ठाकुर परिवार | ठाकुर शैली

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1857 की असफल क्रान्ति के पश्चात् अंग्रेजों ने भारत में हर प्रकार से अपने शासन को दृढ़ बनाने का प्रयत्न किया, किन्तु बीसवीं शती के आरम्भ होते-होते स्वतन्त्रता आन्दोलन पुनः जोर पकड़ने लगा इण्डियन नेशनल कॉंग्रेस की स्थापना और उसके द्वारा धीरे-धीरे स्वतन्त्रता की लहर के व्यापक होने के साथ-साथ अंग्रेजों ने अपने समर्थकों और अन्य लोगों में अपनी छवि उभारने का काफी प्रयत्न किया। 

इसके परिणाम स्वरूप ‘इण्डियन सोसाइटी आफ ओरियण्टल आर्ट’ की स्थापना हुई जिसके तीस संस्थापकों में से केवल पाँच भारतीय थे भारत में ब्रिटिश सेना के कमाण्डर इन चीफ इसके सभापति थे। 

बंगाल के गवर्नर रोनाल्डशे ने इस संस्था को राजनीतिक कारणों से प्रोत्साहित किया। बंगाल भारत की राजध नी थी। जमींदार ठाकुर परिवार के अधिकांश सदस्य स्वतन्त्रता आन्दोलन के बाहर थे, उनमें से कई ब्रह्म-समाजी तथा समाज-सुधारक थे और अंग्रेजों से मित्रता रखते थे। 

पिछली सामन्ती व्यवस्था के कारण समाज में ठाकुर परिवार का बहुत आदर था अतः अंग्रेजों ने उसके माध्यम से अपने ही प्रचार का प्रयत्न किया। 1910 में इंग्लैंड में इण्डिया सोसाइटी बनायी गयी जिसमें रोथेन्स्टीन, हैवेल, लेडी हेरिंघम, भावनगरी तथा कुमार स्वामी आदि थे। 

इन्होंने ठाकुर कलाकारों की लन्दन तथा पेरिस प्रदर्शनियों का आयोजन 1914 में किया। 1912 में गीतांजलि का अंग्रेजी अनुवाद हुआ और 1913 में रवीन्द्रनाथ ठाकुर को उस पर नोबल पुरस्कार भी दिलवा दिया गया। 1915 में रवीन्द्र नाथ ठाकुर को ‘नाइटहुड’ की पदवीं भी दी गयी। 

ठाकुर परिवार में केवल अवनीन्द्रनाथ ही पश्चिमी कला-शैली के सक्रिय विरोधी थे जिन्होंने ठाकुर शैली का सूत्रापात किया था अतः 1917 के पश्चात् ठाकुर स्कूल को सारे देश के कला-विद्यार्थियों के निर्देशन का अधिकार भी (बम्बई को छोड़कर) दे दिया गया। विनायक पुरोहित का विचार है कि इस प्रकार अंग्रेजों ने जमींदार ठाकुर परिवार को लाभ पहुँचाया।’

अवनीन्द्रनाथ ठाकुर तथा उनके दल द्वारा विकसित कला-शैली में भारत की स्वतन्त्रता का कोई उद्घोष, क्रान्ति के कोई बीज या विप्लवकारी विषय आदि नहीं।

थे एक स्वप्निल शैली में स्वप्न के समान ही अतीत अथवा कोमल विषयों का अंकन इसमें प्रमुख रूप से हुआ था। देश में चल रहे आजादी के आन्दोलन का कोई भी प्रतिबिम्ब इस कला में नहीं था। फिर भी बंगाल शैली ने पश्चिमी अनुकरण का विरोध किया था। 

इस आन्दोलन की सबसे बड़ी देन यह थी कि इसने सारे देश की कलात्मक गतिविधियों में नई चेतना भर दी थी। अवनी बाबू के शिष्य सारे देश में फैल गये और कला का प्रचार करने लगे। यह एक दिलचस्प बात है कि रवीन्द्रनाथ ठाकुर पश्चिमी शैली के विरोधी नहीं थे। 

इस प्रकार गाँधी जी की स्वदेशी की विचार धारा से उनके विचारों में अन्तर था। वे गाँधी जी के असहयोग आन्दोलन से भी सहमत नहीं थे। इसी के साथ यह भी एक दिलचस्प बात है कि जिसे हम आज भारतीय आधुनिक चित्रकला कहते हैं उस पर पश्चिमी कला का जबर्दस्त प्रभाव है और साथ ही भारत की परम्परात कलाओं के तत्वों को बंगाल शैली की तुलना में आधुनिक भारतीय कला ने ज्यादा अच्छी तरह समझा है। 

भारत की आधुनिक कला की महत्वपूर्ण उपलब्धियाँ बंगाल में न होकर बम्बई, बड़ौदा तथा दिल्ली आदि में ही हुई हैं।

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