माधव सातवलेकर | Madhav Satwalekar

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माधव सातवलेकर का जन्म 1915 ई० में हुआ था पश्चिमी यथार्थवादी एकेडेमिक पद्धति को भारतीय विषयों के अनुकूल चित्रण का ...

माधव सातवलेकर का जन्म 1915 ई० में हुआ था पश्चिमी यथार्थवादी एकेडेमिक पद्धति को भारतीय विषयों के अनुकूल चित्रण का माध्यम बनाने वाले चित्रकारों में श्री माधव सातवलेकर का नाम बहुत लोकप्रिय रहा है। कला की शिक्षा के लिये आपने सर जे०जे० स्कूल ऑफ आर्ट बम्बई में प्रवेश लिया और एक मेधावी छात्र होने के नाते लार्ड पदक 1935 में प्राप्त किया । 

1937 में ये यूरोप की यात्रा पर गये और लन्दन के स्लेड स्कूल ऑफ आर्ट में एक वर्ष तक अध्ययन किया। इनके हल्के गहरे इकरगे चित्र वहाँ अत्यन्त प्रशंसित हुए। लन्दन के पश्चात् ये म्यूनिख गये और वहाँ भी कला सम्बन्धी प्रशिक्षण प्राप्त किया । 

जर्मनी से ये फ्लोरेन्स (इटली) चले गये और वहाँ कला सम्बन्धी अनेक प्रयोग करते रहे। 1940 में ये पुनः पेरिस चले आये। इस समय द्वितीय विश्व युद्ध आरम्भ हो गया था अतः ये बड़े कष्ट में रहे और चार महीने पश्चात् भारत लौट आये। यूरोप प्रवास के समय ये अफ्रीका भी गये।

यहाँ आकर इन्होंने पाँच वर्ष तक लगातार साधना करने के उपरान्त 1945 तथा 1947 में अपने चित्रों की प्रदर्शनियों कीं। यूरोप तथा अफ्रीका की यात्रा से इनकी कला में पर्याप्त निखार आया। अफ्रीकी जीवन पर आधारित इनके चित्र बड़े ही आकर्षक हैं। 

अफ्रीकी वेश भूषा में रूमानी भाव लिये भांति-भांति की रंग बिरंगी साज-सज्जा से इनकी श्रृंगार-प्रियता प्रकट होती है। यूगांडा की स्त्रियाँ, रास्ते में नारी-मिलन, अफ्रीकी बाजार, बेल्जियम कांगो की स्त्रियाँ और टोकरी वालियाँ आदि इनके चित्र अफ्रीकी वातावरण, गहरी मोटी सीमा रेखाओं और आकृतियों की गढ़नशीलता में पाल गॉगिन का स्मरण कराते हैं।

थी माधव सातवलेकर ने भारत में यहाँ के लोकप्रिय, घरेलू क्रिया कलापों, खेतों खलिहानों तथा प्राचीन कथानकों के आधार पर भी चित्रण किया। इन सभी चित्रों में यद्यपि शरीर-रचना वस्तु परक है तथापि आरम्भिक चित्रों में जल रंगों का प्रयोग हुआ है और आकृतियाँ प्रायः सपाट एवं गढ़नशीलता रहित है। 

स्थिर जीवन का अंकन इन्होंने प्रभाववादी त्वरित विधि को ध्यान में रखते हुए जल रंगों में तिरछे तूलिकाधातों द्वारा स्केच विधि के अध्ययन चित्रों के समान किया है। धीरे-धीरे ये तेल माध्यम तथा गाढे रंगों का और तूलिकाघातों में कोणीय तथा ज्यामितीय आकारों का प्रयोग करने लगे। 

सीमा रेखाओं तथा वस्त्रों आदि की सिकुड़नों में गोलाई लिए हुए कोमल प्रभाव वाली रेखाओं का प्रयोग बहुत कम हो गया और छाया-प्रकाश तथा गढ़न शीलता का प्रभाव बढ़ गया। आकृतियों के उभरे हुए भागों तथा सिकुड़नों आदि के प्रकाशित भागों में ये गौर वर्ण के हल्के बलों का प्रयोग करने लगे । 

रामायण तथा महाभारत आदि से सम्बन्धित इनके पात्र ऐतिहासिक नहीं लगते बल्कि समकालीन सामान्य जन-जीवन में से ही लिये गये प्रतीत होते हैं जो दर्शक के साथ अपना सहज सम्बन्ध बना लेते है श्री सातवलेकर ने उन्हें वर्तमान संघर्षपूर्ण जीवन के सन्दर्भ में ही देखा है।

श्री सातवलेकर के जंजीबार केन्या पर्वत, किलिमन्जारो पर्वत तथा राइपन प्रपात के दृश्य-चित्र बड़े सुन्दर बन पड़े हैं।

श्री सातवलेकर ने अनेक विशाल केनवास भी चित्रित किये हैं इनकी कला पर वानगॉग, देगा तथा हेनरी मूर का भी प्रभाव पडा है परन्तु इनकी आकृतियों में केवल बाहरी शरीर सौष्ठव, मांस पेशियों की सुन्दर गठन और रंगों के विभिन्न बलों का सफाई से प्रयोग आदि ही मिलता है, आन्तरिक भाव-व्यंजना अथवा गम्भीरता नहीं । 

इसी से इनके चित्र दर्शक को अच्छे तो लगते हैं पर वे कोई स्थायी प्रभाव दर्शक के मन पर नहीं छोड़ पाते। अपने युग में इनके चित्र आकृति-मूलक तथा परिचित विषयों से सम्बन्धित एवं वस्तु-प्रधान होने के कारण पर्याप्त लोकप्रिय हुए।

आपने कला पर लेखनी भी उठाई है । आइल पेण्टिंग-टीचिंग एण्ड प्रेक्टिस तथा व्हाट इज आर्ट के अतिरिक्त अनेक लेख भी लिखे हैं। आप नई दिल्ली, गुजरात, महाराष्ट्र तथा उड़ीसा की ललित कला अकादमियों के निर्णायक मण्डलों के सदस्य भी रहे हैं। 

1954 में आपने बम्बई आर्ट इन्स्टीट्यूट की स्थापना की तथा 1962 से 1968 पर्यन्त बम्बई आर्ट सोसाइटी के चेयरमेन भी रहे ।

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