भाऊ समर्थ का जन्म महाराष्ट्र में भण्डारा जिले के लाखनी नामक ग्राम में 14 मार्च 1928 को हुआ था। बचपन से ही उन्हें चित्रकला का बहुत शौक था। वे छः वर्ष की आयु से ही चित्र बनाने लगे थे और कक्षा में भी प्रायः मौका मिलते ही चित्रांकन में लग जाते थे उनके शिक्षक ने उनसे ताजमहल पर लेख लिखने को कहा किन्तु उन्होने ताजमहल का चित्र बना दिया।
परीक्षक ने उन्हें शून्य अंक दिया। वे उत्सवों के अवसर पर घर-घर में जाकर चित्र बनाने का काम करते थे भाऊ कामर्स के विद्यार्थी थे किन्तु कापी पर व्यंग चित्र का रेखांकन करते देख कर उनके शिक्षक ने उन्हें चित्रकला की ओर प्रेरित किया था।
14 वर्ष की आयु में उनकी माँ का निधन हो गया। उन्होंने मास्टरी की नौकरी की। वे नागपुर में कला विद्यालय में उच्च कक्षा में पढ़ते और छोटी कक्षा के बालकों को पढाते। धीरे-धीरे वे चित्रकार के रूप में प्रसिद्ध हो गये और उनके चित्र भी छपने लगे।
1946 ई० में अखबारों में उनके कार्टून छपने पर उनके मित्रों ने उनके चित्रों का एलबम अमरीका भेज दिया। वहाँ से भाऊ को आर्थिक सहायता मिल गई और उनकी शिक्षा आगे बढ़ी 1951 में उन्होंने अपनी प्रथम प्रदर्शनी अपने गाँव में लगाई।
इसी समय वे सर जे० जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में कला की उच्च शिक्षा प्राप्त करने के लिए चले गये। 1955 में जी० डी० आर्ट की शिक्षा के समय ये शबीह बनाया करते थे। उनके पास चित्रण सामग्री का बहुत अभाव रहता था।
सन् 1951 में माचिस की डिब्बी में जितने रंगों की वस्तुएँ हैं उन्हीं को लकड़ी पर चिपका कर लैण्ड स्केप बनाया। तत्कालीन थल सेनाध्यक्ष जनरल के० एम० करिअप्पा प्रदर्शनी में आये। उन्होनें बीस मिनट तक उस चित्र को देखा और खरीद लिया। सारे देश में यह समाचार छपा।
जे० जे० स्कूल में वे मेधावी छात्र माने जाते थे। परीक्षा के दौरान ये चित्रण में इतने रम गये कि समय का ध्यान ही न रहा और अनुत्तीर्ण हो गये। किन्तु वह चित्र पूर्ण होने पर उत्कृष्ट माना गया और उनके शिक्षकों तक ने उनकी प्रशंसा की। 1956 में भाऊ ने जी० डी० आर्ट तथा फाइन आर्ट की परीक्षा उत्तीर्ण की।
1960 से उन्होंने महाराष्ट्र के विभिन्न नगरों में प्रदर्शनियाँ आयोजित करना आरम्भ कर दिया । वे अनेक साहित्यकारों से भी परिचित थे और 1960 की उनकी नागपुर की प्रदर्शनी में ख्वाजा अहमद अब्बास, गुलाम अली तथा कृश्न चन्दर उपस्थित थे।
इससे पूर्व 1958-5g के आस पास भाऊ बिना रंगों और कूंची के चित्र बनाते थे और वे केनवास खरीदने की स्थिति में नहीं थे। 1950 में उन्होंने मूँगफली के छिलकों में गाँधी जी का एक चित्र बनाया था जिसे महाराष्ट्र के राज्यपाल तथा मन्त्रियों ने देखा। भाऊ को प्रशंसा मिली और उनका चित्र भी बिका। तभी से उन्हें प्रसिद्धि मिलने लगी।
1960 से उन्होंने भारत के अनेक नगरों नागपुर, बम्बई, भोपाल, कलकत्ता, इन्दौर आदि में प्रदर्शनियों की। उन्होंने बीस वर्ष तक अध्यापन कार्य किया तथा महाराष्ट्र शासनकी अखिल भारतीय संस्था और लोक-संस्थाओं के कई पदों पर रहे। महाराष्ट्र सरकार ने उन्हें अनेक पुरस्कारों तथा कलाचार्य की उपाधि से सम्मानित किया।
भाऊ ने पोर्ट्रेट, लैण्डस्केप, स्टिल लाइफ, न्यूड, सादे तथा रंगीन अनेक चीजों से चित्र बनाये। उनका काम आकृति मूलक भी है और अमूर्त भी। प्रायः भारतीय जीवन के साधारण रूपों को भाऊ ने अपनी कला में स्थान दिया है। उन्होंने कला में कई प्रयोग भी किये हैं और संगीत पर तथा नक्षत्रों पर भी चित्र बनाये हैं।
आकार की बजाय वे रंगों को अधिक महत्व देते थे। अपने चित्रों में वे विविध प्रकार की सामग्री का प्रयोग करते रहे हैं जैसे जल-रंग, तैल-रंग, पेस्टल, रददी कागज, हल्दी-चूना, लकड़ी कचरा, छिलके आदि। उनके चित्रों में पीले तथा लाल रंग का प्राधान्य है। उन्होंने डेढ़ लाख से अधिक रेखांकन, दो हजार जल रंग चित्र तथा ढाई हजार से अधिक तैल चित्रों की रचना की है।
वे गाढ़े रंगों का प्रयोग अधिक करते थे और उन्हें लगाने में चाकू का भी प्रयोग करते थे। चिकनी पृष्ठभूमि उन्हें पसन्द नहीं थी। खुरदरे घरातल में वे आधुनिक जीवन से समता का अनुभव करते थे। वे कला में व्यावसायिकता पसन्द नहीं करते थे और कभी-कभी आर्थिक संकट आ जाने पर केवल पानी पीकर पत्नी और बच्चों सहित कई-कई दिन भी गुजार देते थे।
न तो वे चित्रकला की राजधानियों के पक्षपाती थे और न कला में अति-बौद्धिकता के वे कला को जनमानस से जोड़ने के हामी थे और उन्होंने हुसैन की राजनीतिक चाटुकारिता का विरोध भी किया था। उनकी कला लोक प्रतिष्ठित और लोक-सामदृत है।
प्रगतिशील साहित्यकारों के सम्पर्क में रहते हुए उन्होंने मध्य प्रदेश में प्रगतिशील कलाकार संघ की स्थापना कराई । वे छोटे पत्र-पत्रिकाओं में चित्र छपवाने के अधिक पक्षपाती थे जहाँ रंगीन चित्र छपने की सुविधा नहीं है, अतः वे रेखांकन वाले चित्रकार के रूप में अधिक प्रसिद्ध हुए । उन्होंने एक रात में अधिकतम 80 स्केच तक किये हैं।
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