कहिंगेरी कृष्ण हेब्बार | Katingeri Krishna Hebbar

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कृष्ण हेब्बार का जन्म दक्षिणी कन्नड के एक छोटे से सुन्दर गाँव कट्टिगेरी में 15 जून 1912 को हुआ था। बाल्यकाल गाँव में ही व्यतीत हुआ और गांव के सुन्दर प्राकृतिक दृश्यों, उत्सवों, नृत्य, नाटकों तथा गीतों आदि का आरम्भ से ही हैब्बार पर प्रभाव पड़ा। 

वे गांव के उत्सवों आदि में चित्रकारी के लिए जाते और प्रशंसा प्राप्त करते। इस वातावरण से उनके स्थायी संस्कार बन गये । उनकी कला में ग्राम सुलभ कल्पना अन्त तक बनी रही।

कला की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिये उन्होंने बम्बई के सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट में प्रवेश लिया। वहाँ उन्होंने पर्याप्त परिश्रम किया और उन्हें खूब प्रशंसा भी मिली। 1938 में उन्होंने वहाँ से डिप्लोमा परीक्षा उत्तीर्ण की।

1940 के पश्चात् हैब्बार ने पश्चिमी प्रभाववाद आदि शैलियों को छोड़ना आरम्भ कर दिया। वे मुगल, राजपूत तथा अमृता शेरगिल के प्रभाव से भी मुक्त होना चाहते थे अतः उन्होंने नये प्रयोग किये बम्बई से डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात् कुछ समय तक उन्होंने पेरिस की अकादमी जूलियाँ में भी 1948-50 में शिक्षा ग्रहण की। 

भारत लौटकर कुछ समय तक जे०जे० स्कूल आफ आर्ट्स में शिक्षण कार्य भी किया। तत्पश्चात् वे एक व्यावसायिक चित्रकार बन गये। दक्षिण की यात्रा ने उन्हें समृद्ध भारतीय मूर्तिकला की महत्ता से अवगत कराया। उन्होनें लगभग सभी महत्त्वपूर्ण केन्द्रों का भ्रमण किया। 

पेरिस में रूओल्त से मिलने पर उन्हें धार्मिक भावनाओं से कला में उत्पन्न होने वाली गहराई का अनुभव हुआ। उन्होनें देश-विदेश में अनेक प्रदर्शनियाँ की तथा अनेक पुरस्कार प्राप्त किये। 

उन्हें ललित कला अकादमी द्वारा तीन बार राष्ट्रीय पुरस्कार से तथा 1961 में पद्मश्री से सम्मानित किया गया। 1976 में वे ललित कला अकादमी के रत्न सदस्य मनोनीत किये गये 1980 से 1984 तक वे अकादमी के अध्यक्ष भी रहे।

हैब्बार का आरम्भिक रेखांकन लयात्मकतापूर्ण तथा रोमान्टिक भावना उत्पन्न करने वाला है। जीवन के विविध कार्यों में लगे लोगों का गतिपूर्ण रेखांकन उन्होंने किया है जिसमें परम्परा का समाहार तथा प्रगतिशील भारत का चित्रण है। उनकी इन कृतियों में उज्ज्वल वर्ण, उष्णता तथा जीवन की परिपूर्णता है। 

आरम्भ में वे पुनरुत्थानवादियों के बजाय अमृता से प्रभावित हुए तथा तेल माध्यम में अजन्ता जैसी रेखा और गाठे रंगों से चित्र बनाये बम्बई आर्ट सोसाइटी की 1935-36 की प्रदर्शनी में हेब्बार ने अमृता शेरगिल का तीन युवतियों वाला चित्र देखा था और वे उससे प्रभावित होकर फ्रेंच चित्रकार गागिन की कला के गम्भीर अध्ययन में लग गये। 

1939-40 के मध्य उनकी शैली में परिपक्वता आने लगी किन्तु रेखा की संवेदनशीलता उन्हें अधिक प्रभावित करने लगी अतः ये पुनः ग्रामीण विषयों ग्रामीण दृश्य, नर्तकियों आदि का रेखा के माध्यम से अंकन करने लगे। उनके इन चित्रों में रेखा, रंग तथा रूप का सामंजस्य है। 

बम्बई में रहकर उन्होंने समीप की बस्तियों में रहने वाले श्रमिकों को अपना विषय बनाया जैसे घर बनाने वाले, मधुए, फल बेचने वाले आदि।

पेरिस की अकादमी में अध्ययन के परिणाम स्वरूप उनकी कला में रेखा तथा रूप का आधुनिक ढंग से सामंजस्य हुआ। 1940-50 के मध्य विकसित इस शैली में पूर्वी तथा पश्चिमी कला का समन्वय है। 

इसमें छाया-प्रकाश की विधि को छोड़ दिया गया है और कठोर से लेकर कोमल की ओर रंगों की संगतियों का प्रयोग मातिस तथा ब्राक की भाँति किया गया है। इसके साथ-साथ चित्रों में सफल भाव व्यंजना भी हुई है। 

1960 के पश्चात् अमूर्तीकरण की पद्धति का भी उन्होनें अपनी आकृति-मूलक शैली में समाहार कर लिया। उनकी कला में एक प्रकार की सौम्यता है जिससे हम उसे सहज ही स्वीकार कर लेते हैं।

हैब्बार ने व्यक्ति चित्रण, भित्ति चित्रण तथा सृजनात्मक दृष्टान्त-चित्रण भी किया है। उन्होंने केबिनेट चित्र तथा भित्ति चित्र ही अधिक बनाये हैं और हजारों रेखांकन किये हैं । उनकी रुपयोजना समन्वयात्मक होते हुए भी मूलतः भारतीय है। उनकी रेखाएँ शास्त्रीय होते हुए भी रूढ़ नहीं है, आलंकारिक होते हुए भी किसी की अनुकृति नहीं है; उनमें भारतीय मूर्ति शिल्प की लयात्मकता, समृद्धि और प्रवाह है। वे सरल और सहज है। 

चित्रांकन के समय हेब्बार ने संयोजन का बहुत ध्यान रखा है और भारतीय मूर्तिकला के संयोजनों को अपना आदर्श माना है मयूर, नर्तक, दीपावलि, होली, ढोल वादक, निर्माण तथा मुर्गो की लड़ाई आदि उनके कुछ प्रमुख चित्र है।

अकादमिक पद्धति में दृश्याकंन तथा आकृति-चित्रण करने के उपरान्त वे अभिव्यंजनावाद की ओर मुड़ गये। इसके साथ-साथ ये भारतीय शास्त्रीय संगीत तथा लोकसंगीत से भी बहुत प्रभावित हुए। 

उन्होंने लय की अनुभूति को आत्मसात् करने के लिये कथक नृत्य के सुप्रसिद्ध आचार्य पंडित सुन्दरलाल से नृत्य कला की शिक्षा भी ली अपनी प्रौढावस्था में वे आध्यात्मिकता की ओर मुड़ गये और जीवन के दुःखों से छुटकारे के उपाय के रूप में कला के माध्यम को टटोलने का प्रयत्न किया। 

इसी प्रवृत्ति का विकास हमें उनके अधिकाधिक अमूर्त होते हुए दृश्यांकनों एवं रंगों के घनीभूत प्रयोगों में दिखायी देता है। यद्यपि शारीरिक दृष्टि से वे उतने सशक्त नहीं रहे थे तथापि वे तब भी निरन्तर कला सृजन में लगे रहे। 1991 में उनका 80वां जन्म दिवस मनाया गया । 26 मार्च 1996 को मुम्बई में उनका निधन हो गया।

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    1. गंगा का जन्म (शिव)- (कागज, 12 x 18 इंच ) 2. मीराबाई की मृत्यु – ( कागज, 12 x 18 इंच ) … Read more
  • असित कुमार हाल्दार | Asit Kumar Haldar
    श्री असित कुमार हाल्दार में काव्य तथा चित्रकारी दोनों ललित कलाओं का सुन्दर संयोग मिलता है। श्री हाल्दार का जन्म 10 सितम्बर 1890 … Read more
  • ठाकुर परिवार | ठाकुर शैली
    1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में हर प्रकार से अपने शासन को दृढ़ बनाने का प्रयत्न किया, किन्तु बीसवीं … Read more
  • अवनीन्द्रनाथ ठाकुर
    आधुनिक भारतीय चित्रकला आन्दोलन के प्रथम वैतालिक श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का जन्म जोडासको नामक स्थान पर सन् 1871 में जन्माष्टमी के दिन हुआ … Read more
  • कला के क्षेत्र में किये जाने वाले सरकारी प्रयास | Government efforts made by the British in the field of art
    सन् 1857 की क्रान्ति के असफल हो जाने से अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी और भारत के अधिकांश भागों पर ब्रिटिश शासन थोप … Read more
  • बंगाल का आरम्भिक तैल चित्रण | Early Oil Painting in Bengal
    अठारहवीं शती में बंगाल में जो तैल चित्रण हुआ उसे “डच बंगाल शैली” कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि यह माध् यम … Read more
  • कम्पनी शैली | पटना शैली | Compony School Paintings
    अठारहवी शती के मुगल शैली के चित्रकारों पर उपरोक्त ब्रिटिश चित्रकारों की कला का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी कला में यूरोपीय तत्वों का बहुत … Read more
  • पट चित्रकला | पटुआ कला क्या है
    लोककला के दो रूप है, एक प्रतिदिन के प्रयोग से सम्बन्धित और दूसरा उत्सवों से सम्बन्धित पहले में सरलता है; दूसरे में आलंकारिकता दिखाया तथा शास्त्रीय नियमों के अनुकरण की प्रवृति है। पटुआ कला प्रथम प्रकार की है।
  • काँच पर चित्रण | Glass Painting
    अठारहवीं शती उत्तरार्द्ध में पूर्वी देशों की कला में अनेक पश्चिमी प्रभाव आये। यूरोपवासी समुद्री मार्गों से खूब व्यापार कर रहे थे। डचों, … Read more
  • आधुनिक भारतीय चित्रकला की पृष्ठभूमि | Aadhunik Bharatiya Chitrakala Ki Prshthabhoomi
    आधुनिक भारतीय चित्रकला का इतिहास एक उलझनपूर्ण किन्तु विकासशील कला का इतिहास है। इसके आरम्भिक सूत्र इस देश के इतिहास तथा भौगोलिक परिस्थितियों से जुड़े हुए … Read more
  • Gopal Ghosh Biography | गोपाल घोष (1913-1980)
    आधुनिक भारतीय कलाकारों में रोमाण्टिक के रूप में प्रतिष्ठित कलाकार गोपाल घोष का जन्म 1913 में कलकत्ता में हुआ था। उनके पिता स्वयं … Read more
  • कलकत्ता ग्रुप
    1940 के लगभग से कलकत्ता में भी पश्चिम से प्रभावित नवीन प्रवृत्तियों का उद्भव हुआ । 1943 में प्रदोष दास गुप्ता के प्रयत्नों … Read more
  • पटना शैली
    उथल-पुथल के इस अनिश्चित वातावरण में दिल्ली से कुछ मुगल शैली के चित्रकारों के परिवार आश्रय की खोज में भटकते हुए पटना (बिहार) … Read more
  • मैसूर शैली
    दक्षिण के एक दूसरे हिन्दू राज्य मैसूर में एक मित्र प्रकार की कला शैली का विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मैसूर … Read more
  • तंजौर शैली
    तंजोर के चित्रकारों की शाखा के विषय में ऐसा अनुमान किया जाता है कि यहाँ चित्रकार राजस्थानी राज्यों से आये इन चित्रकारों को … Read more
  • अभिव्यंजनावाद | भारतीय अभिव्यंजनावाद | Indian Expressionism
    यूरोप में बीसवीं शती का एक प्रमुख कला आन्दोलन “अभिव्यंजनावाद” के रूप में 1905-06 के लगभग उदय हुआ । इसका प्रधान प्रयोक्ता जर्मन … Read more
  • बसोहली की चित्रकला
    बसोहली की स्थिति बसोहली राज्य के अन्तर्गत ७४ ग्राम थे जो आज जसरौटा जिले की बसोहली तहसील के अन्तर्गत आते हैं। जसरीटा जिला … Read more
  • रेखा क्या है | रेखा की परिभाषा
    रखा वो बिन्दुओं या दो सीमाओं के बीच की दूरी है, जो बहुत सूक्ष्म होती है और गति की दिशा निर्देश करती है लेकिन कलापक्ष के अन्तर्गत रेखा का प्रतीकात्मक महत्व है और यह रूप की अभिव्यक्ति व प्रवाह को अंकित करती है।
  • टीजीटी / पीजीटी कला से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्न | Important questions related to TGT/PGT Arts
    सांझी कला किस पर की जाती है ? उत्तर: (B) भूमि पर ‘चाँद को देखकर भौंकता हुआ कुत्ता’ किस चित्रकार की कृति है … Read more
  • राजस्थानी चित्र शैली की विशेषतायें  | Rajasthani Painting Style
    राजस्थान एक वृहद क्षेत्र है जो “अवोड ऑफ प्रिंसेज” माना जाता है इसके पश्चिम में बीकानेर, दक्षिण में बूँदी, कोटा तथा उदयपुर उत्तर में जयपुर … Read more

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