निकोलस रोरिक | Nicholas Roerich

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सुदूर के देशों से आकर भारतीय प्रकृति, दर्शन और संस्कृति से प्रभावित होकर यहीं पर बस जाने वाले महापुरूषों में रूसी कलाकार निकोलस रोरिक का नाम शीर्ष स्थान पर है। 

उनका दृष्टिकोण विश्वजनीन था किन्तु भारत में हिमालय के क्षेत्र में ही उनको आत्मिक शान्ति का अनुभव हुआ था। यहाँ रहकर वे भारतीय संस्कृति से अभिन्न रूप से जुड़ गये थे।

निकोलस रोरिक का जन्म 1874 ई० में सेण्ट पीटसबर्ग में एक वकील के घर में हुआ था। बचपन से ही उनकी रूचि इतिहास तथा कलामें थी। 

उन्होंने सेण्ट पीटसवर्ग विश्व विद्यालय से वकालत की डिग्री के साथ-साथ ललित कला अकादमी की स्नातक उपाधि भी प्राप्त की जहाँ पर उन्होंने प्रसिद्ध रूसी दृश्य चित्रकार आर्खिप कुइन जी से चित्र विद्या सीखी थी। 

इसके उपरान्त रोरिक ने स्वयं को चित्रकला के प्रति समर्पित कर दिया। इस कार्य में रूसी संस्कृति के प्रसिद्ध विद्वान ब्लादिमीर स्तासोव ने उन्हें प्रोत्साहित किया और रूसी सांस्कृतिक इतिहास के अनुशीलन का परामर्श दिया। 

इसके आधार पर रोरिक ने रूसी जन-जीवन के संघर्षमय इतिहास को काल्पनिक कथा (मिथक) के समान चित्रित करना आरम्भ कर दिया। उन्होंने इतिहास की वास्तविक घटनाओं के अंकन में रूचि नहीं ली। 

अपने चित्रों के लिए उन्होंने बलिष्ठ नर नारियों, विशाल तथा भारी नौकाओं, पर्वतों तथा घाटियों का ऐसा लोक सर्जित किया जहाँ प्रत्येक वस्तु ठोस तथा शक्तिशाली है, स्पष्ट और स्थायित्वपूर्ण है रोरिक ने प्राचीन युग को ऐसी भव्यता भी दी जो वर्तमान में नहीं है। 

उन्होंने इतिहास की अनुभूति के लिए रूस के प्राचीन नगरों की यात्राएँ भी की। 1903-4 में उन्होंने प्राचीन पूजागृहों, मीनारों तथा नगरों को घेरने वाली प्रकोष्ठ दीवारों के अस्सी से भी अधिक चित्र बनाये ।

रूस ही नहीं, रोरिक को प्राचीन तथा मध्यकालीन पूर्वी संस्कृति, मध्य-युगीन यूरोपीय संस्कृति तथा स्क्रेडिनेवियन कला से भी प्रेम था। उन्होंने इनके विषय में अनेक लेख लिखे थे। उनके लिखे 27 ग्रंथ उपलब्ध हैं। 

रोरिक ने बड़े आकार के आलंकारिक भित्ति चित्रों, पेनल चित्रों तथा मणिकुट्टिम चित्रों की भी रचना की । अपने युग के महान् वास्तुकारों के साथ उन्होंने भवन तथा चित्रकला के समन्वय की समस्या पर भी प्रयोग किये और आधुनिक भवनों में प्रयोग के लिये मणिकुट्टिम, चिलिचित्र तथा पेनल-चित्र बनाये। 

1910 में उन्होंने पीटसबर्ग में एक विशाल भवन की चित्र-सज्जा भी की। इस समय की उनकी रंग योजनाओं में हरे, उन्नावी तथा फीके गुलाबी रंग के साथ सुनहरी रंग का प्रयोग हुआ है जो बडा ही प्रभावोत्पावक एवं लोकप्रिय हुआ।

रोरिक ने प्रकृति का चित्रण मानवीय क्रिया-कलापों के परिप्रेक्ष्य में ही किया है। उनके वृक्ष, पर्वत तथा मेघ सभी सक्रिय रहते हैं। उन्होंने रूसी थियेटरों के लिये भी बहुत कार्य किया। 

स्टेज सेटिंग, भित्ति चित्रण अथवा केनवास चित्रण सभी में रोरिक की प्रवृति आलंकारिकता की रही है। इसके साथ ही उनके रंग अत्यन्त व्यंजक है। उनके प्रिय रंग लाल, नीले, उन्नावी तथा सुनहरे पीले रहे हैं। 

रोरिक ने अपने देश के बैले निर्माताओं के साथ मिलकर संगीत, चित्र आदि दृश्यात्मक कलाओं एवं अभिनय का सफल समन्वय भी प्रस्तुत किया है जो उनकी एक उल्लेखनीय उपलब्धि है तथा विश्वभर के नाट्यकर्मी जिससे प्रेरणा लेकर अपने-अपने क्षेत्र में इसी प्रकार के प्रयोग कर सकते हैं। सन् 1912 में रोरिक ने इस प्रकार का सर्वाधिक कार्य किया।

प्रथम महायुद्ध के समय रोरिक धार्मिक विषयों की ओर मुड़ गये किन्तु युद्ध से उत्पन्न सामाजिक पीड़ा ने भी उन्हें प्रभावित किया। इस समय तक रोरिक ख्याति के चरम शिखर पर पहुँच चुके थे। 

1915 में उनका सम्मान किया गया और उनके चित्र अनेक संग्रहालयों में प्रदर्शित किये गये। उनके कला सम्बन्धी लेखों का 1914 में ही प्रकाशन हो चुका था। 1916 में वे बीमार हुए और चिकित्सा के लिये फिनलैण्ड चले गये। 

इसी बीच 1917 में रूस की प्रसिद्ध अक्टूबर क्रान्ति हुई और वे अपने देश से कट गये। बाद में उन्हें कुछ देशों में रूसी कलाकृतियों की देखभाल का काम सपा गया। 

वे अमेरिका भी गये। न्यूयार्क में उनके प्रशंसकों ने 1923 में रोरिक संग्रहालय की स्थापना की।

1920 में रोरिक ने मध्य एशिया तथा भारत के लिये दो पुरातात्विक अभियानों का कार्यक्रम बनाया। इनमें वे पामीर, मंगोलिया, तिब्बत तथा हिमालय के विभिन्न क्षेत्रों के सांस्कृतिक इतिहास की खोज में निकले और 1928 में स्थायी रूप से कुल्लू के नगर में बस गये। 

जीवन के अन्तिम 19-20 वर्ष उन्होंने यहीं व्यतीत किये। इस अवधि में हिमालय की विभिन्न छवियों ही उनके चित्रों में उभरती रहीं । 

अरुणोदय, सूर्यास्त, कुहरा. तेज धूप । और चाँदनी रात्रि में उन्होंने हिमालय की विभिन्न स्थितियों तथा स्थानों के अनेक चित्र बनाये। किन्तु ये चित्र केवल दृश्यांकन मात्र नहीं हैं बल्कि हिमालय की छाया में रहने वाले एक आध्यात्मिक कलाकार की उदात्त अनुभूति के ही विविध रूप हैं। 

रोरिक इनके माध्यम से ब्रह्माण्ड के तत्व तक पहुंचना चाहते थे। इन चित्रों में नीला रंग अनन्तता की अनुभूति का प्रतीक बनकर चित्र तल पर प्रभादी रहता है। अन्य रंगों में श्वेत, गुलाबी, बैंगनी तथा हरितमणि के विविध बलों का प्रयोग है। 

रोरिक के साथ पर्वतीय यात्राओं पर जाने वालों का कथन है कि हमें भले ही ये रंग अवास्तविक और विचित्र लगते हैं पर पर्वतीय ऊँचाइयों पर उन्हें वास्तव में देखा जा सकता है। इन्हें “ब्रह्माण्डीय” रंग कहा गया है। 

कलाकार ने प्रकृति की शक्तियाँ को जीवन्त रूप में देखा है दूर आकाश के तारे तथा हिमाच्छादित रहस्यमय शिखर मनुष्य की पूर्णता प्राप्त करने की अनवरत कामना के प्रतीक हैं प्रकाश ज्ञान की शक्ति का सूचक है: सन्त तथा दार्शनिक आकृतियाँ मनुष्य की आध्यात्मिक जिज्ञासा की प्रतीक बनकर आयी हैं।

रोरिक की कला भारत के सांस्कृतिक जीवन का एक अभिन्न अंग बन गयी, चूँकि इसमें आध्यात्मिक प्रतीकता के साथ हिमालय का अंकन था। 

भारत में उनकी बहुत प्रशंसा हुई और अनेक कलाकार, वैज्ञानिक तथा राजनीतिज्ञ उनका सम्मान करने लगे। रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा जवाहरलाल नेहरू आदि अनेक महापुरूष उनसे मिलने पहुँचते थे। 

उनके चित्र संसार के अनेक संग्रहालयों में हैं तथा उनकी पुस्तकें इंग्लैण्ड, अमरीका एवं भारत में प्रकाशित हुई हैं।

15 दिसम्बर 1947 को 73 वर्ष की आयु में रोरिक की मृत्यु हुई और उन्हें कुल्लू में ही दफना दिया गया। निकोलस रोरिक एक सच्चे साधनारत कलाकार थे । 

वे आधुनिक चित्रकारों के समान व्यावसायिक प्रतिस्पर्द्धा में नहीं उतरे । उन्होंने कला को सर्वव्यापी ब्रह्माण्डीय शक्ति के साक्षात्कार का साधन माना था। इसीलिये उनकी कला मध्ययुगीन प्रवृत्तियों के अधिक समीप है।

श्री निकोलस रोरिक के पुत्र श्री स्वेतोस्लाव रोरिक का जन्म भी यद्यपि रूस हुआ था किन्तु ये भी स्थायी रूप से भारत में बस गये। 

श्री स्वेतोस्लाव रोरिक भी में अपने पिता के समान कलाकार होने के साथ-साथ लेखक, कवि तथा वैज्ञानिक भी थे। उन्होंने भी हिमालय की भव्यता के अनेक चित्र अंकित किये हैं। 

साथ ही दक्षिण भारत तथा कुल्लू घाटी के जन जीवन को भी अपने चित्रों में रूपायित किया है। बाइबिल, श्रम पीड़ित मानवता तथा भारतीय इतिहास को भी चित्रित किया है। 

अधिकाश भारतवासी उन्हें प्रसिद्ध अभिनेत्री देविका रानी के पति के रूप में जानते हैं। स्वेतोस्लाव के चिन्तन पर स्वामी रामकृष्ण परमहंस के विचारों का गहरा प्रभाव है। 

बंगलौर में 30 जनवरी 1993 को उनका देहावसान हो गया जहाँ वे पिछले 40 से अधिक वर्षो से रह रहे थे।

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