‘काँगड़ा’ चित्र-शैली की विषयवस्तु तथा विशेषतायें  

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‘काँगड़ा’ चित्र-शैली की विषयवस्तु तथा विशेषतायें

‘काँगड़ा’ चित्र-शैली का परिचय

बाह्य रूप से समस्त पहाड़ी कला ‘काँगड़ा’ के नाम से अभिहित की जाती है जिसका कारण यहाँ के राजाओं का अन्य पहाड़ी रियासतों पर प्रभुत्व तथा यहाँ के कुशल कलाकारों द्वारा अभिव्यक्त ललित्यपूर्ण चित्र रचना है।

काँगड़ा की चित्रकला केवल कलात्मक गुणों के कारण ही प्रसिद्ध नहीं है वरन् हिमालय की वादियों की महक, वर्षा ऋतु की निर्मल फुहार, नायक-नायिका का कलोल और सबसे ऊपर सही अर्थों में भारतीय संस्कृति एवं सौन्दर्य को मुखरित करने में यह कलम सक्षम है।

विषयवस्तु विवेचन के रूप में काँगड़ा शैली की पृष्ठभूमि में वैष्णव मत का प्रभाव दिखाई देता है। वैष्णव मत में कृष्ण को आराध्य देव माना गया है।

वैष्णव मत से प्रेरणा लेकर ही कवि जयदेव, विद्यापति आदि ने अपनी साहित्यिक रचनाओं में जिन शब्द चित्रों को खींचा उससे प्रेरित होकर काँगड़ा के कलाकारों ने अपनी तूलिका द्वारा कृष्ण लीलाओं को विविध रूपों व रंगों में ढाला।

काँगड़ा’ चित्र-शैली की पृष्ठभूमि

लघु-चित्रों की परम्परा में सबसे अधिक मनमोहक एक चित्रशैली 18 वीं शती के उत्तरार्द्ध में कांगड़ा घाटी में पनपी। कटोच राजवंश के महाराज संसार चन्द के संरक्षण ने इसे यौवन के द्वार पर पहुँचा दिया। धौलाधार पर्वत की गोद शान्ति से सोती हुई कांगड़ा घाटी में कभी चित्रकला का भी उत्कर्ष रहा होगा, सहसा यह विश्वास नहीं होता। 

इसकी खेलती हुई सरिताओं के किनारे व झूमते हुये वृक्षों की छाया में कांगड़ी प्रणयी ‘कलम’ मोठे रंगीन अक्षर कागज पर न टांकती, असम्भव था। फूलों से सुवासित यह घाटी मैदानों की अशान्ति व हलचलों से दूर ही रही। 

इसने अपने तुषारित धवल आंचल पर कभी भी मैल का दाग न लगने दिया। स्वभावतः इसकी कला एवं संस्कृति सदैव ही मौलिक रही ।

कांगड़ा की लालित्यपूर्ण सरस चित्र-लहरी के लहराने की भी कथा बड़ी ही रोमांचक है । 1405 के आसपास कांगड़ा के राजा हरिचन्द अपने साथियों के साथ शिकार की तलाश में घूम रहे थे। दुर्भाग्यवश वे अकेले पड़ गये। और किसी कुयें में जा पड़े। बहुत प्रतीक्षा के बाद भी जब वह कांगड़ा न लौटे तो उन्हें मरा जानकर रानियाँ सती हो गयीं व गद्दी पर इनके छोटे भाई करमचन्द बैठे। 

करीब तीन सप्ताह बाद किसी राहगीर ने उन्हें उस गर्त से निकाला। जब उन्हें पूर्वोक्त बातों का ज्ञान हुआ तो उन्होंने गुलेर इलाके में हरीपुर नगर के निर्माण की नींव डाली और यहीं पर ही इस चित्र-लहरी का बीजारोपण हुआ। 

इस स्थान के भौगोलिक रूप ने समय-समय पर बाटिका की इस नन्हीं सी बल्लरी को सींचा। मैदानों की खींच-तान, आक्रमण, औरंगजेबी मनोवृत्ति ने इस वल्लरी को परोक्ष रूप से सहारा दिया। बाद में यही ‘कलम’ पहाड़ बादशाह (संसार चन्द) की गोद में आ गई, उनके पुचकार व दुलार ने इसे ‘खूब खिलाया व संवारा ।

कांगड़ा की इस शान्त बाटी में कभी-कभी आक्रमणकारियों की कुछ हलचलें हो जाती थीं। इसका कारण वहाँ का किला था । उस समय एक उक्ति प्रसिद्ध थी— किला जिसका कांगड़ा उसका। राजाओं के पास यह किला स्थाई रूप से न रह पाता था। महमूद गजनवी इसके सौन्दर्य सम्पदा लूटकर गजनी ले गया था। मुगल, सिक्ख व गोरखे भी इसका पूर्व योवन न लौटा सके।

कांगड़ा कलम का ऐतिहासिक कलावृत एवं कलाप्रणेता महाराजा संसारचन्द

ही कांगड़ा कलम के एकमात्र प्रबल पोषक व उन्नायक रहे। इनका जन्म कांगड़ा जिले की पालमपुर तहसील के लांबागाँव के समीप एक गाँव में 1765 में हुआ था। इनके वंश के पूर्वज कोई सुशर्मन रहे जो महाभारत के युद्ध में कौरवों के साथ थे। 

लेकिन ठीक-ठीक लेखा-जोखा महाराजा संसार चन्द के दादा घमंड चन्द (1751-74) से आरम्भ होता है जो 1751 गद्दी पर बैठे। संसार चन्द के पिता तेगचन्द (1774-75) केवल एक ही राज्य करने पश्चात् गोलोकवासी हो गये। अपने स्वर्गवासी पिता बाद 1775 में कांगड़ा का किला भी दस वर्षीय संसार चन्द के हाथों में आ गया।

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समय बीतने के साथ-साथ संसार चन्द का प्रभुत्व समस्त पहाड़ी रियासतों पर हो गया और उनकी महत्वकांक्षा यहाँ तक बढ़ गई कि उनके दरबार में अभिनन्दन भी लाहौर परावत कह कर होने लगा था जिसका अर्थ है लाहौर प्राप्त हो।

लेकिन महाराज संसार चन्द महाराज रणजीतसिंह की शक्ति को न समझ सके। इस प्रकार संसार चन्द 1804 में रणजीत सिंह से हारने के बाद पंजाब के मैदानों पर अधिकार करने का सपना टूट गया था। इसी बीच पहाड़ी रियासतों के राजाओं ने भी उनसे अपने पुराने सम्बन्ध बनाये रखना उचित नहीं समझा और बिलासपुर के राजा के निमन्त्रण पर गोरखाओं ने कांगड़ा के किले पर 1805 में अधिकार कर लिया जो संसारचन्द ने रणजीत सिंह की मदद से 1809 में स्वतन्त्र कराया।

अब किले पर तथा पहाड़ी रियासतों पर रणजीत सिंह का दबदवा व अधिकार हो गया। संसार चन्द नैराश्य भाव में अब अलमपुर में रहने लगे और अपनी पुरानी शान-शौकत को कुछ ओर आगे तक स्थिर रखे रहे।

चम्बा की शरण में, कुछ जालन्धर दोआब के मैदानों में चले गये । तीन साल तक यह अराजकता का चक्र चलता रहा। कांगड़ा की उर्वर घाटी में खेत के नाम पर कोई पत्ती तक नजर नहीं आती थी। शहरों में घास उग आई थी और नदीन की गलियों में शेरनियां बच्चे देने लगी थीं।

वास्तव में कांगड़ा के इतिहास में 1786 से 1805 तक का समय स्वर्णिम रहा। काफी संख्या में स्वर्णकार सूत्रग्राही, कर्मकार व कुविन्दकों आदि ने भी राजाश्रय पाकर हस्तशिल्प को आगे बढ़ाया।

तारीख-ए-पंजाब का लेखक मोहिउद्दीन ठीक ही कहता

“गुणी व्यक्तियों का झुन्ड़ कांगड़ा पहुंचता और उनके द्वारा पुरस्कृत होकर उनकी कृपा का आनन्द लाभ प्राप्त करता था।……खेल दिखाने वाले और कमाकार इतनी संख्या में यहां पहुँचते और इनसे इतना अधिक और कीमती पुरस्कार पाते थे कि ( संसारचन्द) गुणी व पारखी के नाते उस जमाने के हातिम कहे जाने लगे तथा उदारता में रुस्तम।”

इनके राज्यारोहण के समय नदौन भी खूब सजा-संबरा रहता था। महाराज संसारचन्द की सुकेत वाली रानी ने यही पर एक मन्दिर 1824 में नर्मदेश्वर के नाम से बनवाया। इसकी भित्तियों और छतों पर सुन्दर चित्र अभी भी देखने को मिलते हैं। महाराज ने जिस कुव्वत व हौसले से नदौन की रौनक को बढ़ाया था उसके लिए कहावत प्रसिद्ध थी:

जायेगा नदौन

जायेगा कौन?

लगभग बीस वर्ष तक स्वतन्त्र रूप से महाराज ने पहाड़ी रियासतों पर राज्य किया। अन्तिम दिनों में वे नदौन से हटकर आकर्षक स्थान तीरासुजानपुर व अलमपुर में आ गये। 

1820 के प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री मूर क्राफ्ट ने अलमपुर में महाराजा से भेंट की थी। वह लिखते है-“संसारचन्द चित्रकारी का शौकीन है व बहुत से कलाकारों को उसने अपने यहाँ रखा है। उसके पास चित्रों का बड़ा संग्रह है जिसमें अधिकतर कृष्ण और बलराम की पराक्रम लीला है, अर्जुन के वीरतापूर्ण कार्य हैं और महाभारत सम्बन्धी विषय हैं। इसके पड़ोसी राजाओं तथा उनके पूर्वजों की मुखाकृतियां भी हैं। इन्हीं में सिकंदर महान की मुखाकृतियाँ थीं। 

मूर आगे लिखते है:

“राजा संसारचन्द के दरबार में तब भी अनेक कलाकर निरन्तर कला का सृजन कर रहे थे चित्रों का उसे बड़ा शौक था और परिणाम स्वरूप उसके पास महत्वपूर्ण कला-कृतियों का बहुत बड़ा संग्रह सुरक्षित था। राजा संसारचन्द में यदि धर्म और संस्कृति के लिए जन्मजात अभिरुचि न होती तो चित्रकला को जिस तरह यह सुरक्षित रख सका और उसकी समृद्धि को आगे बढ़ा सका, कदाचित ऐसा न हुआ होता उसका जीवन बड़ा हो नियमित था, प्रातः काल व संध्या-वन्दन, पूजा अर्चना में व्यतीत करता था और सायंकाल नियमित से गायन तथा नृत्य का भी आनन्द लेता था। इस गायन में यह श्री कृष्ण की रासलीलाओं और ब्रजभाषा के पदों का प्रयोग करता था। श्रीकृष्ण का यह अनन्योपाषक था। उसकी यह कृष्ण भक्ति उसके जीवन की महत्वपूर्ण यादगार है।”

यथार्थ में महाराजा संसारचन्द जीवन पर्यन्त निर्जन पहाड़ों में जीवन रस घोलते रहे। महाराजा के हृदय में कला के प्रति स्वाभाविक अनुराग और कलाकारों के लिए हार्दिक निष्ठा थी। 

काँगड़ा के चित्र विश्व भर में सुन्दर लघुचित्रों के रूप में विशेष माने जाते हैं। रेखा, रूप, रंग आदि द्वारा काँगड़ा कलाकार ने सजीव चित्रण किया है। इस शैली की प्रमुख विशेषतायें निम्नवत् हैं।

कांगड़ा चित्र-शैली की विशेषताए

  • काँगड़ा की इस सुकुमार कलम से रामायण,महाभारत, दुर्गा सप्तशती, गीतगोविन्द श्रीमद्भागवत्, हरिवंश और शिवपुराण पर आधारित चित्र बनाए गए। इसी चित्र शैली में सस्सी-पुन्नू,बारहमासा,रागमाला, नायक-नायिकाओं के अनेक नयनाभिराम चित्र बनाए गए।
  • प्रकृति के सुरम्य रूप को यहाँ के चित्रों में एक स्नेहपूर्ण स्थान दिया गया है। प्रकृति की हरीतिमा और वृक्षों में छाया प्रकाश काअंकन दर्शकको आकृष्ट करता है।
  • कांगड़ी चित्रों में वास्तु की सजावट दर्शनीय है। पहाड़ियों (undulating-hills) पर बसे छोटे-छोटे (hamlets) गावों का अंकन बड़ा दर्शनीय है। श्वेत संगमरमरी वास्तु का अंकन कांगड़ा की अपनी चिर-परिचित विशेषता है। वास्तु के योग से अन्तराल में रसता नहीं आ पाई है, वैसे भी पहाडियों के आकारों का प्रयोग कांगड़ी- चित्रकार ने बड़े बुद्धिमत्ता पूर्ण ढंग से किया है।
  • नायिकाओं का सलोना चेहरा उस पर चंचल चितवन, सीधी सी नाक, मीठे से होठ सभी उसके रूप को गढ़ते है।इनके के छरहरे बदन पर फर्श को चूमती पेशवाज बनी है तथा नायक को कुल्हेदार पगड़ी व जामा पहने हुये नायिकाओं के साथ देखा जा सकता है। पुरुषाकृति प्रायः भारी बदन की अंकित की हुई है।
  • कांगड़ा चित्रों में क्षितिज-रेखा मुगल चित्रों के समान नीचे की ओर खिसक आई थी जबकि मेवाड़ व बहसोली में यह बहुत ऊपर बनी है।
  • चित्रों के हाशियों में छीटदार सज्जा भी प्रायः बनाई जाती थी। कांगड़ा चित्रशैली की विशेषताओं को डा० आनन्द कुमार.. स्वामी ने एक ही सारगर्भित वाक्य में इस प्रकार प्रस्तुत किया है

“आकृतियां अधिक सजीव है, रेखाओं में ओज प्रवाह है, स्त्री-आकृतियों का शारीरिक सौन्दर्य कोमल व छरहरे बदन का है।

  • कांगड़ा चित्रों में रंगों की दीप्ति न रमणीयता अद्वितीय रूप में प्रकट हुई है। मानवाकृतियों को छोड़ अन्य सभी आकृतियों में प्राय: सफेद, हरा व नीला रंग भरा गया है, मानवाकृतियाँ प्राय: गर्म या प्रखर रंगों में बनी है। रंगों के सम्बन्ध में जे० सी० फंच ने ठीक ही कहा है

“कांगड़ा चित्रकारों के वर्ण-संयोजन में ऊषाकाल और इन्द्रधनुष के रंग थे।”

  • चित्रों में रेखायें लयपूर्ण है।

कांगड़ा शैली की विषय-वस्तु

धार्मिक चित्र

धार्मिक चित्रों का बहुत बड़ा संकलन हमें काँगड़ा शैली में मिलता है जिनमें प्रमुख रामायण, महाभारत, दुर्गा सप्तशती, गीत-गोविन्द श्री मद्भागवत और शिवपुराण आदि हैं। 

प्राकृतिक अंकन 

काँगड़ा जो एक सुरम्य पहाड़ी स्थल है वहाँ बहते झरने, जंगलों की कतारे सभी को पहाड़ी कलाकार ने अन्वेक्षणकर्ता की तरह चित्रों में उतारा। साथ ही ऋतुओं के वर्णन में कलाकारों ने सजोवता से अंकन किया है।

आकृतियों का लावण्य  

इस शैली में बहुत प्रभावी मानवाकृतियों का अंकन हुआ है नारी के सौन्दर्य को काँगड़ा कलाकार ने झीने वस्त्रों युक्त, केश विन्यास तथा आभूषणों आदि द्वारा निखारा है। पुरूषाकृतियों को घेरदार जामा, पजामी व पगड़ी युक्त सौन्दर्यपूर्ण ढंग से प्रस्तुत किया है।

पशु-पक्षियों का चित्रण 

काँगड़ा शैली में मुख्यतः कौवे, मोर, गाय व कहीं-कहीं हाथियों का बहुत सुन्दर चित्रण है।

रेखा सौन्दर्य 

काँगड़ा चित्रों की रेखाओं पर अजन्ता जैसा प्रभाव है। इन रेखाओं की महीनता, लयात्मकता सभी इस शैली को जीवन्त बनाती है।

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