पहाड़ी शैली और उसकी विशेषताएं

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परिचय

17 शताब्दी के अन्तिम चतुर्थांश में पहाड़ी राजकुमार मुगलों के आश्रित थे जो कि मुगलों के दरबार में रहकर शासको की युद्ध को गतिविधियों में मदद करते थे।

मुगल शासकों को भी पहाड़ी रियासतों का ज्ञान था यहाँ तक कि उनके किलो की रखवाली के लिए मुगल सम्राट किलेदार नियुक्त करते थे। मुगल शासक पहाड़ी रियासतों पर भ्रमण के लिये जाते थे।

जहाँगीर जब अपनी पत्नी नूरजहाँ के साथ वहाँ गये तो वहाँ के सौन्दर्य से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने वहीं चित्र 72: रस पंचाध्यायी का एक एक महल बनाने की सोची, जहाँ वह गर्मियों में रह सकें।

इसी भ्रमण के दौरान ही नूरजहाँ के नाम पर धरमेड़ी का नाम नूरपुर रखा गया है। शाहजहाँ के समय में भी पहाड़ी रियासतों से मुगल सम्राट का मधुर सम्बन्ध बना रहा, परन्तु 18वीं शताब्दी के मध्य में औरंगजेब के पश्चात् ही मुगल सत्ता कमजोर हो गया और मात्र दिल्ली तथा उसके आसपास कुछ क्षेत्रों में रह गई।

तत्पश्चात् मराठा और बाद में सिक्खों का राजनैतिक आधिपत्य प्रारम्भ हो गया किन्तु वह पूर्णत: देश की स्थिति सम्भाल लेने में समर्थ नहीं बन पाए।

यही कारण है कि ब्रिटिश जो कि भारत में व्यापार के उद्देश्य से आए थे यहाँ अपना आधिपत्य बनाते चले गए। 18वीं शताब्दी के मध्य तक मुगल सत्ता पूर्णतः कमजोर हो गयी।

इसलिए पहाड़ी रियासतों का सहयोग भी बन्द हो गया किन्तु यहाँ पर अफगान के शासकों का प्रभुत्व बढ़ गया । लगभग 1767 ई० तक रहा।

तत्पश्चात् धीरे-धीरे पहाड़ी शासक बाह्य सत्ता की अवहेलना करके पूर्णतः स्वतन्त्र हो गए और अपने छोटे-छोटे राज्यों के विकास में लग गए।

पहाड़ी शासकों ने राजनैतिक ‘रिफ्यूजी’ के साथ-साथ कलाकारों को भी आश्रय दिया और यहाँ की नैसर्गिक सुषमा तथा अनुकूल सामाजिक वातावरण ने कलाकारों की तूलिका को पूर्णतः स्वतन्त्र कर दिया।

रायकृष्ण दास के शब्दों में "उधर 17वीं शताब्दी में औरंगजेब की उपेक्षा के कारण और 18वीं शती के मध्यार्द्ध तक मुगल साम्राज्य के टूक-टूक हो जाने के कारण, बादशाही चित्रकार नए आश्रय खोजने पर बाध्य हुए। सम्भवतः उनमें से कुछ रावी से पूर्व वाली काँगड़ा दून की रियासतों चम्बा, नूरपुर, जसरोटा, गुलेर, काँगड़ा, सुकेत, मण्डी, कुल्लू एवं नाहन सिरमौर आदि में पहुँचे। इन्हीं के हाथों 18वीं शती में पहाड़ी शैली का तरुवर रोपा गया।"

पहाड़ी शासक तथा उनके वंशज (heirs) मुख्य रूप से राजा कहे जाते थे जिनके परिवारों को पृथक्-पृथक नाम दिया गया जैसे जम्मू में ‘देव’ काँगड़ा में ‘चन्द’ चम्बा में ‘वर्मन्’ मण्डी तथा सुकेत में ‘सेन’ तथा कुछ बाद में जाकर ‘सिंह’ हो गए।

मुख्य रूप से पहाड़ी रियासतों में हिन्दू राजाओं ने शासन किया यदि मुस्लिम शासक है भी तो वह प्रमुख नहीं है। इन हिन्दू शासकों के आश्रय में संस्कृति एवं कला की उन्नति हुई जो कि मुख्य रूप से काँगड़ा चम्बा, जम्मू, बसौली आदि रियासतों में हुई।

इन सभी स्थानों में काँगड़ा का महत्त्वपूर्ण स्थान माना जाता है जिसका कारण यहाँ महल, सुगन्धित चावल, काव्यात्मक कलाकृतियाँ तथा नैसर्गिक सौन्दर्य था।

सत्य हो है कि इस नैसर्गिक सौन्दर्य की रमणीय छाया तले अनगिनत कलाकारों ने अपने हस्त कौशल एवं भावपूर्ण अभिव्यक्ति को जो साकार रूप प्रदान किया वह अनुपम है, अद्भुत है। पहाड़ी वादियों में कला की एक धारा लोक कला के रूप में धीरे-धीरे चल रही थी।

किशोरी लाल वैद्य के अनुसार, "वास्तव में पहाड़ी कला ने लोक कला के रूप में जन्म लिया और अपने उत्तरोत्तर विकास में भी पहाड़ी कला का लोक कला के साथ चोली दामन का रिश्ता रहा यह सहजता से स्वीकारा जा सकता है कि पहाड़ी क्षेत्रों में लोक कला किसी न किसी रूप में सर्वत्र व्यापक रही, राज्य प्रश्रय में इसे निखारना अपेक्षणीय वन गया और राजाओं की कला अभिरूचि व किन्हीं धार्मिक मान्यताओं के अनुरूप लोक कला सभ्य व सुसंस्कृत होती हुई पहाड़ी कलम या काँगड़ा रेखाचित्र, 17वीं शताब्दी, पहाड़ी कलम के नाम से अभिहित हुई।"

मैदानी स्थलों से जब कलाकार निराश्रित होकर पहाड़ी रियासतों पर गए और इन कलाकारों ने जिस प्रकार चित्रण किया उससे जिस शैली के अंकुर फूटे वह पहाड़ी शैली के नाम से प्रसिद्ध हुई जिसकी सर्वप्रथम खोज काँगडा चित्रों के आधार पर मैटकाफ ने की।

पहाड़ी शैली का वास्तविक विकास I8वाँ शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक पूर्ण रूप से हो चुका था।

ऐसा माना जाता है कि मुगल शैली में कला जबकि कलम की बारीको एवं रंगों को नफासत में बहुत आगे बढ़ चुकी थी परन्तु भावनाओं की उन्मुक्त अभिव्यंजना, काव्यात्मक अभिव्यक्ति तथा आध्यात्मिक विषयों के प्रस्तुतीकरण से वह एक उत्कृष्ट शैली का प्रतिनिधित्व करती है।)

पहाड़ी शैली के विकास में आनन्द कुमार स्वामी के व्याख्यान एवं लेख अपना एक महत्वपूर्ण स्थान रखते हैं।

केवल उतना ही नहीं वरन उन्होंने अनेक कलाकेन्द्रों का भ्रमण किया और कला के वास्तविक सौन्दर्य को पहचान कर विशिष्ट कला के रूप में पहचान करायी।

उनके शब्दों में, “जो वनस्थली चित्रण में चीनी कला की उपलब्धि रही, वही यहाँ प्रेम के चित्रण में प्राप्त हो सका। यदि ऐसा दुनिया में कभी भी और कहीं भी अन्यत्र नहीं हुआ है तो यहीं वे पश्चिमी द्वार पूरी तरह खुले पड़े हैं।

प्रेमियों को बाह एक दूसरे के गले में जा पड़ी हैं, आँख-आँख जा मिली है, गुनगुनाती सखियाँ कुछ अन्य बात नहीं करती बल्कि कृष्ण के प्रेमाचरण की ही बात करती हैं, पशु भी कृष्ण की बांसुरी की ध्वनि से चित्रवत् हो गए हैं और सभी तत्व राग-रागिनियों को सुनने के लिए मुकाबस्था में रुक गए हैं।

आनन्द कुमार स्वामी ने पहाड़ी कला को राजपुत शैली का एक भेद माना इसलिए काफी समय तक इस शैली पर बहुत सौ चर्चाएँ चलती रही, किन्तु अजित घोष ने इस सन्दर्भ में खोजबॉन की और पहाड़ी शैली के पथकत्व को खोजकर उसको पहचान समस्त कला जगत् को करायी।

भारत के प्रसिद्ध संग्रहालयों जैसे पंजाब म्यजियम चंडीगढ़ नेशनल म्यूजियम दिल्ली, भारत कला भवन, बनारस इण्डियन म्यूजियम कलकत्ता तथा विदेश के भी कुछ संग्रहालयों में पहाड़ी शैली के चित्रों का अनुपम संग्रह दर्शकों का ध्यान आकृष्ट करता है।

वैसे तो पहाड़ी राजा आपस में एक दूसरे का राज्य हथियाने के लिए लड़ते रहते थे। किन्तु कभी-कभी शान्ति स्थापित करने हेतु एक रियासत के राजकुमार का विवाह दूसरी रियासत की राजकुमारी से कर दिया जाता था।

फिर भी कुछ षड्यन्त्रों का भी इनके रियासतों के इतिहास से पता चलता है। विवाह में दिए गए दहेज में चित्र रूमाल, लोक कला की वस्तुएँ, गाँव तथा चित्रकार भी शामिल होते थे।

काँगडा की राजकुमारी का मण्डों के राजा सूरजसेन से विवाह होने पर दहेज में कहनचाल नामक गाँव भी सौंप दिया गया। ऐसा माना जाता है कि पहाड़ों की कला का जन्म स्थान गुलेर रहा कुछ विद्वान इसका प्राथमिक केन्द्र काँगड़ा को मानते हैं।

इस विवादास्पद स्थिति का कारण है कि गुलेर के प्रथम शासक ने काँगड़ा पर भी राज्य किया था और सत्य यह है कि गुलेर शैली ने अपनी परिपक्व अवस्था में काँगड़ा में प्रवेश किया।

काँगड़ा की तुलना में गुलेर एक छोटी रियासत थी जहाँ पर कई शासक आए और गए किन्तु यहाँ की कला गुलेर को अपना गढ़ बनाया और यहाँ से काँगड़ा की कलम का अभ्युदय परम्परा अपना निजस्व स्थापित करती है।

गुलेर के शासकों का सम्बन्ध मुगल चित्र 74 रागमाला से सम्बन्धित एक शासकों से रहा। दोनों स्थानों के कलाकारों का आवागमन भी अवश्य रहा रेखांकन, 17वीं शताब्दी, पहाड़ी होगा और मुगल शासकों से प्रश्रय खोने के पश्चात् मुगल कलाकारों ने सर्वप्रथम शैली हुआ।

पहाड़ों की अन्य रियासतों जम्मू, वसौली, जसरोटा, मण्डी, चम्बा आदि स्थानों पर भी कला की धारा प्रवाहित होती रही।

यह पहाड़ी चित्रकला जम्मू से टिहरी और पठानकोट से कुल्लू तक तथा अन्य काफी क्षेत्रों में लगभग 15000 वर्गमील के क्षेत्र में फैली दिखाई देती है।

वास्तव में कलाकारों को इन वादियों का शान्तमय वातावरण मिला जिससे इनकी तूलिका को कल्पना की उन्मुक्त क्रीड़ा करने को मिली। और उस क्रीड़ा के परिणाम स्वरूप पहाड़ी शैली चित्रों में विषय की कड़ी से कड़ी जुड़ती चली गयी जिनमें से कुछ इस प्रकार है

साहित्य

11वीं शताब्दी में भारत में वैष्णव धर्म का उदय हुआ जिसके परिणाम स्वरूप कृष्ण की ओर जनता का ध्यान हो गया। वैष्णव भक्ति के कवियों ने कृष्ण को अपनी-अपनी शैली के अनुसार चित्रित करना प्रारम्भ कर दिया। कृष्ण के काव्य चित्रण की प्रमुखता लगभग 16वीं शताब्दी तक चलती रही।

इस समय के कवियों ने जो रचनाएँ की उसने राजस्थानी तथा पहाड़ी शैली के कलाकारों को अभिभूत किया और कलाकार अपनी तूलिका उठाकर शब्द-चित्रों को आकार, वर्ण तथा रेखाओं की कलात्मक अभिव्यंजना में पट पर साकार करने लगे।

रामायण, महाभारत, भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण, गीत-गोविन्द, रागमाला रसमंजरी आदि विषय जो कि राजस्थानी शैली में भी विविधतापूर्वक चित्रित होते रहे, इस समय पहाड़ी कलाकारों ने भी इनसे प्रेरणा एवं विषयवस्तु ग्रहण कर अपने चित्रों को उकेरा किन्तु इनके रूपाकारों, रंगों, संयोजन आदि सभी में मौलिकता है, वह रुढ़ परम्परा से दूर हैं.

पहाड़ी चित्रकारो ने हिन्दू विषयों से प्रेरणा लेकर अपने स्वतन्त्र भावों की अभिव्यंजना से एक नवीन जामा पहनाया जो राजपूत चित्रों मे पृथक् था।

संस्कृत काव्य में गीत-गोविन्द को एक प्रमुख स्थान प्राप्त है जिसके लेखक जयदेव राजा लक्ष्मण सेन के गजकवि थे। इस ग्रन्थ में राधा-कृष्ण के प्रेम एवं सौंदर्य का वर्णन है जिसके आधार पर पहाड़ी कलम के चित्रों में नायक-नायिका की रूप छवि देखी जा सकती है।

गीत-गोविन्द के साथ-साथ बिहारी सतसई के काव्य को चित्ररूप देना भी पहाड़ी कलाकारों को विशिष्ट प्रिय था गीत-गोविन्द के चित्रों में गहरे तथा बिहारी सतसई के चित्रों में हल्के रंगों का प्रयोग किया गया है जो कलाकारों की भावनाओं के प्रस्तुतीकरण में सहयोगी है।

साहित्यिक विषयों के अतिरिक्त हीर-र सोहनी महिवाल लोक-गाथा से सम्बन्धित एक चित्र में सोहनी को नदी पार करते हुए चित्रित किया गया है।

चित्र का संयोजन बहुत सुन्दर है। सोहनी को नदी के मध्य में घड़े के साथ केन्द्र में चित्रित किया गया है। सोहनी का नीचे का भाग जल के अन्दर दर्शाया गया है। जल का यह पारदर्शी प्रभाव कलाकार की तूलिका की कुशलता को सिद्ध करता है।

पृष्ठभूमि में घने वृक्ष टीलों पर छोटे-छोटे पवन जल में दूर छोटी-छोटी नौकाएँ सभी मिलकर चित्र को एक उत्कृष्ट वातावरण प्रदान करते हैं तथा ससी पुन्नों की लोक गाथाओं को भी पहाड़ी शैली के कलाकारों ने चित्रित कर विषय जगत् में एक नवीन अध्याय को जोड़ा।

प्रसिद्ध संस्कृत ग्रन्थ मेघदूत तथा लोक कला सम्बन्धी विषय हमीर हठ का चित्रांकन करने में भी पहाड़ी कलाकार नहीं चूका।

इसके अतिरिक्त सिंहासन बत्तीसी की कथाओं के चित्रण में भी कलाकार ने जिस कुशलता का परिचय दिया है वह उत्तम है। निश्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि पहाड़ी शैली के कलाकारों ने सभी प्रकार के विषयों को अपनाया।

एक ओर यहाँ के चित्रों में मध्यकालीन भक्ति और श्रृंगार प्रधान कथानकों का अनुपम सामञ्जस्य मिलता है। दूसरी ओर यहाँ के प्रत्येक चित्र में स्वाधीनता की आन्तरिक दृष्टि एवं भावनाओं को तीव्रतम अभिव्यक्ति दिखाई देती है।

कृष्णा लीला

पहाड़ी चित्रकारों ने विविध प्रकार की साहित्यिक रचनाओं से प्रेरणा लेकर विविध प्रकार के विषयों में बहुत से आराध्य देवी-देवताओं को प्रकट किया, किन्तु कृष्ण को राधा के साथ लोलाएँ सम्भवतः पहाड़ी चित्रकला का प्रिय विषय था। 

इनके आध्यात्मिक प्रेम एवं मिलन का इतना निर्मल काव्यात्मक एवं स्वाभाविक चित्रण मिलता है कि देखने वाला चकित हुए बिना नहीं रहता क्योंकि प्रत्येक में वातावरण को सृष्टि की गयी है। पृष्ठभूमि में जो नैसर्गिक वातावरण है वह भी राधा-कृष्ण की भाव-भंगिमाओं के साथ सहयोग प्रदान करता है। 

चीरहरण लोला माखन लीला दानलीला मानलीला रासलीला आदि सभी में कृष्ण की मनमोहक एवं सारगर्भित लीलाओं का अंकन कला रसिकों को सुखद अनुभूति प्रदान करता है, जिसके पाश्र्व में कलाकारों की कृष्ण के प्रति आस्था, विश्वास और कल्पना दृष्टिगोचर होती हैं।

पहाड़ी शासकों को व्यक्तिचित्र बनवाने का भी बहुत शौक था, जिस पर मुख्य रूप से मुगल प्रभाव लक्षित होता है प्रायः शासकों को सपाट पृष्ठभूमि में एकाकी खड़े हुए या हुक्का पीते हुए अथवा ‘बालकनी’ या छत पर संगीत का आनन्द लेते हुए बनाया गया है। 

कुछ ऐसे भी विशिष्ट चित्र हैं जिनमें राजाओं को अपने दरवारियों के साथ उत्सव मनाते हुए चित्रित किया गया है। विद्वानों के अनुसार ऐसे चित्र सांस्कृतिक एवं ऐतिहासिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण (documents) माने गये हैं। 

दरबारियों के अतिरिक्त संसारचन्द, प्रकाशचन्द आदि राजाओं को अपने पारिवारिक सदस्यों के साथ भी चित्रित किया गया है।

पशु-पक्षी

प्राकृतिक पृष्ठभूमि तथा मानवाकृतियों के पाश्र्व में पहाड़ी चित्रकारों ने पशु-पक्षियों का जो में चित्रण किया है, वह निश्चिय ही चित्रकार की सूक्ष्म दृष्टि का परिचायक है। इन चितेरों ने विविध प्रकार के पशु-पक्षियों को विषय की आवश्यकतानुसार चित्रों में स्थान दिया। 

जैसे सारस, चकोर मयूर तोता पपीहा आदि। इन पक्षियों के अतिरिक्त सुन्दर वनस्थलियों में कांगड़ा शैली में चित्रित हाथियों का अंकन विचरण करती गायें, कृष्ण सम्बन्धी विषयों को प्रदर्शित करने में सहायक ही नहीं है वरन कला कौशल की भी परिचायक है। 

पशु-पक्षियों के इस अंकन में कलाकार ने वातावरण का भी ध्यान रखा तथा वातावरण एवं विषय के आधार पर पशु-पक्षियों का प्रतीकात्मक अंकन भी किया। प्रेम के प्रतीक रूप में पपीहा पक्षी का अंकन राधा-कृष्ण सम्बन्धी चित्रों के साथ प्रायः मिलता है।

आखेट दृश्य

प्राय: ऐसा देखा जाता रxहा है कि राजाओं को आखेट का शौक होता है अतः पहाड़ी शैली में ऐसे बहुत मे चित्र हैं जहाँ राजाओं को आखेट करते हुए चित्रित किया गया है। 

ऐसे चित्र जोश एवं गति से परिपूर्ण है। कहीं-कहीं लोक-कथाओं पर आधारित भी आखेट चित्रों को बनाया गया। इसी प्रकार का गुलेर शैली का एक चित्र है जो भारत कला भवन में सुरक्षित है। 

जंगल का दृश्य है, जिसमें पृष्ठभूमि में घने वृक्ष हैं। एक काला जंगली जानवर चित्र के बायों ओर सो रहा है और दाँयी ओर से एक व्यक्ति तलवार लेकर उस पर वार कर रहा है।

उत्सव

हिन्दू परम्परा में बहुत से त्यौहार समय-समय पर होते रहते हैं जिसे पहाड़ी चित्रकार नहीं भूल पाया। किन्तु चूँकि कृष्ण का अंकन पहाड़ी कलाकार को अधिक प्रिय था अतः होली का अंकन अधिक मिलता है, जिसमें कृष्ण-राधा तथा गोपियों के साथ होली खेलते हुए चित्रित हैं।

प्राय: कलाकार अपने चित्रों में यथासम्भव अन्य आकृतियों के साथ-साथ विभिन्न प्रकार की नारियों को प्रतिष्ठित करता रहा है। 

राधा, दमयन्ती, सीता, यशोदा, ऊषा आदि नारियों का श्रद्धापूर्वक अंकन पहाड़ी कलाकारों को उच्चतम उपलब्धि है क्योंकि अपने आध्यात्मिक सौन्दर्य, मधुर व्यक्तित्व एवं भावों की मंजुल अभिव्यंजना से वह महज ही दर्शकों को मोह लेती है। 

इन नारियों के चिरपरिचित व्यक्तित्व का चित्रण करने में इन्हें साहित्यिक रचनाओं ने सहयोग दिया। इन नारियों के मुख पर विशिष्ट एवं आध्यात्मिक कान्ति दीप्त है। 

“किशोरी लाल वैद्य” के शब्दों में “काँगड़ा का विकास एक ऐसी सामञ्जस्यात्मक स्थिति से हुआ जिसमें मुगल शैली की छाप है, जो वैष्णव धर्म से अनुप्रेरित है, संस्कृत काव्य से अनुप्रमाणित है, जिसमें हिमालय की गरिमा है और जिसमें काँगड़ा घाटी का प्राकृतिक सौन्दर्य ही नहीं, यहाँ के सुन्दर लोगों विशेषतः नारियों का भी चित्रण हुआ है।” 

काँगड़ा, बसौली, कुल्लू आदि की निजी विशेषताओं का प्रभाव नारी अंकन में रहा। इन नारी आकृतियों के साथ विभिन्न प्रतीकों का प्रयोग नारी आकृतियों के सौन्दर्य में चार चाँद लगा देता है। बिहारी सतसई सम्बन्धी चित्रों में नायिकाओं का अंकन अत्यन्त सौम्य एवं आकर्षक रहा है। 

नायिकाओं को विभिन्न मुद्राओं को विभिन्न वातावरण एवं परिस्थितियों के अनुकूल भावपूर्ण बनाया है जो प्रणय की विविध स्थितियों से गुजरती हैं। प्रेम के आवेग हेतु लाल रंग का प्रयोग किया गया है भले ही वह पृष्ठभूमि में हो या नायिका के किसी परिधान में।

काँगड़ा कलम से निर्मित नारी अंकन सुकोमल भावपूर्ण तथा जीवन्त है जबकि बसौली की नारी आकृतियों कुछ मांसल है जिसका कारण सम्भवतः बसौली शैली पर लोक कला का प्रभाव माना जा सकता है। 

नारी आकृतियों के नेत्र कर्णचुम्बी बनाए गए हैं परन्तु विभिन्न विद्वानों के अनुसार वह अतिशय लम्बे बन गए हैं जो चेहरे के अनुसार उचित नहीं जान पड़ते।

दैनिक जीवन

पहाड़ी शैली का चित्रकार साहित्यिक श्रृंगारिक एवं व्यक्तिचित्रण के साथ-साथ दैनिक एवं सामाजिक जीवन के विषयों को भी चित्रित करने में परिपक्व था। 

उसकी परिपक्य शैली का उत्तम दृष्टान्त कलन्दर वाला चित्र है जो भारत कला भवन में सुरक्षित है। इस चित्र में कलन्दर एक बकरी और एक बन्दर के साथ करतब दिखाते हुए चित्रित है। चित्र पर मुगल प्रभाव है यह चित्र लगभग 1750 ई0 के आसपास निर्मित हुआ।

प्राकृतिक वातावरण

प्राय: देखा जाता है कि कलाकार प्रारम्भ से अपने चारों ओर के परिवेश से प्रेरणा ग्रहण कर उसे वातावरण स्वरूप अपने चित्रों में प्रस्तुत करता है। 

इसी प्रकार पहाड़ी शैली के चित्रकार ने भी नैसर्गिक सुषमा से भाव विभोर होकर प्रकृति का एक रमणीक संसार आकृतियों के पाश्व में संजो दिया है, जो सहयोगी बन कर विषय के प्रस्तुतीकरण में सर्वथा सहायक है साथ ही यह प्रकृति पृष्ठभूमि में होते हुए भी एक आध्यात्मिक भावपूर्ण जगत् की सृष्टि करता है। 

इस प्राकृतिक सुषमा को कलाकार ने “कैमरा आई’ के माध्यम से प्रस्तुत न करके यथार्थ एवं काल्पनिकता का सामजयपूर्ण आश्रय लिया है।

पहाड़ी चित्रों में प्राय: आम, जामुन, केला, कचनार, सरू तमाल बड़ खजूर आदि का चित्रण है। सरोवरों में कमल का पत्तों सहित अंकन है। 

कहीं-कहीं किसी चित्र में बारिश से बचने हेतु भी इनका प्रयोग किया गया है जैसे- साहित्य में किस प्रकार वृन्दावन का सौन्दर्य वर्णित है। वह यहाँ की गुरम्य घाटियों से प्रेरणा पाकर कलाकार की तूलिका की अभिव्यक्ति बन गया है। 

'किशोरी लाल के शब्दों में, "साहित्य में जो वृन्दावन के निकुंजों की सघन छाया, शीतल चाँदनी, यमुना तट पर कदम्ब वृक्षों का फलना-फूलना, श्यामल तमाल वृक्षों पर बादलों का आवारा घूमना, पक्षियों का कलरव और पशुओं की चापल्यपूर्ण क्रीड़ा का वर्णन मिलता है। वहीं सुरम्य घाटी काँगड़ा और उसके पाश्र्ववर्ती क्षेत्र में पहाड़ी चित्रकार के लिए साक्षात् व साकार हो उठा है। प्रातःकाल की प्रथम किरण से लेकर सूर्यास्त की अन्तिम किरण तक रात्रि की रहस्यमयता से लेकर चाँद की चाँदनी तक, बादलों की कलोल से लेकर विद्युत की गर्जन तक, वसन्त की तीव्र योजना से लेकर पतझड़ तक प्रत्येक अवयव को चित्रित करने में पहाड़ी कलाकार की तूलिका बहुत सक्षम थी।"

श्रृंगारिक दृश्य, विरहिणी नायिका व्यक्ति चित्रण आदि सभी के पाश्र्व में प्राकृतिक उपादानों को संजोया गया है। सूक्ष्म से सूक्ष्म तत्व को भी कलाकार ने अपने चित्रों एवं हस्त कौशल से विशिष्ट रूप प्रदान कर दिया पहाड़ी शैली के चित्र प्रत्येक दृष्टि से अनुपम है। 

विषय का चुनाव, धरातल का विभाजन वर्णों को इन्द्रधनुषी आभा, रेखाओं की लयात्मकता, रस का प्रतिपादन, वातावरण की सृष्टि पात्रों द्वारा प्रस्तुत भाव किसी भी क्षेत्र को देखें तो चित्र कलाकार की तुलिका की सिद्धहस्तता को प्रत्यक्ष करते हैं।

सम्भवतः इसी लिए गैरोला ने कहा है, पहाड़ी शैली के चित्रकारों ने कथानक के अनुरूप भावों की अभिव्यक्ति कर अनेक व्यक्तियों के चित्रों में कलात्मकता, एकता का समावेश और विषय के अनुसार, वातावरण का संपुजन (कम्पोजीशन) बड़ी ही विदग्धता से दर्शित किया है। उनके चित्रों में नर-नारी, पशु-पक्षी, वृक्ष, लता आदि का सन्तुलन भी दर्शनीय है। इस प्रकार के उपयुक्त संपुजन और सन्तुलन ने ही पहाड़ी शैली के चित्रों में जीवन फूंक दिया है और इसी हेतु उनमें अपरिमित सौन्दर्य समाविष्ट हुआ दिखाई देता है।” 

विशेषताएँ

ऐसा माना जाता है कि जो मुगल चित्रकार दिल्ली दरबार से निराश्रित होकर पहाड़ी रियासतों में आए थे। उन्होंने तत्कालीन पहाड़ी लोक कलाकारों के सहयोग से पहाड़ी शैली की परम्परा को विकसित किया। हिन्दू कला सम्परा की पुनस्थापना यहाँ के चित्रों में साकार रूप ग्रहण करती है। 

वास्तव में पहाड़ी शैली के चित्रों में काव्यात्मक विषय, लयात्मक रेखाकन, भावपूर्ण आकृतियाँ तथा लवलीन रंगों का जो सौन्दर्य है उसे चित्र स्वयं बोलते प्रतीत होते हैं। 

पहाड़ी शैली में सरलता है, स्फूर्ति है, सौष्ठव है, गतिशीलता है तथा सर्वोपरि भावनाओं की प्रबल अभिव्यक्ति है। 110) इसी सन्दर्भ में ‘वाचस्पति गैरोला’ का वक्तव्य प्रमुख है, “पहाड़ी चित्रशैली के निर्माण में वीं शताब्दी में निर्मित मुगल शैली के यथार्थवादी चित्रों का अतिशय प्रभाव है। पहाड़ी कलम में खाओं का नुकीलापन और रंगों की सजधज पर मुगल कला का आंशिक प्रभाव है। वास्तविकता तो यह है कि मुगल दरबारों से निराश्रित कलाकारों को पहाड़ी राज्याश्रयों में बस जाने के कारण उन्हीं के द्वारा पहाड़ी चित्रकला का निर्माण हुआ।”

“पहाड़ी चित्र शवाहत लिए हुए ख्याली होते हैं अर्थात् उनमें वास्तविकता और भावना का सम्मिश्रण रहता है। इस मिश्रण द्वारा इसके उस्तादों ने अपने चित्रण में बड़ी सजीवता और रमणीयता उत्पन्न की है। ऐसा कोई रस या भाव नहीं है जिसका पूर्ण सफल अंकन यह कलाकार न कर सके हों। उनका आलेखन आवश्यकतानुसार वज्रादपि कठोर व कुसुमादपि मृदु होता है। उनकी सहानुभूति अत्यन्त विस्तीर्ण तथा व्यापक है, उनकी प्रत्येक रेखा में प्राण, स्पन्दन और प्रवाह रहता है एवं वह एक अर्थ रखती है भले ही वह छोटी ही क्यों न हो।” 

रायकृष्ण दास का प्रस्तुत वक्तव्य सिद्ध करता है कि यह शैली स्वय में एक विशिष्ट स्वरूप को प्रस्तुत करती है जिसकी कुछ विशेषताएँ संक्षेप में इस प्रकार हैं:

रेखा सौन्दर्य

रेखा आदिकाल से मानव की अभिव्यक्ति में सहायक रही है। कला इतिहास से ज्ञात होता है कि विभिन्न युगों तथा विविध शैलियों के अन्तर्गत कलाकार रेखाओं के कुशल प्रयोग द्वारा ही चित्रों में अद्भुत रूप माधुरी को प्रस्तुत कर आत्माभिव्यञ्जना करता आया है। 

पहाड़ों शैली के चित्रों की रचना में मुगलिया कलाकारों द्वारा खींची गयी सधी रेखा अपनी कलात्मक विशिष्ट्ता प्रस्तुत करती है तो दूसरी ओर लोक कला के प्रभाव से अनुप्राणित रेखाएँ भी भावात्मक स्पन्दन क्रियान्वित करने में पूर्णतः सक्षम हैं। 

पहाड़ी कलम की उपशैलियों में रंगों की विविधता के साथ-साथ रेखाओं की मौलिकता में भी पर्याप्त अन्तर है जहाँ एक ओर काँगड़ा शैली को रेखाएँ लयात्मक, संजीव एवं सूक्ष्म है वहीं दूसरी ओर बसौली शैली के चित्रों में प्रयुक्त रेखाएँ सरल, स्थूल परन्तु सजीव हैं। 

प्रतीक हिन्दू राजाओं के गृहकलेश और विदेशी आक्रमणकारियों के बावजूद पहाड़ी शैली में पराम्परागत सांस्कृतिक विशेषताएँ अपनी चरम सीमा पर दिखायी देती हैं जिसमें भारतीय साहित्य से प्रेरणा लेकर कलाकार ने अपने हृदय की सुकोमल भावनाओं की राधा-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम के वितान तले लयात्मक रेखाओं तथा लवलोन वर्ण विधान द्वारा अत्यन्त लालित्य पूर्ण अभिव्यक्ति की है, जिसके पाश्र्व में इन कलाकारों ने यथार्थ, काल्पनिक, आलंकारिक विधि के साथ-साथ कुछ उपादानों का प्रतीकों के माध्यम से भी चित्रण किया है। 

इन चित्रों में प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति में जो तत्व माध्यम बने वह है- वृक्ष लता, पक्षी, पशु आदि। नाविकाओं के सौन्दर्य की वृद्धि के लिए उनके पाश्व में प्रतीकों का नियोजन कर कलाकारों ने अद्भुत कलात्मकता को संजोया है। 

केले के पत्तों का विछावन नारों को • मांसलता के संस्पर्श की अप्रत्यक्ष अभिव्यक्ति है। गुलाबी फूलों से लदा कचनार का पौधा राधा के सौन्दर्य को प्रतिबिम्बित करता है। सरई का वृक्ष भावोन्मत्त प्रेम का सार्थक प्रतीक है।

वृक्ष पर लता का आश्रित होना नायिका का नायक की ओर झुकाव का संकेत करता है। लक्ष्मी का प्रतीक रूप कमल का अंकन आनन्द का परिचायक बनकर प्रकृति की स्वाभाविक लय को भी प्रस्तुत करता है। 

ग्रामीण परिप्रेक्ष्य में की गयी कृष्ण की बाल लीलाओं के वर्णन में घड़ा जीवन चर्चा की ओर संकेत करता है। इसके अतिरिक्त घड़े का सुख समृद्धि के प्रतीक स्वरूप भी अंकन मिलता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि कृष्ण श्याम वर्ण तथा राक्ष गौर वर्ण थीं। कृष्ण और राधा की चारित्रिक विशेषताओं के समर्थन के लिए प्राकृतिक वातावरण में एक वृक्ष हरे तथा दूसरे हल्के रंग का चित्रित है।

राधा-कृष्ण के संसर्ग के प्रतीक स्वरूप पक्षी युगल को क्रीड़ा दशाकर चित्र के प्रतीकात्मक पक्ष के साथ-साथ भावनात्मक पक्ष को भी पुष्ट किया गया है। 

प्रतीकात्मक अंकन में पपीहा, सारस, तोता मैना, चकोर, मयूर आदि को आधार बनाकर संयोगावस्था में पक्षियों का चित्रण साथ-साथ तथा विरह में एकाकी रूप में प्रस्तुत किया गया है।

इसी प्रकार हिमालय की नीरवता में नदियों का कलकल निनाद प्राकृतिक सुषमा को ही नहीं बढ़ाता वरन् नायक-नायिका के उद्वेलित प्रेम एवं संसर्ग की उद्दाम भावनाओं को भी प्रस्तुत करता है। 

आंधी-तूफान में अपने प्रिय के मिलन को जाती हुई नायिका के मार्ग में बाधा उत्पन्न करते हुए सर्प आदि का प्रतीकात्मक अंकत किया गया है। इसलिए यह निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कलाकार की चेतना एवं भाव कल्पना निश्चित हो विविध माध्यमों से आत्माभिव्यक्ति करने में सक्षम है।

रस चित्रण

"कला में रस परिपाक की एक परम्परागत विधा रही है। चित्रकला में रूप और रंग की विचित्रता मन पर जो अपना समन्वयात्मक प्रभाव छोड़ती है, वही सौन्दर्य है और इस सौन्दर्य की अनुभूति का नाम सौन्दर्य चेतना है सौन्दर्य से जिस अनूठे आनन्द की प्राप्ति होती है उसे साहित्यशास्त्र में 'रस' का नाम दिया गया है।"-'किशोरी लाल वैद्य'

भारतीय कला चिन्तन का विशिष्ट अन्वेषण रस है, जिसकी परिकल्पना के पाश्र्व में भारतीय विचारको की तत्वान्वेशी वृत्ति का व्यापक परिवेश है। पहाड़ी कला पूर्णतः रस प्रधान है। 

चित्रों को देखकर ही यह प्रत्यक्ष हो जाता है कि किस प्रकार पहाड़ी शैली के कलाकार ने राधा-कृष्ण के प्रेम को मात्र नायक-नायिका के प्रेम तक सीमित न करके उसे आत्मा-परमात्मा के आध्यात्मिक प्रेम में परिणित कर दिया है। 

रसिक प्रिया, गीत-गोविन्द, बिहारी सतसई आदि के ऐसे असंख्य चित्र हैं जिनमें विभिन्न रसों की सृष्टि की गयी है। माता यशोदा तथा कृष्ण के अंकन में कलाकार ने जो वात्सल्य रस दर्शाया है, वह निस्सन्देह रूप से अवर्णनीय है। 

इस प्रकार ऐसे अनेक चित्र हैं, जिनमें युद्ध, आखेट आदि के दृश्यों की रचना है, जो वीर रस को दर्शाते हैं। इसके विपरीत ध्यानमग्न, सौम्य, शान्तचित्त सात्विक आकृतियाँ शान्त रस को प्रस्तुत करती हैं। शायद ही कोई रस ऐसा है जिसे पहाड़ी शैली का कलाकार प्रस्तुत करने में असमर्थ रहा हो।

रेखा चित्र

पहाड़ी चित्रों के साथ-साथ रेखाचित्रों का भी एक अपना निजी महत्व है। इन रेखाचित्रों में लय है, भावनात्मकता है तथा मुख्य रूप से विषय सौष्ठव का गौरव है। कुछ सीमित, सरल एवं सुदृढ़ रेखाओं के माध्यम से कलाकार ने कुछ मूक रहकर बहुत कुछ कह दिया। 

है। निल-दमयन्तो रामायण आदि के कथानकों पर आधारित पहाड़ी रेखा चित्र भारत के संग्रहालयों में सुरक्षित है। इन रेखा चित्रों में कलाकारों ने जितनी खूबसूरती से मानवाकृतियों को बनाया है उतनी ही लवलीनता से नैसर्गिक उपादानों को कलाकार पहले से ही रेखाचित्रों को तैयार कर लेते थे और जब कहीं से चित्र की माँग होती थी तो उनमें रंग भर कर देते थे चित्रों की प्रतियाँ भी बनती थी इसलिए एक मूल ड्राइंग हिरण की चमड़ी दे पर बनाकर सुरक्षित रख ली जातो थी। यह सामग्री पीढ़ी दर पीढ़ी चलती रहती थी यही कारण है कि पहाड़ी चित्रकला मे लगभग 50000 चित्र मिलते हैं।

वर्ण सौष्ठव

"जिस प्रकार भारतीय संगीत में लयात्मकता सम्बन्धी उलझन नहीं बल्कि उसमें वेगयुक्त स्वर-माधुर्य की सूक्ष्मता पूर्ण प्रवाह में है उसी प्रकार चित्रकला में भी भारतीय कलाकार गहरे आये, टूटे हुए रंगों का उपयोग नहीं करता। वह तो अपने रंग-संगीत की पूर्ण सधी हुई ताल के द्वारा प्रकाश और वातावरण का प्रभाव उत्पन्न करता है।" -'ई०वी० हैवेल'

पहाड़ी शैलो का चित्रकार वास्तव में बाह्य बन्धनों से मुक्त प्राकृतिक सुषमा में बैठकर आत्मानुभूति को जब पट पर साकार करना प्रारम्भ करता है तो उसकी नवोन्मेषिणी प्रतिभा से जो रूप साकार होते हैं वह निश्चित कलात्मकता, भावनात्मकता तथा आध्यात्मिकता के संगम बनकर दर्शक को सहज ही मोह लेते हैं। 

अजन्ता के चित्रों को लयात्मक रेखाएँ, आकर्षक वर्ण-सौष्ठव, भावनापूर्ण मुखाकृतियाँ, नैसर्गिक सौन्दर्य आदि एक बार पुनः अपने चरमोत्कर्ष पर पहाड़ो चित्रों में लक्षित होता है जबकि रचनाओं के निर्माणकर्ता पृथक् थे, विषय पृथक् थे और नियोजन भी पृथक् था। पहाड़ी शैली के चित्रों को विशिष्ट्ता के अन्तिम सोपान तक पहुंचाने में वर्ण सौन्दर्य का एक प्रमुख स्थान माना जाता है। 

पहाड़ी चित्रों में रंग उपादान के यथार्थ रंग नहीं है वह काव्यात्मक हैं, भावात्मक हैं तथा सबसे ऊपर एक स्वप्निल वातावरण की सृष्टि करने में सहायक हैं। मुख्य रूप से इन चित्रों में तीव्र लाल, बरमिलियन हरा आदि रंगों की विविध तानों को सामञ्जस्यपूर्ण विधि में लगाया गया है। 

वैसे तो पहाड़ी चित्रकार ने सौमित वर्ण योजना द्वारा उन्हें विषय की आवश्यकतानुसार लगाया है, परन्तु कहीं-कहीं रंगों की विविधता और अधिक भो है। जैसे होली के अंकन में परन्तु कलाकार ने यहाँ भी इन्हें सन्तुलित रूप में प्रयुक्त कर अपनी कलात्मकता को प्रस्तुत किया है।

पहाड़ी चित्रों को सूक्ष्मता से देखने पर भान होता है कि यहाँ के विभिन्न शैलियों में बने चित्रों में वैविध्य है क्योंकि काँगड़ा के कलाकार ने रंगों का जो चयन किया है वह बसौली से भिन्न है क्योंकि बसौली में कलाकारों ने रंगों की तीव्र तान तथा मुख्यतः लाल, नीला, पीला प्राथमिक रंगतों को ही प्रयुक्त किया है जबकि काँगड़ा में रंगों की मिश्रित तानों का प्रयोग है। गुलेर के चित्रों में भी काँगड़ा चित्रों के सदृश ही रंगों को लगाया गया है। 

वसौली में प्राय: एक रंग की सपाट पृष्ठभूमि है जबकि काँगड़ा परिपक्व कलाकारों द्वारा निर्मित शैली परिष्कृत रूप प्रस्तुत करती है। यही कारण था कि बसौली में प्राथमिक रंगों को रुचिकर माना गया। लोककला को विशिष्टताओं का प्रभाव कुल्लू तथा मण्डी की रचनाओं में भी देखा जा सकता है।

पहाड़ी शैलो का कलाकार जितनी खूबसूरती से रंगों को लगाता था उतनी कार्यकुशलता से वह उन्हें बनाता भी था। इन रंगों को फूलों, फलों और वनस्पतियों से बनाया जाता था और रंगों को लगाने के लिए कुटीर उद्योग के बने कागज को प्रयुक्त किया जाता था जिसे सियालकोटी कहा जाता था। 

यह कागज सफेद के स्थान पर मटमैला होता था। कागज पर सफेद रंग को एक परत लगाकर चित्रण योग्य बना लिया जाता था तत्पश्चात् हल्के लाल रंग से प्रारम्भिक रेखांकन किया जाता था और फिर काले रंग से उन्हें गाढ़ा कर दिया जाता था रेखांकन के पूरा हो जाने पर चित्र में रंग भरे जाते थे। 

पहले ये रंग पृष्ठभूमि के उपादानों में तथा बाद में आकृतियों में लगाये जाते थे। अन्त में तूलिकाओं की आवश्यकतानुसार उभारा जाता था। पहाड़ी शैली में प्रयुक्त तूलिकाएँ गिलहरी के पूँछ को वालों से बनती थी।

संयोजन

वर्ण सौन्दर्य, रेखा सौष्ठव, भावनात्मक मानवाकृतियाँ आदि सभी विशिष्टताओं को पहाड़ी कलाकार ने अपने पट पर कुशलता से संयोजित किया है जिसमें समय समय पर परिवर्तन के साथ-साथ विविधता है, कहीं अन्तराल विभाजन सरल है तो कहीं जटिल, कहीं सीमित आकृति हैं तो कहीं अधिक परन्तु प्रत्येक अवयव का सन्तुलन दर्शनीय है।

कहीं कलाकारों ने पृष्ठभूमि को सपाट बनाया है ताकि पात्रों के भावों को अभिव्यञ्जना में कोई बाघा उपस्थित न हो किन्तु बहुत से चित्रों में जहाँ प्राकृतिक उपादानों के माध्यम से पृष्ठभूमि का अन्तराल संयोजित किया है, नैसर्गिक वातावरण मानवाकृतियों की भावाभिव्यञ्जना में सहायक है। इसके अतिरिक्त पृष्ठभूमि में वातावरण उपस्थित करने में कलाकारों ने वास्तु का भी आश्रय लिया है जिस पर मुगल शैली का प्रभाव लक्षित होता है। 

मुगल चित्रों में बने गुम्बद मेहराव, छज्जे तथा उन पर की गयी वेल-बूटों की नक्काशी सहज ही पहाड़ी चित्रों को पृष्ठभूमि में देखी जा सकती है। मुगल वास्तु के अतिरिक्त विषय की आवश्यकतानुसार ग्रामीण परिदृश्य को भी चित्रों को पृष्ठभूमि में स्थान दिया गया है।

पाश्चात्य प्रभाव

भारत में अंग्रेज अधिकारियों के आने पर पाश्चात्य चित्र तथा साधन सामग्री भारत के कई स्थानों पर प्रयुक्त होने लगी। पहाड़ी शैली में विशेष रूप से मण्डी में अन्तिम समय में पाश्चात्य प्रभाव से चित्र बनने लगे। कैनवास पर तैल रंगों से यथार्थता, सादृश्यता, परिप्रेक्ष्य, शारीरिक संरचना आदि के नियमों के आधार पर चित्रांकन किया जाने लगा। व्यक्ति चित्र, नायिकाएँ सन्त आदि विषयों पर कई चित्र बने इस प्रकार के चित्रण कार्य में दक्ष चित्रकार ‘गाहिया नरोत्तम’ का नाम प्रमुख रूप से जाना जाता है।

गुलेर शैली

काँगड़ा कलम को विशिष्ट्ता प्रदान करने में गुलेर के कलाकारों का विशेष योगदान माना जाता है। गुलेर,काँगड़ा को एक उपशाखा के रूप में थी। राजा दलीप सिंह (1645-1730) गुलेर के एक समृद्ध शासक हुए जिनके समय में चित्र कला की एक परम्परा प्रचलित थी, परन्तु वह वसौली शैली से मिलती-जुलती थी।

इसके बाद मुगल दरबार से निराश्रित होकर कुछ कलाकार जब पहाड़ी रियासतों में आए तो उन्हें गुलेर में आश्रय मिला। एक कलाकार जो कि 1740 ई० में गुलेर आया उसको शैली नैनसुख के समीप थी। इस समय में चित्रों में कुछ मुगल तथा कुछ पहाड़ी कलम का सम्बन्धित प्रभाव लक्षित होता है।

कुछ चित्रों में बसौली कलम का प्रभाव भी दिखाई देता है जिसमें आकृतियों की पार्श्वभूमि चौरस है जिसे प्राय: लाल रंग से अथवा नीला, लाल तथा सफेद रंगों के मिश्रण से निर्मित किया गया है।

ऐसा माना जाता है पहाड़ी शैली ने काँगड़ा शैली के रूप में विशेष प्रसिद्धि प्राप्त की किन्तु पहाड़ी कला का उदय गुलेर में हो माना जाता है। गुलेर का लालित्य स्वयं में परिपूर्ण हैं। 1780 ई० तक इस शैली ने अपना निजस्व स्थापित कर लिया था। यहाँ के कलाकारों ने अन्य रियासतों में भी जाकर कार्य किया।

विद्वानों के अनुसार ऐसा माना जाता है कि 1405 ई० के लगभग काँगड़ा का राजा हरिचन्द शिकार पर गया था जो कि रास्ता भटक कर एक कुएँ में गिर गया। कुछ दिनों बाद एक राहगीर ने राजा को कुएँ से निकाला। जब वह काँगड़ा वापिस आया तो उसकी रानी सती हो चुकी थी और उसका छोटा भाई राजगद्दी पर बैठ चुका था।

किन्तु काँगड़ा के भूतपूर्व राजा ने अपने भाई को गद्दी से न उतार कर एक नए राज्य गुलेर की स्थापना की। काँगड़ा की तुलना में गुलेर एक छोटा सा राज्य था, किन्तु भौगोलिक स्थिति सुन्दर एवं अनुकूल होने के कारण यह वर्षों तक कला का केन्द्र रहा।

अन्य पहाड़ी शासकों के समान यहाँ के शासकों ने भी कलाकारों को आश्रय दिया। मुगल दरबार से भी यहाँ के शासकों को समर्थन एवं सहायता मिलती रही। राजा रूपचन्द्र राजा मानसिंह, राजा विक्रमसिंह आदि के • संरक्षण में गुलेर की सत्ता को बल तथा कलाकारों को आश्रय मिलता रहा। राजा हरिचन्द गुलेर का प्रथम राजा था जो कटोच राजवंश का था। इन सभी सम्राटों के दिल्ली दरबार में सम्बन्ध थे।

इसी के परिणाम स्वरूप निश्चित रूप से यहाँ के कलाकारों ने मुगल चित्रकारों के साथ मिलकर कार्य किया। चूँकि गुलेर के राजाओं के मुगल दरबार से सम्बन्ध थे। इसलिए यहाँ की कला पर मुगल प्रभाव लक्षित होता है। इसका कारण यह भी था कि गुलेर समतल भूमि के अधिक निकट था।

गुलेर के शासकों की दयालुता तथा कलाप्रेमी होने के कारण गुलेर काँगड़ा कला का प्रमुख केन्द्र बन गया। दोनों रियासत दो भाइयों की होने के कारण उनमें आपसी प्रेम एवं सम्मान भी था। एक राज्य कलाकार दूसरे के राज्य में निरन्तर आते-जाते रहे।

गुलेर के समीप व्यास नदी के दायों ओर पहाड़ी पर एक भवन था, जिसमें भित्ति चित्र थे किन्तु भूचाल के कारण वह नष्ट हो चुका है। राजा दलीप सिंह, राजा गोवर्धन सिंह और प्रकाशसिंह के समय में गुलेर की कल्प में सबसे अधिक उन्नति हुई क्योंकि राजनैतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से कलाकारों को शान्त वातावरण मिला।

राजा गोवर्धन सिंह के पास एक बलिष्ठ घोड़ा था। अनेक चित्रों में उन्हें अपने इस प्रिय घोड़े के साथ चित्रित किया गया है। कला पोषक के रूप में उनकी विशेष ख्याति हुई उन्होंने कलाकारों को सहायता दो।

बसौली की राजकुमारी से उनका विवाह हुआ जिसके परिणामस्वरूप दोनों रियासतों में सम्बन्ध बलिष्ठ हुए और एक स्थान के कलाकारों ने दूसरे स्थान पर जाकर कार्य किया। मनक ने गुलेर तथा बसौली दोनों स्थानों पर कार्य किया।

गुलेर के आरम्भिक चित्रों पर मुगल शैली का प्रभाव था जिन्हें पंडित सेओ तथा उनके पुत्र मनक् तथा नैनसुख ने बनाया था। गुलेर के अतिरिक्त नैनसुख ने जम्मू के राजा बलवन्त सिंह के लिए चित्र बनाएँ, जिनमें उनके राजपरिवार के चित्र प्रमुख हैं।

इन कलाकारों का विवरण पुरानी बहियों से मिलता है जो हरिद्वार में सुरक्षित हैं। इन बहियों में केवल गुलेर ही नहीं चम्बा काँगड़ा आदि क्षेत्रों के कलाकारों की हरिद्वार की यात्राओं का वर्णन मिलता है।

नैनसुख के पिता का नाम सेओ था। इनके परिवार में कलाकारों को एक लम्बी परम्परा थी जिन्होंने चारों ओर के प्राकृतिक वातावरण से प्रेरणा लेकर अपनी हृदयस्थ भावनाओं को पट पर साकार कर दिया।

अन्य पहाड़ी शैलियों के समान गुलेर के कलाकारों ने भी साहित्य से प्रेरणा ली जिसमें रामायण सम्बन्धी चित्र अपनी महती भूमिका रखते हैं।

इसके साथ कलाकारों ने महाभारत को भी आधार बनाकर अपनी तूलिका को अभिव्यक्ति प्रदान की। इसके अतिरिक्त मुगल के प्रभाव से राजदरवारों का भी अंकन किया गया है चूँकि राजा गोवर्द्धन सिंह को घुड़सवारी का शौक था इसलिए इससे सम्बन्धित चित्र भी मिलते हैं।

जिनमें उन्हें घोड़े पर सवारी करते हुए दर्शाया गया है। इन सभी विषयों के अतिरिक्त कलाकारों ने सामाजिक चित्रों को भी बनाया गुलेर शैली के चित्रों की मानवाकृतियों की रचना में सुन्दर लयात्मक एवं भावनात्मक अंकन है।

कुछ ही सीमित विशिष्ट्ताओं के माध्यम से कलाकारों ने निज अभिव्यक्ति कर रूपाकारों को भावपूर्ण एवं लालित्यपूर्ण बना दिया है। काँगड़ा चित्रों की भावनात्मक परिकल्पना गुलेर के चित्रों में भी दिखाई देती है। नारी आकृतियों के चित्रण में गुलेर शैली में कोमलता एवं लयात्मकता है।

हैदराबाद के व्यक्तिगत संग्रह में संगीत का आनन्द लेती हुई नायिका (Lady Listening to music) नामक चित्र इस सन्दर्भ में अपनी विशिष्ट शैली प्रदर्शित करता है। इस चित्र में एक स्त्री चौकी पर बैठी संगीत का आनन्द ले रही है।

उसकी गोद में एक पक्षी है। हरे वृक्षों के पार्श्व में श्वेत रंग का वास्तु बहुत सुन्दर प्रतीत होता है। पृष्ठभूमि में झील कमलदल मैदान आसमान सभी चित्र में परिप्रेक्ष्य का स्वाभाविक प्रभाव उत्पन्न करते हैं।

इसी शीर्षक से इसी समय (1750 ई० में) जम्मू में भी एक चित्र मिलता है जो ब्रिटिश म्यूजियम लंदन में सुरक्षित है परन्तु दोनों चित्रों की शैली में पर्याप्त भिन्नता है। गुलेर की तुलना में जम्मू वाले चित्र में वर्ण योजना चटख है।

वाचस्पति गैरोला ने संक्षेप में गुलेर की विशिष्ट्ताओं को इस प्रकार बताया है, “गुलेर की कला में सर्वत्र ही वर्णविषय की विशेष परिस्थिति को सदा ही ध्यान में रखा गया है। मुद्राओं के अंकन और तीव्र अनुराग की अभिव्यक्ति का भी ध्यान रखा गया है। व्यक्ति चित्रों की अभिव्यक्ति में आकृति की स्पष्टता, रेखाओं की गतिमत्ता और रंगों का सरलीकरण सभी के सहयोग से चित्रों में एक भव्य प्राकृतिक भाव दर्शित है।”जैसा कि यह सर्वविदित है कि सभी पहाड़ी राजाओं को व्यक्ति चित्र बनवाने का शौक था।

उसी प्रकार गुलेर के यशस्वी शासकों ने भी अपनी गौरव गाथा सुरक्षित रखने हेतु अपने व्यक्ति चित्रों को बनवाया जिसमें आकृति की स्पष्टता, रंगों को सजीवता तथा रेखाओं की लयात्मकता, मुद्राएँ, भगिमाएँ सभी में गौरवपूर्ण लालित्य है।

राजा गोवर्धन सिंह समय तक गुलेर कलम अपनी एक पहचान बना चुको किन्तु उनको मृत्यु के पश्चात गुलेर के कलाकारों ने अन्य पहाड़ो रियासतों में आश्रय लिया। राजा गोवर्द्धन सिंह का एक चित्र मिलता है। ‘नृत्य का राजा गोवर्द्धन चन्द’ भारत कला बनारस में सुरक्षित है।

इस चित्र राजा एक रेलिंग वाली चौकों पर बैठा है जिसके पीछे दो सेवक है एक ने उनका हुक्का पकड़ा हुआ है जिसे वह पी रहे दायीं और पुरुष नर्तक वादकों का समूह है जो कि मुगल चित्रों में मिलता जुलता है पृष्ठभूमि में सपाट आकाश तथा अग्रभूमि में कालीन बिसा है जिस पर फूलपत्तियों से आलेखन किया गया है।

पंजाब म्यूजियम में सुरक्षित एक अन्य चित्र राजा गोवर्धन सिंह को चौपड़ खेलते हुए दर्शाया गया जिसको तीव्र रंग योजना दृष्टि को विशिष्टतया आकर्षित करती है।

गुलेर शैली के चित्रों में विषय की विविधता है। व्यक्तिचित्रण के साथ-साथ विभिन्न साहित्यिक ग्रन्थों में प्रेरित होकर भी इन कलाकारों ने चित्रों को रूपायित किया। भारत कला भवन में मार्कण्डेय मुनि के पवित्र स्थल का चित्रण है जहाँ पर राजा सुरथ तथा समधी आते हैं। दोनों सिर झुकाकर मुनि को अभिवादन कर रहे हैं।

मुनि खाल के सिंहासन पर विराजमान दाएँ हाथ द्वारा उनसे वार्तालाप की मुद्रा में हैं पृष्ठभूमि में प्राकृतिक वातावरण है. अग्रभूमि में दाँयी ओर हरिण बनाए गये हैं, उनमें से एक हरिण एक घड़े में से पानी पी रहा है। भागवत से सम्बन्धित एक चित्र डबलिन में सुरक्षित है जिसमें उस समय का वर्णन है जब कृष्ण कस के दरबार में अपने साथियों के साथ उसके विनाश के लिए आते हैं।

अग्रभूमि में एक योद्धा गिरा हुआ है और एक से लड़ाई रहे है। कृष्ण कंस के समक्ष उन्हें चुनौती देने की मुद्रा में हैं। संगीतज्ञों ने यह दृश्य देख कर संगीत बजाना बंद कर दिया है जिनके चेहरे के आश्चर्य के भाव बहुत स्वाभाविक हैं। पृष्ठभूमि में चित्रित वास्तु का अकन साधारण है। दरबारियों के चेहरे के भाव देखने लायक हैं कि किस प्रकार एक छोटा सा बालक कंस जैसे शासक को चुनौती दे रहा है।

भागवत के साथ-साथ बिहारी सतसई भी गुलेर के कलाकारों को विशेष प्रिय था उस पर आधारित कलाकारों ने बहुत से चित्रों को रच डाला, जिनमें प्रेम एवं जीवन की आत्मा के प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। राधा-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम को विभिन्न भाव-भगिमाओं के साथ प्राकृतिक पृष्ठभूमि में कोमल रेखाओं एवं लवलीन रंगों द्वारा इस प्रकार व्यक्त किया है कि देखने वाला आकर्षित हुए बिना नहीं रहता।

बारहामासा के चित्रों में भी इसी प्रकार नायक-नायिका की सुकोमल भावनाओं को सुन्दरतापूर्वक उकेरा गया है। विद्वानों के अनुसार इन चित्रों की रचना प्रक्रिया बिहारों सतसई से मिलती जुलती है क्योंकि सम्भवतः इसे भी उन्हीं कलाकारों ने बनाया था।

मॉर्डन आर्ट गैलरी नई दिल्ली में सुरक्षित रागमाला के जो चित्र है, रंगाकन तथा रेखांकन में यह चित्र बिहारी सतसई तथा बारहमासा के चित्रों के सदृश महत्वपूर्ण है। कृष्णलीला से सम्बन्धित चित्रों में प्रकृति का साम्राज्य बहुत सुन्दर है एक चित्र में को कमल के तालाब में दर्शाया गया है।

काँगड़ा शैली

“काँगड़ा के चित्रकारों की कृतियों में ऊषा और इन्द्रधुनषी रंगों का सुन्दर प्रदर्शन हुआ है। उनके द्वारा अंकित मुखाकृतियाँ, पुरुषाकृति चित्रों में वीरता और स्त्री मुखाकृतियों में अद्वितीय सौन्दर्य शालीनता और संयम टपकता है, इन्हें देखकर ऐसा लगता है कि हम किसी जादू के संसार में आ -‘जे०सी० फ्रेंच’ वाह्य रूप से समस्त पहाड़ी कला पहुंचे हैं। कांगड़ा के नाम से अभिहित की जाती है जिसका कारण यहाँ के राजाओं का अन्य पहाड़ी रियासतों पर प्रभुत्व तथा यहाँ के कुशल कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त लालित्यपूर्ण चित्र रचना है।

काँगड़ा की चित्रकला केवल कलात्मक गुणों के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है वरन् हिमालय की वादियों की महक वर्षा ऋतु की निर्मल फुहार आकाश में स्वछन्द पंछियों की उड़ान सर्पाकार नदियों का कलकल निनाद तथा नायक-नायिका का कलोल और सबसे ऊपर सही अर्थों में भारतीय संस्कृति एवं सौन्दर्य को मुखरित करने में भी यह कलम सक्षम बनी है।

काँगड़ा की कलम केवल यहाँ तक सीमित नहीं रहीं वरन् उसने अन्य पहाड़ी रियासतों की कलम को भी प्रेरणा एवं शक्ति प्रदान की। काँगड़ा घाटी में कला के उदय के संदर्भ में विद्वान कलाकार पहाड़ी रियासतों की ओर आश्रय की खोज में गए, जहाँ कला लोक कला के रूप में प्रचलित थी। इन्हीं दोनों के सहयोग से पहाड़ी कला का पुष्प पल्लवित हुआ।

किशोरी लाल वैद्य के शब्दों में, "मुगल शैली के प्रवीण चितेरों ने न केवल राज्य प्रश्रय ही पाया बल्कि काँगड़ा घाटी की मनोहारी दृश्यावली ने उनका मन भी हर लिया और फिर वे अपने आश्रयदाता की रूचि शुचि के अनुकूल विषयों को चुनते रहे और इस प्रकार मुगल शैली ने विशुद्ध हिन्दू परम्परात्मक साहित्य के अनुकूल करवट ली।"

ऐसा मानते हैं कि मुगल दरवारों से निराश्रित होकर चित्र 78 कांगड़ा घाटी एक दृश्य-स्थली 10वीं, 11 वीं शताब्दी में महमूद गजनवी के पंजाब पर आक्रमण के समय कटोच राजवंश ने नगरकोट (काँगड़ा) में आश्रय लिया था। परन्तु गजनवी ने काँगड़ा किले पर अधिकार कर लिया बाद में दिल्ली के शासक पर्णभोज की सहायता से पहाड़ी राजाओं ने अपना किला छुड़ा लिया।

काँगड़ा में एक कहावत प्रसिद्ध थी- ‘He who holds the Kangra fort, holds the hills. ” तुजुक-ए-जहाँगीरी के अनुसार “काँगड़ा का किला जहाँगीर के आधिपत्य में 1620 ई० से अन्तिम अठाहरवीं शताब्दी तक रहा, तत्पश्चात् कुछ समय अफगान के आश्रय में रहा परन्तु 1786 ई० में यह काँगड़ा के संसारचन्द के पास आ गया किन्तु वह भी उसे के ज्यादा समय तक अपने आश्रय में नहीं रख पाए।”

इस प्रकार काँगड़ा के इतिहास की कहानी बहुत लम्बी । काँगड़ा का कटोच राजवंश प्राचीनतम राजवंशों में माना जाता है। काँगड़ा के सभी शासकों ने अपनी सत्ता बढ़ाने है। में बहुत परिश्रम किया। साथ ही कला एवं संस्कृति के क्षेत्र में भी निरन्तर यहाँ विकास होता रहा। यहाँ पर शासकों

की एक महान् परम्परा रही है। राजा हमीर बन्द, अभय चन्द, घमण्ड चन्द और संसारचन्द इन सभी राजाओं के प्रश्रय में काँगड़ा कलम को विकसित होने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सुजानपुर में घमण्ड चन्द ने राधा-कृष्ण का नर्मदेश्वर मन्दिर बनवाया जिसके अन्दर एवं बाहर चित्रों की सुन्दर रचना की गयी है।

अपनी कार्य कुशलता से घमण्ड चन्द्र ने कटोच वंश की अस्त हुई समृद्धि सम्पन्नता एवं भाग्यलक्ष्मी को पुनरुज्जीवित किया। घमण्ड चन्द के महान कार्यों की थाती को उनके पौत्र संसारचन्द ने संभाला। इन सभी राजाओं में संसारचन्द के आश्रय में काँगड़ा की कला अपने उत्थान पर पहुँची।

10 वर्ष की आयु में जब संसारचन्द गद्दी पर बैठे थे तो उन्हें बहुत संघर्ष करने पड़े, परन्तु धीरे-धीरे उन्होंने अपनी शक्ति से बहुत सी रियासतों को मुगलों के अधिकार से मुक्त कराकर अपने आश्रय में ले लिया।

इन्हीं के समय में गुरखों के आक्रमण से पहाड़ी रियासतों में काफी हानि हुई और संसारचन्द ने रणजीत सिंह को सहायता के लिए बुलाया, जिन्होंने काँगड़ा किले के बदले में संसारचन्द की सहायता की। तत्पश्चात् काँगडा पर सिक्खों का अधिकार हो गया। काँगड़ा घाटी हिमालय के पश्चिमी भाग में हैं जिसकी छठा अनुपम है।

‘इम्पीरियल गजेटियर ऑफ इण्डिया’ में कांगड़ा के सौन्दर्य के संदर्भ में लिखा गया है, “काँगड़ा घाटी घौलाधार की उत्तर पश्चिम दिशा से दक्षिण पूर्व दिशा की ओर प्रायः समानान्तर जाता हुआ एक लम्बा और अनियमित पर्वत-पुंज है, अपनी सुन्दरता के लिए प्रसिद्ध है, उसके आकर्षण का मुख्य कारण न इसकी उर्वरा खेती है और न इसकी शाश्वत हरियाली ही, वह है घाटी के सामने की धौलाधार की उत्तुंग हिमाच्छादित पर्वत श्रेणी जिसकी कहीं कहीं तेरह हजार फुट की ऊंचाई है और जो रास्ते के हर मोड़ के साथ एक नयी छटा प्रदर्शित करती है।”

सांस्कृतिक दृष्टिकोण से भी काँगड़ा सम्पन्न एवं वैभवपूर्ण था। इसका प्रभाव भी यहाँ की कला पर पड़ा ऐसा देखा गया है कि प्रकृति ने मुक्तहस्त से अपनी रूप माधुरी को प्रस्तुत कर कलाकारों को रचना की प्रेरणा के साथ चित्रों के लिए वातावरण भी उपस्थित किया।

सघन देवदार एवं चीड़ के वृक्ष बर्फ से ढकी चोटियाँ, कलकल करती, लहराती नदियाँ, ऊँची चोटियाँ मेघमालाएं, पहाड़ों पर बसे छोटे छोटे घर, विविध प्रकार के फल-फूल, लताएँ सहज ही कौंगड़ा के पहाड़ी चित्रों की पृष्ठभूमि में देखे जा सकते हैं। इस प्राकृतिक वातावरण में राधा-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम की सुकोमल लोलाएँ चित्रों में चार चाँद लगा देती हैं।

वाचस्पति गैरोला काँगड़ा के सौन्दर्य को चित्रों की उत्कृष्टता का कारण बताते हुए लिखते हैं, "काँगड़ा शैली की उत्कृष्टता का कारण वहाँ की पर्वत श्रेणियाँ हैं। गिरि-निर्झर, रंग-बिरंगे फूल, पक्षियों से गुजित घाटियाँ, पृथ्वी तथा गगन को छूती हुई मेघमालाएँ, उड़ती हुई बक-पंक्तियाँ, पहाड़ी जंगलों और सारस, शुक, शेर, हाथी, कदली, चम्पा के लुभावने दृश्यों तथा फल-फूलों के चित्रण में इस शैली का अत्यन्त मनोहारी रूप अभिव्यक्त हुआ है।"

विषय विवेचन के रूप में काँगड़ा शैली की पृष्ठभूमि में वैष्णव मत का प्रभाव दिखाई देता है। वैष्णव मत में कृष्ण को आराध्य देव माना गया है।

वैष्णव मत प्रेरणा लेकर ही कवि जयदेव विद्यापति आदि ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में जिन शब्द चित्रों को खींचा उससे प्रेरित होकर काँगड़ा के कलाकारों ने भी अपनी का उठाकर कृष्ण की लीलाओं को विविध रंगों में रंग डाला।

कलागत गुणों में काँगड़ा शैली के चित्रों में मुगल चित्रों सशकलम को बारीकी है, परन्तु भावात्मक पृष्ठभूमि में वह पहाड़ी कलाकार की निजी भावनाओं एवं अनुभूतियों को अभिसिञ्चित करती है।

यह कहा जा सकता है कि यहाँ को कला में आध्यात्मिक प्रेम है. परिकल्पना की उड़ान है संवेदनाओं की गहराई है. मुगल कला को भव्य शान-शौकत एवं रंगीनियों से वह संबंधा दूर है। ‘कृष्ण का वंशी वादन’ नामक चित्र इसी प्रकार के चित्रों में से एक है।

यह चित्र भागवत पुराण से सम्बन्धित है। ऐसा माना जाता था कि जब कृष्ण बासुरी बजाते थे तब जल चल चर अचर, पशु पक्षी सभी उनका वंशी की मधुरता का रसपान करते थे। प्रस्तुत चित्र में कृष्ण की वंशी को मोहिनी तान का आकर्षण चित्रित है।

बायाँ और कृष्ण राधा के साथ वृक्ष के नीचे चित्रित है। दीया और गायों और खाल वालों का समूह भाव विभोर है। पृष्ठभूमि में आकाश में घने बादल, विद्युत रेखा एवं बगुलों की पंक्ति है, मोर नृत्य करने को आतुर है। ग्वाल बाल कमल पत्र से वर्षा से रक्षा कर रहे हैं। सम्पूर्ण चित्र में संगीतात्मकता है।

वैसे तो समस्त पहाड़ी चित्रों में काव्य, संगीत और चित्रकला की त्रिवेणी दिखाई देती है, परन्तु काँगड़ा में यह मुख्य भूमिका निभाते हुए भारतीय संस्कृति का समृद्ध दर्शन प्रस्तुत करती है।

रंधावा के अनुसार, “काव्य का चित्रकला में रूपान्तर ही काँगड़ा कला का अद्वितीय गुण है। काव्य की पीठिका में प्रवाहमान लयात्मक रेखाओं ने काँगड़ा कला को गेयता दी है।

इसे सहज ही शान्त संगीत कहा जा सकता है मानसिक व्यथा के कठिन क्षणों में आप इन चित्रों में सान्त्वना पा सकते हैं। यह वह कला है जो मन को सुखकर प्रतीत होती है और आत्मा को ऊंचा उठाती है।”

काँगड़ा कलम में राग-रागिनियों को उनके अंग-प्रत्यंग और वातावरण के साथ सुन्दर ढंग से रूपापित किया गया है। काँगड़ा से पूर्व भी अन्य पहाड़ी शैलियों में भी राग-रागिनियों को आधार बनाकर चित्रण किया गया है, परन्तु जितनो लयात्मकता एवं सजोवता काँगड़ा शैली के चित्रों में है वह अन्यन्त्र मिलना दुर्लभ है।

कला के काव्यात्मक पक्ष के प्रस्तुतीकरण का एक मुख्य कारण था- राधा कृष्ण के प्रेम की आध्यात्मिक अभिव्यक्ति राजा संसारचन्द वैष्णव धर्म के अनुयायी और कृष्ण के भक्त थे।

कृष्ण के प्रति भक्ति तथा उनके जीवन का प्रेम संसारचन्द के लिए एक आदर्श था। वह स्वयं भी प्रेम के पुजारी थे। नोख गद्दिन के प्रति उनका प्रेम रूप के प्रति उनकी आसक्ति का कारण था।

सौन्दर्य के प्रति उनकी आसक्ति चित्रों में भी सौन्दर्य एवं रूप के प्रति पारखी होने की उनकी कुशलता को प्रदर्शित करती है। यही कारण है कि काँगड़ा चित्रों के प्रत्येक उपादान, प्रत्येक आकार, प्रत्येक कण में सौन्दर्य व्याप्त है और सर्वोपरि नारी आकृतियों की कमनीय एवं रमणीय छवि पहाड़ी चित्रों के सौन्दर्य में वृद्धि करती है।

इन आकृतियों की रूपञ्छठा कान्तिमय है, सहज मानवीय है, ये आकृतियाँ आध्यात्मिक होते हुए भी मानवीय हैं और इसी जगत में कलाकारों के समीप रहती हैं।

साहित्यिक एवं दैनिक जीवन के पात्रों को आधार बनाकर पहाड़ों की सुरम्य घाटियों को पृष्ठभूमि में सृजित कर काँगड़ा के कलाकार अपनी तुलिका की सिद्धहस्तता को प्रदर्शित करते हैं।

इसी संदर्भ में एक ‘राधाकृष्ण के मिलन’ का चित्र विशिष्ट प्रसिद्ध है। जैसा कि शीर्षक से ही स्पष्ट हो रहा है कि इसमें राधा एवं कृष्ण का प्रेम प्रदर्शित है जो आलौकिक भावनाओं से युक्त है। इस चित्र में राधा आत्मा और कृष्ण परमात्मा के प्रतीक स्वरूप प्रस्तुत हैं।

ऐसा माना जाता है कि वर्षा ऋतु का महीना प्राय: नायक-नायिका के लिए आनन्द दायक माना जाता रहा है। इस चित्र में श्रावण मास का प्रभावशाली अंकन है। पृष्ठभूमि में आकाश में उमड़ते-घुमड़ते बादलों से मास का आभास हो रहा है।

घने काले बादलों के मध्य बगुलों की पक्ति है जो ऐसी प्रतीत हो रही है मानों श्याम वर्णी कृष्ण के गले में सफेद मोतियों की माला इस चित्र का विषय इस प्रकार है कि नायक अपनी यात्रा पर जाने की तैयारी कर रहा है किन्तु नायिका एक हिन्दु पत्नी के सदृश उसे दूर देश जाने के लिए मना कर रही है क्योंकि सावन मास है।

नायक नायिका की आकृति को साधारण वस्तु के विरोधाभास में बनाया गया है। मुद्राएँ भावनाओं की अभिव्यक्ति में पूर्णतया सहायक हैं। नायिका की पारदर्शी ओढ़नी का प्रभाव बहुत ही सुन्दर है। चित्र ‘बिहारी सतसई’ से सम्बन्धित है।

काँगड़ा शैली में बना ‘कृष्णाभिसारिका’ का एक बहुत ही सुन्दर चित्र है जिसमें नायिका अधयारी रात में अपनी प्रियतम से मिलन को जाती है। इसके लिए वह गहरे रंग के वस्त्र धारण करती है ताकि उसे कोई देख न पाए। प्रस्तुत चित्र में रात्रि के वातवारण हेतु आकाश को गहरे नीलमिश्रित सलेटी रंग से बनाकर उसमें तारों को दर्शाया गया है।

पृष्ठभूमि में स्थित वास्तु अत्यन्त साधारण है. रात्रि के कारण उसमें ‘डीटेल्स’ को नहीं बनाया गया। नायिका का मुख लज्जा से युक्त अत्यन्त सुन्दर है और उसने अपनी सुकोमल अंगुलियों से घूंघट का छोर पकड़ा हुआ है। चारों शान्त एकान्त वातावरण है अपने पूर्ण स्वरूप में नायिका काँगड़ा नारी सौन्दर्य को साकार कर रही है।

विद्वानों ने नायिका के शारीरिक सौन्दर्य को दीपशिखा सदृश माना है और कहा कि नीले वस्त्र धारण करने पर भी वह अपने शरीर की कान्ति को छिपाने में स्वयं को असमर्थ पाती है। काँगड़ा शैली की समस्त विशिष्ट्ताओं को देखते हुए निश्चित रूप से यह कहना पड़ेगा कि काँगड़ा के कलाकार ने भले ही साहित्यिक चित्रण किया हो, सामाजिक रूप चित्र अथवा संगीत प्रधान प्रत्येक विषय उसकी तूलिका के स्पर्श से ऐसा बन गया है जिसकी समता पूर्व तथा पश्चिम की कला में मिलना दुष्कर है।

गैरोला के शब्दों में, "काँगड़ा शैली की अनुपम विशेषता उनकी रेखाओं में है जो कि दर्शक के हृदय में अपना स्थायी प्रभाव अंकित कर देती है। यही बात उनकी तूलिका में भी दिखाई देती है। इस शैली के चित्रों में एक गहरी काव्यात्मकता भी समन्वित है। इस काव्यात्मकता के कारण ये चित्र, दर्शक के मन पर संगीत, और नृत्य जैसा आनन्दमय प्रभाव छोड़ जाते हैं। ये चित्र क्योंकि प्रमुखतया पौराणिक एवं काव्यात्मक हैं, इसलिए उनसे एक ओर तो जीवन का हर पहलू धर्म के वातावरण में डूब जाता है और दूसरी ओर संयोग तथा वियोग का जो हर्ष-विषाद एवं सुख-दुख है। उनसे मानवीय उद्वेगों को एक प्रकार से सहानुभूति की वाणी मिलती है।"

इस विशिष्टता के पार्श्व में लयात्मक सुकोमल रेखाएँ हैं, लालित्यपूर्ण सौष्ठव है, सुकोमल आकृतियों को भाव-भंगिमा है, वास्तु की भव्यता है तथा सर्वोपरि विशाल घाटियों का लवलीन नैसर्गिक सौन्दय है। यह सभी विशेषताएँ काँगड़ा लघुचित्रों को नयनरम्यता एवं गहनतम अनुभूति को अभिव्यक्ति दोनों ही गुणों के सामञ्जस्य को प्रस्तुत करती है।

काँगड़ा के चित्रों में यद्यपि पहाड़ी वास्तु, प्रकृति एवं ग्रामों की पृष्ठभूमि है किन्तु काँगड़ा को कला लोक कला न होकर अभिजात वर्ग की कला है।

काँगड़ा की कला को ऊँचाई तक पहुँचाने में संसारचन्द का योगदान महत्वपूर्ण है साथ ही साथ इनके समय के चित्रों को बनाने वाले महान कलाकारों को भी नहीं भुलाया जा सकता। वैसे तो इन चित्रों के नीचे किसी चित्रकार का नाम नहीं है. कही मिले भी है तो वह चित्रों के पिछले भाग में है। यहाँ से जिन कलाकारों के चित्रों के नाम मिलते हैं।

वह है मन खुशाला या फल कुशानलाल पुरख आदि। इसके अतिरिक्त का नाम भी प्रमुख रहा जो काँगड़ा जिले में समलोटी नामक स्थान पर रहता था। काँगड़ा के कुछ कलाकार मुगलों के दरबार से भी थे इसी संदर्भ में कश्मीर के पंडित शिवराम का नाम भी आता है।

काँगड़ा में पोढ़ी दर पीढ़ी कलाकार कार्य करते रहते थे। परिवार के बेटे भतीजे भौजे उनके शिष्य के रूप में कार्य करते थे जो गुरु के लिए रंगों को घोटते थे। कलाकारों का जीवन बहुत शान्तिपूर्वक व्यतीत होता था।

गेहूँ, चावल, गाय आदि राजा के द्वारा इन कलाकारों को दे दिया जाता था ताकि वह खाने कपड़े की चिन्ता किये बिना चित्रण में मन लगा सके जब कलाकार चित्र बनाकर राजा को देते थे तब राजा उन्हें पुरस्कार देता था। इस प्रकार आर्थिक दृष्टिकोण से कलाकार सन्तुष्ट थे। कांगड़ा की कला वास्तव में प्रेम और उल्लास की कला थी।

राधा को कृष्ण के द्वारा अचानक देखा जाना और राधा का शर्माना, नायिका का घूंघट की ओर में होना, रात्रि में बेचैनी से प्रियतम को मिलने जाना राधा कृष्ण का एक दूसरे को निहारना प्रियतम का प्रियतमा से मिलन आदि विषयों को काँगड़ा के कलाकार ने बहुत ही स्वाभाविक विधि से चित्रित किया है।

किसी चित्र में राधा कृष्ण को छज्जे से निहार रही है तो दूसरे चित्र में एक सुन्दर कोमलांगी स्नान करने के पश्चात् श्वेत साड़ी में रसोई गृह में भोजन पका रही है। एक ओर आत्मा-परमात्मा के प्रेम का आलौकिक दृश्य है तो दूसरी ओर लौकिक जगत् का आवश्यक क्रिया कलाप प्रत्येक आकृति के चेहरे के भावों का सौन्दर्य अनुपम है।

रूपाकारों तथा रंगों का सौन्दर्य एक प्रकार का संगीत उत्पन्न करता है। इसी के साथ-साथ काँगड़ा की रेखाओं में लय, प्रवाह और आकारों को कोमलता पूर्वक गढ़ने की शक्ति है।

काँगड़ा में जहाँ एक ओर राजनैतिक प्रभुत्व बढ़ता रहा वहीं दूसरी ओर इसके कला जगत् में भी रमणीय चित्रों की संख्या में बढ़ोत्तरी होती रही, किन्तु राजा संसारचन्द की सत्ता के क्षीण होने के साथ साथ ही कलाकारों को अनुकूल वातावरण नहीं मिल सका और कलाकार अपने भरण पोषण हेतु या तो अन्य राजाओं के आश्रय में चले गए या अपने लिए पृथक् व्यवसाय की तलाश में लग गए और इससे भी अधिक 1905 को जब काँगड़ा में भूकम्य आया तो काफी सम्पत्ति, महल, मन्दिर एवं चित्र काल कवलित हो गए।

संसारचन्द ( शासन काल 1775-1823)

संसारचन्द ने सभी पहाड़ी रियासतों में अपनी सम्पन्नता एवं शक्ति का संचय किया और काँगड़ा को सुगठित तथा सुव्यवस्थित किया। संसारचन्द केवल पहाड़ी क्षेत्रों में सत्ता स्थापित करने वाले अप्रतिम शासक ही नहीं थे वरन् एक कलाप्रेमी भी थे।

इन्हीं के प्रयास स्वरूप काँगड़ा की कला समस्त पहाड़ी रियासतों में अपने गौरवपूर्ण इतिहास को बनाए रखने में सक्षम थी। पहाड़ी चित्रकला में संसारचन्द के नाम को पृथक नहीं किया जा सकता।

जिला काँगड़ा की पालमपुर तहसील में लम्बगाँव से छ: मील दूर विजयपुर नामक गाँव में 1765 ई० में तेगचन्द के घर संसारचन्द का जन्म हुआ। संसारचन्द के दादा का नाम घमण्ड चन्द था जो स्वभाव के अनुकूल इसी प्रवृत्ति के थे।

उन्होंने काफी पहाड़ी रियासतों को अपने आधीन कर लिया। राजा संसारचन्द 1775 में 10 वर्ष की आयु में सिंहासनारूढ़ हुए जो आगे चलकर पहाड़ी रियासतों के सर्वाधिक प्रमुख शासक बने।

जिन्हें “The Hatim of that age and in generosity Rustam of the time” कहा गया। उन्होंने भी अपने दादा के सदृश सत्ता को सुगठित किया इनके पास एक विशाल सेना थी जिससे अन्य राज्यों के शासक घबराते थे

राजा संसारचन्द नियमों कायदों पर चलने वाले एक प्रतिभा सम्पन्न राजा थे। अपने दैनिक कार्यों को नियमपूर्वक करते थे। मूरक्राफ्ट के वक्तव्यों से संसारचन्द के व्यक्तित्व को समझने में अत्यन्त सहायता मिलती है।

उनके अनुसार "राजा संसारचन्द दिन का आरम्भ अपनी पूजापाठ में व्यतीत करता है। दस बजे से दोपहर तक वह अपने अधिकारियों और चित्र 79: कांगड़ा के राजा संसार दरबारियों के सम्पर्क में रहता है। मेरे जाने से अनेक दिन पूर्व वह चन्द्र छोटे से बगीचे से बाहर स्थित बंगले में अपना समय बिताता था। वह उसने मेरे आवास के लिए छोड़ रखा था। दोपहर को राजा दो या तीन घन्टे के लिए आराम करता था और उसके बाद वह सामान्यतः कुछ समय के लिए शतरंज खेलता था। शाम के समय नृत्य और गायन का आयोजन होता जिसमें अधिकाशतः कृष्ण सम्बन्धी ब्रजभाषा के गीत गाए जाते थे। संसारचन्द चित्रकारी का शौकीन है और उसने अपने दरबार में बहुत से कलाकारों को रखा है।"

संसारचन्द वास्तव में एक योग्य शासक थे, जिन्होंने अनेक उद्यानों तथा भवनों का निर्माण कराया। उन्होंने आलमपुर का महल और एक उद्यान बनवाया वास्तु निर्माण में उन्होंने महलों के साथ मन्दिर भी बनवाए 1791 ई० में उन्होंने कृष्ण मन्दिर तथा 1794 ई० में टीरा में संसारचन्देश्वर मन्दिर बनवाया।

इसी के साथ-साथ उन्होंने महलों तथा मन्दिरों में भित्ति चित्र भी बनवाए। संसारचन्द ज्योतिष में भी विश्वास रखते थे और बुद्ध पर जाने के लिए फाजिलशाह से शुभ मुहुर्त निकलवाते थे। उन्होंने तीन विवाह किए थे जो सुकेत सिरमौर तथा बंगाहल की राजकुमारियों के साथ हुए थे।

कुछ आलोचक ऐसा भी मानते हैं कि एक गद्दिन नोखू के सौन्दर्य पर मोहित होकर इन्होंने उससे भी विवाह कर लिया और उनका प्रेम लोक गीतो के रूप में पहाड़ी रियासतों में प्रचलित हो गया।

जब वह राजगद्दी पर बैठे तब पंजाब के मैदानी क्षेत्रों में दुरानियों के आक्रमणों से विचलित थे। किन्तु यहाँ सिक्खों का प्रभुत्व स्थापित हो चुका था और इन्होंने पहाड़ी रियासतों की ओर बढ़ना प्रारम्भ कर दिया।

इसी को देखते हुए संसारचन्द ने अपनी सेना को तैयार कर लिया। 1620 ई० में जब जहाँगीर की सेना ने काँगड़ा पर चढ़ाई की थी तब काँगड़ा का किला मुगलों के आश्रय में आ चुका था।

मुगल साम्राज्य के अन्तिम अधिकारी सैफ अली खान से यह किला जयसिंह बटाला के आश्रय में आ गया। था। इसी समय 21 वर्ष की आयु में अपनी शक्ति तथा सेना संचित कर 1786 ई० में जयसिंह से यह किला वापिस ले लिया।

इस किले को प्राप्त करते ही संसारचन्द का समस्त पहाड़ी रियासतों में प्रभुत्व स्थापित हो गया। धीरे-धीरे संसारचन्द पहाड़ी क्षेत्रों को अपने आधीन करते रहे।

अपने हौंसले से उन्होंने कहलूर का किला, रिहलू की उर्वरा भूमि चावल की खेती के लिए प्रसिद्ध तालुक रामगढ़ का किला आदि सब अपने अधिकार में ले लिए।

मण्डी नगर को लूटकर वहाँ के शासक ईश्वरी सेन को 12 साल तक कैद में रखा। उनकी इस शक्ति को देखकर बहुत से राजाओं ने युद्ध से पूर्व ही उनके आगे घुटने टेक दिए। संसारचन्द एक अत्यन्त महात्वाकांक्षी शासक थे।

उनकी यह इच्छाशक्ति इतनी अधिक बढ़ गयी कि वह लाहौर पर विजय प्राप्त करने के लिए स्वप्न देखने लगे। यहाँ तक कि उनके दरबार में अभिवादन के लिए प्रयुक्त होने वाले शब्द थे- ‘लाहौर परापत’ ।। । समय पंजाब में रणजीत सिंह का शासन था जो एक शक्तिशाली राजा थे।

संसारचन्द ने जब उनके क्षेत्रों की ओर आक्रमण किया तो उन्हें परास्त होना पड़ा। उधर पहाड़ी राज्यों को अपने आधीन करने के कारण वह भी आक्रोश में थे।

उन्होंने संसारचन्द के आतंक को समाप्त करने के लिए इन राजाओं से सौंठ-गाँठ करके अवसर के अनुकूल गुरखों का साथ दिया जिसमें वह इन राजाओं को शान्तिपूर्वक रहने देंगे वैसे तो राजा संसारचन्द बहुत ताकत से लड़े परन्तु परास्त हो गए।

संसारचन्द राजनैतिक दृष्टिकोण से तो शक्तिशाली थे ही कला एवं सांस्कृतिक उत्थान में भी उसकी पूर्ण रुचि थी। संसारचन्द को चित्रण का शौक था।

उन्होंने बहुत से कलाकारों को अपने आश्रय में रखा हुआ था। उनके पास बहुत चित्रों का संग्रह था जिनमें मुख्य रूप से महाभारत से सम्बन्धित चित्र तथा पहाड़ी राजाओं के व्यक्ति चित्र थे। इन्हीं व्यक्ति चित्रों में एलेक्जेंडर महान का व्यक्तिचित्र भी था।

संसारचन्द के बहुत से व्यक्तिचित्र पहाड़ी चित्रकारों द्वारा बनवाए गए जिसमें उन्हें विविध गतिविधियों में रत दर्शाया है। कुछ व्यक्ति चित्र ऐसे हैं, जिसमें उन्हें अपने दरवारियों या पारिवारिक सदस्यों के साथ चित्रित किया गया है।

समीक्षकों ने संसारचन्द द्वारा बनाए गए व्यक्ति चित्रों को तीन प्रकार से विभाजित किया है प्रथम में संसारचन्द दैनिक कार्यों में रत दर्शाए गए हैं। दूसरे में उन्हें संगीत का आनन्द लेते हुए तथा तीसरे में व्यक्ति चित्र हैं जिनमें उन्हें दरबार के भव्य वैभव के मध्य चित्रित किया गया है।

चूँकि पहाड़ी रियासतों में काँगड़ा एक शक्तिशाली स्थान था तथा संसारचन्द प्रतिभावान् शासक उन्होंने बहुत सुन्दर चित्रों का संग्रह तो किया ही था साथ ही कलाकारों से उत्कृष्ट चित्रों को भी बनवाया मानवाकृतियों के साथ-साथ इनके समय के बनाए गए चित्रों में पृष्ठभूमि में प्राकृतिक वातावरण के साथ-साथ सुन्दर वास्तु को भी संयोजित किया है जिस पर स्वाभाविक नक्काशी देखने को मिलती हैं। कुशान लाल संसारचन्द के दरबार का एक प्रमुख कलाकार माना जाता था।

इसके अतिरिक्त मण्डी में एक कलाकार फत्तू संसारचन्द के दरबार में आया। यहाँ कलाकारों ने अपना निवास बनाया और अपने वंशजों को भी उसमें दक्ष किया। संसारचन्द के समय में जिन कलाकारों ने चित्रण कार्य किया उन्होंने विभिन्न शैलियों को विकसित किया।

19वीं के द्वितीय दशक के लगभग चित्रों में कुछ रूढ़ता तथा मानवाकृतियों में जड़ता आ गयी। इन मानवाकृतियों चेहरे कुछ नुकीली तथा चुस्त पायजामा बनाया गया है। संसारचन्द के बहुत से व्यक्ति इस प्रकार की विशेषताएँ मुख्य रूप से लक्षित हैं। समय किसी-किसी चित्र में पाश्चात्य वेशभूषा भी दिखाई देती है।

जनरल (O Brien) काँगड़ा कलाकारों को परिचित कराई गयी। ओबिया यूरोपीय थे जो संसारचन्द रहते थे। ओब्रिया हथियारों का एक कारखाना लगाया। इसके अतिरिक्त जैम्स संसारचन्द अश्रय में तोपची था।

मूरक्राफ्ट अनुसार, दोनों "व्यक्ति लिए उपयोगी और है उनसे और लाभ लेकिन साधन सीमित रणजीत सिंह संसारचन्द सैनिक सेवा लेता और कहलूर राजा के विरुद्ध आक्रमण प्रमुख उसी रखा था। संसारचन्द की सेना ओब्रिया और जेम्स के संचालन कहलूर किलों को अपने आधीन कर रखा था।"

संसारचन्द अन्तिम संदर्भ मूरक्राफ्ट “शाम राजा की इच्छानुसार उनसे मिलने एक उद्यान राजा अपने पुत्र और पौत्र के साथ बैठे थे। राजा संसारचन्द वर्ष एक लम्बा हष्ट-पुष्ट व्यक्ति काले रंग का लेकिन उसके लक्षण और आकृति सुन्दर स्पष्ट है।

उसके लड़के अनिरुद्ध सिंह का चेहरा बहुत सुन्दर और रंग गुलाबी लेकिन शरीर विशेष रूप स्थूल उसके लड़के एक साल का और दूसरा साल अपने से दोनों कम गोरे सतलुज होकर सिंधु नदी तक संसारचन्द पहला सबसे अधिक शक्तिशाली अत्यन्त धनी था। लाख रूपये उसका राजस्व था।

अब वह है और पूर्णतया रणजीत सिंह के आधीन जाने की आशंका बराबर बनी हुई है।” राजा संसारचन्द्र इससे सम्बन्धित है जो सर कॉवसजी जहाँगीर व्यक्तिगत संग्रह हैं।

इस चित्र राजा हुक्का हुए नर्ताकियों नृत्य का आनन्द ले रहा है जो वह तकिए सहारे अथलेटी मुद्रा है चारों तरफ दरबारी है तथा अग्रभूमि पहरेदार पाश्चात्य वेशभूषा है।

संसारचन्द केवल कलाकारों आश्रय नहीं दिया वरन् वह सूक्ष्मता कलाकारों के कार्यों निरखते परखते थे। काँगड़ा के कुछ चित्र तथ्य को पुष्टि सहायक बनते जिनमें राजा संसारचन्द अपने कलाकारों कार्यों परख है।

वाचस्पति गैरोला शब्दों "चित्रकार प्रतिदिन अपने चित्र बनाकर संसारचन्द दिखाते और उनका निरीक्षण करता तथा उन्हें परामर्श देता था। दूर-दूर चित्रकार नहीं, बल्कि और कथाकार भी उसके दरबार जाते और यथोचित सम्मान पाकर लौटते थे।" रियासतों कलाकारों कार्यों को खरीदकर उन्हें पुरस्कृत करते थे। कुछ विद्वानों का कहना जो कलाकार रणजीत के दरबार निराश्रित होकर लौटते थे। राजा संसारचन्द उन्हें आश्रय देते थे। मोहिउद्दीन "तारीखे-पंजाब" लिखा "वह अपने व्यवहार उदार था। अपनी प्रजा के लिए नौशेरवा तरह दयालु और मनुष्यों सद्गुणों को मान्यता देने दूसरा अकबर था।"

संसारचन्द समय में चित्रण जो विशिष्टताएँ निर्धारित गयी। सब का प्रभाव अन्य सभी पहाड़ी रियासतों बसौली, मण्डी गढ़वाल के चित्रों पर भी पड़ा।

संसारचन्द की मृत्यु साथ-साथ काँगड़ा चित्रशैली हास हो गया। फत्तू, आदि चित्रकार मण्डी चले गए। इसलिए मण्डी चित्रों काँगड़ा के प्रभाव को इस समय (19वीं शताब्दी के प्रथम दशक में देखा जा सकता है। काँगड़ा की चित्रकला का प्रभाव बसली शैली के चित्रों पर भी दिखाई है।

मुख्य रूप से भारत कला भवन बनारस में सुरक्षित 1816 ई० को रामायण से सम्बन्धित ‘डाइरेस’ में मध्य 19वीं शताब्दी में काँगड़ा शैली का प्रभाव गढ़वाल के चित्रकारों पर पड़ा जो कि भारत कला भवन बनारस में ही सुरक्षित ‘स्वमणी हरण’ श्रृंखला के चित्रों से स्पष्ट हो जाता है।

बसौली शैली

किशोरी लाल वैद्य के शब्दों में, "यदि अजन्ता भारतीय कला का आदि स्रोत है तो उसका संरक्षण पहाड़ी कला विशेषकर बसोहली कलम में चेतन रूप से हुआ है। एक बहुत बड़ी बात यह है कि पहाड़ी चित्रों में भारतीय दर्शन मुखरित हुआ है जहाँ मुगल शैली मुगल बादशाहों की रंगीनियों और उनके प्रभुत्व की अभिव्यक्ति बनकर रह गयी है, वहाँ बसौली कलम अपने निखार में भारतीय दर्शन के प्रति उन्मुख होकर उसके सुन्दर, आकर्षक और मनोहारी रूप को अंकित करने में विशिष्ट रूप से सफल हुई है।"

बसौहली एक प्राचीन रियासत मानी जाती है। इसकी राजधानी बालोर थी जिसे विद्वानों ने 8वीं शताब्दी के आसपास का माना है। इसी कारण यहाँ के शासक बलोरिया कहे गये।

यह बालोर बसौली के शहर से लगभग 11 या 12 मील दूर है। 17वीं शताब्दी के अन्तिम वर्षों में राजा कृपाल पाल के शासन काल में कलाकार देवीदास ने भानुदत्त कृत रसमञ्जरी के सुन्दर चित्रों की रचना की। इस समय जम्मू की प्राकृतिक एवं सुन्दर पहाड़ियों में बसौली शैली का विकास हुआ माना जाता है।

विद्वानों के अनुसार पहाड़ी कला का तीन दशाओं में विकास हुआ। काँगड़ा बसौली और गढ़वाल जिसमें बसौली सबसे प्राचीन मानी गयी है।

जे०सी० फ्रेंच के अनुसार, "पथरीली चट्टानों की खड़ी दीवारों से परिवेष्टित, चौड़ी, तीव्र और गतिशील सरिता के तट पर बसी हुई है। पहाड़ी राजप्रसादों में श्रेष्ठतम तथा सुन्दर मुकुट से शोभित, हिमालय के हिम में आवेष्टित बसौली अपनी सुन्दर स्थिति के कारण पहाड़ के सात आश्चर्यो में एक होने का दावा बड़े औचित्य के साथ कर सकती है। पर्वत शिलाएँ और सरिता से सम्पन्न वह स्थान जहाँ बसौली स्थित है, सौन्दर्य से परिपूर्ण है।"

नेपाल के पट चित्रों (अन्तिम । 7वीं शताब्दी के) में भी वसौली शैली की कुछ विशिष्टताएँ दिखायी देती हैं मुख्य रूप से मानवाकृति एवं वृक्षों के अंकन में कुछ तिब्बती चित्रों को भी इसी शैली के अन्तर्गत माना गया।

1921 ई० में पहली बार आर्कियोलॉजी सर्वे रिपोर्ट के माध्यम से बसौली का निजत्व स्थापित हुआ जिसके माध्यम से ज्ञात हुआ कि बसौली कला काफी प्राचीन थी, किन्तु कुछ विद्वानों ने यह कहा कि बसौली चित्र कला का नेपाली या तिब्बती स्कूल से सम्बन्ध नहीं था।

काँगड़ा के सदृश तो नहीं किन्तु फिर भी वसौली एक समृद्ध एवं । वीं शताब्दी के लगभग व्यापार का एक महत्वपूर्ण केन्द्र माना जाता था। यहाँ के सामाजिक एवं प्राकृतिक वातावरण के कारण यहाँ कई कलाकारों ने अपना निवास बनाया।

यहाँ के शासकों के मुगलों से सम्बन्ध थे। वह मुगलों के लिए भेंट लेकर जाते थे और मुगल शासक भी बसौली में भ्रमण हेतु आते थे। कृष्णपाल, भूपतपाल, जगतसिंह जैसे शक्तिशाली तथा महत्वाकाक्षी राजाओं ने यहाँ राज्य किया महत्वाकांक्षी होने के साथ-साथ राजा संग्रामपाल की सुन्दरता के चर्चे भी दूर-दूर तक थे।

यहाँ तक कि दिल्ली के मुगल दरबार में शाहजहाँ काल में उसे एक विशिष्ट अतिथि के रूप में आवभगत मिली। इसके परिणामस्वरूप राजा संग्रामपाल को बहुमूल्य उपहार मिले और मुगलिया दरबार के चित्रकारों का बसौली में आना प्रारम्भ हो गया।

बसौली चित्रों पर भी मुगल प्रभाव पड़ने लगा मुख्य रूप से | वास्तु तथा वस्त्रों पर 1678 से 1693 ई० तक बसौली पर राजा कृपालपाल का संरक्षण रहा। ऐसा कहा जाता है कि काँगड़ा कलम में जो सहयोग राजा संसारचन्द का था वही वसौली की कला को रचना में कृपालपाल का रहा।

इनके समय में बसौली कला की बहुत उन्नति हुई। भानुदत्त कृत रसमंजरी चौदहवीं शताब्दी की महत्वपूर्ण रचना रही जिसे राजा कृपालपाल ने चित्रित कराया। इन चित्रों में नायक-नायिका की विविध क्रीड़ाएँ तथा श्रृंगार रस का बहुत सुन्दरता से चित्रण है।

यहां उन्नति आगे चलकर अमृतपाल के समय में भी हुई। इनके समय का नायिकाओं का चित्रण विशेष उल्लेखनीय माना जाता है किन्तु इस समय तक आते-आते बसौली के चित्रों पर काँगड़ा का प्रभाव दिखाई देने लगता है।

बसौली के राजाओं के आश्रय में कला की विशिष्ट उन्नति हुई। सुन्दर सुन्दर चित्रों तथा महलों का निर्माण कराया गया। राजा महेन्द्रपाल ने रंगमहल और शीश महल का निर्माण कराया और उसे चित्रों से सुसज्जित कराया।

वास्तु कला एवं चित्रकला दोनों दृष्टिकोण से यहाँ की कला उत्तम कलम का प्रतिनिधित्व करती थी, किन्तु आज इन चित्रों में कोई भी सुरक्षित नहीं है। 1808 ई० तक पहाड़ी रियासतें राजा रणजीत सिंह के नियन्त्रण में आ गयी किन्तु कला की धारा निरन्तर चलती रही।

राजाओं के कला संरक्षण के साथ-साथ यहाँ रानी मालिनी का सहयोग भी सराहनीय माना जाता है जिनकी प्रेरणा से मनक ने अन्य कलाकारों के सहयोग से गीत गोविन्द के सुन्दर एवं कलापूर्ण चित्रों की रचना की बसौली कलम को अपनी मूलभूत धारणाएँ निर्धारित करने में पर्याप्त समय लगा जिसका एक कारण यह भी था कि काफी समय तक इस शैली के चित्रों पर जम्मू कलम की मोहर लगी रही।

इसके अतिरिक्त कुछ कलाकार इसे तिब्बत कलम का भी मानते रहे किन्तु धीरे-धीरे इसका अस्तित्व प्रत्यक्ष होने लगा। समस्त पहाड़ी शैलियों में बसौली शैली प्राचीनतम मानी जाती है।

बसौली शैली की विशिष्ट पहचान है-तीव्र वर्ण नियोजन तथा भावनाओं की गहन अभिव्यक्ति बसौली शैली के चित्रों में अद्भुत आकर्षण है। अमिश्रित प्राथमिक रंगतों के माध्यम से कलाकारों ने कुशलता से विषय को सरलता से प्रस्तुत किया है।

यह अन्तर्भेदी वर्ण दर्शक के नेत्रों में बैठ कर उसके हृदय को उद्वेलित करते हैं। इन चित्रों में रंगों का प्रयोग कलाकार ने बाह्य यथार्थ के स्थान पर प्रतीकात्मक विधि से किया है। प्रकाशित वातावरण हेतु पीला तो प्रेम हेतु रक्तिम, कृष्ण हेतु नील वर्ण तथा प्रकृति की प्रफुल्लता हेतु हरे रंग को बनाया गया है।

सफेद रंग का बहुत सुन्दर प्रयोग बसौली की निजी विशेषताओं को प्रदर्शित करता है जिसे उभार कर लगाया गया है। बसौली के चित्रों में सोने तथा चाँदी के रंगों का भी प्रयोग किया गया है।

मृत्युञ्जय शिव’ नामक चित्र इस सन्दर्भ में विशिष्ट उदाहरण है जो भारत कला भवन के संग्रह में हैं। इस चित्र में शिव का चित्रण प्रतीकात्मक है। शिव के अतिरिक्त कृष्ण तथा गोपियों का चित्रण भी उस समय का प्रसिद्ध विषय था।

म्यूजियम ऑफ फाइन आर्ट्स बोस्टन के संग्रह में इस प्रकार के कृष्ण तथा गोपियों की लीला सम्बन्धी अनेक चित्र हैं। इन चित्रों में लोक तत्व प्रमुख भूमिका प्रस्तुत करते हैं।

पहाड़ी शैलों के चित्रों में साहित्यिक विषयों पर भी चित्रण किया गया जिसका उदाहरण- विक्टोरिया एण्ड एलबर्ट म्यूजियम लंदन के रागमाला श्रृंखला के चित्र प्रस्तुत करते हैं जिसमें पहाड़ी लोक तत्वों की विशिष्टताएँ विशेष दर्शनीय हैं।

इस श्रृंखला के चित्र देश-विदेश के अनेक संग्रहालयों में भी देखे जा सकते हैं। बसौली शैली के चित्रों में विषय की विविधता रही। रसमंजरी, भोगवतपुराण रामायण, गीतगोविन्द आदि के अतिरिक्त यहाँ के कलाकारों ने रागमाला पर आधारित संगीत प्रधान चित्रों को भी बनाया।

इन कलाकारों ने गीत गोविन्द के विषय को बहुत कोमलता पूर्वक प्रस्तुत किया है। राधा-कृष्ण के आध्यात्मिक प्रेम की विभिन्न क्रीड़ाओं को वृन्दावन के हरे-भरे वातावरण तथा यमुना के किनारे प्रस्तुत किया है।

गीत-गोविन्द श्रृंखला के चित्रों में पहाड़ी कलाकार ने अपने हृदय की गहनतम अभिव्यञ्जना को राधा-कृष्ण की आकृतियों के माध्यम से कुछ इस प्रकार साकार किया है कि इन चित्रों में भावनात्मक पक्ष के साथ-साथ कलात्मक पक्ष भो साकार हो उठा है।

कलाकार की इस अभिव्यक्ति के पार्श्व में लेखक जयदेव की कल्पना भी प्रमुख है। रंगों और रेखाओं को सुकोमल अभिव्यक्ति बसौली के इन साहित्यिक चित्रों में निश्चित रूप से उतरी है।

'आर्चर' के शब्दों में, "भारत में अन्यत्र भी चित्रकला में रंग और रेखाओं के स्पष्ट गुण उभरे हैं लेकिन पंजाब हिमालय से बाहर कहीं भी रूमानियत, हर्षोन्माद और विलक्षणता से युक्त इतनी सुन्दर और विशिष्ट अभिव्यक्ति नहीं मिलती।"

गीत गोविन्द श्रृंखला के चित्रों का प्रभाव अन्य चित्रों पर भी पड़ा। भागवत पर भी बसौली शैली में चित्र निर्मित हुए। इसके अतिरिक्त रुक्मणी हरण के चित्र गुलेर बसौली तथा काँगड़ा के मध्य सम्बन्ध प्रस्तुत करने में सहायक हैं।

इस श्रृंखला में रुक्मणी तथा कृष्ण के जीवन से सम्बन्धित घटनाओं का सुन्दरतापूर्वक अंकन है। बसौली शैली के चित्रों के विषय एवं विशिष्टताओं के सन्दर्भ में चित्र 80 राग-कुम्भ, 1710 ई०, मानकोट, बसौहली रायकृष्णदास का वक्तव्य अत्यन्त प्रमुख है- “इन चित्रों शैली के विषय मुख्यतः रागमाला, गीत- गोविन्द, भागवत, रामायण, महाभारत नायिका भेद हैं। राजस्थानी चित्रों की भाँति सपाट किन्तु उससे तेज रंग, बड़े-बड़े मीन नेत्र जिनमें छोटी-छोटी पुतलियाँ पीछे जाता हुआ व ऊपर को ढालुवॉ ललाट, रूखी किन्तु ओजदार लिखाई, वृक्ष, जल, बादल आदि के आलेखन में बहुत ही आलंकारिक लिखाई, कतरकर चिपकाए, सोन किरवा (स्वर्ण-कीट, पंजाब में इसे सोना, माखी कहते हैं) के पंख द्वारा गहने के हरे नगीनों का अंकन, सपाट, पृष्ठिका के बिल्कुल ऊपरी हिस्से में क्षितिज रेखा एवं उसके कारण एक पतली धज्जी जैसा आकाश का आलेखन, इस शैली की विशेषताएँ हैं।”

अन्य पहाड़ी शैलियों के समान बसौली में भी वैष्णव धर्म की परम्परा दिखाई देती है। भक्ति भावना से ओत-प्रोत यहाँ के कलाकारों ने विष्णु तथा उनके दस अवतारों के चित्र बनाए।

इस परम्परा के अन्तर्गत रामायण एवं भागवतपुराण से सम्बन्धित चित्र भी कलाकारों ने बनाए। रामायण की दूसरी प्रति कुल्लू में मिलती है। राधा-कृष्ण के प्रेम के माध्यम से कलाकार ने आत्मा-परमात्मा के सम्बन्ध को बड़े मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है।

कुछ अन्य पहाड़ी शैलियों के समान बसौली शैली में तान्त्रिक विषय पर भी चित्र मिलते हैं जो बसौली कलाकार की एक बहुत बड़ी उपलब्धि कही जा सकती है।

इस संदर्भ में भारत कला भवन में सुरक्षित एक मुख्य उदाहरण है जिसमें एक चित्र में सम्भवतः काली देवी का चित्रण है जो शिव के ऊपर बैठी है और शिव के नीचे अग्नि प्रचलित है।

बाँयी ओर ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश तीनों हाथ जोड़ कर देवी की आराधना कर रहे हैं। तान्त्रिक विषय के संदर्भ में श्री प्रताप सिंह म्यूजियम, श्रीनगर के संग्रह में भी एक ऐसा ही चित्र है जिसमें दुर्गा सिंहासन पर बैठी हैं और पास में दो अन्य देवियाँ चित्रित हैं जिनके हाथ में डमरू त्रिशूल, खड्ग, कमल पुष्प तथा धनुष बाण हैं।

पशु पक्षियों का चित्रण प्राय: आदिकाल से कलाकार के प्रमुख विषयों में एक रहा है। इसी प्रकार बसौली के कलाकार को भी पशु-पक्षियों का चित्रण प्रिय था, जो कभी आकृतियों के पाश्र्व में तथा कभी स्वतन्त्र रूप से मिलता है।

पशु पक्षियों के चित्रण में मुगल प्रभाव लक्षित होता है। इसी सन्दर्भ में भारत कला भवन के संग्रह में बाज का एक प्रमुख चित्र जहाँगीर काल के पक्षी चित्रण का स्मरण दिलाता है।

पक्षी को श्वेत वर्ण तथा पीली बाह्य रेखा से लाल पृष्ठभूमि पर कलाकार ने कुशलता पूर्वक चित्रित किया है। टाकरी लिपि में चित्र के पीछे “बाज सरखाव ” लिखा है।

प्रारम्भिक बसौली शैली में इस प्रकार का चित्रण शायद ही मिलता है। बसौली में कुछ चित्रों में पशुओं का अंकन लोक परम्परा को दर्शाता है जिसमें उनको शारीरिक संरचना में कुछ कुशलता का अभाव है।

बसौली शैली के चित्रों में वातावरण की सृष्टि हेतु प्राकृतिक अंकन किया गया है परन्तु यह चित्रण सादृश्य के आधार पर न होकर आलंकारिक है।

प्रायः मध्यभूमि को सपाट तथा क्षितिज रेखा को ऊपर की ओर बनाया गया है, जिससे चित्र में अतिरिक्त गहराई आ गयी है। इसके अतिरिक्त वर्षा काल में बादलों को वक्राकार में बनाकर उनके मध्य सोने के रंग से दामिनी को दर्शाया है।

वर्षा की बूँदों को श्वेतवर्ण से बिन्दुओं द्वारा दर्शाया है किन्तु तेज वर्षा के लिए सीधी रेखाएँ खींचकर यह अभिव्यक्ति की गयी है।

जैसा कि हम देखते हैं कि बसौली शैली की मानवाकृतियों में सरलता एवं लोक कला की परम्परा अधिक मिलती है जिसमें ढालदार माथा, ऊँची नाक, कमलाकार विशाल नेत्र की शोभा सहज ही दर्शक को प्रभावित करती है।

इन मानवाकृतियों को विशिष्ट आभूषणों से सुसज्जित दर्शाया है। विभिन्न प्रकार की मौक्तिक मालाएँ, मुकुट वाजूबन्द, कंगन आदि को हीरों तथा रत्नों से जड़ित दर्शाया है।

चूंकि यह सर्वविदित ही है कि मुगल चित्रकार अपना आश्रय खोने के पश्चात् पहाड़ी रियासतों में पहुँचे तथा अपने कलात्मक गुण को भावात्मक विषयों में अभिव्यक्त कर काव्यात्मक बना दिया।

मुगल प्रभाव से बसौली शैली में अलंकारिकता का प्रारम्भ हुआ, जिसमें बेल-बूटों को बहुत सुन्दर लयपूर्ण अंकन है। इसी के साथ-साथ ‘गोल्डन कलर का प्रयोग भी मुगल प्रभाव को प्रदर्शित करने में सहायक बना किन्तु फिर भी ऐसे बहुत से तत्व हैं जिनमें से शैली का प्रभाव लक्षित होता है जैसे बोस्टन के संग्रहालय में सुरक्षित चित्र ‘कृष्ण ऑन द बैंक ऑफ यमुना’ इस चित्र में रंगों के प्रयोग में तो बसौली शैली का प्रभाव है परन्तु मुखाकृतियों के अंकन में मुगल कलम मुगल का प्रभाव है। 

इस चित्र में कष्ण अपने ग्वालों के साथ एक वृक्ष के मध्य बैठे हैं। उनके हाथ में एक पात्र है जिसमें वह राधा से जल ले रहे हैं जो अपनी सखियों के साथ यमुना से जल भर कर लायी है। अग्रभूमि में गायों का अंकन बहुत स्वाभाविक हैं।

मुगल के अतिरिक्त बसौली के चित्रों का सामञ्जस्य गुलेर के साथ ही दिखाई देता है जिसका कारण था कि एक तो गीत-गोविन्द की एक श्रृंखला का चित्रण करने वाला चित्रकार मनकू गुलेर का निवासी था और दूसरा यह कि गुलेर से बहुत से व्यक्ति चित्र बसौली आए। गुलेर शैली में बनाए गए व्यक्ति चित्रों पर भी बसौली का प्रभाव दिखाई देता है। 

इसी संदर्भ में राजा मानसिंह का गुलेर शैली में बना भारत कला भवन वाला चित्र प्रमुख हैं। इस चित्र में बने हुक्के, तकिए तथा कारपेट पर बने आलेखन आदि पर बसौली शैली का प्रभाव स्पष्ट देखा सकता है। बसौली एक छोटा सा राज्य था और यहाँ बहुत अधिक संख्या में चित्रों का निर्माण भी नहीं हुआ जैसा काँगड़ा में परन्तु फिर भी बसौली की कलम अपनी विशिष्टता लिए विकसित हुई। 

बसौली कलम में काँगड़ा जैसी सुकुमारता नहीं हैं परन्तु लोक कला की सादगी है, स्फूर्ति है, विलक्षणता है और ये सभी तत्व भावसम्प्रेषण में पूर्णतया सहायक हैं। इन सभी तत्वों में भी मुख्य रूप से बसौली चित्रों को मानवाकृतियों को मुद्राएँ तथा नयन अंकन है। इन आकृतियों की अंग-भंगिमा में यदि मुद्राएँ सहायक हैं तो मुख के भावों को अभिव्यक्त करने में रसभावपूरित क्षेत्रों का सहयोग उत्तम है। 

इसके अतिरिक्त नाक, कान, ललाट, शरीर गठन सभी में बसौली की निजी विशिष्टताएँ हैं। अन्त में वाचस्पति गैरोला के शब्दों में, “बसौली शैली अपने युग की प्रभावशाली एवं लोकप्रिय शैली रही है। सम्पूर्ण पंजाब प्रदेश और गढ़वाल तथा तिब्बत, नेपाल तक उसकी ख्याति का प्रचार हुआ। 

उसकी सुलिपि, उसका रंग-विधान और उसमें अभिव्यक्त अन्तःस्पर्शी कोमल भाव उसकी प्रसिद्धि के कारण रहे हैं। उसके शास्त्रीय धार्मिक और शृंगारिक सभी प्रकार के चित्रों में लोक दृष्टि प्रमुख रही है। उसके भित्ति चित्रों में भारतीय संस्कृति और धार्मिक मान्यताओं का बड़ी निष्ठा से निर्वाह किया गया है।

चम्बा शैली

चम्बा चित्रशैली का आरम्भ राजा उदयसिंह (1690-1720) के शासन काल में हुआ। कालान्तर में उग्रसिंह ने 14 वर्षों तक राज्य किया उनके समय में कला की पर्याप्त उन्नति हुई। 1735 ई० में उग्रसिंह ने प्रतिशोध की ज्वाला के कारण नगर को आग लगा दी जिससे इस शैली की काफी प्रारम्भिक कलाकृतियाँ नष्ट हो गई। 

राजा दलेल सिंह 23 वर्ष तक गद्दी पर रहा और उसने कला की दृष्टि से चम्बा को पुनः सुदृढ़ आधार देने का प्रयास किया। कुछ कारणों से दलेल सिंह को मुगल शासकों ने अपना बन्दी बना लिया परन्तु बाद में दोनों में मित्रता हो गयी। 

इसी परिणामस्वरूप राजा दलेल सिंह तथा उसके कलाकारों ने मुगल कला का अध्ययन किया। मुगलिया कलाकार पहाड़ी रियासतों में आए और वहाँ कार्य किया। चूँकि मुगल साम्राज्य कमजोर होने के बाद कलाकार पहाड़ी रियासतों में प्रश्रय प्राप्त करते गए और इन कलाकारों ने कागड़ा या गुलेर में अपनी सधी तूलिका से विविध विषयों की संरचना प्रारम्भ कर दी। 

यहाँ पर पहाड़ी चित्रकार भी कार्य कर रहे थे किन्तु मुगलिया कलाकारों के सहयोग से उनकी कला और अधिक उत्कृष्ट बन गयौ। ये मुगल कलाकार अन्य पहाड़ी राज्यों में भी पहुँचे जैसे बसौली किन्तु यहाँ को कला मूलतः लोक कला से अनुप्रेरित थी। इसलिए यहाँ मुगल कला का प्रभाव बहुत अधिक नहीं हो सका किन्तु वसौली शैली का प्रभाव अवश्य अन्य रियासतों पर पड़ा, जिनमें चम्बा प्रमुख है। 

चम्बा में यह प्रभाव यहाँ के प्रारम्भिक चित्रों पर पड़ता है किन्तु धीरे-धीरे चम्बा में निजी विशेषताएँ दिखाई देने लगती हैं। काँगड़ा के समान तो नहीं किन्तु लघु स्तर पर यहाँ कला की धारा चलती रही। प्राय: सभी राजाओं ने कलाकारों को आश्रय दिया। इसी परम्परा का निर्वाह करते हुए राजा उमेद सिंह ने भी कला की थाती को संजोए रखा। राजा जीतसिंह संसारचन्द्र के समकालीन थे। 

चूँकि समस्त पहाड़ी रियासतों में संसारचन्द के प्रभुत्व का डंका बजता था। इसलिए अन्य पहाड़ी राज्यों ने भी चित्र 81 : कंदुक क्रीड़ा, 1765 ई०, काँगड़ा शैली के अस्तित्व को ही स्वीकारा। इस प्रभाव के परिणाम स्वरूप चम्बा चम्बा, पहाड़ी शैली में कलाकृतियों की परम्परा विकसित होती रही। 

अन्य पहाड़ी शैलियों के साथ-साथ चम्बा की कला में लोक कला का भी प्रभाव दिखाई देता है। लोक कला का प्रभाव वसौली शैली के चित्रों पर भी रहा। 

ऐसा माना जाता है कि 1758 ई० तक बसौली कलम का इतना प्रभाव चम्बा के चित्रों पर रहा कि विद्वानों को दोनों शैलियों में अन्तर करने में काफी कठिनाई होती थी। चम्बा के भूरिसिंह म्यूजियम में इस प्रकार के अनेक चित्र हैं। 

इन चित्रों में से एक बहुत प्रसिद्ध चित्र है जिसका विषय है कल्कि एवं परशुराम इसी के साथ-साथ कुछ ऐसे चित्र भी हैं जिसका विषय भागवत है। इस विषय से सम्बन्धित चित्रों में भी बसौली चित्रों की समानता दिखाई देती हैं। 

एक दूसरे पर प्रभाव का एक कारण यह भी था कि कलाकार एक स्थान से दूसरे स्थान पर जाते रहते थे। सेओ परिवार के कलाकारों नैनसुख, निक्का आदि ने बहुत से चित्रों का निर्माण किया। इन कलाकारों ने सम्पूर्ण पहाड़ी कला के विकास में अपना योगदान दिया। 

निक्का ने गुलेर और चम्बा दोनों स्थानों पर कार्य किया। लघु चित्रों के साथ-साथ चम्बा में भित्ति चित्रों का भी निर्माण हुआ। महलों तथा भव्य इमारतों के साथ-साथ भित्ति चित्रण की परम्परा जन साधारण के घरों तथा दरवाजों पर भी दिखाई देती है। वैसे तो भित्ति चित्रण की परम्परा अन्य शैलियों में भी दिखाई देती है। 

परन्तु चम्बा शैली में बने भित्ति चित्र अत्यन्त कलात्मक हैं। रंगमहल जो कि कई राजाओं के आश्रय में बना, में भी कई भित्ति चित्र बनकर तैयार हुए। इसके अतिरिक्त लक्ष्मी नारायण मन्दिर, अखन चण्डी मन्दिर में तथा कुछ कलाकारों के निजी निवास में भित्ति चित्र दिखाई देते हैं। 

धर्मशाला में भित्ति चित्र प्रारम्भ में बहुत कलात्मकता लिए थे परन्तु संरक्षण के अभाव में वह धीरे-धीरे अपना सौन्दर्य खोते गए। भित्ति चित्रों में लघु उद्योगों का आरम्भ हो गया।

के अतिरिक्त चम्बा में बहुत से महल भी बनवाए गये जिन पर चित्र 82 : ऊषा अनिरूद्ध कथानक का मुगल शैली का प्रभाव लक्षित होता है। कालान्तर में कुछ भवनों प्राथमिक संयोजन, 1770 ई०, चम्बा, पहाड़ी शैली अन्य चित्र शैलियों के समान चम्बा में भी विविध विषयों पर कलाकार ने अपनी तूलिका चलायी परन्तु मुख्य रूप में यहाँ पौराणिक विषयों को कलाकारों ने अधिक पसन्द किया। 

इनमें से तीन प्रमुख हैं (1) स्मणी हरण (2) सुदामा चरित (3) उपा अनिरुद्ध विष्णु के दस अवतारों पर चम्बा शैली में चित्र बनाए गए जिनकी शैली विशिष्ट है। 

मानवाकृतियाँ कुछ लम्बी हैं तथा साथ-साथ मुगल शैली का प्रभाव है। इसी के साथ साथ पहाड़ी राजाओं के व्यक्ति चित्र भी यहाँ बड़ी संख्या में मिलते हैं। इन राजाओं को प्राय: हुक्का पीते हुए अथवा अपनी रानी तथा बड़े पुत्र के साथ चित्रित किया गया है। काँगड़ा में भी इस प्रकार के व्यक्ति चित्रों के निर्माण की परम्परा थी। 

भूरिसिंह म्यूजियम में चम्बा शैली के इन व्यक्ति चित्रों को देखा जा सकता है। इनमें प्रमुख राजा पृथ्वीसिंह, राजा छतरसिंह, राजा उमेदसिंह आदि के व्यक्तिचित्र हैं। स्थानीय शासकों के अतिरिक्त राजा रणजीत देव, राजा कृपालपाल, राजा घमण्डचन्द आदि पड़ौसी राजाओं के व्यक्तिचित्र भी मिलते हैं। 

चम्बा के राजा पृथ्वीसिंह (1641-1664) का एक चित्र प्रिन्स ऑफ वेल्स म्यूजियम बम्बई में सुरक्षित हैं। पृष्ठभूमि में तीव्र पीला वर्ण भरा गया है जो सम्भवतः उसके गौरव के प्रतीक स्वरूप है एक सेवक उसे पान दे रहा है। राजा के आभूषण कुछ अद्भुत प्रकार के हैं।

भूरिसिंह म्यूजियम में चम्बा शैली के चित्रों का संग्रह मिलता है। पौराणिक विषयों के साथ-साथ चम्बा के कलाकारों ने रामायण तथा दुर्गासप्तशती के भी सुन्दर एवं कलात्मक चित्रों को बनाया। 

इन सभी चित्रों की रेखाएँ रूपाकार एवं रंग अपना एक विशिष्ट महत्व रखते हैं। रामायण से सम्बन्धित विषय में वाल्मीकि के आश्रम में लक और कुश के जीवन से सम्बन्धित चित्र सहज ही दर्शकों को प्रभावित करते हैं। लहरु के द्वारा भागवत पर चित्रों को श्रृंखला तैयार की गयी जो 9 फरवरी 1758 को बनकर तैयार हुई जैसा कि श्रृंखला के चित्रों के अन्तिम पृष्ठ पर लिखा मिलता है। 

नायिका भेद तथा बारहामासा के विषय पर भी चम्बा शैली के कलाकारों ने अपनी तूलिका चलायी। इन चित्रों की वर्ण योजना तथा प्राकृतिक सौन्दर्य चित्रों को उत्कृष्ट बनाने में सहायक है। 

इसी के साथ-साथ प्रकृति के रमणीय सौन्दर्य को प्रस्तुत करने वाले छः चित्रों में षड् ऋतुओं का अंकन कलाकारों को तूलिका तथा परिकल्पना से साक्षात् परिचय कराता है। कुछ चित्र ‘प्रेमसागर’ से भी सम्बन्धित मिलते हैं। 

चम्बा चित्रकारों का मुख्य विषय अन्य शैलियों के समान कृष्ण को लीलाएँ रहा। अन्य विषयों में राम का दरबार स्नान करती गोपियाँ, पक्षियों के साथ क्रीड़ा करती नायिकाएँ आदि प्रमुख हैं।

चम्बा के चित्रों को दो भागों में बाँटकर अध्ययन किया जा सकता है। प्रथम में चम्बा के अलंकारिक चित्र रखे जा सकते हैं, जो बसौली के समान प्रतीत होते हैं और दूसरे राजा राजसिंह तथा उसके बाद के समय के चित्र जिन पर गुलेर काँगड़ा शैली की छाप है। 

चम्बा के बहुत से व्यक्ति चित्रों में अलंकारिक प्रभाव लक्षित होता है। राजा राजसिंह (1764-94) का समय चम्बा में एक महत्वपूर्ण विशिष्टता के लिए प्रसिद्ध है। इनके समय में चम्बा में आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टिकोण से समृद्धि थी। गुलेर के शासक प्रकाश चन्द तथा काँगडा के राजा संसारचन्द इनके समकालीन थे। 

राजा राजसिंह अपनी साहसी प्रवृत्ति के कारण चम्बा में विशेष प्रसिद्ध हुए। इनके समय तक सेओ के परिवार की शैली चम्बा में प्रचलित हो चुकी थी। राजा राजसिंह के व्यक्तिचित्रों में उन्हें नृत्य का आनन्द लेते हुए, हुक्का पीते हुए उद्यान में विचरण करते हुए या परिवार के साथ बैठे हुए बनाया गया है। 

राजा राजसिंह के पुत्र जीतसिंह ने भी उनकी परम्परा को आगे बढ़ाया।

मण्डी शैली

अन्य पहाड़ी शैलियों के समान मण्डी के राजाओं ने भी अपने आश्रय में कलाकारों को संरक्षण दिया है। मध्य 17वीं शताब्दी में ऐसे बहुत से चित्र मिलते हैं जिसके आधार पर मण्डी में कला की धारा के विकास का ज्ञान होता है। 

मण्डी के प्रारम्भिक चित्रों के सम्बन्ध में बहुत अधिक ज्ञात नहीं होता क्योंकि यहाँ लोक शैली में कलाकार कार्य कर रहे थे। इसलिए इतिहासकारों का ध्यान उस ओर नहीं गया। मण्डी के शासक बहुत ही सरल से स्वभाव एवं धार्मिक प्रवृत्ति के थे। राजा सूरज सेन के समय में बहुत से चित्र विष्णु तथा शिव से सम्बन्धित बने। 

इसी के साथ-साथ कृष्ण का चित्रण भी कलाकारों ने किया। मण्डी के प्रारम्भिक समय में इसकी कोई विशेषताएँ निश्चित नहीं हो पायी।

राजा सिद्धसेन के व्यक्ति चित्र अन्य पहाड़ी राजाओं से कुछ पृथक् है क्योंकि उन्हें धार्मिक क्रियाकलाप में रत दर्शाया है। कुछ चित्रों में उन्हें परिवार के साथ चित्रित किया है किन्तु भारत कला भवन वाले में उन्हें योगों के रूप में दशाया गया है जिनकी चार भुजाएँ हैं। 

गले में लम्बी रुद्राक्ष माला तथा शेर की खाल पहने खड़ी मुद्रा में हैं। उनके सिर पर वैभव के प्रतीक स्वरूप पगड़ी पहने हुए चित्रित किया गया है। सीमित रंगों के माध्यम से कलाकार ने विषय की अभिव्यक्ति सरलता से कर दी है।

जिस प्रकार अन्य पहाड़ी शैलियों बसौली, चम्बा, आदि के चित्रों पर लोक कला का प्रभाव लक्षित होता है। इसी प्रकार मण्डी कलम के चित्रों का प्रारम्भ भी लोक कला के प्रभाव से होता है। लोक प्रभाव का साक्षात्कार प्रस्तुत करने वाला राजा केशवसेन का प्रथम व्यक्ति चित्र समीक्षकों के विचार से यहाँ का सबसे पुराना चित्र माना जाता है। 

इस समय के चित्रों में लोक कला की सादगी, सरलता, सपाट पृष्ठभूमि एवं प्राथमिक रंगतों का प्रयोग दिखाई देता है। इन विशेषताओं को प्रकट करता हुआ राजा सिद्धसेन का चित्र है, जिसमें उन्हें अपनी परिचायिकाओं के मध्य चित्रित किया गया है। राजा की महानता दर्शाने हेतु उन्हें विशाल आकार का बनाया गया है। 

परिधान तथा आभूषणों में ग्रामीण प्रभाव है। गुरू-गोविन्द सिंह के साथ राजा सिद्धसेन के अच्छे सम्बन्ध थे। चूँकि पहाड़ी राजाओं ने गुरू-गोविन्द सिंह की मुगलों के खिलाफ लड़ने में मदद की इसके परिणामस्वरूप गुरू गोविन्द सिंह ने भी मण्डी को सदैव सहयोग दिया। 

मण्डी के राजा शमशेर का विवाह चम्बा के राजा उग्रसेन की पुत्री के साथ हुआ इस संदर्भ में एक अत्यन्त सुन्दर चित्र मिलता है। इस चित्र में नोले तथा हरे रंग की आभा दर्शनीय है। इसके अतिरिक्त प्रयुक्त करने वाले रंग पीला, लाल, भगवा आदि हैं। आभूषणों से सुसज्जित राजा, कहार, पालकियाँ, घोड़े, वाद्ययन्त्र आदि। 

सभी विवाहोत्सव वातावरण को प्रस्तुत करने में सहायक हैं। समीक्षकों के विचार में चित्र पर लोक प्रभाव दिखाई देता है। चूँकि बसोहली शैली पर भी लोक कला का प्रभाव रहा है। इसी कारण मण्डी के कुछ चित्रों को मान लिया गया है मुख्य रूप से प्रारम्भिक चित्रों को।

धीरे-धीरे मण्डी कलम में विकास होता गया और लोक शैली की सरलता का स्थान सौम्यता और लालित्यपूर्ण संरचना में ढलता गया। राजा संसारचन्द के पतन के साथ-साथ पंजाब की सभी पहाड़ी रियासतों पर सिक्खों का आधिपत्य हो गया। 

काफी समय तक मण्डी में राजनैतिक अराजकता रही किन्तु ईश्वरी सेन के सिंहासनारूढ़ होने पर परिस्थितियाँ परिवर्तित हुई। जिसके परिणामस्वरूप मण्डी में बाहर चित्रकार आए एक चित्रकार सजनू कुल्लू से यहाँ आया जिसके द्वारा हमीरहठ का सुन्दर संकलन तैयार किया गया। 

इसमें 21 दिन है। इन चित्रों में हमीर और अलाउद्दीन खिलजी के युद्ध को दर्शाया गया है। इन चित्रों पर कौगड़ा कलम का प्रभाव दिखाई देता है किन्तु अलंकरण के दृष्टिकोण से यह चित्र मण्डी के निकट है। राजा संसारचन्द के दरबार से छूटने के बाद राजा ईश्वरीसेन लगभग 30 वर्षों तक राज्य किया। 

वहाँ से आने के बाद मण्डी के कार्यों में कांगड़ा का प्रभाव दिखाई देने लगता है। ईश्वरीसेन के बाद इनका पुत्र बलबीर सेन सिंहासनारूढ हुआ और कला परम्परा को आगे बढ़ाता रहा। फल्लू नामक कलाकार ने गजलक्ष्मी का चित्रांकन किया। देवी सन्दर्भ में एक चित्र गजलक्ष्मी विशेष उल्लेखनीय है। 

इस चित्र में चार हाथियों के मध्य कमल पर आसीन लक्ष्मी को चित्रित किया गया है। अग्रभूमि में जल में कमल पुष्प एवं पत्र का सौन्दर्य है। हाथियों के वस्त्रों पर अलंकरण है। चित्र का संयोजन समविभाजन द्वारा किया गया है।

बलवीर के समय में ही दुर्गासप्तशती का चित्रण किया गया। सजनू का बनाया शिवरात्रि के मेले का चित्र भी बहुत सुन्दर है। राजा ईश्वरी सेन को इस चित्र में मेले में दिखाया है। झूले सजी-धजी नारी आकृतियों, लोक नृत्य आदि सभी में तत्कालीन परम्परा के दर्शन होते हैं। कलाकार का लोक जीवन के प्रति संवेदन विशेष उल्लेखनीय है। 

ऐसा निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि कलाकार ने राजनैतिक, सामाजिक एवं लोकजीवन का पूर्ण अध्ययन कर लिया था। सजन द्वारा बनाए गए चित्रों में शैली की परिपक्वता है जिसका कारण यह है कि वह मूलतः काँगड़ा का रहने वाला था। जहाँ वह लालित्यपूर्ण चित्रों को बनाकर बहुत प्रसिद्ध हो चुका था। 

शिवरात्रि के मेले वाले इस चित्र को कुछ विद्वान मण्डी का बताते हैं क्योंकि यह मण्डी का पारम्परिक मेला माना जाता था।

मण्डी का राग-भैरव का चित्र संगीतात्मक चित्रों की श्रृंखला में एक महत्वपूर्ण चित्र है। इसमें शिव को अपने वाहन नन्दी पर बैठे हुए दर्शाया गया है, जिसकी पीठ पर आसन तथा गले में घंटी वालो मोतियों की माला बनायी गयी है। 

शिव के गले में सर्प, शीश पर चाँद रुद्राक्ष के बाजूबन्द बाएँ हाथ में पताका तथा दाएँ हाथ में डमरू चित्रित है। विद्वान ऐसा मानते हैं कि शिव का यह रूप राग भैरव को सार्थक करता है। 

यहाँ के राजाओं ने भित्तिचित्र भी बनवाए, जिनमें काली मन्दिर के भित्ति चित्र काफी प्राचीन तथा उत्कृष्ट थे कामेश्वर मन्दिर में जो भित्ति सज्जा थी वह आकर्षक थी और आलेखन अजन्ता के चित्रों का स्मरण कराता है। टारना मन्दिर का आलेखन भी अपने आप में बहुत विशिष्ट तथा लयात्मक है। 

किन्तु संरक्षण के अभाव में काफी चित्र नष्ट हो गए। 1940 के लगभग मण्डी में काफी अशान्ति रही। सिक्खों के हमले प्रारम्भ हो गए। शासन व्यवस्था कमजोर हो गया, परन्तु इन सब परिस्थितियों के बावजूद मण्डी अपने निजस्व तथा निश्चित विशेषताएँ निर्धारित करने में सफल हो सकी। 

मुख्य रूप से नारी आकृतियों के अंकन में जिसमें ढलवा माथा और तीखी नासिका, मोटे होठ, आँख, नाक तथा भुजाओं के नीचे छाया के साथ आकृतियाँ कमर से नीचे कुछ लम्बाई का आभास देती हैं। प्रायः पृष्ठभूमि को सपाट बनाया है। वसौली शैली के चित्रों की तुलना में रंग नियोजन गहरा तथा सरल है। 

इधर-उधर उड़ते छोटे-छोटे पक्षियों का बहुत स्वाभाविक अंकन मिलता है किन्तु अन्तिम चित्रों में भी अन्य पहाड़ी शैलियों के प्रभाव से तीव्र वर्ण नियोजन दिखायी देने लगा।

चित्र मण्डी में काफी समय तक देवियों पर आधारित चित्र रचनाएँ हुई। इन प्रसिद्ध चित्रों में बाला सुन्दरी का बहुत प्रसिद्ध हुआ। देवी की चार भुजाओं में से एक में पुस्तक दूसरे में रुद्राक्ष की माला, तीसरा हाथ वाद् हस्त मुद्रा में तथा चौथा हाथ अभयदान मुद्रा में हैं। 

देवी के सिर पर मुकुट है। उन्हें कमल के आसन पर मण्डप के नौचे चित्रित किया है। फर्श पर कालीन बिछा है जिस पर फूलों से आलेखन हैं, जो कि मुगल प्रभाव को प्रकट करता है। संयोजन अण्डाकार गोलाई लिये है, जिस पर पाश्चात्य प्रभाव परिलक्षित होता है। धीरे-धीरे भारत में ब्रिटिश अधिकारियों का आगमन प्रारम्भ हो गया। 

1846 में हुई एक सन्धि के परिणामस्वरूप सतलुज और व्यास नदियों के मध्य का क्षेत्र ब्रिटिश सत्ता के आधीन आ गया, जिसका प्रभाव यह हुआ कि मण्डी के सामाजिक एवं लोक जीवन पर पाश्चात्य प्रभाव पड़ना आरम्भ हो गया। 

इसी के साथ-साथ कैनवास पर तैल रंगों में चित्रण भी होने लगा, जिसमें यथार्थता, परिप्रेक्ष्य सादृश्यता, एनाटॉमी आदि के नियमों को अपनाया जाने लगा। तथा सेवल ब्रश कलाकारों अपनाए गए। पाश्चात्य पद्धति पर कुछ कलाकारों ने ‘न्यूड फिगर’ को भी बनाया। 

इन विशिष्टताओं को साकार करता हुआ एक चित्र ‘नायिकाएँ’ है जिसे ‘गाहिया नरोत्तम’ ने बनाया जो कि एक सफल चित्रकार थे उन्होंने त बिलासपुर आदि स्थानों पर भी चित्र बनाए। इस सन्दर्भ में ‘ब्रह्मा ब्रह्माणी’ का चित्र विशेष उल्लेखनीय है यह चित्र मुहम्मद बख्श द्वारा बनाया गया है। 

ब्रह्मा और ब्रह्माणी कोणाकार चौकी पर बैठे हैं जिसके पाए जानवर के पंजों के समान है। यह चौकी कमलासन पर रखी है। ब्रह्माणी के बाएँ हाथ में कमल तथा दायाँ हाथ ब्रह्मा जी के कन्धे पर टिका है दोनों आकृतियों को आभूषणों से सुसज्जित किया गया है जिनके सिर के पीछे प्रभामण्डल है। 

बाह्यरूप से चित्र मण्डी शैली का है। परन्तु धूमिल रेखांकन एवं आकार में यह पाश्चात्य प्रभाव से बने चित्रों के समीप है।

वायसराय लार्डमेयो के मण्डी आने पर एक नये महल का निर्माण हुआ जिसे भित्ति चित्रों से सजाया गया परन्तु आगे (1962 में) यह महल जल कर भस्म हो गया। 1860 ई० में भारत में कैमरे का आगमन हुआ और छायाचित्र भी बनने लगे। धीरे-धीरे मण्डी चित्र शैली का हास होने लगा। 

मण्डी के चित्रकार नरोत्तम तैल रंग से व्यक्ति चित्रों को काफी समय तक बनाते रहे इन्हें परम्परा और आधुनिकता के मध्य सन्तुलन स्थापित करने वाला कलाकार कहा जा सकता है।

पहाड़ी शैली के बारे विद्वानों के विचार

“पहाड़ी पेंटिंग समग्र रूप से रंग और संवेदनशीलता में समृद्ध है। जीवंत पहाड़ी परंपरा और रंगीन और मरणासन्न मुगल पेंटिंग के बीच कोई तुलना नहीं हो सकती है, इसलिए पहाड़ी पेंटिंग मुगल स्कूल की नकल नहीं है बल्कि वास्तव में एक पुनर्जीवित रूप है -चंद्रमणि सिंह

“पंजाब के इतिहास में, घाटी में कांगड़ा चित्रकला का विकास वसंत की सुगंधित हवा की तरह है जो हमें प्रसन्न करता है। इसमें कोई संदेह नहीं है कि मानव आत्मा की बेहतरीन उपलब्धियों में से एक है। एम.एस. रंधावा,

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