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षडंग
चित्रकार अपने निरंतर अभ्यास के द्वारा अपने भावों सम्वेदनाओं तथा अनुभवों के प्रकाशन हेतु एक प्रविधि को जन्म देता है। किसी भी आकृति की रचना करते समय भारतीय चित्रकार आकृति के बाहरी रूप को ही नहीं देखता वरन् उसके गुणों तथा उसके पीछे छिपे भावों को भी देखता है।
भारतीय चित्रकार ने रंगों की तकनीक में निरंतर विकास किया है। तूलिका निर्माण के नये-नये तरीके सुझाये हैं। चित्र भूमि की तैयारी में भी नये-नये प्रयोग किये हैं। चित्रोपम तत्वों के भिन्न-भिन्न संयोजनों में एक से एक उत्कृष्ट शैलियां निखर कर सामने आई हैं।
भारतीय शिल्प के झरोखे से हमें अपने भारतीय शिल्प के विविध मनमोहक रूप दिखाई देते हैं। भारत में चित्रकला की स्वस्थ परम्परा बहुत प्राचीन काल से विद्यमान थी। चित्रकला में प्रयुक्त प्रविधि व शैलीगत तत्वों के अनेक सन्दर्भों का भारतीय शिल्पशास्त्रों एवं साहित्य में उल्लेख मिलता है।
समरांगण सूत्रधार, विष्णुधर्मोत्तर पुराण, शिल्परत्नम् आदि शिल्प ग्रन्थों में तथा संस्कृत साहित्य में कला तत्वों के अनेक उल्लेख मिलते हैं। समरांगण सूत्रधार में आठ अंगों का उल्लेख किया गया है यथा-वर्तयाः, लेख्यं, वर्णक्रम, लेखनं, कृतबन्ध, रेखा क्रम, वर्तनाक्रम, आकृतिमान।
वात्स्यायन के कामसूत्र की 11वीं सदी में यशोधर पण्डित ने ‘जयमंगला’ नाम से टीका की। कामसूत्र के प्रथम अधिकरण के तृतीय अध्याय में वर्णित चौंसठ कलाओं में से आलेख कला के सन्दर्भ में यशोधर पण्डित ने आलेख्य के छः अंग बताये हैं
“रूपभेदाः प्रमाणनि भावलावण्ययोजनम् ।
सादृश्यं वर्णिकाभंग इति चित्र षडङ्गकम् ।।
अर्थात् रूपभेद, प्रमाण, भाव, लावण्ययोजना, सादृश्य व वर्णिका भंग – ये चित्र के छः अंग हैं।
उपरोक्त श्लोक के आधार पर भारतीय कलाचार्य श्री अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने 1921 ई० में दी इण्डियन सोसायटी ऑफ ओरियन्टल आर्ट’ की प्रकाशन योजना के अन्तर्गत ‘सिक्स लिम्ब्स ऑफ पेन्टिंग’ नामक एक पुस्तिका का प्रकाशन कराया जिसमें छः अंगों की व्याख्या करने से पहले उनका अंग्रेजी अर्थ निरूपित किया। जो इस प्रकार है-
1.रूपभेद: Knowledge of appearance
2. प्रमाण: Correct perception, measure, and structure of forms
3. भाव: The action of feelings on forms
4. लावण्य योजना: Infusion of grace, artistic representation
5. सादृश्य: Similitudes
6. वर्णिकाभंग: Artistic manner of using the brush and colours
इन छः अंगों का विवेचन इस प्रकार किया गया है
1. रूपभेद
रूपभेद का अर्थ है, रूप में सत्य की अभिव्यक्ति अर्थात् रूप की पहचान अंकित करना। रूप अनन्त हैं। रूप का भेद छोटा-बड़ा, गहरा-हल्का, अलंकृत-साधारण, सुर-असुर, सज्जन- दुर्जन, रेशम – टाल, वृक्ष-लता, आकाश-भूमि आदि वस्तु के रंग, पोत, स्पर्शज्ञान, आकार, अर्थसार पर निर्भर करता है।
रूपों के परस्पर संयोजन में भिन्नता से भी रूप के भेद व बल का ज्ञान होता है। प्रत्येक मानवाकृति में वय, समाज एवं देश के अनुसार जो भिन्नता होती है, उनके रहन-सहन, पहनावा या हाव-भाव में जो अन्तर होता है; दुःख-सुख, उल्लास, प्रफुल्लता, दया, ममता, करूणा आदि मानवीय भावों की सृष्टि से उनके अंग-प्रत्यंग में जिन भाव भंगिमाओं का अभ्युदय होता है, इन सबका ज्ञान ही रूपभेद है।
भारतीय मूलमंत्र रूपभेद में बाह्य विभिन्नता के साथ आन्तरिक विभिन्नता को भी महत्व दिया है। रूप अनंत और असीम है।
रूप का साक्षात्कार दो प्रकार से किया जा सकता है एक तो चक्षु द्वारा तथा दूसरा आत्मा द्वारा चक्षु द्वारा देखा गया रूप बाहरी होता है जो बाह्य रूप, रंगों, आकृति की बनावट आदि से संबंधित होता है, किन्तु उस वस्तु के अन्तर में जो व्यापक सौन्दर्य का समावेश कलाकार करता है उसे हम मात्र चक्षुओं द्वारा नहीं अपितु अपने अन्तर्मन से अनुमान करके, चिन्तन-मनन करके आत्मा द्वारा पहचान सकते हैं।
रूप का निर्माण तथा चित्र में विभिन्न रूपों का आनन्ददायक संयोजन तभी सम्भव है, जब चित्रकार रूप-अर्थ एवं रूप-भेद में पारंगत हो। रूप की रचना में यह आवश्यक नहीं कि कोई दिखाई देने वाला सादृश्य रूप ही हो, रूप सूक्ष्म भी हो सकता है, चित्रकार रूप का उद्घाटन भी करता है।
2.प्रमाण
प्रमाण के अन्तर्गत समविभक्तता अनुपात, सीमा, लंबाई-चौड़ाई, शरीर-रचना आदि का विवरण आ जाता है। अनुपात के उचित ज्ञान को ‘प्रमा’ नाम से सम्बोधित किया गया है। पुरुष व स्त्री की लम्बाई में भेद, उनके अंगों की रचना किस क्रम में हो अथवा राक्षस या मनुष्य के आकार में दिखाना, यह सब प्रमाण द्वारा ही सम्भव है।
प्रमाण को सम्बद्धता का सिद्धान्त भी कहा जाता है। यह आकृतियों का माप या फैलाव तथा सभी आकृतियों का एक-दूसरे से सम्बन्ध निश्चित करता है। यद्यपि मधुर प्रमाण का कोई निश्चित सिद्धान्त नहीं बनाया जा सकता तो भी अपने अनुभव व प्रमा-शक्ति के बल पर ऐसी सीमायें स्वतः बन जाती हैं, जिनका अतिक्रमण करने पर अरुचिकर प्रमाण की उत्पत्ति होती है।
प्रमाण के द्वारा हम मनुष्य, पशु-पक्षी आदि की भिन्नता और उनके विभिन्न भेदों को ग्रहण कर सकते हैं। पुरुष और स्त्री की लम्बाई के मध्य अन्तर तथा उसके समस्त अवयवों का समावेश किस क्रम व अनुपात में होना चाहिए अथवा चित्रों में देवताओं और मानव के कद का क्या मान है, ये सभी बातें प्रमाण के द्वारा निर्धारित होती हैं।
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र प्रकरण में विभिन्न मानवाकृतियों के नख से शिख तक का मान, ताल एवं अंगुल में सुनिश्चित किया गया है। इसके अतिरिक्त उन सभी मान, उपमान तथा क्षय-वृद्धि पर प्रकाश डाला गया है जिससे आकृति अपनी पूर्णता प्राप्त कर सके।
भारतीय कला मनीषियो ने प्रमाण को ताल, कार्य-प्रमाण अथवा मानोत्पत्ति के नाम से भी सम्बोधित किया है।
3.भाव
भाव का तात्पर्य है आकृति की भाव भंगिमा स्वभाव मनोभाव एवं व्यंग्यात्मक प्रक्रिया इत्यादि । भाव एक मानसिक प्रक्रिया है। भिन्न-भिन्न भावों की अभिव्यंजना से शरीर में भिन्न-भिन्न विकारों का जन्म होता है ये बदली हुई अवस्थाएँ ही भाव कहलाती है।
भारतीय चित्रकला में भावाभिव्यक्ति को सर्वाधिक महत्व दिया गया है। आँखों की चितवन, भंगिमा हस्तमुद्राओं तथा वर्ण-व्यवहार एवं संयोजन-शैली से भव की एक सहज अभिव्यंजना सम्भव हो जाती है। अंडाकार चेहरा सात्विकता का भव प्रदान करता है, जबकि पान की पत्ती वाला चंचलता का द्योतक है।
इसी प्रकार मीनाकृति आँखे चंचलता को, खंजन नयन प्रसन्नता को, मृग के समान नयन सरलता व निरपराधिता के आदि भावों को अभिव्यक्त करते हैं। समभंग जहाँ सौम्यता का परिचायक है वहीं अन्य भंगिमाएँ यथा – अभंग, त्रिभंग तथा अतिभंग आदि प्रखरता व क्रियाशीलता का प्रतीक बन जाती हैं।
वस्तुतः रेखा, वर्ण, तान, वर्तना और अलंकार सबका पर्यावसान सुन्दर भावों की अभिव्यक्ति में ही है। अजंता के चित्र राहुल समर्पण, मरती राजकुमारी, बोधिसत्व पद्मपाणि इकसे उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
4.लावण्य योजना
जिस प्रकार भाव चित्र के आन्तरिक सौन्दर्य का व्यंजक है उसी प्रकार लावण्य चित्र के बाह्य सौन्दर्य का व्यंजक है। रूप, प्रमाण व भाव के साथ-साथ चित्र में लावण्य का होना भी अत्यावश्यक है।
भारतीय चित्रों के लिए सौन्दर्य से अधिक उपयुक्त संज्ञा लावण्य है, क्योंकि यह आन्तरिक भाव सौष्ठव का अभिव्यंजित रूप है। भाव द्वारा कभी-कभी चित्र में जो रूखापन आ जाता है उसे दूर करना ही लावण्य-योजना है।
जिस प्रकार नमक के न रहने पर भोजन बेस्वाद हो जाता है उसी प्रकार लावण्य के न रहने पर चित्र में कोई आकर्षण नहीं रह जाता। अजन्ता के चित्रों में भाव के साथ लावण्य की शोभा सर्वत्र व्याप्त है। किसी मूल वस्तु के साथ उसकी प्रतिकृति की समानता करना ही सादृश्य कहलाता है।
अवनीन्द्र नाथ टैगोर ने किसी रूप के भाव को किसी दूसरे रूप के द्वारा प्रकट करना ही सादृश्यता उत्पन्न करना माना है। भारतीय चित्र-शास्त्रों में सादृश्य का महत्वपूर्ण स्थान है। चित्रसूत्र में सादृश्य को चित्र की प्रधान वस्तु माना गया है-“चित्रे सादृश्यकरणं प्रधानं परिकीर्तिमम्।
” जिस चित्र की आकृति में दर्पण के प्रतिबिम्ब के समान सादृश्य होता है उसे बिद्ध चित्र कहते हैं-“बिद्धचित्रं तु सादृश्यं दर्पणे प्रतिबिम्बवत् ।”
5.सादृश्य
वस्तु की बाह्य आकृति की अपेक्षा उसके स्वभाव का अंकन अधिक महत्वपूर्ण माना जाता है, जिसे भावगम्य सादृश्य कहा जाता है। भावगम्य सादृश्य हेतु प्राकृतिक उपमानों का सहारा लिया जाता है।
भारतीय कला में शरीर-रचना हेतु प्रधानतः जिन उपमानों को व्यवहार में लाया जाता है उनमें से कुछ हैं-
पुरुष की भौंह | नीम की पत्ती के समान |
स्त्री की भौंह | धनुष के समान |
अधर | अधर-पल्लव के समान |
कान | गिद्धाकृति के समान |
स्थिर मुख | अण्डाकृति के समान |
चंचल मुख | पानाकृति के समान |
भोले नेत्र | मृगनयन के समान |
प्रसन्न नेत्र | खंजन पक्षी के समान |
विलासी नेत्र | परवल की फाँक के समान |
ठोड़ी | आम की गुठली के समान |
कण्ठ | शंख के मुख के समान |
स्त्री की कमर | डमरू के समान |
पुरुष की कमर | सिंह की कमर जैसी |
पुरुष के कंधे | गज मस्तक के समान |
इस प्रकार स्पष्ट है कि भारतीय कला हूबहू यथार्थ प्रतिकृति के समान न होकर गुणों तथा भावों पर ही आधारित है।
6.वर्णिका भंग
वर्णिका भंग से तात्पर्य है नाना वर्णो की सम्मिलित भंगिमा वर्णिका भंग के अन्तर्गत रंगों का सम्मिश्रण, उनके प्रयोग करने की विधि तथा तूलिका( brush) के प्रयोग की विधि बतायी गयी है।
किस प्रकार के चित्र हेतु किस प्रकार के वर्णों का प्रयोग करना चाहिए, किस रंग के समीप किस रंग का संयोजन होना चाहिए आदि बातें वर्णिका भंग के अन्तर्गत आती हैं। रंगों की विभिन्नता से हमें वस्तुओं के अस्तित्व के साथ-साथ उनका अन्तर भी ज्ञात होता है।
लाल, पीला, नीला इन तीनों रंगों में श्ववेत रंगों के योग से तथा परस्पर इन सबके मिश्रण से अनेक रंग बनते हैं। यह मिश्रण कैसे होता है और कितनी मात्रा में किया जाय इसका पूर्ण ज्ञान वर्णिका-भंग में कुशलता का प्रतीक है।
वाचस्पति गैरोला ने कहा है कि ‘वर्णिका भंग हेतु लघुता, क्षिप्रता और हस्त-लाघव की आवश्यकता है।’ केवल रेखाओं, वर्णों, अक्षरों तथा वर्णों के सम्मिश्रण का ज्ञान ही वर्ण-ज्ञान हेतु पर्याप्त नहीं हैं, उसके एवं तत्व दोनों को जानना अत्यन्त आवश्यक है।