अरूपदास | Arupadas

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अरूपदास का जन्म चिनसुराह में 5 जुलाई 1927 को हुआ था और बचपन इसी सुन्दर कस्बे में व्यतीत हुआ जिसका प्रभाव उनकी कला में निरन्तर बना रहा। उनकी माता एक कुशल कलाकार थीं। 1945 में गवर्नमेण्ट स्कूल ऑफ आर्ट कलकत्ता में उन्होंने प्रवेश लिया। उन्होंने ‘श्रीमती’ नामक एक ठाकुर महिला के संग्रह के चित्रों से पर्याप्त प्रेरणा ली।

आरम्भ में उन्होंने ग्रामीण दृश्य अंकित किये, बॉस के झुरमुट, खजूर के झुड, ग्रामीण झोपडियों, आस-पास फैली हरीतिमा, ग्रामीण लोगों का सरल दैनिक जीवन, धान की खेती, ग्रामीण स्त्रियों के कार्य-कलाप आदि इन आरम्भिक चित्रों में ही उनकी प्रतिभा स्पष्ट होने लगी थी जिनमें भारतीय तथा जापानीविधि से भित्ति-अलंकरण के पैटर्न चित्रित किए गये थे कोमल रंग, शान्त वातावरण, प्राकृतिक ताजगी, संगीतात्मकता, गतिशील नाटकीय स्थितियों आदि का इन्होंने परम्परा प्रेरित किन्तु अपने ढंग से चित्रण का प्रयत्न किया।

इसके पश्चात् वे नये-नये प्रयोग करते गये। आधुनिक कला तथा लोक शैलियों सभी से उन्होनें प्रेरणा ली और यामिनीराय, शीला ओडेन आदि की भाँति कोमल, सुखद, भावात्मक, आलंकारिक शास्त्रीय पैटर्न को लोक कला के ओजपूर्ण रंगों, तथा सपाटेदार रेखाओं के साँचे में ढाला। इससे उनकी कला में और अधिक निखार आ गया।

1949 से अरूपदास खूब काम करनेलगे और अनेक शैलियों में आलंकारिक कृतियों की रचना की। उन्होनें धरातलों के विभिन्न प्रभावों तथा डिजाइन को सोच समझ कर चित्र पर वितरित किया। कुंज में संगीत तथा प्रकृति में रोमान्स इसके अच्छे उदाहरण हैं। क्राइस्ट आदि के चित्र उनके भित्ति चित्रों के आलंकारिक पेनल हैं। इन पर अजन्ता का भी प्रभाव है।

चित्र प्रदर्शनियों में उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं। 1950 में हैण्डलूम डिजाइन प्रतियोगिता पुरस्कार, 1953 में ग्रामीण जीवन का राष्ट्रीय आधुनिक कला वीथी द्वारा क्रय किया जाना, 1961 में नदी किनारे स्त्रियों पर राष्ट्रपति का रजत पदक, 1958 में हैदराबाद में स्वर्ण पदक, 1955 में ईसा” को ललित कला अकादमी द्वारा सर्वश्रेष्ठ भित्ति चित्र घोषित किया जाना आदि उन्हें प्रदत्त कुछ सम्पन हैं।

उनके कार्य पर प्रभाववाद, धनवाद, अमूर्तबाद, अभिव्यंजनावाद तथा अतियथार्थवाद के प्रभाव देखे जा सकते हैं किन्तु वे उन्हें पृष्ठ-भूमि तथा भारतीय आलंकारिक शैली में ढाल देते हैं। धनवाद की भाँति वे बहु-आयामी परिप्रेक्ष्य का प्रयोग करते हैं। 

उनकी कला में प्रतीकता भी अमूर्त पद्धति से व्यजित हुई है। उनकी मानवाकृतियाँ तथा पशु आदि भावों से अनुप्राणित हैं। दृश्य-चित्रों में वे केक्टस, चटटानें तथा घर एक धुँधले स्वप्न के समान पीताभा से युक्त एवं आकर्षक बनाते हैं और उनमें प्रतीकात्मक मानव आकृतियाँ अंकित करते हैं।

वे अनावृताओं के चित्रों में उभारों को विशेष प्रकार से बनाते हैं और उनमें किंचित् कोमलता का आभास देते हैं। ये बड़े लुभावने और आकर्षक लगते हैं। उनके चित्र राष्ट्रीय आधुनिक कला संग्रहालय नई दिल्ली तथा आधुनिक कला संग्रहालय पंजाब में स्थायी रूप से देखे जा सकते हैं।

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