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मोहन सामन्त | Mohan Samant

By admin

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मोहन सामन्त का जन्म 1926 में बम्बई में हुआ था। उनके घर वाले उन्हें इन्जीनियर बनाना चाहते थे। आरम्भ में ...

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मोहन सामन्त का जन्म 1926 में बम्बई में हुआ था। उनके घर वाले उन्हें इन्जीनियर बनाना चाहते थे। आरम्भ में उन्होंने वर्मा शैल आदि कम्पनियों में नौकरी की पर अन्त में वे चित्रकार ही बने ।

1951 में अपनी कला की शिक्षा सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में पूर्ण करके कुछ दिन चित्रकारी की। 1957 में इटली सरकार की एक छात्रवृत्ति पर दे रोम गये। 

वहाँ से रॉकफेलर फैलोशिप पर अमेरिका गये और 1959 से 1965 तक वहीं रहे। कुछ समय के लिये भारत लौटने के उपरान्त 1968 में वे अमेरिका में ही बस गये। ये न्यूयार्क में रहते हैं। 

कभी-कभी भारत आते रहते हैं पर भारतीय कला जगत से उनका विशेष सम्पर्क नहीं रहा है।

आरम्भ में वे जैन लघु चित्रों से प्रभावित हुए थे उन्होंने उनकी विशेषताओं को आधुनिक कला की विशेषताओं के साथ समन्वित किया। 

इससे उनकी कला में निखार आया और वे अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भाग लेने लगे। उन्होंने वस्तुओं की आदि प्रकृति को समझ कर चित्रण किया । 

सामन्त के अनुसार हमारे मन में प्रत्येक वस्तु अथवा पदार्थ के तीन संस्कार बनते हैं एक, उसका विचार, प्रत्यय अथवा आइडिया; दो, उसकी ध्वनि; और तीन, उसका भौतिक रूप । 

सामन्त इन तीनों के समन्वय को ही विम्बों और चाक्षुष माध्यम में प्रस्तुत करते हैं। में

चित्रकला के क्षेत्र में आगे बढ़ने की प्रेरणा सामन्त को बसौली तथा जैन लघु चित्रों से मिली। उनकी सरल आकृतियों, अपरिष्कृत शैली तथा रंगों और वातावरण की उत्फुल्लता से उन्हें बहुत प्रेरणा मिली। 

कुछ समय तक अभ्यास करने पर उन्होंने अपने व्यक्तित्व के अनुरूप शैली का विकास कर लिया। 

यूरोप के देशों में घूमते तथा प्रदर्शनियाँ, कला- बीथियाँ और संग्रहालय देखते वे लास्को की प्रागैतिहासिक गुफाएँ देखने भी गये। 

सभी जगहों पर भ्रमण करने और अनेक प्रकार की शैलियाँ देखने के उपरान्त उन्होंने अनुभव किया कि समकालीन कला जैसी वास्तव में कोई चीज नहीं है क्योंकि जो प्रवृत्ति आज हम समकालीन कला में देखते हैं वह पहले भी कहीं न कहीं रही है। 

इसके उपरान्त भारत लौटकर उन्होंने विस्तृत भ्रमण किया और प्राचीन मूर्ति-शिल्प का अध्ययन किया। वे अपनी अभिव्यक्ति की आवश्यकता के अनुसार शैली में परिवर्तन करते रहे। 

यद्यपि भारतवर्ष की पुरानी कला-परम्पराओं पर उन्हें गर्व है तथापि वे अनुभव करते हैं कि मात्र शिल्पी (कारीगर) को ही परम्परा की आवश्यकता होती है, सृजनशील कलाकार को नहीं इसके साथ ही वे यह भी मानते हैं कि नया केवल आधुनिक ही नहीं होता और ऊपर से ओढ़ी गयी आधुनिकता से मोहन सामन्त को घृणा है।

उन्होंने आरम्भ में जल रंगों में कार्य किया था। उसके पश्चात् तैल माध्यम में काम करने लगे। 

बड़े आकार के केनवास पर संगमरमर के चूर्ण तथा फेवीकोल से उभरे हुए धरातलों की रचना आरम्भ की और परियों के देश की कहानी के समान विषयों का चित्रण किया। 

इन चित्रों में तैल रंगों का पेस्टल जैसा रूप प्रतीत होता है। इसके उपरान्त उन्होंने शैली में पुनः परिवर्तन किया। 

वे उभरी हुई रेखाओं द्वारा अत्यन्त व्यंजनापूर्ण विकृत आकृतियाँ बनाने लगे जिनके अंग अजीब ढंग से मुड़े हुए हैं. शरीर की पसलियाँ स्पष्ट दिखाई दे रही हैं और एक अवसाद पूर्ण वातावरण सम्पूर्ण कृति पर छाया रहता है। 

मोहन सामन्त की आकृतियाँ आदिम, लोक तथा लघु चित्र शैली की आकृतियों से प्रभावित रही हैं। उनके आरम्भिक रंग भी मिनिएचर के ढंग के थे। 

आकृतियों के रेखांकन के उपरान्त उन्होंने उनमें वाश द्वारा रंग भरा था, साथ ही आकृतियों को विषय के अनुसार छोटा-बड़ा बनाया था यह प्रवृत्ति आदिम कला की है।

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