नारायण श्रीधर बेन्द्रे | Narayan Shridhar Bendre

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नारायण श्रीधर बेन्द्रे

बेन्द्रे का जन्म 21 अगस्त 1910 को एक महाराष्ट्रीय मध्यवर्गीय ब्राह्मण परिवार में हुआ था। उनके पूर्वज पूना में रहते थे।

पितामह पूना छोड़ कर इन्दौर चले आये और पिता श्रीधर बलवन्त बेन्द्रे इन्दौर के ब्रिटिश रेजीडेन्ट के कार्यालय में क्लर्क थे। इसी परिवार में 21 अगस्त 1910 ई० को नारायण का जन्म हुआ। पिता की दृष्टि में चित्रकला अमीरों का शौक था किन्तु उनकी माता धार्मिक त्यौहारों के अवसर पर अनेक प्रकार के चित्र तथा मिट्टी की प्रतिमाएँ बनाती थीं। बालक बेन्द्रे को बचपन से ही चित्रांकन में रूचि थी। 

अपने अध्ययन काल में ही उन्होंने बम्बई की कला-सम्बन्धी ऐलीमेण्ट्री तथा इण्टर ब्रेड की परीक्षाएँ उत्तीर्ण कर ली थीं। इन्दौर रियासत की ओर से उन्हें अपनी रुचि के अनुसार भविष्य में कला विषय पढ़ने के लिये शिक्षा तथा कला सामग्री की निःशुल्क सुविधा प्रदान की गयी और 1929 में बेन्द्रे को इन्दौर कला विद्यालय में प्रविष्ट कर लिया गया। 

उस समय कला-विद्यालय के प्रधान शिक्षक श्री दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर थे वे अपने विद्यार्थियों को प्रातःकाल, दोपहर, सन्ध्या तथा रात्रि में बाहरी वस्तुओं तथा स्थानों के चित्रण में व्यस्त रखते थे। 

इससे उन्हें विभिन्न प्रकार के प्रकाश में बदलते हुए रंगों के प्रभाव समझ में आ जाते थे देवलालीकर कभी-कभी प्रसिद्ध चित्रकारों की प्रदर्शनियाँ भी आयोजित करते रहते थे जिससे विद्यार्थियों को कला की नवीनतम प्रगति का ज्ञान हो जाता था। कला की यह समस्त शिक्षा लन्दल की रायल एकेडेमी की पद्धति पर दी जाती थी।

सन् 1930 में बेन्द्रे अजन्ता की ख्याति से प्रेरित होकर अपने तीनअन्य साथियों सहित साईकिलों पर ही अजन्ता देखने निकल पड़े: किन्तु पश्चिमी शैली की अभ्यस्त उनकी आँखों को अजन्ता के चित्र प्रभावित नहीं कर पाये। बेन्द्रे रंगों के प्रति बहुत संवेदनशील थे और अब अपनी स्थिर जीवन की ड्राइंग क्लास में उन्होंनें मिट्टी के तेल के कनस्तर के चित्र में नीले रंग के साथ बादामी कत्थई (ब्राउन) रंग के पैच लगाये तो उनके गुरु देवलालीकर ने भविष्यवाणी की कि यह छात्र एक महान रंगसाज (कलरिस्ट) बनेगा। 

1933 में आगरा विश्वविद्यालय से बी०ए० की डिग्री तथा सन् 1934 में कला विद्यालय से बम्बई का डिप्लोमा प्राप्त करने से पूर्व बेन्द्रे ने अपने भाई को जिप्सी के वेश में चित्रित किया था। चित्र का शीर्षक था ‘घुमक्कड़’ 1934 में यह चित्र बम्बई आर्ट सोसाइटी की वार्षिक प्रदर्शनी में रखा गया जहाँ इसे रजत पदक के साथ-साथ बहुत प्रशंसा मिली। इसी प्रदर्शनी में बेन्द्रे का एक दृश्य-चित्र भी पुरस्कृत हुआ। 

बेन्द्रे में इस घटना से आत्म-विश्वास उत्पन्न हुआ और चित्रकला को उन्होंने अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसके पश्चात् उन्होंने कभी पीछे मुड कर नहीं देखा और निरन्तर आगे ही बढ़ते गये सारे भारत में उन्होंने प्रदर्शनियाँ आयोजित की। 

सन् 1935 की बम्बई आर्ट सोसाइटी की वार्षिक प्रदर्शनीमें उनके चित्र “गली का आकर्षण” पर रजत पदक के साथ-साथ राज्यपाल का पुरस्कार भी प्राप्त ‘चित्र-संयोजन और दृश्यॉकन किये। 

दक्षिण भारत को भी उन्होंने अपने चित्रों में उतारा। हुआ । इसके बाद तो उन्हें अनेक पुरस्कार मिलते चले गये। उन्होंने अनेक कलकत्ता के स्वर्ण पदक के साथ-साथ लगभग 60 अन्य पुरस्कार मिलने पर भी उनकी बम्बई के स्वर्ण पदक की महत्वाकांक्षा 1941 तक पूर्ण नहीं हो सकी यह पुरस्कार उन्हें बनारस के दृश्य- चित्रों की एक श्रृंखला पर मिला ।

1936 में बेन्द्रे अपने एक मित्र के साथ कश्मीर गये और वहाँ के बडी संख्या में स्केच अंकित किये श्रीनगर तथा गुलमर्ग की वार्षिक प्रदर्शनियों में इन्हें प्रदर्शित किया गया। 

वे काश्मीर से बाहर के ऐसे प्रथम कलाकार थे जिनका कार्य प्रदर्शन के लिये वहाँ स्वीकृत हुआ था। उन्हें कश्मीर दर्शनार्थी संघ का सदस्य मनोनीत किया गया और कलाकार तथा पत्रकार के रूप में उन्होंने वहाँ 1939 तक कार्य किया। 

जब भी समय मिलता, वे कश्मीर के स्केच भी बनाते रहते। किन्तु वहाँ रह कर वे भारत में चल रहे कला आन्दोलनों की मूल धारा से स्वयं को कटा हुआ अनुभव करने लगे अतः 1939 में वे काश्मीर छोड़कर बम्बई के फिल्म जगत् में अपना भाग्य आजमाने पहुँचे। 

कोयम्बतूर के एक फिल्म स्टूडियो में कार्य करने के साथ ही उनकी आँखें खुल गयीं और एक वर्ष के भीतर ही उन्होंने यह नौकरी छोड़ दी। इसी मध्य मद्रास में उनकी भेंट एक युवती से हुई जो 1942 में विवाह के पश्चात् बेन्द्रे की जीवन संगिनी बनीं। 

1941 में उन्हें बम्बई आर्ट सोसाइटी का स्वर्ण पदक मिला 1943 में बम्बई में चित्र प्रदर्शनी आयोजित करके उन्होंने अपने 37 चित्र 19000 रूपये में बेचे। 1944 में इन्दौर साहित्य सभा ने उनकी कला उपलब्धियों का अभिनन्दन किया और भारत छोड़ों शीर्षक चित्र पर 1946 में आर्ट सोसाइटी आफ इण्डिया बम्बई ने उन्हें पटेल ट्राफी प्रदान की। उन्हें इसका सभापति भी चुना गया ।

1945 में बेन्द्रे को शान्ति निकेतन से आवासी कलाकार के रूप में कार्य करने का निमन्त्रण मिला । वहाँ उन्होंने बम्बई तथा इन्दौर से भिन्न पद्धति के कलाकारों के साथ कार्य किया । वहाँ वे नन्दलाल बसु, रामकिंकर वैज तथा विनोद बिहारी मुखर्जी के भी सम्पर्क में आये और उनसे प्रभावित हुए। 

शान्ति निकेतन प्रयास से बेन्द्रे की कल्पना, सृजन एवं चिन्तन शक्तियों को बहुत लाभ मिला और उन्होंने कला के दृश्यात्मक अनुभव की एकता तथा सम्पूर्णता को समझा । बम्बई लौटने पर उनके कुछ मित्रों ने उन्हें ‘विदेश जाने का परामर्श दिया। जून 1947 में वे अमरीका रवाना हुए। 

छः महीने वहाँ रहकर उन्होंने अनेक संग्रहालयों में प्रसिद्ध कलाकारों की कृतियों देख तथा ग्राफिक एवं सिरेमिक कार्यशालाओं में भाग लिया जनवरी 1948 में न्यूयार्क में उनके मित्रों की प्रदर्शनी हुई जिसमें भारत से ले जाये गये 42 में से उनके 40 चित्र बिक गये। यहाँ से वे लन्दन पहुँचे। 

यहाँ की विश्व प्रसिद्ध ‘आर्टिस्ट’ पत्रिका ने उनकी प्रशंसा करते हुए उनका एक चित्र भी छापा। यह किसी भारतीय कलाकार के लिए इस पत्रिका द्वारा पहला सम्मानपूर्ण अवसर था वहाँ से बेन्द्रे हालैण्ड तथा पेरिस की कला-वीथियों के अवलोकन हेतु पहुंचे। इसी समय भारत की स्वतंत्रता तथा जनवरी 1948 में गाँधी जी की हत्या से उनका मन विदेशों से उचट गया। मार्च 1948 में स्वतंत्र भारत की भूमि पर कदम रखते हुए उन्हें अपार हर्ष तथा उत्तेजना का अनुभव हुआ।

विदेश यात्रा से बेन्द्रे को यह अनुभव हुआ कि कला का मुख्य कार्य मन की क्षुधा को शान्त करना है, तकनीकी कुशलता का स्थान गौण है और वस्तुओं का चित्रण कलाकार का अंन्तिम ध्येय नहीं है। 

अतः कला में विकृति अनिवार्य है और कला जीवन के सम्पूर्ण अनुभव का ही एक अंग है अपने इन विचारों को व्यक्त करते हुए 1949 में उन्होंने बम्बई में जो प्रदर्शनी की वह सफल नहीं हुई क्योंकि यहाँ के कला विशेषज्ञ उनके इन विचारों से सहमत नहीं थे ।

1950 में बड़ौदा में महाराजा सयाजीराव विश्व विद्यालय में ललित कला संकाय के रीडर तथा चित्रकला विभाग के अध्यक्ष पर बेन्द्रे की नियुक्ति हुई यहाँ उन्हें अपने विचारों को साकार करने का अवसर मिला । उन्होंने अपने छात्रों को संस्कृति के विशाल स्वरूप को समझने और अपने कलात्मक व्यक्तित्व में आत्मसात् करने को प्रेरित किया। 1956 में वहाँ पर उन्होंने बड़ौदा ग्रुप आफ पेण्टर्स का सूत्रपात किया। 

उनका अधिकांश समय प्रयोगात्मक कार्य में लगाया और स्वतंत्र होकर अपनी रूचि के अनुकूल दिशा चुनने का अवसर दिया। छात्रों को उन्होंने प्रतिस्पर्द्धात्मक रीति से आगे बढ़ाया। उनकी प्रदर्शनियाँ, शैक्षिक यात्राओं तथा अन्य कार्यक्रमों का आयोजन किया। इससे उनमें आत्म-विश्वास उत्पन्न हुआ। 

1959 में बेन्द्रे ललित कला संकाय के डीन पद पर नियुक्त हुए । 1966 में त्यागपत्र देने तक वे इस पद पर रहे। यहाँ उन्होंने एक सुयोग्य शिक्षक और मार्ग निर्देशक की सफल भूमिका निभाई । उन्हें इस बात से प्रसन्नता होती थी कि कोई भी छात्र उनकी नकल नहीं करता। बड़ौदा में भी बेन्द्रे शिक्षण के साथ-साथ चित्रांकन में नये-नये प्रयोग करते रहे। 

1960 तथा 1962 में उन्होंने अमूर्त शैली के अपने चित्रों की प्रदर्शनियाँ कीं। इनमें उन्होंने अपनी मूल अनुभूतियों को वस्तु-निरपेक्ष रूपों में व्यक्त करने का प्रयत्न किया है। इसमें उन्होंने धनवाद से भी सहायता ली। 

इसके पश्चात् ये प्रकृति के अनन्त रूपों के सौन्दर्य की खोज में लग गये। इसी अवधि में वे चीन जापान, मध्य पूर्व तथा अमेरिका भी गये और वहाँ की कला परम्पराओं तथा लोगों को समझने का प्रयत्न किया।

अमेरिका से लौटने के पश्चात् उन्होंने चेकोस्लोवाकिया, टोरन्टो, युगोस्लाविया, पोलैण्ड आदि विदेशों तथा भारत के महानगरों में प्रदर्शनियों की 1969 में उन्हें पद्म श्री की उपाधि प्रदान की गयी। 1971 में वे भारत में आयोजित द्वितीय त्रिनाले की अन्तर्राष्ट्रीय जूरी के चेयरमेन और 1974 में राष्ट्रीय ललित कला अकादमी के फैलो चुने गये। 

देश विदेश में उन्हें अनेक पदक और सम्मान प्राप्त हुए। इन्दिरा कला संगीत विश्वविद्यालय खैरागढ़ (म०प्र०) ने उन्हें ‘डी ललित’ की उपाधि प्रदान की और उन्हें विजिटिंग प्रोफेसर का सम्मान दिया। 1982 में शान्ति निकेतन के वार्षिक दीक्षान्त समारोह में इन्दिरा गांधी द्वारा उन्हें गगनेन्द्र-अवनीन्द्र पुरस्कार प्रदान किया गया। 1992 में उनका निर्धन हो गया ।

बेन्द्रे की कला

आरम्भ में बेन्द्रे ने यूरोपीय यथार्थवादी छाया-प्रकाश की पद्धति में कार्य किया और अपनी छात्रावस्था में ही रंगों के प्रति आकर्षण का परिचय दिया। उनका आरम्भिक तकनीक वाश तथा ग्वाश का मिश्रित रूप था। तत्पश्चात् उन्होंने तैल माध्यम में कार्य किया और कुशलता प्राप्त की। 

काश्मीर प्रवास के समय उन्होंने ग्वाश में शीघ्र स्केचिंग तथा बदलते हुए वातावरण, प्रकाश और रंगों को पकड़ने का प्रयत्न किया। शान्ति निकेतन के प्रभाव से वे रेखांकन के कुशल आचार्य बने उसके पश्चात् बेन्द्रे ने प्रत्येक माध्यम व तकनीक में कार्य करने और उस पर अधिकार प्राप्त करने का प्रयत्न किया। 

आरम्भ में वे यथार्थवादी रहे। तत्पश्चात् प्रभाववादी विधि में कुछ परिवर्तन के साथ सुन्दर कार्य किया। उनके दृश्यांकनों में हमें उनकी प्रयोगशीलता के विविध उदाहरण मिलते हैं। अमेरिका में उन्होंने ग्राफिक तथा सिरेमिक का कार्य सीखा पर ये प्रधानतः तूलिकांकन के आचार्य ही बने रहे ये घनवाद को बीसवीं शती का एक आधारभूत आन्दोलन मानते थे। 

त्रिआयामी दृश्य-जगत को चित्र के द्विआयामी तल के अनुरूप ढालना, सुविधारित चित्र योजना जिसमें कलाकार का व्यक्तित्व लिप्त नहीं होता. वस्तुओं के ढांचे पर बल आदि ने उन्हें बहुत प्रभावित किया था भारतीय लघु-चित्र का स्थान- संयोजन, सरलता तथा चित्रतल का विभिन्न क्षेत्रों में विभाजन भी उन्हें उतना ही महत्वपूर्ण लगा। 

उन्होंने 1950 से 1957 के मध्य इन दोनों शैलियों के समन्वय सम्बन्धी प्रयोग किये। तत्पश्चात् उन्होंने पुनः द्विआयामी चित्रण किया।

एक रंगसाज के रूप में बेन्द्रे अद्वितीय है। उनके रंग एक अपूर्व संगीत उत्पन्न करते हैं। इसके लिये उन्होंने रंगों के नये समीकरण बनाये हैं। उनकी रंग योजनाएं तथा विषय पूर्णतः भारतीय हैं रंगों से गढ़नशीलता उत्पन्न करने में वे धनवाद के बजाय भारतीय मूर्तिकला से प्रभावित हैं। 

उनके चित्रों में रंगों की सुविचारित सौन्दर्य योजना मुग्ध कारिणी है उनमें रोमाण्टिक अनुभूति है। इस प्रकार के तेल माध्यम में बने चित्रों का एक सुन्दर वर्ग है और केवल यह एक वर्ग ही बेन्द्रे की ख्याति के लिये पर्याप्त है। 

कुछ समय बेन्द्रे ने पतले रंगों को अचेतन के प्रभाव में कैनवास पर फैला या बहाकर और स्थान-स्थान पर मिश्रित कर विचित्र प्रभाव तथा रूपभी कल्पित किये थे, पर यह मनः स्थिति अधिक समय तक नहीं रही। 

अमूर्तता की ओर बेन्द्रे का आकर्षण स्थायी नहीं था। उनकी अमूर्त कला कृतियों में घनवाद का तात्विक आधार है साथ ही रंगों के लगाने की उनकी विशिष्ट पद्धति कहीं भी छूटी नहीं है। 

उनके अमूर्त कला सम्बन्धी प्रयोगों के विषय में रिचर्ड बोथॉलोम्यू का कथन है कि अमूर्त कला के लिये डिजाइन तथा रंग में से किसी एक की समझ परमावश्यक है किन्तु बेन्द्रे में दोनों में से कोई भी नहीं है।’ किन्तु इसका मूल कारण यह है कि बेन्द्रे का व्यक्तित्व दृढ़ है और तकनीकी औपचारिकता को उन्होंने अस्वीकार कर दिया बेन्द्रे अपने आकारों को सरल व स्पष्ट रूप में देखते हैं। 

आधुनिक चित्रकारों में ये रोमाण्टिस्ट गिने जाते हैं। उनकी नारी आकृतियाँ लम्बे-लम्बे बाल, हाम, साडी तथा लम्बी-लम्बी आँखें आदि लिये मूढ जैसी केनवास पर उतरती है। उनमें सौन्दर्य तो हैं, पर स्पन्दन नहीं है। 

होठों तथा सम्मुख मुख में नासिका का चित्रण उन्होंने प्रायः छोड़ दिया है अतः अधिकांश चेहरे निःशब्द भी लगते हैं। चित्रों में हम केवल उनके रंगों का संगीत, विन्यास माधुर्य एवं मृदुता का अनुभव करते हैं। 

बेन्द्रे पर यह आरोप भी है कि इतने सारे प्रयोग करने के बाद भी उनमें पुनरावृत्ति है, कुछ निश्चित रगों और कुछ निश्चित प्रकार के विषयों को ही बार-बार अंकित करने की ।

बेन्द्रे एक सफल शिक्षक भी रहे हैं और उनके प्रमुख शिष्यों में ज्योति भट्ट, त्रिलोक कौल, शान्ति दवे, जी० आर० सन्तोष रतन परिमू, विनोद शाह, विनोद पटेल, गुलाम मुहम्मद शेख तथा हिम्मतशाह के नाम लिये जा सकते हैं। अपना शेष जीवन बेन्द्रे ने बम्बई के पूर्वी बान्द्रा क्षेत्र में व्यतीत किया था।

बेन्द्रे की कला पर मुख्यतः राजपूत और मुगल कला का प्रभाव है, बंगाल शैली, चीनी तथा जापानी चित्रण पद्धति की भी गहरी छाप पड़ी है; फ्रेंच कलाकार गॉगिन तथा मिरो से द्रुत विकीर्णता और सेजान से गहरा आभास तथा भेदक दृष्टि प्राप्त की है।

यद्यपि फ्रांसीसी कला से उन्हें प्रेरणा मिली तथापि भारतीय कला को भी वे पर्याप्त समृद्ध मानते थे और अपने देश की कला की विशेषताओं में ही उन्होंने विदेशों से प्राप्त अनुभवों का समाहार किया था।

बेन्द्रे के सूरजमुखी शीर्षक चित्र में धनवादी तथा फाववादी प्रभाव छनकर आये हैं जिनके कारण आकृतियों के विभाजन से पारदर्शिता, सम्मुख परिप्रेक्ष्य से मूल आकारों का सौन्दर्य और चित्र की सपाट डिजाइन तथा रंगों का आकर्षण चित्र की प्रमुख विशेषताएँ बन गये हैं।

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