तंजौर शैली

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तंजोर के चित्रकारों की शाखा के विषय में ऐसा अनुमान किया जाता है कि यहाँ चित्रकार राजस्थानी राज्यों से आये इन चित्रकारों को राजा सारभोजी ने अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में आश्रय प्रदान किया। 

ये चित्रकार हिन्दू थे अतः इस बात की पुष्टि होती है कि राजस्थानी राज्यों की अवस्था खराब होने पर आश्रय की खोज में भटकते हुए ये चित्रकार सुदूर दक्षिण के हिन्दू राज्यों में आकर बस गए। 

इस प्रकार तंजौर में राजस्थानी चित्रकला पहुँच गई और राजकीय संरक्षण प्राप्त कर यह कला-शैली पुनः एक स्थानीय शैली के रूप में प्रस्फुटित होने लगी। 

आरम्भ में इस शैली के चित्रकार बहुत कम थे परन्तु कालान्तर में इनकी संख्या बहुत अधिक हो गई और तंजौर के अंतिम राजा शिवाजी (१८३३-५५ ई०) के राज्यकाल में चित्रकारों के अठ्ठारह परिवार थे जो हाथी दांत तथा काष्ठफलक पर चित्रकृतियाँ बनाते थे। काष्ठफलकों पर ये चित्रकार जल रंगों के द्वारा चित्र बनाते थे। 

इन चित्रों में सोने के पत्र अतिरिक्त बहुमूल्य हीरे तथा जवाहरात भी लगाये जाते थे। इन चित्रकारों ने मानवाकार व्यक्ति चित्र तैल रंगों में बनाये। ये चित्र आज तंजौर के राजमहल तथा पहूकोट्टा के प्राचीन राजमहल में सुरक्षित हैं।

१८५५ ई० में शिवाजी की मृत्यु से इस राजवंश का अंत हो गया और इस राज-वंश के साथ ही चित्रकारों का राजकीय संरक्षण भी समाप्त हो गया। अतः चित्रकारों को दूसरे उद्योग धन्धों में लगना पड़ा जिससे कि वह अपनी आजीविका का निर्वाह कर सकें। 

कुछ चित्रकार सुनारगीरी का कार्य करने लगे तो कुछ सोला टोपी या कसीदाकारी आदि के काम में लग गए। अनेक वंश परम्परागत चित्रकार अभी भी अपना व्यवसाय चलाते रहे और इनकी बाज़ारू कृतियाँ जनता में प्रचलित रही इन चित्रों के विषय धार्मिक थे अतः स्थानीय हिन्दू जनता में थे कृतियाँ बहुत लोकप्रिय बन गई। 

इन चित्रों में कसात्मक विशेषताएँ बहुत कम है और सोने के रंग तथा पिसे हुए जवाहरातों का चित्रों में प्रयोग किया गया है, परन्तु चित्रों में कारीगरी बहुत उत्तम कोटि की है। आरम्भ में तंजोर शैली में प्रमुख रूप से हाथी दांत के फलकों पर शबीह चित्र बनाये गए जो बहुधा छः इंच लम्बे आकार के थे।

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