शैलोज मुखर्जी

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शैलोज मुखर्जी

शैलोज मुखर्जी का जन्म 2 नवम्बर 1907 दन को कलकत्ता में हुआ था। उनकी कला चेतना बचपन से ही मुखर हो उठी थी और बर्दवान के नदी किनारे के सुन्दर प्राकृतिक वातावरण-वृक्षों, वायु तथा पक्षियों के कलरव ने उन पर आरम्भ से ही प्रभाव डाला था। यही उनकी चित्रकारी की मूल प्ररेणा गया । 

उनमें बचपन में बहुत उत्साह था जिसके कारण उन्होंने स्काउटिंग की ट्रेनिंग ली थी। 1928 में प्रवेश लेकर गवर्नमेण्ट स्कूल ऑफ आर्ट कलकत्ता में कला की शिक्षा लेने के पश्चात् कुछ वर्षों तक इम्पीरियल टोबेको क० में कला-निर्देशक के पद पर कार्य किया। 

उन्होंने यूरोपीय कला के महान् आचार्यों की कृतियों का गम्भीर अध्ययन किया। उन्हें बंगाल शैली का वाश तकनीक पसन्द नहीं था। उसमें इन्हें घुटन महसूस होती थी और इसमें सृजनात्मक प्रक्रिया के लिए कोई स्वतंत्रता नहीं थी। शैलोज अपनी पसन्द का स्वतंत्र मार्ग बनाना चाहते थे। 

उन्होंने लोक कला के समान सहज आकृतियों का प्रयोग आरम्भ किया तथा काँगड़ा कला की लयात्मक रंग-योजनाओं को अपनाया। 1930 ई० के लगभग से उन्होंने चित्रों का प्रदर्शन आरम्भ किया । 

1937 में उन्होंने कलकत्ता में अपनी पहली एकल प्रदर्शनी आयोजित की और द्वितीय विश्व युद्ध के वर्षों में कलकत्ता की अनेक प्रदर्शनियों में भाग लिया। 1937-38 में फ्रांस, इटली, इग्लैण्ड तथा हालेण्ड की यात्रा की और हालैण्ड की स्काउट जम्बूरी में भाग लिया। 

वे मिस्र, तिब्बत तथा सिक्किम भी गये। 1939 में बॉय स्काउट हेडक्वार्टर्स कलकत्ता तथा 1941 व 1943 में चौरंगी टैरेस में भी प्रदर्शनियों कीं। 1940-44 के मध्य निश्चित एवं सीमित रंग-योजनाओं, ताजा और मुखर चित्रण-पद्धति तथा तरंगायित तकनीक में भारतीय जन-जीवन का उन्होंने उपयुक्त दृष्टिकोण से अंकन किया। 

इन चित्रों की बहुत प्रशंसा हुई और उन्हें अनेक पुरस्कार भी प्राप्त हुए 1945 में वे दिल्ली चले आये और नई दिल्ली के टाउनहाल में एकल प्रदर्शनी की। उन्होंने दिल्ली की कई सामूहिक प्रदर्शनियों में भाग लिया और पुरस्कार प्राप्त किये। 1950 में नई दिल्ली में उनकी सिंहावलोकन प्रदर्शनी आयोजित हुई। 1951 की पेरिस प्रदर्शनी में उनकी दो कृतियों ‘सेलों द माइ’ में सम्मिलित की गयीं । 1960 तक यह चलता रहा।

शैलोज भारतीयता को खोये बिना आधुनिक भारतीय चित्रकार बनना चाहते थे। उन्हें पेरिस में सेजान तथा वान गॉग, एम्सटर्डम में रेम्ब्रॉ, बेनिस में टिण्टोरेटटो हार्लेम में फ्रान्ज हाल्स की कलाकृतियों के अतिरिक्त अनेक संग्रहालयों तथा प्रदर्शनियों को देखने का अवसर मिला और कई महान जीवित कलाकारों से भेंट की। 

मातिस तथा मोदिल्यानी से वे सबसे अधिक प्रभावित हुए। इस यात्रा से उनमें नया विकार हुआ। भारतीय अथवा पश्चिमी किसी भी बाद से सम्बन्धित हुए बिना उन्होंने अपन मार्ग विकसित किया । 

पेरिस से शक्ति, सेजान से सादगीपूर्ण भव्यता, मातिस से सपाट धरातल की अवधारणा, आकृतियों का लम्बापन, रेखा तथा रंग की व्यंजकता, रंगों के बलों का ठीक-ठीक वितरण, रंगों की ताजगी का रहस्य तथा भारतीय लघुचित्रों और अजन्ता के दृश्य तत्वों को लेकर उन्होंने अपनी शैली में आत्मसात् किया। 

बंगाल की लोक कला से भावों को व्यंजित एवं आकृतियों को विकृत करने की युक्ति और काँगड़ा तथा राजस्थानी कला से लयात्मक परिष्कार, एवं मनःस्थितियों तथा आवेगों को व्यंजित करने की विधि सीखी। रंगों की गूँज तथा ताजगी के लिए वे प्रभाववादी कला से भी प्रेरित हुए प्रतीत होते हैं। इन सबके समाहार से उन्होंने पूर्णतः मौलिक शैली विकसित की।

शैलोज ने दिसम्बर 1944 में दिल्ली के शारदा उकील स्कूल ऑफ आर्ट में कला शिक्षक के पद पर कार्य करना आरम्भ किया इसके साथ-साथ देश के अनेक भागों में वे प्रदर्शनियाँ आयोजित करते रहे। उन्हें अनेक उत्तम पुरस्कार मिले । 

एक बार लन्दन तथा दो बार पेरिस में प्रदर्शनियों के द्वारा वहाँ उन्हें बहुत प्रसिद्धि मिली । पेरिस में यूनेस्को के तत्वावधान में आधुनिक कला की अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनी में 1947 में उनके चित्र भी प्रदर्शित किये गये थे। भारत की तुलना में शैलोज को विदेशों में अधिक ख्याति मिली । 

अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर मान्य पेरिस की सेलों द माइ के 1952 में वे सदस्य बना लिए गये। वहाँ उन्हें अपनी कला-कृतियाँ प्रदर्शित करने का सुअवसर मिला जहाँ विश्व विख्यात कलाकारों पिकासो, रूओल्त, लेजे आदि की कृतियाँ प्रदर्शित हुई हैं । 

इसके अतिरिक्त अन्तर्राष्ट्रीय कला आलोचकों ने उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की है। उनकी प्रशंसात्मक आलोचनाएं एवं चित्र बोजार (पेरिस), एशियाटिका (रोम) आर्टस एण्ड लैटर्स (लन्दन), द स्टुडियो (लन्दन) द वर्ल्डरिव्यू (लन्दन ) तथा ईस्ट एण्ड वेस्ट में प्रकाशित हुए। लगभग इसी समय उन्होंने दिल्ली पालीटेक्नीक के कला विभाग में नौकरी कर ली थी। 

1958 की राष्ट्रीय कला प्रदर्शन में वे निर्णायक समिति के सदस्य भी रहे। वे बोहीमियन स्वभाव के एक सच्चे कलाकार थे। दिल्ली पॉलीटेक्नीक मैं सब उन्हें बड़े भाई की तरह सम्मानित करते थे । उनमें मदिरा का व्यसन था तथा अकेले रहने के कारण उनका जीवन भी सुव्यवस्थित नहीं था। 

जया अप्पासामी ने उन्हें सुधारने का प्रयत्न भी किया था। यहीं पर कार्य करते हुए 5 अक्टूबर, 1960 में केवल 53 वर्ष की आयु में कुछ बीमार रहने के पश्चात् उनका निधन हो गया । 

मृत्यु के पश्चात् उनकी कलाकृतियों की तीन प्रदर्शनियाँ आयोजित की गयीं – 

(1) 2 नवम्बर 1960 को दिल्ली पॉलीटेक्नीक के ललित कला विभाग में, 

(2) सन् 1961 सेन्टर कलकत्ता में ललित कला अकादमी नई दिल्ली ने उनके तथा उनके विद्यार्थियों म एकेडेमी आफ फाइन आर्टस कलकत्ता में.

(3) सन् 1962 में कोनिका आर्ट के काम की एक प्रदर्शनी नवम्बर 1986 में भी आयोजित की थी।

शैलोज मुखर्जी ने आधुनिक भारतीय कला में निश्चित रूप से अपना योग दिया है। उनकी शैली अत्यनत प्राणवान् है। बिना परम्परागत रूपों की अनुकृति किये उसकी आत्मा भारतीय है। उसके विषय परम्परागत, शास्त्रीय अश्ववा साहित्यिक नहीं है। प्रतिपल स्पन्दन करते हुए दैनिक जीवन को ही उन्होंने चित्रित किया है। 

अपनी रोजमर्रा की जिन्दगी जीते हुए लम्बे नर-नारी, प्रकृति के बदलते हुए रूप और पशु-पक्षी-सभी उन्होनें अंकित किये हैं। खुली धूप और सरसराती हवा का भारतीय वातावरण उनके चित्रों में अनुभव किया जा सकता है। मातिस से प्रेरित होते हुए भी उनकी नारी आकृतियाँ पूर्णतः भारतीय हैं। 

मार्ग के श्रमिक, क्रीड़ा करते पशु, भीड़-भाड़ अथवा संगीतज्ञ आदि भी भारतीय वातावरण से जुड़े हुए चित्रित किये गये हैं। उन्हें शास्त्रीय विषयों से परहेज नहीं है और इन्हें भी वे मौलिक विधि से चित्रित कर सकते हैं जैसे कि पेरिस में अंकित चुम्बन शीर्षक चित्र खजुराहो- कोणार्क का आधुनिक सफल संस्करण है। 

उन्होंने स्थिर जीवन तथा व्यक्तिचित्रों का भी अंकन किया है। विश्राम आदि के दृश्यों का संयोजन राजपूत पद्धति पर है किन्तु शैली पूर्णतः मौलिक है। उनका “बीर” शीर्षक चित्र कांगड़ा शैली तथा लोक कला की भावना के समन्वय का सुन्दर उदाहरण है। उनके सभी चित्र स्पष्ट और समझ में आने वाले हैं। उनमें व्यंग्य, हर्ष अथवा रोमान्स की भावना भी है।

शैलोज ने तैल रंगों का व्यंजक एवं लयात्मक रेखा के साथ अद्भुत सामंजस्य किया है। आकृतियों की गढ़नशीलता यद्यपि अप्राकृतिक है तथापि मनः स्थितियों, उत्तेजनाओं, आन्तरिक उत्साह एवं गतिपूर्ण क्रिया-कलापों की व्यंजक है। कला को महान बनाने वाली सभी विशेषताएँ उसमें मौजूद है।

कुछ आलोचकों ने उन्हें पेरिस की उत्पत्ति बताया है पर यह उन पर मिथ्या आरोप है। संसार का कोई भी महान कलाकार ऐसा नहीं है जिसने कहीं-न-कहीं से कोई प्रेरणा न ली हो। अपने निर्माण-काल में प्रत्येक कलाकार प्रेरणा लेता है।

शैलोज केवल प्रबल इच्छा होने पर ही चित्र बनाते थे। उनके मन में एक आवेग, एक उत्तेजना-सी होती थी और वे तुरन्त चित्रांकन करने लगते थे। आवेग न होने पर बहुत दिनों तक वे चित्र बनाते ही न थे और आन्तरिक प्रेरणा तथा उत्तेजना होने पर कभी-कभी केवल एक घंटे में ही चित्र पूर्ण कर देते थे।

यह कहा जाता है कि शैलोज ने कोई परम्परा स्थापित नहीं की है और उनका कोई अनुयायी नहीं है। सच तो यह है कि उनके समान चित्रण कोई कर नहीं पाया है। जिन्होंने प्रयत्न किया वे असफल रहे। इसी से शैलोज की अद्वितीयता सिद्ध होती है। धन के लालच ने भी उन्हें कभी काम करने को प्रेरित नहीं किया। शैलोज के मेधावी शिष्यों में रामकुमार प्रमुख हैं।

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