर डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की ।
कुमारस्वामी लंका में केवल तीन वर्ष रहे। इस अवधि में वहां की अनेक यात्राओं में ये लका के शिल्पियों के सम्पर्क में आये ।
श्रीलंका के संग्रहालयों के द्वारा उन्होंने लंका तथा भारत की कला-परम्पराओं का अन्तरंग परिचय प्राप्त किया उन्होंने खनिज विज्ञान में जिन विश्लेषण-पद्धतियों का प्रयोग किया था उन्हीं को उन्होंने कलाओं के वर्गीकरण में भी अपनाया ।
धीरे-धीरे वे विज्ञान के क्षेत्र से कला और दर्शन की ओर मुड़ गये यूरोपियन रहन – सहन होते हुए भी वे विचारों में पूर्णतः लंका, भारत और एशिया के हो गये कुमारस्वामी में यह परिवर्तन लाने वाले तीन वर्ष अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है।
उन्होंने सीलोन नेशनल रिव्यू का सम्पादन तथा प्रकाशन किया, भारतीय वेश का प्रचार किया और राष्ट्रीयता की भावना को प्रोत्साहित किया। 1907 में उन्होंने इंग्लैण्ड में एक प्रेस खरीदा और वहीं से भारतीय कला पर उनकी पुस्तकें प्रकाशित होने लगीं ।
पहले उन्हें बौद्ध धर्म में रूचि उत्पन्न हुई फिर धर्म के सहारे लंका तथा भारत में रूचि हुई ।
उन्होंने लंका तथा भारत के इतिहास और संस्कृति का गम्भीर अध्ययन किया उन्होंने अनुभव किया कि विदेशियों के आने से लंका एवं भारतीय कलाओं की पर्याप्त हानि हुई है।
1904 में उन्होंने लंका में इस विषय पर एक व्याख्यान दिया और 1908 में मध्यकालीन लंका की कला पर एक पुस्तक प्रकाशित की ।
कुमारस्वामी ने राष्ट्रीय आदर्शवाद का सिद्धान्त उद्घोषित किया और ब्रिटिश सामाज्यवाद की कटु आलोचना की।
इस समय भारत में ब्रिटिश साम्राज्य के विरूद्ध राष्ट्रीय स्वतंत्रता का आन्दोलन चल रहा था अतः कुमारस्वामी भारतीय स्वतंत्रता के भी उद्घोषक हो गये ।
उनके तमिल पूर्वज भारतीय थे ही और बौद्ध धर्म के प्रचार में भारतीय कला ने भरपूर सहयोग दिया था।
इन सब कारणों ने कुमारस्वामी को भारतीय सभ्यता, दर्शन, धर्म तथा कला के अध्ययन के लिए प्रेरणा दी। वे भारत भ्रमण पर निकल पड़े तथा अवनीन्द्रनाथ, रवीन्द्रनाथ, गगनेन्द्रनाथ, नन्दलाल वसु, राय कृष्णदास, बैरिस्टर मुकन्दीलाल आदि से मिले ।
वे गरीबों ओर दलितों से भी सहानुभूति रखते थे । उन्होंने भारत में ब्रिटिश सरकार द्वारा किये जा रहे औद्योगीकरण से बेकार होते शिल्पियों और श्रमिकों को देखा।
उनका विश्वास था कि वर्णाश्रम व्यवस्था श्रम के विभाजन पर आधारित है और आधुनिक औद्योगीकरण से यह दूषित होती जा रही है ।
उस समय तक गान्धी जी सामने नहीं आये थे और अन्य कांग्रेसी नेता केवल शासन तंत्र में अधिक से अधिक भागीदारी को ही अपना लक्ष्य बनाये हुए थे ।
बंगाल के ठाकुर परिवार के सांस्कृतिक पुनरूत्थान के प्रयत्नों से कुमारस्वामी बहुत प्रभावित हुए । 1911 में उनकी “राष्ट्रीय आदर्शवाद का दर्शन” पुस्तक छपी ।
इसमें उन्होंने लिखा कि राष्ट्रीयता का निर्माण व्यापारी या राजनीतिज्ञ नहीं करते, बल्कि कवि और कलाकार करते हैं, क्योंकि कवि और कलाकार किसी विचार, आत्म दर्शन के प्रति समर्पित होते हैं, भूमि या धन लाभ के प्रति नहीं ।
अतः यह महत्वपूर्ण नहीं है कि हम भारत में निर्मित वस्तुओं का उपयोग करते हैं या विदेशी वस्तुओं का ।
महत्वपूर्ण तो यह है कि आने वाले युगों में भारतीय संस्कृति जीवित रहेगी या नहीं ।
राष्ट्रीयता’ के लिए जातीय एकता आवश्यक नहीं है, बल्कि भौगोलिक एकता और संस्कृति की एक समान ऐतिहासिक विकासमय परम्परा आवश्यक है ।
पूर्व पर पश्चिम का प्रभुत “श्वेत सकत” है। यूरोपीय वस्तुओं का भारत में प्रयोग हमारी संस्कृति को कुरु कर रहा है ।
हमारी कलाओं तथा शिल्पों की अत्यन्त समृद्ध परम्परा है जिसमें डिजाइन का अतुल भण्डार है। हमारे शिल्पी साधारण से उपकरणों में जा सौन्दर्य भर है हम उनसे विमुख होते जा रहे हैं।
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इनके स्थान पर हम यूरोप की घाटिया वस्तुओं को अपने जीवन में स्थान दे रहे हैं।
इन सभी की विस्तृत चर्चा करते हुए उन्होंन “कला और स्वदेशी” नामक पुस्तक लिखी। यह मदास से 1910 में प्रकाशित हुई।
भारत में जो ब्रिटिश अधिकारी आये उनका प्रयत्न भारतीय संस्कृति को निम् बताने तथा पश्चिमी संस्कृति के भारत में विस्तार का रहा।
उन्होंने यहां की कल को केवल कारीगरी कहा, बुद्ध प्रतिमा का विकास यूनानी रोमन कला से माना और फिर भारत में विदेशी पद्धति की कला शिक्षा के लिए बम्बई, कलकत्ता, मद्रास आदि में कला विद्यालयों की स्थापना की।
पर इन कला विद्यालयों के द्वारा ब्रिटिश सरकार का वास्तविक उद्देश्य ब्रिटिश कला में भारतीयों को पारंगत करना नहीं था बल्कि भारतीय कला परम्पराओं को तोड़ देना मात्र था ।
कुमारस्वामी ने प्राचीन भारतीय कला की विशेषताओं पर महत्वपूर्ण लेख लिखे, बुद्ध प्रतिमा के भारतीय विकास प बल दिया और ब्रिटिश-कला-विद्यालयों को चुनौती देने वाले बंगाल के कला आन्दोलन की प्रशंसा की ।
कुमारस्वामी भारत में सर्वप्रथम 1907 ई० में आये मद्रास के आडयार स्थान पर वे डा० ऐनीबीसेण्ट से मिले और उनकी थियोसोफीकल सोसाइटी के सदस्य बन गये पर इस संस्था के कार्यों से उनको प्रसन्नता नहीं हुई और वे म्यूजियम आफ फाइन आर्ट्स बोस्टन, अमरीका चले गये।
1916 तक वे कई बार भारत आये और यहां तीर्थ यात्रा के समान भ्रमण करके तथा आवश्यक सामग्री जुटाकर पुनः अमेरिक चले गये।
उन्होंने यहां के प्रत्येक वर्ग के लोगों से सम्पर्क किया और धार्मिक तथ प्राचीन ऐतिहासिक स्थलों की यात्रा की।
उन्होंने इन यात्राओं तथा अनुभवों के आधार पर कला-संबंधी अनेक पुस्तकें लिखी।
उन्होंने भारतीय कला पर अपने विचार प्रकट करने वाले उन विदेशी लेखकों की बुद्धि को ठीक करने का प्रयत्न किया जिन्हें भारतीय प्राचीन कला में कोई सौन्दर्य नहीं दिखायी देता था।
यह युग उनके लेखन का सर्वाधिक सृजनशील युग था। उन्होंने राजा रवि वर्मा की आलोचना की, ठाकुर शैली का पक्ष लिया और रवीन्द्रनाथ ठाकुर के चित्रों के आन्तरिक महत्व को सबसे पहले समझा ।
बोस्टन में कुमारस्वामी को श्री रौस मिले जो संग्रहालय में भारतीय कक्ष स्थापित करना चाहते थे ।
काउण्ट ओकाकुरा भी वहाँ पौवत्यि कला का एक विभाग स्थापित करने में लगे हुए थे श्री रौस ने कुमारस्वामी को भारतीय कक्ष का कीपर नियुक्त कर दिया।
कुमारस्वामी ने यहां भारत से हजारो मील दूर भारतीय कला का एक संग्रह बनाया और इसके विकास में अपना समस्त जीवन लगा दिया ।
1917 से 1947 तक अनेक पुस्तकों के माध्यम से उनकी लेखनी की अजस्त्र स्रोतस्विनी फूट पड़ी।
बोस्टन का ललित कला संग्रहालय उनका घर बन गया जहां वे अपना स्वप्न साकार करने में लग गये जिस समय भारत में स्वतंत्रता आन्दोलन चल रहा था, जगह जगह लोगों पर लाठी चार्ज हो रहा था और वे जेलों में भरे जा रहे थे, कुमारस्वामी बोस्टन में प्राचीन भारतीय कला के स्वर्णिम संसार की पुनः सृष्टि कर रहे थे जिसकी आत्मा का मूल सन्देश प्रेम और शान्ति था ।
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र हुआ । कुमारस्वामी ने बोस्टन में बड़े गर्व से भारतीय ध्वज फहराया। 22 अगस्त को उन्होंने अपना 70 वाँ जन्म दिन मनाया और 7 सितम्बर 1947 को वे इस संसार को छोड़ कर चले गये।
उन्होंने भारतीय कला और संस्कृति के लिए जो कार्य किया वह अद्वितीय है।
उनकी प्रमुख कृतियां हैं- मेडीवल सिंहालीज आर्ट (1908), इण्डियन ड्राइंग्स (1910) द आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स आफ इण्डिया एण्ड सीलोन (1913) राजपूत पेन्टिंग (1916), द मिरर आफ जेस्चर (1917), द डान्स आफ शिवा (1918), हिस्ट्री आफ इण्डियन एण्ड इण्डोनेशियन आर्ट (1927) तथा द ट्रान्सफार्मेशन आफ नेचर इन आर्ट (1934)।
उन्होंने बोस्टन संग्रहालय की भारतीय कलाकृतियों को सूचीबद्ध भी किया था जो 1923 से 1930 तक छः खण्डों में प्रकाशित हुई थी। राष्ट्रीयता, स्वदेशी, धर्म, दर्शन, काव्य तथा वैदिक अध्ययन पर भी उन्होंने अपनी लेखनी उठायी थी ।
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