गुप्त कालीन कला

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गुप्त कालीन कला

गुप्तकाल (300 ई0-600 ई०)

मौर्य सम्राट ने मगध को राज्य का केन्द्र बनाकर भारतीय इतिहास में जो गौरव प्रदान किया, गुप्तों ने उस परम्परा का पुनरूत्थान किया। इतिहास के क्षेत्र में गुप्तकाल, ‘स्वर्ण काल’ माना जाता है क्योंकि इस समय धर्म, साहित्य, उद्योग, संस्कृति, राजनीति आदि सभी क्षेत्रों में अभूतपूर्व उन्नति हुई थी गुप्तों के मूल के सम्बन्ध में कुछ अधिक उनकारी इतिहासकारों को उपलब्ध नहीं हैं। 

कुछ उन्हें वैश्य और कुछ कक्कड़ जाति का जाट बताते हैं। किन्तु कुछ विद्वान इन्हें क्षत्रिय मानते हैं। जो अधिक उचित जान पड़ता है। गुप्तों का साम्राज्य सुविस्तृत एवं विशाल था तथा नेपाल, श्रीलंका, मलय प्रायद्वीपों से भी उनके अच्छे सम्बन्ध थे।

गुप्त साम्राज्य के प्रतिष्ठाता का नाम महाराज श्री गुप्त था (275-300 ई०)। श्री गुप्त के पश्चात उनका घटोत्कच गुप्त सिंहासनारूढ़ (300-319 ई०) हुआ और उनकी मृत्यु के पश्चात चन्द्रगुप्त प्रथम। इन्होंने गुप्त साम्राज्य की कीर्ति को विभिन्न दिशाओं में प्रकीर्ण कर भारतीय इतिहास एवं संस्कृति को गौरान्वित किया। 

इसके चात् गुप्त वंश परम्परा में बहुत से महाराज गद्दी पर बैठे और संस्कृति, इतिहास, कला, साहित्य आदि की विविध घराओं को अविरल गति से प्रवाहित करते रहें।

भारतीय विश्वासानुसार कला की पराकाष्ठा आनन्द की सृष्टि और अभिव्यन्जना में निहित रही है। कलाकार एवं शिल्पकार का उद्देश्य बाह्य जगत के यथार्थ सादृश्य को अंकित करने के स्थान पर अन्तर्जगत तथा अन्तःकरण के भावों को साकार करना है। जिससे दृष्टा के हृदय में वही भाव-लहरिया प्रकम्पित हो सकें। 

इसी प्रकार का भाव प्रकम्पन-एक गूढ़ अर्थ गुप्तकाल की प्रत्येक कलाकृति में संयोजित है। इन कलाकारों ने छैनी से वर्तिनी का कार्य कर पाषाण को एक भाषा दी है अमूर्त अभिव्यन्जना को मूर्त रूप दिया।

गुप्त सम्राटों का संस्कृत भाषा के प्रति विशेष लगाव था इसीलिये उन्होंने इसे राष्ट्रभाषा के रूप में प्रतिष्ठित किया। इसकी शिक्षा का सुप्रबन्ध करते हुये मठों में विद्वान् नियुक्त किये गये नये शिक्षा केन्द्र खोले गये जैसे नालन्दा महाविहार जिसे एशिया में संस्कृत के अध्ययन का सर्वोच्च शिक्षा केन्द्र माना जाता था प्रमाण समुच्चय, सांख्य मूत्र योगसूत्र, वृहज्जातक, कामसूत्र, मनुस्मृति, स्कन्द पुराण आदि उच्चग्रन्थों की रचना भी इसी काल में हुई। 

गुप्त राजाओं ने सोने के सिक्कों पर संस्कृत भाषा के लेख भी गुदवाये। यहाँ तक कि बौद्धों में भी संस्कृत के लिये अनुराग उत्पन्न किया। ईसा की प्रथम शताब्दी में महायान का जब उदय हुआ था, उस समय वौद्ध और ब्राह्मण धर्म एक दूसरे के निकट आ गये थे। 

महायान में उस कठोर परम्परा का सर्वप्रथम परित्याग किया गया जिसमें संसार त्याग. कर सन्यासी एवं भिक्षुक मठों अथवा जंगलों में चले जाते थे। ब्राहमण धर्म ने बौद्ध धर्म के सेवा भाव को अपना लिया और बौद्ध धर्म के समस्त उच्चादर्श ब्राह्मण धर्म में समन्वित हो गये।

गुप्त काल में कला निर्माण

गुप्त काल में साहित्य के निर्माण के साथ-साथ कला की विभिन्न शैलियों का सृजन हुआ। साहित्य के उन्नत ध्येय कला में समन्वित होकर अद्भुत सुन्दरता तथा ओजस्विता के साथ रेखाओं और रंगों में साकार होने लगे। 

सैन्दर्य की अभिव्यक्ति पाषाण जैसे कठोर माध्यम के द्वारा करना गुप्त काल के शिल्पकारों कलाकारों के लिये ऐसा च जैसे तेज छुरी से मोम तराशना। इनकी कला में भावुकता है, आध्यात्मिकता है, गाभीर्य है, लावण्य है तथा साथ ही साथ तकनीक की सिद्धहस्तता भी है। 

भारत में प्रचलित सभी धर्म के अनुयायियों को गुप्त शासकों ने आश्रय एवं प्रोत्साहन दिया। उन्होंने जैन आश्रयों, बौद्ध मठो एवं ब्राह्मण मन्दिरों को शिक्षा पीठ के रूप में परिवर्तित कर दिया। तीनों धर्मों के उन्नयन के लिये उन्हें राष्ट्रीय तथा धार्मिक सुविधाएँ प्रदान की। 

इसी के फलस्वरूप कलाकार रचना में जुट गये और धार्मिक एवं पौराणिक कथाओं पर आधारित देवी-देवताओं, गन्धर्वो, नागों, अप्सराओं आदि की कलाकृतियाँ बनाकर इन चित्रों तथा मूर्तियों को ऐसा रूप दिया कि सभी धर्मों के अनुयायियों के लिये वह आकर्षण उत्पन्न कर सके। 

शिव, राम, कृष्ण, विष्णु और बुद्ध को असहज महामानवता को मूर्त रूप में परिमित करके उसका मानवीकरण कर दिया गया ताकि वह लोक सहज बन सके। गुप्त कालीन मूर्तियाँ प्रायः छरहरे शरीर वाली हैं; स्थूलकाय नहीं। अंग भंगिमा में विशेष प्रकार की लोच एवं लय है। चेहरे मोटे न होकर अण्डाकार हैं। 

वस्त्राभूषणों का मात्र उतना ही प्रयोग है जो प्रतिमा की सौन्दर्य वृद्धि में सहायक हो। सर्वाधिक प्रमुख विशेषता जो इस काल की मूर्तियों में दिखायी देती है। वह है भावों का विशिष्ट अंकन जो कलाकृतियों को आध्यात्मिकता के ऐसे लोक में ले जाता हैं जहाँ रस की निर्मल धारा के दर्शन सहज ही हो जाते हैं।

मथुरा कला

ने गढ़ा गुप्त काल में मथुरा कला की बहुत उन्नति हुई। बुद्ध की बहुत सी प्रतिमाओं को इस समय शिल्पकारों जिनमें प्रमाणिक अनुपात के साथ चेहरे के भावों को भी प्रस्तुत करने में उन्होंने अपनी महानता सिद्ध कर दी। विशेष रूप से कोमलता, गम्भीरता, मन्दस्मित, आध्यात्मिकता आदि भावों को प्रस्तुत करने में उनका हस्तकौशल और प्रतिभा महान है। 

जैन तीर्थकरों की उत्कृष्ट प्रतिमायें भी मथुरा से मिलती हैं। यहाँ के मूर्तिकारों ने बुद्ध को खड़ी मुद्रा की मूर्तियाँ लाल पत्थर से बनायी हैं। इन मूर्तियों की व्यक्तिगत विशेषतायें हैं। प्रत्येक मूर्ति को इतने स्वभाविक तौर से तराशा गया है कि वह केवल प्रभावोत्पादक ही नहीं है वरन् सजीव होकर बोलती सी भी प्रतीत होती हैं। 

पत्थर के अतिरिक्त मृण्मयी मूर्तियाँ भी यहाँ प्रचुर मात्रा में मिलती हैं, जिनकी रचना में सुरूचि तथा सौन्दर्य के औदात्य का विशेष ध्यान रखा गया है। इन मूर्तियों में तत्कालीन जीवन की लोक झाँकी दिखाई देती है। 

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मथुरा की एक बुद्ध प्रतिमा गहन अनुभूतियों को अन्तस् तल में समेटे हुये लोक मानव की संयम, शान्ति और आत्मनिरीक्षण का संदेश दे रही हैं। इस प्रतिमा में दया एवं करूणा का वह भाव दर्शक सहज ही अनुभव करता है जो मानव-मानव के प्रति अनुभव करता है। 

इस प्रतिमा के दोनों हाथ खण्डित हैं किन्तु निर्माण की दृष्टि से इसकी विशिष्टताएँ अद्भुत हैं। शचीरानी के शब्दों में, “एक ओर इसमें जीवन की स्फूर्ति है तो दूसरी ओर अध्यात्म की अन्तर्दृष्टि का आलोक भी इसकी मनोरम विशेषता है। पत्थर में जैसे एक चैतन्य शक्ति स्पन्दित सी नजर आती है।” बोधिसत्व अवलोकितेश्वर ध्यान मुद्रा में है किन्तु साथ ही मानवता के दुख से कातर हैं। भाव भी उनके चेहरे पर अप्रत्यक्ष दिखायी देते हैं। इसी प्रकार की मुद्रा साँची, सारनाथ, आदि की गुप्तकालीन मूर्तियों में भी दिखायी देती हैं। गैरोला के शब्दों में, “भारत और विदेशों में जिन गुप्तयुगीन मूर्तियों की विशेष ख्याति हुई वे सौन्दर्य, प्रेम और अनुराग की देवियाँ आज भी अपने निर्माताओं के कौशल की अनुपमता को सुरक्षित बनाए हुई हैं।”

सारनाथ

सारनाथ महात्मा बुद्ध की धर्म भूमि है। कुछ बौद्ध अभिलेखों के अनुसार इस स्थान का नाम सधर्म चक्र प्रवर्तन विहार था। यहाँ बुद्ध ने सर्वप्रथम धर्मोपदेश दिया था। कुछ ऐसे अभिलेख प्राप्त हुए हैं जिनमें इस स्थान का विवरण धर्म चक्र प्रवर्तन विहार के रूप में किया है। 

अशोक के समय से ही यह स्थान पवित्र स्थल के रूप से जाना जाता था। इन्होंने यहाँ अनेक स्मारक बनवाए। मृगवन के अवशेषों में 143 फीट ऊँचा ईंटों से बना एक के स्तूप था जिसके नीचे के भाग में पत्थर का प्रयोग था अवशेषों से यह भी ज्ञात होता है कि यहाँ स्तृप के अतिरिक्त मन्दिर भी बने हुये थे। 

पाँचवीं तथा सातवीं शताब्दी में चौनी यात्री ह्वेन साँग तथा फाहियान ने इस स्थान का भ्रमण कर इसके सम्बन्ध में बहुत कुछ लिखा हेनसाँग के द्वारा यह जानकारी भी मिली कि यहाँ पर सुन्दर मूर्तियों तथा •मन्दिरों का निर्माण हुआ।

सारनाथ में मूर्तियों और मन्दिरों के निर्माण की एक निरन्तर परम्परा रही किन्तु राजाओं के आक्रमणों के में कारण यहाँ की कलाकृतियों को कष्ट भी सहन करने पड़े। यहाँ तक की उत्थान काल में यहाँ जो सुन्दर भवन बनाए गये वह काल के हाथों कवलित हो गये। 

पुरातत्व विभाग की खुदाई पर सारनाथ से जो अवशेष मिले हैं वो काफी विस्तृत स्थान पर दिखायी देते हैं। सारनाथ पहुँचने पर सर्वप्रथम ईंटों का एक ऊँचा टीला दृष्टि को बाँधता है। इस टीले के ऊपर एक शिखर बना है जिसकी आठ भुजायें हैं। यह टोला एक स्तूप का खण्डहर है जहाँ बुद्ध अपने साथियों से मिले थे। 

स्थानीय भाषा में इसका नाम चौखण्डी था। सारनाथ के अवशेषों में एक महत्वपूर्ण स्तूप धामेरत था जो विध्वस्त होने के पहले 143 फीट का था। इसके अतिरिक्त यह भी पता चलता है कि यहाँ के अवशेषों में एक जैन मन्दिर भी था।

सारनाथ से ही लोकेश्वर शिव का एक बहुत ही सुन्दर कलात्मक मस्तक भी मिला है जिसके चेहरे के भाव गढ़ने में कलाकार ने सिद्धहस्त कौशल का परिचय दिया है। यह भावपूर्ण प्रतिमा काशी संग्रहालय में सुरक्षित है। 

इनके जटाजूट का बन्ध चीन और जापान की शैली के समान है। इसी के साथ ही कार्तिकेय की एक मूर्ति भी अपनी विशिष्ट शैली से सभी को मन्त्र मुग्ध करती है जो भारत कला भवन काशी में संरक्षित थी। वीर रस का सुन्दर एवं स्वाभाविक परिपाक इस प्रतिमा में दिखायी देता है। 

गोवर्धन धारी कृष्ण की एक मूर्ति काशी के एक टीले से पायी गयी है। जिसे सारनाथ के संग्रहालय में रखा गया है जिसमें कृष्ण का बहुत ही ओजपूर्ण अंकन है। गोवर्धन पर्वत को उठाये हुये कृष्ण दृढ़ता पूर्वक खड़े हैं। यहाँ से प्राप्त धर्म चक्र प्रवर्तन मुद्रा में बैठी हुई बुद्ध की मूर्ति इसी काल की बुद्ध प्रतिमाओं में सर्वाधिक विशिष्ट मानी जाती है। 

बुद्ध के मुख पर शान्त-चित्तता का जो भाव शिल्पकार ने प्रस्तुत किया है वह निःसन्देह आध्यात्मिक है। भगवान बुद्ध पालधी लगाये बैठे हैं। दोनों हाथों की अंगुलियों से वह उन आठ तत्वों को गिनवा रहे हैं जो बौद्ध धर्म के मुख्य आधार माने जाते हैं। 

बुद्ध की मूर्ति प्रशाल है तथा उसके नीचे छोटी-छोटी मूर्तियाँ भक्त जनों की हैं जो उनके उपदेश को सुन रहे हैं। बुद्ध के सिर के पीछे आला है जिसकी सजावट बहुत ही सुन्दर एवं कलात्मक है। फूलों की आकृतियों और बेल को मूर्तिकार ने बहुत ही सुन्दरतापूर्वक उभारा है। 

एक और प्रसिद्ध मूर्ति बोधिसत्व की बहुत ही सजीव है। मूर्ति का दायाँ हाथ खण्डित है और बायाँ हाथ पेट पर स्थित है जिसको चादर से ढ़का गया है। चादर की फहरान तथा सिलवटों को संगतराश ने लहरों के माध्यम से दर्शाया है। 

यह मूर्ति खड़ी हुई मुद्रा में बनायी गयी हैं गुप्तकाल की समस्त विशेषताएँ इस मूर्ति में मुखरित हो उठी हैं। एक अन्य बहुत ही प्रसिद्ध लोकनाथ की है जिसको तराशने में प्रमाण के उचित सिद्धान्तों का पूर्णतः पालन किया गया है।

मन्दिर स्थापत्य कला

मन्दिर का सम्बन्ध ईश्वर से है जहाँ मानव सुख एवं शान्ति की तलाश में जाता है। केवल हिन्दू धर्म में ही नहीं वरन् जैन एवं बौद्ध मन्दिरों के निर्माण की एक अटूट परम्परा प्राचीन भारत में दिखाई देती है जिसका कारण था मूर्ति पूजा की भावना ईश्वर के मूर्तरूपों की पूजा के लिये जो पवित्र भवन बनवाए गये उन्हें मन्दिर कहा गया। 

वैदिक युग में यज्ञ के लिये वेदिका बनायी जाती थी। जिसे चारों ओर से चटाई से ढ़का जाता था जिसे गर्भ गृह की संज्ञा दी गयी। इसी गर्भगृह के विकास ने सम्भवतः मन्दिर स्थापत्य को प्रेरणा दी। )

ऐसे बहुत से अभिलेख मिले हैं जिनमें प्रसादों एवं मन्दिरों का उल्लेख मिलता है। सर्वतात के ब्राह्मी अभिलेख में संकर्षण और वासुदेव के मन्दिर का उल्लेख मिलता है। जिसे नारायण वाटिका कहा गया। 

इस समय मन्दिर पाषाण से बनते थे। इन्हें देव गृह के नाम से सम्बोधित किया गया। इस प्रकार अनगिनत मन्दिरों, दैवालयों, देवगृहों अथवा गुहा मन्दिरों का विवरण अभिलेखों अथवा साहित्य रचनाओं से मिलता है।

गुप्त काल में बहुत पहले से देवी-देवताओं की प्रतिमा पूजा का आरम्भ हो चुका था। देवताओं के मानव रूप की अभिव्यक्ति के लिये प्रतिमाओं का निर्माण तो हुआ ही साथ ही इन देवताओं की प्रतिष्ठा एवं पूजा हेतु देवालयों का निर्माण भी किया गया। 

गुप्तकालीन ये देवालय अपनी सादगी, सन्तुलन और अलंकरण को प्रतिष्ठित करते हुये भारत के लिये विशिष्ट गौरव भी हैं। ये देवालय वर्गाकार हैं तथा इनकी छतें भी चपटी हैं। कहीं-कहीं पर गोलाकार शिखर वाले मन्दिरों के उदाहरण भी मिलते हैं। मन्दिरों के सामने द्वार मण्डप है। 

इन गुप्तयुगीन मन्दिरों की शिलाओं को काटकर बनाया गया है। ईंटों का बहुत कम प्रयोग किया गया है। इन गुप्त युगीन हिन्दु मन्दिर वास्तु पर बौद्ध स्थापत्य परम्परा का प्रभाव भी कुछ विद्वानों ने स्वीकार किया है। किन्तु फिर भी वास्तु के क्षेत्र में इन ब्राहमण मन्दिरों में कला का उन्नत रूप ही दिखायी देता है दुर्भाग्यवश समय के थपेड़ों तथा आक्रमणों को सहते हुये आज ये अपना सौन्दर्य खो बैठे हैं। 

इन मन्दिरों में कुछ ही मन्दिर शेष हैं जैसे झाँसी का देवगढ़ मन्दिर, भीतरगाँव (कानपुर के पास) का मन्दिर, भूमरा के शिव का मन्दिर आदि। शिल्पकला तथा अलंकरण के सुन्दर नमूनों से यह मन्दिर सुशोभित हैं। छत पटी हैं जिनके स्तम्भों पर यथेष्ट अलंकरण हैं तथा आकृतियाँ बनी हुई हैं। 

इन मन्दिरों में की गयी नक्शासी का स्तर उत्तम है तथा उनमें किसी प्रकार का दोष भी दिखायी नहीं देता। मन्दिरों के भीतर गर्भगृह है जिनमें मूर्तियाँ पायी गयी हैं। मन्दिर में बरामदे भी बनवाये गये हैं।

खजुराहो

उड़ीसा के पश्चात् हिन्दू मन्दिर स्थापत्य की तथा कथित् ‘इण्डो आर्यन’ अथवा नागर शैली का प्रसिद्ध केन्द्र मध्य प्रदेश माना गया है और मध्य प्रदेश में भी स्थापत्य शिल्प की दृष्टि से खजुराहो सर्वाधिक महत्वपूर्ण है। 

खजुराहो निनोराताल नामक झील के किनारे स्थित एक गाँव हैं जो एक भव्य नगर है। इसके भग्नावशेषों से इस नगर की गौरवगाथा स्पष्ट पढ़ी जा सकती है। 

खजुराहो के चारों ओर विस्तृत इस प्रदेश का नाम प्राचीन काल में वत्स ओर मध्ययुग में जेजाकभुक्ति रहा। (चौदहवीं शताब्दी में इस क्षेत्र को बुन्देलखण्ड के नाम से भी जाना जाने लगा।) इस प्रदेश में एक शक्तिशाली राजवंश के रूप में चन्देलों का उदय हुआ और खजुराहो को उन्होंने अपनी प्रथम राजधानी बनाया। 

इनके संरक्षण में जेजाकभुक्ति में सांस्कृतिक आन्दोलन हुए और सम्पन्नता प्राप्त हुई। साथ ही भव्य स्मारकों कलाकृतियों की रचना भी हुई। बहुत समय तक यह परम्परा निरन्तर चलती रही किन्तु विद्याधर की मृत्यु के पश्चात् मसलमानों के भीषण आक्रमणों के फलस्वरूप चन्देलों की शक्ति का पतन हो गया जिसका परिणाम यह हुआ कि खजुराहों का महत्व कम हो गया।

खजुराहो मन्दिर मध्य प्रदेश के जिला छतरपुर में स्थित है जिसका निर्माण 9वीं से 12वीं शताब्दी के मध्य हुआ जिसमें नागर शैली का उज्जवल स्वरूप दिखायी देता है।

खजुराहो के नाम के सम्बन्ध में विभिन्न मत रहें। कहा जाता है कि यहाँ के प्रासाद के दोनों पाश्र्व में खजूर के वृक्ष थे। सम्भवतः इसी के आधार पर इसका नाम खजुराहो रखा गया। खजुराहो के अनेक मन्दिरों के निर्माण का श्रेय धंग (यशोवर्मन् का पुत्र) को जाता है। चन्देल नरेश शैवमत के अनुयायी थे किन्तु किसी अन्य धर्म के विरोधी नहीं थे। 

अतः वैष्णव तथा जैन धर्म से सम्बन्धित मन्दिर भी खजुराहों में निर्मित हुये थे। यहाँ कुल 30 मन्दिर हैं। शैवमत का कंदरिया मन्दिर, वैष्णव मत का चतुर्भुज और जैन धर्म का पार्श्वनाथ का मन्दिर विशेष प्रसिद्ध हैं। इसके अतिरिक्त वामन तथा आदि नाथ के मन्दिर खजुराहों की प्राथमिक अवस्था के द्योतक हैं। 

किन्तु विश्वनाथ के मन्दिर तथा चतुर्भुज मन्दिरों की बनावट समान हैं। विश्वनाथ मन्दिर 87 x 46 वर्ग फुट में तथा चतुर्भुज मन्दिर 85 x 44 वर्ग फुट में विस्तृत है। खजुराहों के प्रारम्भिक मन्दिरों में चौंसठ योगिनी, ब्रह्मा, मांतगेश्वर, वराह मन्दिर प्रमुख हैं। उत्तर कालीन मन्दिरों में पार्श्वनाथ, विश्वनाथ, कन्दरिया, महादेव, आदिनाथ आदि मन्दिर उल्लेखनीय हैं। 

चौंसठ योगिनी, ब्रह्मा (विष्णु को समर्पित), लालगुआं मन्दिर (शिव को समर्पित) ग्रेनाइट स्टोन से बना है। जबकि अन्य मन्दिर “सेण्डस्टोन’ से बने हैं। इसके अतिरिक्त इन मन्दिरों में स्थापत्य ओर तक्षण कला का समुचित सामञ्जस्य दिखायी देता है जो इन्हें उच्चता के शिखर तक पहुँचाता है। 

विद्वानों के अनुसार खजुराहों के तक्षण शिल्पी कोणार्क के समान तान्त्रिक साधना और संस्कृति से प्रभावित प्रतीत होते हैं। इस संन्दर्भ का प्रसिद्ध मन्दिर चौसठ योगिनी मन्दिर है। यह मन्दिर ऊँचे चबूतरे पर बना वर्गाकार है। इसमें 67 छोटे-छोटे ब्रह्मा मन्दिर हैं। खजुराहो का सबसे प्रमुख और विशिष्ट मन्दिर कंदरिया महादेव का है। 

यह नाम कंदर्पण) (शिव) का विकृत रूप है। इसी सन्दर्भ में कन्दरिया महादेव मन्दिर की रचना हुई। इस मन्दिर की लम्बाई 102 फीट तथा चौड़ाई 66 फीट है। गर्भ गृह के प्रवेश द्वार पर लता पुष्पों के मध्य ध्यानावस्थित तपस्वियों के चित्र सुशोभित हैं। पार्श्व स्तम्भों पर गंगा-यमुना अपने वाहन मकर और कच्छप के साथ विराजमान है। 

जिस प्रकार अजन्ता में प्रत्येक स्थान को आकृतियों तथा अलंकरणों से कलात्मक बना दिया गया है, उसी प्रकार इस मन्दिर का प्रत्येक इंच स्थान भी आकृतियों से सुसज्जित हैं। छतें, स्तम्भ, भित्ति आदि सभी पूणरूपेण अलंकृत हैं। ये अलंकरण उच्चकोटि की शिल्प कला की रचनाएँ हैं। 

मन्दिर के बाह्य भाग में देवी-देवता, नायक-नायिका तथा देवदूतों के चित्र रचित हैं। इस मन्दिर में लगभग 900 रूपचित्र उत्कीर्ण हैं। अन्य मन्दिरों के समान यह मन्दिर भी एक ऊँचे प्रस्तर पर बना है जहाँ सीढ़ियों के सहारे जाते हैं। 

खजुराहो के चतुर्भुज विष्णु और जैन तीर्थांकर आदिनाथ के मन्दिरों की शैली भी लिंगराज मन्दिर के समान है। खजुराहो का ही बालुकाश्म से बना एक मन्दिर मातंगेश्वर मन्दिर है। इसमें विशेष प्रकार के वातायन बने हैं। यह खजुराहो को विकसित शैली का स्वरूप प्रस्तुत करने में सहायक है। अन्य मन्दिरों में वामन मन्दिर, जावरी मन्दिर आदि प्रमुख हैं।

(3) कदर्य कामदेव को कहते हैं और कामदेव का विनाश करने के कारण महादेव कंदपों कहलाए।

प्रकार हम देखते हैं। खजुराहो मन्दिर भारतीय परम्परा चरम विकास द्योतक यहाँ अपार मूर्ति सम्पदा की विशेषता सर्वथा विरोधी विचारों को प्रदर्शित है। एक ओर तो आध्यात्मिकता और ओर लौकिकता सूक्ष्म दृष्टि हैं। 

एक ओर ब्रह्मा, गणेश, शिव आदि का चित्रण दूसरी ओर मिथुनों, अप्सराओं नायक-नायिकाओं उत्कट वासनारंजित आकृतियों दर्शन होते हैं। खजुराहो कला शैली विशिष्ट के कारण भारतीय कलाजगत एक महत्वपूर्ण स्थान है।

वास्तु एवं मूर्तिकला एक अद्भुत यहाँ दिखायी है जिसमें तथा जैन देवी-देवताओं, अप्सराओं पशुओं सामाजिक जीवन के विभिन्न विषयों रमणीय मूर्तिशिल्प प्रत्यक्ष दर्शनीय इन मूर्ति शिल्प सूक्ष्म अध्ययन इनमें भावनात्मक सौन्दर्य दर्शन हैं वहीं दूसरी ओर तकनीकी में प्रतिभा-विज्ञान विकास पर भी महत्वपूर्ण प्रकाश है जिसके में कलाकार मौलिक कल्पना शक्ति भी परिचय खजुराहो स्थापत्य दृष्टि से इस शैली निम्नलिखित गुण विद्यमान हैं। भागों में बँटे होते (अ) गर्भ गृह (ब) मण्डप (स) अर्धमण्डप गर्भगृह चारों ओर प्रदक्षिणा होता था।

4.गर्भगृह अर्धमण्डप ऊँचा होता गर्भगृह समीप गलियारा होता था।

5. प्रत्येक मन्दिर कोई भाग बहुत ऊँचा नहीं है।

6. प्रत्येक मन्दिर का निर्माण कठोर प्रस्तर सीढ़ीदार चबूतरे होता

7. अर्न्तभागों की बाह्य दीवारों गवाक्ष हैं। प्रत्येक भाग ऊपर मीनार हैं।

9. गर्भगृह मीनार चारों तरफ शिखरनुमा आकार श्रृंग हैं।

10.मन्दिरों पूर्व दिशा प्रवेशद्वार हैं।

11. मन्दिरों की अन्तस्थ दीवार प्रचुर मात्रा खुदी है।

12. मन्दिर निर्माण गुलाबी या मटियाले के प्रस्तर का प्रयोग किया गया है।

13. मन्दिरों मण्डप वर्ग में विस्तृत है।

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