सिंधु घाटी सभ्यता का इतिहास,प्रमुख नगर,वास्तुकला,चित्र कला,मोहरें और प्रतिमाएं | History of Indus Valley Civilization, Major Cities, Architecture, Paintings, Seals and Statues

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हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की कला

पाषाण युगीन सहस्त्रों वर्षों के पश्चात् की प्राचीनतम संस्कृतियाँ सिन्धु घाटी में मोहनजोदड़ो व हडप्पा के प्राचीन खण्डहरों से ही प्राप्त होती है।

इस सभ्यता से प्राप्त प्राचीन अवशेषों से तत्कालीन भारत के रहन-सहन, रीति-रिवाज, खान-पान, वस्त्राभूषण और ज्ञान-विज्ञान का परिचय प्राप्त होता है। इन नगरों की खुदाई से प्राप्त अवशेषों को देखकर इतना निश्चित रूप से पता चल जाता है कि बहुत प्राचीन काल में ही भारत का सम्बन्ध सुमेर, मिस्र, फिलीस्तीन, ईरान आदि सुदूर देशों से स्थापित हो चुका था।

वस्तुतः मोहनजोदड़ो तथा हड़प्पा नामक स्थलों की खोज जो बीसवीं शताब्दी के प्रथम चरण में हुई, भारतीय सभ्यता के इतिहास की एक युग प्रवर्तक घटना थी।

1856 ई. में अंग्रेज जनरल कनिंघम को ‘सेलखड़ी’ (स्टिएटाइट) की मुहरों सहित अनेक प्राचीन वस्तुएँ प्राप्त हुई, परन्तु इन वस्तुओं का महत्व हड़प्पा व मोहनजोदड़ो की खुदाई के बाद ही प्रकाशित हो सका।

1921 ई. में दयाराम साहनी ने हड़प्पा टीले में खुदाई का कार्य आरम्भ कराया। इसके एक वर्ष पश्चात् राखलदास बनर्जी को मोहनजोदड़ो (मृतकों का टीला) में 1922 ई. में अनेक प्रकार के पुरावशेष प्राप्त हुए।

सिन्धु घाटी सभ्यता

सिन्धु नदी के किनारे विकसित होने वाली संस्कृति के इन दोनों केन्द्रों में खुदाई होने से अन्य अनेक तथ्य प्रकाश में आये। साथ ही अन्य अनेक स्थानों- चाहुन्दड़ो, लाहुमजोदडो, शाहजी कोटीरो, झूकर, झांगर, कुटली, मेही, पेरियानो, धुण्डई, रानाघुण्डई, कोटडीजी आदि में भी इस हड़प्पन संस्कृति के अनेक पुरावशेष प्रकाश में आये।

प्रारम्भ में यहाँ के सांस्कृतिक अवशेषों का सुमेरियन सभ्यता से सादृश्य देखा गया। अतः इस नई सभ्यता को, जो कि अभी तक की ज्ञात सबसे प्राचीन सभ्यता कही जा सकती है, इण्डो-सुमेरियन’ नाम दिया गया।

साथ ही सिन्धु नदी के किनारा इसका प्रमुख केन्द्र होने के कारण इस सभ्यता को सिन्धु घाटी की सभ्यता’ नाम दिया गया। यहाँ के निवासी योजनाबद्ध नगरों में रहते थे। व्यापार और कृषि करते थे। साथ ही उन्हें लेखन कला का भी ज्ञान था।

इस कारण इस संस्कृति को पुरा- ऐतिहासिक (प्रोटो-हिस्टोरिक) संस्कृति, ताम्र-पाषाणयुगीन, सैन्धव सभ्यता व कांस्ययुगीन सभ्यता आदि अनेक नामों से भी पुकारा जाता है।

इस सभ्यता का विस्तार भारत के विभिन्न स्थलों में था। हडप्पा-मोहनजोदड़ो के अतिरिक्त उपरोक्त वर्णित अन्य अनेक स्थलों में पुरावशेष प्रकाश में आये।

इसी प्रकार गंगानगर जिले में घग्घर के किनारे ‘कालीबंगा’ भी एक ऐसा ही स्थल है जहाँ से सैन्धव संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं। कालीबंगा के दो टीलों से प्राक-हड़प्पा और हड़प्पा संस्कृति के अवशेष प्राप्त हुए हैं।

इस प्रकार इस सैन्धव संस्कृति के विस्तार क्षेत्र के अन्तर्गत पाकिस्तानी पंजाब, सिन्ध, बलूचिस्तान के अतिरिक्त भारत में पंजाब, राजस्थान, गुजरात, हरियाणा तथा उत्तर प्रदेश के क्षेत्र सम्मिलित हैं। बीकानेर रियासत क्षेत्र से भी दो दर्जन पुरा अवशेष संस्कृति के अवशेष मिले हैं।

सर जॉन मार्शल ने सर्वप्रथम 1931 ई. में इस सैन्धव सभ्यता को 3250 ई.पू. से 2750 ई. पू. के मध्य रखा। जबकि घोष महोदय ने विभिन्न विश्लेषणों के आधार पर सैन्धव सभ्यता का उदय 2500 ई.पू. से 2450 ई.पू. व अन्त 1900 ई.पू. से 1600 ई.पू. माना है जो अधिक प्रामाणिक तिथियाँ मानी जाती हैं।

सैन्धव सभ्यता के पोषक भारतीय मूल के थे अथवा विदेशी मूल के इस पर भी अनेक विवाद हैं। प्रारम्भ में सैन्धव पुरावशेषों व सुमेरियन अवशेषों में सादृश्य के आधार पर इस सभ्यता को ‘इण्डो-सुमेरियन’ नाम दिया गया।

हवीलर व गार्डन के अनुसार इस सभ्यता का विकास मेसोपोटामिया की सभ्यता से प्रेरित और प्रभावित है, परन्तु इसकी भी आलोचनाएँ हुई, क्योंकि सैन्धव व मेसोपोटामियन सभ्यता की लिपियों में अनेक भिन्नताएँ हैं।

यहाँ तक कि सैन्धववासियों की नगर योजना व सार्वजनिक स्वच्छता की व्यवस्था मेसोपोटामियनों से ही नहीं, विश्व में सभी पुरातन सभ्यताओं के निर्माताओं से श्रेष्ठ कही जाती है।

फेयर सर्विस के अनुसार चौथी सहस्त्राब्दि ईसा पूर्व बलूचिस्तान में विकसित होने वाली बलूचिस्तानी संस्कृति पर भारतीयकरण देखा जा सकता है।

सिन्ध (अमरी व कोटडीजी) एवं बलूचिस्तान (नाल और कुल्ली) में कालीबंगा की भाँति सैन्पय सभ्यता के स्तरों से नीचे पूर्वकालिक संस्कृति के अवशेष प्रकाश में आये हैं। इन अवशेषों में मिट्टी के बर्तन विशेषतः उल्लेखनीय है।

अमलानन्द घोष के अनुसार कालीबंगा में उत्खनित प्राकृ हड़प्पीय सोथी संस्कृति को ही सैन्धव सभ्यता का आधार माना जा सकता है। लोथल से उत्खनित गाय एवं घोड़े की मृणमूर्तियों तथा सुरकोटा (कच्छ) से उपलब्ध घोड़े की हड्डियों आदि सामग्री के प्रकाश में कहा जा सकता है कि सैन्धव सभ्यता के निर्माता भारतीय मूल के लोग ही थे। यह सभ्यता नगर व व्यापार प्रधान सभ्यता थी।

सिंधु घाटी सभ्यता की वास्तुकला

वास्तुकला के अत्यन्त विकसित एवं नियोजित रूप का दर्शन हमें सैन्धव सभ्यता के दो प्रमुख केन्द्रों- “हड़प्पा और मोहनजोदड़ो” में होता है। इन नगरों में पक्की एवं कच्ची ईंटों द्वारा भवनों का योजनाबद्ध निर्माण किया गया।

जिसमें स्नान कक्ष, पाकशाला, नालियों की व्यवस्था के साथ-साथ पीने के पानी के लिए कुएँ की व्यवस्था व साथ ही सार्वजनिक स्नानागार और नगर की सड़कें आदि उनकी उत्कृष्ट अभिरुचि और नगर निर्माण योजना के विकसित ज्ञान की ओर संकेत करती है।

ये लोग दुर्ग-विधान से भी परिचित थे, वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार सैन्धव लोग (सिन्धु घाटी के लोग) दुर्ग-विधान से युक्त किलेबन्द नगरों में निवास करते थे। हडप्पा संस्कृति के निर्माता धनी व्यापारी और शासक वर्ग के थे और विभिन्न कलाओं के प्रेमी भी थे।

सिंधु घाटी सभ्यता की वास्तुकला

हड़प्पा में 25 फुट चौड़ा वा (कूटी हुई मिट्टी की दीवार जिस पर ईंटों की दीवार खड़ी की जाती थी) मिला था जिसके ऊपर ईंटो की प्राचीर के बीच-बीच में बुर्ज थे। ऐसे ही एक बुर्ज के अवशेष मोहनजोदड़ों से भी प्रकाश में आ चुके हैं।

मुख्य दिशाओं में ऊँचे द्वार थे। हडप्पा नगर की रक्षा प्राचीर के दक्षिणी सिरे पर दुर्ग तक जाने के लिए सीढ़ियाँ बनाई गई थी। हडप्पा की ही भाँति मोहनजोदड़ों में भी एक दुर्ग टीले के ऊपर बनाया गया था। यह टीला कच्ची ईंटो और मिट्टी से निर्मित किया गया था।

सिंधु घाटी सभ्यता के प्रमुख नगर

हडप्पा, मोहनजोदड़ो, काली बंगा व लोथल आदि नगरों के अवशेष इस सभ्यता के वैभवपूर्ण नागरिक जीवन का चित्र प्रस्तुत करते हैं। दुर्ग और निचला नगर क्षेत्र प्रायः एक समान सभी क्षेत्रों में प्राप्त होते हैं।

मोहनजोदड़ो और हडप्पा में भवन निर्माणार्थ पक्की ईंटों का प्रयोग किया गया था। दीवार की चुनाई में मिट्टी, चूने व जिप्सम प्लास्टर या गारे का उपयोग किया जाता था। घरों के गन्दे पानी की निकासी के लिए नालियों की व्यवस्था की गई थी।

घरों को नालियों का पानी सड़क की बड़ी नालियों में चला जाता था। इससे यह स्पष्ट ज्ञात हो जाता है कि सिन्धु घाटी या सैन्धव सभ्यता के लोग स्वच्छता का बहुत ध्यान रखते थे।

हड़प्पा

हड़प्पा के घरों में मोहनजोदड़ों की भाँति कुएँ नहीं प्राप्त हुए हैं। जबकि सार्वजनिक उपयोग के लिए बड़े कुओं का निर्माण किया जाता था। इन कुओं में भी ईंटों की जुड़ाई बड़ी सफाई से की गई थी।

हड़प्पा से प्राप्त होने वाले संरचनात्मक भवनों के अवशेषों में कुछ चबूतरों और धान्यागारों का उल्लेख किया जा सकता है। हवीलर के विचार में इनका उपयोग ‘अन्न कूटने के लिए होता था।

मोहनजोदड़ो

सैन्धव सभ्यता का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण केन्द्र मोहनजोदड़ो था। यहाँ के अवशेषों में विशाल ‘जलकुण्ड’ उल्लेखनीय है, जिसका आकार 39 फुट लम्बा, 23 फुट चौड़ा और 8 फुट गहरा है। इस जलकुण्ड में जाने के लिए उत्तर तथा दक्षिण की और सीढ़ियों बनी हुई है जो कि पक्की ईंटों से बनाई गई थी।

इसमें जल की निकासी की भी व्यवस्था थी। फर्श भी पक्की ईंटों से बनाया गया था। इसकी दीवारों पर जिप्सम का लेप किया गया है। बाहर की दीवारों में चूने का पलस्तर किया गया है। इस स्नानागार के तीन ओर बरामदे बने हैं। पीछे की ओर कई कोठे बने हुए हैं। सम्भवतया स्नान के बाद वस्त्र परिवर्तन के लिए लोग यहाँ जाते होंगे।

पाँच हज वर्ष पुराने इस जलाशय तक जाने वाली 32 सीढ़ियाँ सुरक्षित अवस्था में मिली हैं। ऋग्वेद एवं पुराणों में नगर योजना सम्बन्धी जिन अवधारणाओं को विकसित किया गया वह सब इस सभ्यता में उपलब्ध होता है।

विशाल स्नानागार

यहाँ से 22 हजार से अधिक मुहरें, मृण्मूर्तियाँ, स्टेटाइट तथा प्रस्तर स्तम्भ तथा अत्यन्त छोटे आकार के स्वर्ण मनके प्राप्त हुए हैं।

हड़प्पा की ही भाँति मोहनजोदड़ो में भी अनाज भण्डारण के लिए ‘कोष्ठागार’ अथवा कोठार बना हुआ था। यह धान्यागार पक्की ईंटों से निर्मित है। इसमें अन्न भण्डारण के लिए 27 कोठे बने हुए थे। यहाँ के विशालतम भवनों में 230 x 78 फुट क्षेत्र में विस्तृत भवन है।

इसके साथ अनेक कक्ष तथा बरामदे भी हैं। यह राजप्रासाद जैसा प्रतीत होता है। यहाँ के अन्य उल्लेखनीय भग्नावशेषों में सभा भवन की गणना भी की जा सकती है जो लगभग 90 फुट लम्बा चौड़ा वर्गाकार भवन था।

इसमें 20 खम्भों के भी अवशेष मिले हैं जो 4 पंक्तियों में थे। प्रत्येक पंक्ति में 5 स्तम्भ थे। इसका उपयोग सार्वजनिक कार्यों के लिए किया जाता होगा। इससे इस मत को भी पुष्टि मिलती है कि भारत में स्तम्भ निर्माण की परम्परा स्वदेशी मूल की ही रही है। वैदिक साहित्यों में भी इनका उल्लेख मिलता है।

मोहनजोदड़ो के अन्य अवशेषों के विश्लेषण से यहाँ के नगर निर्माण की सुनियोजित प्रणाली का ज्ञान प्राप्त होता है। यहाँ भी विभिन्न आकार-प्रकार के भवनों के अवशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ के लोग समृद्ध तथा आरामदायक घरों में रहते थे।

व्यापार व कृषि के कारण आम तौर पर समृद्धि का वातावरण था।

कालीबंगा

राजस्थान में गंगानगर जिले में ‘घग्घर’ (प्राचीन सरस्वती नदी के किनारे स्थित इस स्थल से हड़प्पा एवं मोहनजोदड़ो के समान ही एक विशाल और समान योजना वाले नगर के अवशेष प्रकाश में आये हैं।

1953 ई. में अमलानन्द घोष ने पुरानी बीकानेर रियासत के अन्तर्गत जिन लगभग दो दर्जन हड़प्पा संस्कृति स्थलों की खोज की थी, उनमें कालीबंगा भी एक था। 1961 ई. में बी.बी. लाल एवं बी.के. थापर ने पुरातत्व के विद्यार्थियों के प्रशिक्षणार्थ यहाँ उत्खनन कार्य सम्पन्न किया था। यहाँ खुदाई में दो टीले प्राप्त हुए हैं।

दोनों ही टीले सुरक्षा प्राचीर से घिरे हुए थे। पश्चिम की ओर के लघु टीलों से प्राग-हड़प्पन संस्कृति के अवशेष व पूर्व की ओर के बड़े टीले से हड़प्पन संस्कृति पुरावशेष प्राप्त हुए हैं। यहाँ के आवासगृहों एवं रक्षा प्राचीर में कच्ची ईंटों का प्रयोग किया गया है। यहाँ पर भी मोहनजोदड़ो की भाँति एक से अधिक मंजिलों के मकान बनते थे।

भवनों के अवशेषों के अतिरिक्त यहाँ से कच्ची ईंटों के ऐसे चबूतरे प्राप्त हुए हैं जिनमें कुओं और अग्निवेदिकाओं के प्रमाण भी मिलते हैं। प्राग्-हड़प्पाकालीन कालीबंगा की उल्लेखनीय उपलब्धि कृषि कर्म से सम्बन्धित है।

पुरातत्वेत्ताओं के अनुसार यहाँ से प्राप्त होने वाले जुते हुए खेत के प्रमाण विश्व में कृषि कर्म सम्बन्धी प्राप्त प्रमाणों का प्राचीनतम उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

यहाँ पर उत्खनन से प्राप्त होने वाली अन्य उल्लेखनीय वस्तुओं में मूल्यवान पत्थरों (अगेट स्टेटाइट आदि) से निर्मित विविध प्रकार के उपकरण’, यथा- मनके, पक्की मिट्टी से बनी खिलौने की गाड़ी के पहिए, घडे, बैल की प्रतिमा, सिलबट्टे, ताँबे की कुल्हाड़ी और फल काटने के औजारों का उल्लेख किया जा सकता है। इसी के साथ लाल, काले व सफेद रंगों से युक्त विविध प्रकार के चित्रित ‘मिट्टी के बर्तन’ भी यहाँ से बड़ी संख्या में प्राप्त हुए हैं।

लोथल

गुजरात के अहमदाबाद जिले में सरगवाला ग्राम के पास स्थित हड़प्पा सभ्यता का ही यह एक अन्य महत्त्वपूर्ण केन्द्र रहा है। लोथल की ख्याति ताम्राश्मयुगीन बन्दरगाह के रूप में भी रही है। यह पश्चिम एशिया के साथ जलमार्ग द्वारा आवागमन करने का प्रमुख द्वार था।

इससे इस बात को भी पुष्टि मिलती है कि सैन्धव लोगों का पश्चिमी एशिया के साथ व्यापारिक सम्बन्ध समुद्री मार्ग द्वारा स्थापित था। समुद्री जहाजों के द्वारा प्रयुक्त होने वाली गोदी (डॉक यार्ड) के मिले अवशेषों से ज्ञात होता है कि इसका आकार विषमभुज वर्ग के समान था जिसके पूर्व-पश्चिम की लम्बाई 710 फुट, उत्तर 124 फुट तथा दक्षिण में 116 फुट थी।

लोथल नगर लगभग 2 मील के घेरे में बसा हुआ था। यहाँ का उत्खनन कार्य श्री एस.आर. राव ने 1958-59 ई. में कराया था। यहाँ की नगर योजना भी हड़प्पा-मोहनजोदड़ो के समान ही थी।

नगर विभिन्न सड़कों द्वारा अनेक खण्डों में विभक्त कर दिया गया था। बस्ती को बाढ़ से सुरक्षित रखने के लिए घरों का निर्माण कच्ची ईंटों से निर्मित एक विशाल चबूतरे के ऊपर किया था। जिसके चारों ओर बनाई गई रक्षा-प्राचीर के अवशेष भी यहाँ से प्राप्त हुए हैं। कच्ची सड़कों के किनारे नालियों बनाई गई थी।

यहाँ से प्राप्त मकान अधिक बड़े नहीं हैं। भवनों के निर्माण में प्रायः कच्ची ईंटों का प्रयोग किया गया था। इस नगर में भी भण्डार गृह, स्नानागार, शौचालय, नालियों की व्यवस्था तथा अन्नागार आदि के अवशेष प्राप्त हुए हैं। सैन्धव सभ्यता से प्राप्त होने वाले प्रायः सभी प्रकार के उपकरण, यथा-बर्तन, आभूषण आदि यहाँ से भी प्राप्त हुए हैं।

इस सम्पूर्ण सैन्धव कला के सम्बन्ध में टिप्पणी करते हुए पर्सी ब्राउन का कथन है कि- सम्पूर्ण स्थापत्य रचना सौन्दर्य की दृष्टि से उजाड़ ही है, किन्तु रचनात्मक प्रणाली पदार्थों का परिष्कृत होना, मजबूती होना आदि आश्चर्यजनक है।

सैन्धव मुहरें एवं चित्रलिपि

उत्खनन से प्राप्त ये मुहरें और मुद्रायें सैन्धव सभ्यता में व्याप्त कला के एक महत्त्वपूर्ण पक्ष को उजागर करती है। इन नगरों में 2000 से भी अधिक संख्या में उपलब्ध ये मोहरें कलात्मक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं जो साधारणतः पौन इंच से सवा एक इंच तक की ऊँचाई की हैं।

आकार में ये गोल, लम्बी, वर्गाकार तथा आयताकार हैं। अधिकांशतः ये मुहरें सेलखड़ी अथवा घीया पत्थर (स्टेटाइट) से बनी हैं। इनके पीछे छेदयुक्त एक उभरा हुआ भाग भी होता है, परन्तु यह सभी मुहरों से प्राप्त नहीं होता है।

इनमें अंकित प्रतिमाएँ आकार में छोटी होते हुए भी प्रभावकारी हैं। ये मुद्रायें हड़प्पा, मोहनजोदड़ो के साथ-साथ झूकर, नाल, शाही-टुम्प आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुई हैं।

इन स्थानों से ताम्र निर्मित मुहरें भी प्राप्त हुई हैं तथा ये भी चौकोर, आयताकार आदि आकार की हैं।

सर्पों के मध्य पीपल

इन मुहरों को सैन्धव कला की उत्कृष्ट कृतियाँ कहा जा सकता है। इनमें उत्कीर्ण चित्र-लिपि भी अपने आप में सैन्धव सभ्यता के लोगों के हस्तकौशल का एक सराहनीय नमूना है।

इन मुद्राओं में विविध प्रकार की पशु आकृतियाँ, यथा व्याघ्र, हाथी, गैंडा, खरगोश, हिरन, सींगयुक्त बैल, गरुड, मगर आदि की सुन्दर आकृतियाँ उत्कीर्ण की गई हैं। खोदकर बनाई गई इन आकृतियों में सर्वाधिक सुन्दर आकृति ‘ककुदमान वृषभ’ (हम्प्ड बुल) की है।

इसी प्रकार एक अन्य उत्कीर्ण पशु एक श्रृंग है। कुछ मुहरों पर काल्पनिक पशु आकृतियाँ भी उत्कीर्ण की गई हैं जैसे-तीन मस्तकों वाला एक पशु एक मुहर में तीन व्याघ्रों के शरीर संयुक्त हैं।

एक अन्य मुहर में पीपल वृक्ष को दो सर्पों की आकृति के मध्य अंकित किया गया है। कुछ मुहरों पर मात्र रेखाकृतियाँ ही अंकित हैं जो स्वास्तिक के समान प्रतीत होती हैं।

वस्तुतः इन मुहरों का वास्तविक उपयोग क्या था. यह अज्ञात है। मार्शल ने ताम्र मुहरों को ताबीज की संज्ञा दी है। अन्य लोग इनका उपयोग देव-पूजन के रूप में देखते थे। स्टुअर्ट पिगार्ट के अनुसार इन मुद्राओं का उपयोग आधुनिक युग की ही भाँति सम्पत्ति के चिन्हित करने अथवा सील करने के लिए ही होता था।

श्री अग्रवाल के अनुसार ताँबे की मुहरें सिक्कों के रूप में प्रचलन में थीं। सिन्धु घाटी में ताम्र-मुद्राओं के अतिरिक्त किसी भी अन्य प्रकार के सिक्कों का अस्तित्व में न होना इसकी पुष्टि करता है।

इन सैन्धव मुहरों पर उकेरी हुई चित्रलिपि में 400 अक्षर निर्माताओं की मौलिकता का प्रमाण भी है। ये अधिकांश लेख मुहरों पर उकेरे गये हैं। कुछ लेख मिट्टी के बर्तनों तथा धातु उपकरणों में भी प्राप्त हुए हैं।

यद्यपि पुरातत्ववेत्ताओं द्वारा इस लिपि को पढ़ने का भरसक प्रयास किया जा चुका है, परन्तु यह लिपि अभी तक सर्वमान्य रूप से पढ़ी नहीं जा सकी है। यदि इस लिपि को पढ़ लिया जाये तो ताम्रश्मयुगीन संस्कृति के विभिन्न अज्ञात पहलुओं पर प्रकाश डाला जा सकता है।

इन पर उकेरी गई आकृतियों के माध्यम से उनके वनस्पति जगत् व पशु जगत् के साथ उनके परिचय के विषय में जाना जा सकता है। इसी प्रकार उनके धार्मिक विश्वासों पर भी इन मुद्राओं के माध्यम से कुछ प्रकाश डाला जा सकता है।

एक मुहर में एक पुरुषाकृति को ध्यान मुद्रा में बैठे हुए उकेरा गया है। उसने सिर पर त्रिशूलनुमा कोई आवरण पहना हुआ है। इस आकृति के चारों ओर गैंडा, हाथी, व्याघ्र, भैंसा नामक पशु अंकित हैं।

मार्शल ने इसे ‘शिव का आदि रूप’ माना है। इन मुहरों में उत्कीर्ण पशु आकृतियों से यह भी अनुमान लगाया जा सकता है कि ये लोग सम्भवतया पशुओं की भी पूजा करते थे।

एक मुहर में एक पुरुष हाथों में हंसिया जैसा हथियार लिए अंकित है तथा एक नारी धरती में बैठी हाथों को याचना की मुद्रा में उठाये हुए अंकित है। यह अंकन सम्भवतया नर बलि की ओर संकेत करता है। शिव की दो अन्य मुहरे भी उत्खनन से प्राप्त हुई है।

मृद्भाण्डों अथवा मिट्टी के पात्रों की चित्रकारी

पाषाणयुगीन मानव द्वारा प्राकृतिक कन्दराओं व शिलाश्रयों पर की गई रैखिक चित्रकारी के पश्चात् कालक्रम की दृष्टि चित्रकला के क्षेत्र में सिन्धु घाटी में हड़प्पा और मोहनजोदडो नामक दो प्रमुख केन्द्रों में उत्खनित मिट्टी के बर्तनों में की गई चित्रकारी का उल्लेख किया जा सकता है।

इसे ‘मृत्पात्रों की चित्रकारी कहा जा सकता है। सैन्धव युगीन सभ्यता के लोग पकाई गई मिट्टी के रंगे हुए बर्तनों का प्रयोग करते थे और भाँति-भाँति की डिजाइनों से उन्हें सजाते थे। नाल, मोहनजोदड़ो हड़प्पा, चान्हूदड़ो, रूपड़, लोथल आदि विभिन्न स्थलों से यह चित्रित मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं।

ये बर्तन विविध आकार-प्रकार के होते थे। इनमें कुछ बर्तन दैनिक उपयोग के काम में लिये जाते थे और कुछ में शव गाड़े जाते थे।

शव पात्रों के चित्रण में विशेषतः मयूर का चिन्ह चित्रित किया गया जाता था। इसके अतिरिक्त बकरा, मछली, पत्तियाँ, पेड़-पौधे, उड़ती चिड़िया, तारे, रश्मिमाला युक्त मण्डल, लहरियाँ आदि उल्लेखनीय हैं।

मिट्टी के पात्रों में भी विविध प्रकार की ज्यामितीय आकृतियाँ यथा- सरल रेखाओं, वृत्तों, कौणों, वर्गों, त्रिभुज, डायमण्ड, चतुर्भुज, सम-चतुर्भुज आदि को बहुतायत से बनाया गया है।

इसके अतिरिक्त फूल-पतियों, पशुओं, पक्षियों आदि की आकृतियों का उपयोग भी किया गया है। पक्षियों में मयूर, हस, मुर्गा व कबूतर आदि का पर्याप्त चित्रांकन हुआ है। पशुओं में बारहसिंघा हिरन आदि का अंकन देखने को मिलता है। मानव व मत्स्य अभिप्रायों का उल्लेख किया जा सकता है।

सैन्धव लोग अपने बर्तनों पर लाल रंग से रंगकर उस पर काली रेखाओं से चित्र बनाते थे ये मिट्टी के बर्तन चाक पर तैयार किये जाते थे। यहाँ से विभिन्न प्रकार के बर्तन- कूड़े तश्तरी, तीखी पैदी के कुल्हड़, बोतलनुमा, अमृतघंट, लम्बे लोटे, भगाने, टॉटीदार करने या झारी आदि बहुत से छोटी आकृति (5″-16″) के पात्र भी मिले हैं। ये सम्भवतया बच्चों के मनोरंजन के लिए निर्मित होते थे ।

गुजरात में लोथल से भी चित्रित मृत्पात्र प्राप्त हुए हैं। यहाँ से प्राप्त मिट्टी के कलश पर बने गौरैया तथा हिरन के चित्र इस बात के प्रमाण हैं कि मिट्टी के बरतनों पर की जाने वाली चित्रकला का पर्याप्त विकास हो चुका था।

यहाँ से प्राप्त वर्तनों पर सॉप, बतख, मोर, ताड़वृक्ष आदि के सुन्दर चित्र प्राप्त हुए हैं। प्रारम्भिक चित्रण में अर्ध-अण्डाकार, लहरिया, शक्करपारा, समानान्तर पट्टियाँ आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

कोट दिजी

(सिन्ध में खैरपुर के पास) से प्राक-सैन्धव संस्कृति के ऊपर सैन्धव संस्कृति के मृद्भाण्ड प्राप्त हुए हैं। यहाँ के मृत्पात्रों पर प्रयुक्त अभिप्रायों (मोटिफ्स) में अनेक प्रकार की रेखाएँ, पट्टियाँ, मत्स्य आकृतियाँ, मोर, मृग आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

एक अन्य केन्द्र रोपड़ से भी सैन्धव सभ्यता के समान चित्रित पात्र प्राप्त हुए। हैं, जिनमें पीपल का पत्ता, त्रिकोण, मत्स्य शल्क (फिश स्केल) व वृत्त आदि की आकृतियाँ बनी मिली हैं। इन बरतनों का रंग लाल अथवा गुलाबी है।

जिन पर लाल और सफेद रंग से चित्रकारी की गई है। ये चित्र रैखिक और ज्यामितीय डिजाइनों से युक्त हैं। अतः रंग योजना सैन्धव पात्रों से कुछ भिन्न है। कालीबंगा में काले रंग तथा कभी-कभी श्वेत रंग से चित्रकारी की गई है।

चाहन्दड़ो से प्राप्त एक टिकरे पर पीली पृष्ठभूमि पर लाल, काले और सफेद रंगों से पशु-पक्षियों की आकृतियाँ चित्रित हैं। इन आकृतियों में हिरण, जंगली बकरा, विच्छ, मछली, बतख, तितली आदि के अतिरिक्त मत्स्य शल्क, पेड़-पौधे, त्रिकोण आदि का उल्लेख किया जा सकता है।

पात्रों में गोल तथा चपटे पैदे के धड़े, मटके, तश्तरियाँ, कटोरे, पँदीदार तथा संकरे मुँह वाले कलश आदि सम्मिलित हैं।

सैन्धव केन्द्रों से उत्खनन में अगणित मृद्भाण्डों, उनमें चित्रित पशु-पक्षी, वनस्पति तथा अभिप्रायों तथा विविध प्रकार के पदार्थों से निर्मित, उत्कीर्ण एवं अनुत्कीर्ण मुहरों, आभूषणों, मनोरंजन के उपकरणों से ताम्राश्वयुगीन मानव जीवन के विविध सामाजिक, सांस्कृतिक जीवन पर प्रकाश पड़ता है।

इन उपकरणों की कला से कलाकार की मौलिकता, रचनात्मक प्रवृत्ति तथा हस्तकौशल का भी ज्ञान प्राप्त होता है।

सिंधु सभ्यता की मूर्तिशिल्प कला

सैन्धव कलाकार की रचनात्मक प्रतिभा सुन्दर प्रतिमाओं के निर्माण में भी मुखरित हुई है। ये मूर्तियाँ विभिन्न पदार्थों, यथा- पत्थर, मिट्टी व धातु से बनी हुई मिली हैं। यद्यपि सर्वाधिक मूर्तियों मिट्टी से बनी ही मिली हैं।

ये प्रतिमाएँ उत्तम प्रकार की लाल रंग की पकाई गई मिट्टी से निर्मित की गई हैं। ये सभी लगभग एक प्रकार की हैं। प्रतिमाओं में प्रायः सिर की पोषाक अथवा आभूषणों के प्रकारों से अन्तर किया जा सकता है। कुल्ली नामक स्थल से प्राप्त मिट्टी की मूर्तियों में अनेक स्त्रियों और पशुओं की मूर्तियाँ प्राप्त हुई हैं।

नारी की बड़ी संख्या में उपलब्ध मूर्तियों को ‘देवी’ की प्रतिमाएँ माना जा सकता है। शाही टुम्प के हड़प्पीय स्तर से वृष की 80 लघु प्रतिमाएँ एवं एक गाय की मूर्ति प्राप्त हुई है। कोट दिजी से भी मिट्टी से बनी सांड की प्रतिमाएँ प्राप्त हुई हैं।

इसी के साथ 5 मातृ देवी की प्रतिमाएँ (जिनमें से 2 भग्न है) उपलब्ध हुई हैं। कुल्ली एवं हड़प्पा संस्कृतियों न्यूनाधिक मात्रा में साथ-साथ पल्लवित हो रही थीं। दोनों स्थलों की मूर्तियों की बनावट में साम्य भी दिखाई देता है।

यहाँ से खिलौने भी पर्याप्त मात्रा में प्राप्त हुए हैं। एस. के. सरस्वती के विचार में हड़प्पा संस्कृति के अन्तर्गत मूर्ति निर्माण के क्षेत्र में दो प्रकार की परम्पराएँ विकसित हुई- मृण्मूर्ति निर्माण परम्परा और प्रस्तर एवं ताम्र मूर्ति निर्माण परम्परा।

इनमें से मृणमूर्ति निर्माण परम्परा साधारण वर्ग से सम्बन्धित रही जिसने झौब और कुल्ली की मृणमूर्ति निर्माण अथवा कृषक संस्कृति का अनुगमन किया। प्रस्तर अथवा ताम्र मूर्ति निर्माण परम्परा हडप्पा संस्कृति के उच्च वर्ग से सम्बन्धित थी।

प्रमुख मूर्तिशिल्प

मृण्मूर्तियाँ

मिट्टी से निर्मित अत्यन्त सुन्दर व प्रभावशाली जो मोहनजोदडो से प्राप्त एक नारी की मूर्ति है, यहाँ किया जा सकता है। इसके गले में कंठा (चोकर) बाहुओं में भुजबन्ध तथा गले में पहनाये गये भाँति-भाँति के लम्बे हार जो छाती तक लटके हुए हैं।

एक बड़ा हार कन्धों से झूलता हुआ करधनी को छूता हुआ अंकित है। मूर्ति के सिर पर पंखेनुमा आवरण है जिसके निचले भाग पर एक फीता बंधा हुआ है। मूर्ति के स्तन उन्नत दिखाये गये हैं।

आँखों के स्थान पर गोल पुतलियाँ दर्शाई गई हैं। शरीर पर मुख का भाग अलग से चिपकाया गया प्रतीत होता है। इस मृणमूर्ति को जंघाओं से ऊपरी भाग तक ही बनाया गया है। मूर्ति की बनावट व उसे पहनाये गये अलंकरणों के आधार पर यह किसी देवी की प्रतिमा प्रतीत होती है।

एक अन्य खड़ी मुद्रा में लगभग समान अलंकरणयुक्त मूर्ति प्राप्त हुई है। सिर पर ऊपर उठा हुआ चौड़ा पंखेनुमा आभरण अंकित है। हाथ पैर सीधे डंडे जैसे दिखाये गये हैं। जिनमें अंगुलियों का अंकन नहीं किया गया है।

(टेराकोटा) मातृ देवी की मूर्ति

वस्तुतः इस प्रकार की अनेक अन्य प्रतिमाएँ जो भारत के विभिन्न भागों से उपलब्ध हुई हैं, मातृदेवी की मूर्तियों कहलाती हैं। मातृदेवी की उपासना की परम्परा सिन्धु घाटी के अतिरिक्त मिस्र, मेसोपोटामिया, ईरान, क्रीट और भूमध्य सागर तक अनेक प्राचीन देशों में प्रचलित थी।

भारतीय साहित्य में इन्हें देवों की माता ‘अदिति’ कहा गया है जो आगे चलकर श्री लक्ष्मी के रूप में स्थापित हुई। प्रायः मातृदेवी की ये मृण्मूर्तियाँ निर्वस्त्र ही बनाई गई हैं।

अन्य मृण्मूर्तियों में पुरुष आकृतियों का भी उल्लेख किया जा सकता है। इनमें ढलुआ माथा, लम्बी कटावदार आँखें, लम्बी नाक, चिपकाया हुआ मुख आदि उल्लेखनीय हैं।

कुछ सींगों वाली मूर्तियाँ एवं सींगदार मुखौटे भी साँचे में ढले हुए प्राप्त हुए हैं। मानव आकृतियों के अतिरिक्त यहाँ से बहुत अधिक संख्या में पशु-आकृतियों भी मिली है। पशु-मूर्तियों में कूबडयुक्त वृषभ, हाथी, सूअर गेडा बन्दर भेड़ कछुआ पक्षी आदि भी बहुतायत से प्राप्त हुए हैं।

ताम्र प्रतिमाएँ

हड़प्पा सभ्यता के लोग धातु से मूर्ति निर्माण की प्रक्रिया से परिचित हो चुके थे। वस्तुतः ये औपचारिक रूप में ‘कांस्ययुगीन सभ्यता’ के पोषक थे और वे लोग औजार एवं उपकरणों के निर्माण हेतु ताँबा और काँसा नामक धातुओं का प्रयोग करते थे।

ताँबा संभवतया राजपूताना से प्राप्त होता था ताँबे में राँगा मिलाकर काँसा बनता था। ताँबे व सखिया या हरताल से बनी मिश्रित धातु का भी उपयोग होता था। हडप्पीय धातु कला में पिगट के अनुसार ढलाई एवं गढ़ाई दोनों ही तकनीकों का उपयोग होता था।

ढलाई की प्रक्रिया में धातु को गला कर अपेक्षित आकृति के निर्माणार्थ साँचे में ढाला जाता था। मोहनजोदड़ो से प्राप्त नर्तकी की धातु प्रतिमा इसी प्रक्रिया से बनी हुई थी।

नर्तकी की ताम्र प्रतिमा

ताम्र से निर्मित नृत्यांगना की प्रतिमा मोहनजोदड़ो से प्राप्त हुई है। इस मूर्ति के बायें हाथ में कलाई से कोहनी तक चूड़ियाँ, कड़े बंगडी आदि पहनाये गये हैं।

राजस्थान की ग्राम्य प्रदेश की महिलाएँ आज भी इस प्रकार के कड़ों आदि का उपयोग करती हैं जो इस प्राचीन परम्परा की निरन्तरता का प्रतीक हैं। मूर्ति का दाहिना हाथ उसके कटि (कमर) प्रदेश पर रखा है।

नर्तकी की प्रतिमा

इस हाथ में भी दो-दो कड़े व भुजबन्ध पहने हैं। मूर्ति के पैरों का भाग खण्डित है। शरीर के अनुपात में इसे कुछ अधिक लम्बा बनाया गया है। उसके गले में त्रिफुलिया हार है। बाल एक जूड़े में बंधे हैं। मूर्ति की कुल ऊँचाई 4″ है।

वासुदेव शरण अग्रवाल के अनुसार प्रतिमा में अंकित कड़ों को ऋग्वेद में खादयः कहा गया है। यह मूर्ति अपनी सहज एवं स्वाभाविक मुद्रा से दृष्टा का ध्यान अनायास ही अपनी ओर खींच लेती है।

ताँबे से बनी हुई अन्य उल्लेखनीय मूर्तियाँ महिष (भैसे) और मेढे (भेड) की मूर्तियों का उल्लेख किया जा सकता है। इन पशु आकृतियों का शिल्पांकन सहज एवं स्वाभाविक शैली में किया गया है।

पाषाण से निर्मित मूर्तियाँ

पाषाण से निर्मित मूर्तियाँ यहाँ से अपेक्षाकृत कम संख्या में उपलब्ध होती हैं। यद्यपि पाषाण से निर्मित मूर्तियों की कला का पर्याप्त विकास हो चुका था और हड़प्पन सभ्यता के लोग पाषाण से मूर्ति बनाने की कला जानते थे।

लगभग 11 मूर्तियाँ विभिन्न आकार-प्रकार की इस समय की उपलब्ध हुई हैं। यद्यपि ये मूर्तियाँ भग्न अवस्था में ही उपलब्ध हुई हैं।

हड़प्पा से प्राप्त होने वाली दो पत्थर की प्रतिमाएँ शैली, बनावट, शरीर की सुडौलता और स्वाभाविकता की दृष्टि से ध्यानाकर्षित करती हैं। यद्यपि ये दोनों ही खण्डित मूर्तियाँ हैं।

पुरुष धड़

यह एक युवा पुरुष का धड़ है जो बालुकाश्म (सेण्ड स्टोन) से निर्मित एक खड़े हुए पुरुष का धड़ है। 4″ ऊँचा यह धड़ पूर्णतः नग्न है।

मूर्ति का उदर भाग कुछ स्थूल है। मूर्ति की गर्दन और कन्धों में छिद्र बने हुए हैं जिससे उसमें क्रमशः सिर एवं भुजाओं को अलग से बनाकर यथास्थान जोड़ा जा सके। यह मूर्ति परवर्ती यक्ष प्रतिमाओं का पूर्व रूप दिखाई देती है।

पुरातत्ववेत्ताओं ने इस प्रतिमा को प्रथम जैन तीर्थंकर आदिनाथ की प्रतिमा माना है।

पुरुष धड़

धुमैले घीया पत्थर से लाइम स्टोन) से निर्मित दूसरी प्रतिमा लगभग 4 इंची है। यह मूर्ति दयाराम साहनी को हड़प्पा के उत्खनन से प्राप्त हुई थी।

मूर्ति की बनावट, शरीर विन्यास स्थूल नितम्ब व क्षीण कटि आदि नारी सुलभ अंगों को ध्यान में रखते हुए अग्रवाल ने इसे एक नवयुवती की मूर्ति माना है। यह नृत्य मुद्रा में अंकित प्रतिमा है।

पुरुष का धड़

देव या पुजारी की प्रतिमा (हड़प्पा संस्कृति)

सिन्धु घाटी सभ्यता की सर्वोत्तम प्रतिमाओं में मोहनजोदडो से प्राप्त सेलखड़ी से निर्मित दाढी युक्त पुरुषाकृति है। यह एक आवक्ष प्रतिमा है। इसके दाढी एवं केशों को भली-भाँति संवारा गया है। सिर के बाल एक फीते से बंधे हैं।

एक कन्धा व शरीर विशेष प्रकार के त्रिफुलिया अलंकरण युक्त उत्तरीय (चादर) से ढका हुआ है। इस पुरुषाकृति का मस्तक (माथा) छोटा व पीछे की ओर ढालू है। गर्दन मोटी है और आँखें अधमुंदी हैं।

पुजारी की मूर्ति

इसे पुजारी की मूर्ति कहा जाता है, क्योंकि इसके उत्तरीय में अंकित त्रिफुलिया अलंकरण का सम्बन्ध मिस्र एवं पश्चिमी एशिया के देशों में देव-प्रतिमाओं के साथ देखा गया है।

वस्तुतः यह किसी योगी की प्रतिमा’ दिखाई देती है जिसकी दृष्टि नासाग्र (नाक के सिरे पर केन्द्रित) है। सिन्धु घाटी में योग का अस्तित्व पशुपति शिव की मुहरों में उत्कीर्ण आकृतियों से भी प्रमाणित होता है।

सिंधु घाटी सभ्यता से जुड़े महत्वपूर्ण प्रश्नोत्तर

FAQ

मोहनजोदड़ो का अर्थ क्या है?

मुर्दों के टीले।

सिंधु घाटी की सभ्यता को दूसरे किस नाम से जाना जाता है ?

चूँकि यहाँ पक्की मिट्टी के बर्तन मिलते हैं इसलिए इसे ‘पकाई मिट्टी के बर्तनों की सभ्यता’ भी कहते हैं।”

काँसे से बनी नर्तकी की मूर्ति कहाँ से मिलती है?

सिन्धु घाटी।

लोथल (गुजरात) की खुदाई कब हुई?

1953 ई. में।

मोहनजोदड़ो; हड़प्पा के समान सभ्यता के अवशेष भारत में किन-किन स्थानों पर मिलते हैं?

पंजाब में रोपड़, राजस्थान में कालीभंगा, और गुजरात में लोथल

शतरंज के बोर्ड के नमूने कहाँ मिलते हैं?

लोथल (गुजरात)।

मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा युग से प्राप्त अवशेषों में क्या प्राप्त होता है?

बर्तन, सिक्के, खिलौने, मोहरे, एवं दैनिक जीवन में काम आने वाली कुछ वस्तुएं जैसे आभूषण, चूड़ियाँ,जूड़े के पिन, शृंगारदान, कर्णाभूषण आदि।

मोहनजोदड़ो की सभ्यता को किस स्थान की सभ्यता के समान माना जाता है?

मैसोपोटामिया और सुमेरियन। कुछ चित्रों पर आर्य सभ्यता की छाप भी दिखायी देती है।

सिंधु लिपि कैसे लिखी जाती थी?

सिंधु लिपि दांई ओर से बांयी ओर लिखी जाती थी और दूसरी पंक्ति बांयी ओर से दांयी ओर लिखी जाती थी।

सिंधु घाटी से प्राप्त मोहरें किस आकार की तथा किससे निर्मित हैं?

वर्गाकार-हाथी दाँत, पकायी मिट्टी तथा नीले या सफेद चमकीले पत्थर से बनी हैं।

मोहरों का माप क्या है?

लगभग 2″1/2 लम्बाई एवं चौड़ाई।

मुहरों पर आकृतियाँ किस प्रकार निर्मित हैं?

उभरी हुई।

सिन्धु घाटी से प्राप्त कुछ प्रमुख मुद्राओं के नाम बताइए?

पशुपति मुद्रा, पीपल वृक्ष की मुद्रा, एक श्रृंग मुद्रा, वृषभ मुद्रा, दो बाघों के मध्य एक मनुष्य को मुद्रा आदि।

सिंधु घाटी से प्राप्त कुछ प्रमुख मूर्तियाँ हैं?

पुरूष की आवक्ष मूर्ति, नर्तक की मूर्ति, पुरूष धड़, नर्तकी की धातु मूर्ति।

सिंधु घाटी से प्राप्त पात्रों पर क्या अंकित है?

ज्यामितिक आकृतियां जैसे वृत्त, कोण, वृतांश आदि से बने आलेखन जिनके अन्दर फूल पत्तियों तथा पशु-पक्षियों की आकृतियों को दर्शाया गया है।

मोहनजोदड़ो एवं हड़प्पा में वास्तु कला का भी प्रचलन था यह किस प्रकार ज्ञात होता में है?

भवनों के अवशेष, स्नानागार, सड़कें, नालियां एवं भित्ति आदि से।

इस समय भवनों का निर्माण किससे होता था?

पक्की लाल ईंटों से।

पक्की ईंटों का माप क्या था?

10.5 inch x 5 inch x 2.5 inch

भारत की सबसे प्राचीन मूर्तियाँ कहाँ से मिलती हैं?

सिंघ काँठे के मोहनजोदडो और हडप्पा के प्राचीन नगरों के ध्वंसावशेष से.


सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में विद्वानों के विचार

'राधा कमल मुखर्जी इससे इन्कार करते हैं "सिन्धु घाटी की सभ्यता का मैसोपोटामिया की सभ्यता से कोई सम्बन्ध नहीं है और न उसकी ऋणी है। अब तो शनैः शनैः यह धारणा बलवती होती जा रही है कि सिंधु घाटी की सभ्यता विश्व की प्राचीनतम सभ्यता है।"
“यद्यपि सिन्धु घाटी की इन उपलब्धियों के द्वारा हड़प्पा, मोहनजोदड़ो के नागरिकों, नगरों, शासकों कवियों, कलाकारों, विद्वानों और कारीगरों के सम्बन्ध में कुछ पता नहीं चलता तथापि इन अवशेषों से तत्कालीन भारत के रहन-सहन, रीति रिवाज, ज्ञान-विज्ञान और कला कौशल सम्बन्धी बहुत सी बातों का परिचय अवश्य मिलता है।"-वाचस्पति गैरोला

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