पाल शैली | पाल चित्रकला शैली क्या है?

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पाल शैली

चीनी यात्री फाह्यान (Fa-hian) ने 5वीं शताब्दी के प्रारम्भिक वर्षों में भारत की यात्रा की और बंगाल के तमरालीपट (Taturalipta) स्थान पर कुछ ताड़पत्रीय चित्रों का विवरण दिया परन्तु कोई बहुत अधिक ठोस प्रमाण इस सम्बन्ध में उपस्थित नहीं हो सके।

इस समय अजन्ता भित्ति चित्रण परम्परा अपने चरमोत्कर्ष पर थी। यदा कदा भारत में कहीं कलाकृतियों की रचना हुई तो वह विशेष रूप से अजन्ता से हो प्रभावित थी। इसी संदर्भ में पूर्वी में भारत के पाल राजाओं के आश्रय में पनपी पाल शैली एक विशिष्ट महत्व रखती है।

पाल चित्रकला शैली क्या है?

लगभग 400 वर्षो तक पाल शासकों ने बंगाल तथा बिहार में अपना आधिपत्य स्थापित रखा। पाल शासन के समय पश्चिमी बंगाल को गौंड (Gauda) तथा पूर्वी बंगाल को बंगा (Vanga) कहा जाता था।

पाल शासक अत्यन्त महत्वाकाक्षी तथा कला एवं साहित्य सुरूचि सम्पन्न थे। इस संदर्भ में वाचस्पति गैरोला का वक्तव्य महत्वपूर्ण हैं- “तिब्बतीय इतिहासकार लामा तारानाथ ने लिखा है कि 7वीं शताब्दी में पश्चिम भारत में जिस चित्रशैली का निर्माण हुआ था, उससे भिन्न 9वीं शताब्दी में पूर्वी भारत में एक नवीन चित्रशैली का उदय हुआ। पूर्वीय चित्रकला का केन्द्र बंगाल था।

धर्मपाल एवं देवपाल नामक पाल राजाओं के संरक्षण में अजन्ता के अनुकरण पर जिस स्वस्थ शैली का बंगाल में निर्माण हुआ उसका प्रमुख चित्रकार धीमान तथा उसका पुत्र वितपाल था। इस शैली का विकास तिब्बत तक हुआ।

नेपाल की चित्रकला में पहले तो पश्चिम भारत की शैली का प्रभाव बना रहा और बाद में उसका स्थान इस नव-निर्मित पूर्वीय शैली ने ले लिया नवम् शताब्दी में जिस नयी शैली का आविर्भाव हुआ था उसके प्रायः सभी चित्रों का सम्बन्ध पाल वंशीय राजाओं से था। अतः इसको पाल शैली के नाम से अभिहित करना अधिक उपयुक्त समझा गया।”

पाल शैली की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि

माल्दा जिले के खण्डहर बाद में गौद (Ganda) नाम से जाने गए। यहाँ पर पाल साम्राज्य का उदय हुआ था। बंगाल के एक पूर्ववर्ती शासक की विधवा ने उन समस्त वीरों को जहर देकर मार डाला जो राजा बनना चाहते थे।

परन्तु गोपाल नाम के एक वीर को वह जहर नहीं दे सकी यही वोर पाल साम्राज्य का ‘फाउन्डर’ कहा गया। उसी के वंशज धर्मपाल (770 ई०-810 ई०) हुए।

जिन्होंने 8वीं, 9वीं शताब्दी में वहाँ शासन किया। साथ ही उन्होंने राष्ट्रकूट राजकुमारी से विवाह किया और कन्नौज को भी जीत लिया। धर्मपाल एक कुशल शासक होने के साथ-साथ दयावान भी थे।

वह बुद्धमत के अनुयायी थे और उन्होंने हो प्रसिद्ध मठ (Monastary) विक्रमशिला की नींव रखी।

इसके अतिरिक्त पाल राजा दयावान भी थे। वह बुद्धमत के अनुयायी थे और उन्होंने ही प्रसिद्ध मठ (Monastary) विक्रमशिला की नींव रखी। उनकी विशिष्टताओं के कारण उन्हें उस समय का ‘कल्पतरू’ (wishing tree of Hindu lore) माना जाता था।

धर्मपाल के पश्चात् देवपाल (815 ई०-855 ई०) ने शासन किया वह भी धर्मपाल सदृश बलशाली और यशस्वी थे। साथ ही उनकी रूचि साहित्य तथा वास्तु निर्माण में भी थी।

इन्होंने ही बोध गया में महाबोधि मन्दिर का निर्माण कराया। देवपाल तथा धर्मपाल के शासन काल में उत्तरी बंगाल में धीमान नाम का एक कुशल कलाकार कार्य करता था। उसके पुत्र का नाम वितपाल था। दोनों ही इस समय के पाल शैली के विशिष्ट कलाकार थे।

उन्होंने चित्ररचना के अतिरिक्त मैटल से मूर्तिरचना का कार्य भी कुशलतापूर्वक किया। इन कलाकारों ने बहुत से शिष्यों को भी कला रचना में पारंगत किया।

धीमान के अनुकरणकर्ता कलाकारों को पूर्वी स्कूल (Eastern School) तथा वितपालों के अनुकरण कर्ता कलाकारों को मध्य देश स्कूल के नाम से जाना गया।)

इसके पश्चात 9वीं शताब्दी के अन्त में प्रतिहार साम्राज्य के महेन्द्रपाल ने इस क्षेत्र में काफी सहयोग दिया। इसी दौरान महीपाल (922 ई०-1040 ई०) का शासन राजनैतिक एवं सामाजिक दृष्टिकोण से अपनी अमिट छाप छोड़ जाता है।

महीपाल के प्रपौत्र समपाल (1084 ई-1126) ने आसाम और उड़ीसा को जीत लिया परन्तु दुर्भाग्य वश नदी में डूबकर उनकी मृत्यु हो गयी। इनके समय में भी कुछ कलागत गतिविधियों दिखायी देती हैं।

शिव, कार्तिकेय और गणेश की मूर्तियों तथा रूद्र के मन्दिरों का भी विवरण मिलता है।

रामचरित के लेखक सांध्यकार नन्दी ने इन्हीं के राज्य शासन सम्बन्धी काव्यों को भी प्रस्तुत किया। पाल साम्राज्य के अन्तिम शासक रामपाल के तृतीय पुत्र मदन पाल माने जाते थे।

12वीं शताब्दी के प्रारम्भ में पाल साम्राज्य को सेनाज (Senas) का संरक्षण मिला परन्तु सेनाज का व्यवहार बौद्ध अनुयायियों के लिए अनुकूल नहीं था।

अत: कुछ कलाकार बंगाल को छोड़ कर नेपाल तथा तिब्बत की ओर चले गए। कुछ कलाकारों ने मालाभूमि के क्षेत्रों में भी संरक्षण प्राप्त किया।

चैतन्य प्रभु के शुभागमन ने इस समय जनता में भक्ति एवं लय की भावना उत्पन्न की विद्वानों का विचार है कि 16वीं शताब्दी में अकबर के राजपूत मन्त्री राजा मानसिंह कई वर्षों तक बंगाल के गवर्नर रहे।

अत: ऐसी भी सम्भावना मानी जाती है कि इस समय के पाल शैली के चित्रों पर राजस्थानी कला का प्रभाव भी अवश्य पड़ा होगा।

आशुतोष संग्रहालय में सुरक्षित चित्र इस प्रकार के कई उदाहरण प्रस्तुत करते हैं। मिदनापुर (Midnapur) से एक वुडन पट पर शिव के घर की ओर लौटने का एक दृश्य है जिसमें पार्वती उनकी मण्डप में प्रतीक्षा कर रही हैं। ऐसा माना गया है कि मालवा के अमरू शतक के चित्रों से इसकी प्रेरणा ली गयी थी।

इस समय के चित्रों की विशेषताएँ रूढ़ियों से पूर्णतः मुक्त हो चुकी थी और चित्रगत तत्वों के प्रस्तुतीकरण में कलाकारों की कार्य कुशलता लक्षित होने लगी थी।

यह सर्वविदित है कि इस समय तक विषयों में विविधता दिखायी देने लगती है जिसका साक्षात् प्रमाण नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली में सुरक्षित 1800 ई० के चित्र कृष्ण एवं गोपियों से मिल जाता है विषय राजपूत तथा पहाड़ी शैली सदृश हैं परन्तु शैली से यह चित्र पाल शैली की विशिष्टताओं को प्रत्यक्ष करता है।

इसके अतिरिक्त पंचकोणीय मुकुट धारण किया हुआ है। अर्धनिमिलित नेत्र तथा भाव मुद्रा अजन्ता की याद दिलाते हैं। अजन्ता के हो प्रभाव को दशति हुए 10वीं 11 वीं शताब्दी का एक वुडन कवर नेशनल म्यूजियम, नई दिल्ली में सुरक्षित है। इस पर वैसन्तर जातक से सम्बन्धित चित्र वर्णनात्मक शैलों में है।

एक स्थान पर चार दृश्य दर्शाए गए हैं। एक में ब्राह्मण को सफेद हाथी का दान दिया जा रहा है। दूसरे दृश्य में बैसन्तर अपनी पत्नी, पुत्र एवं पुत्री के साथ वनवास को जा रहे हैं तीसरे दृश्य में ब्राह्मण द्वारा रथ के घोड़ों का माँगना और चौथे दृश्य में लाल हरिणों द्वारा रथ को खींचा जाना दर्शाया गया है।

प्रथम दृश्य में हाथी का अंकन बहुत लयात्मक है जो कि अजन्ता की परम्परा की याद दिलाता है। मध्य में बैसन्तर की आकृति भगिमा आभूषणों से सुसज्जित है। शारीरिक अंग-प्रत्यंग तथा मुद्राओं की रचना में भी अजन्ता की ही प्रेरणा है। दाँयी ओर स्थित ब्राह्मण की आकृति अजन्ता की जुजुक ब्राह्मण की आकृति से मेल खाती है।

एक दृश्य को दूसरे दृश्य से पृथक करने के लिए किसी स्तम्भ, ईटो की दीवार आदि की लम्बवत् रेखा का प्रयोग किया गया है। रंगों का सौंदर्य प्रत्यक्ष लक्षित होता है जिसमें विषय की आवश्यकतानुसार यथा सम्भव अग्रभूमि तथा पृष्ठभूमि की तानों का प्रयोग कर कलाकार ने वर्ण नियोजन को सिद्धहस्तता की कसौटी पर स्वयं को खरा पाया है।

कहीं कहीं छाया को रंग की गहरी तान के साथ दर्शाया गया है। काले रंग के लिए लिखाई वाली काली स्याही का प्रयोग हुआ है। रेखाओं में भले ही अजन्ता जैसा लोच नहीं परन्तु कठोरता भी नहीं है। आकारों में पर्याप्त दृढ़ता है। इसके अतिरिक्त अष्टसहस्रिका तथा पंचरक्षा पाण्डुलिपियाँ भी इस संदर्भ में महत्वपूर्ण हैं।

बंगाल के साथ-साथ नेपाल में भी पाल शैली के चित्रों की रचना हुई किन्तु मुख्य रूप से यहाँ भी भारतीय संस्कृति का ही प्रभुत्व रहा। यहाँ जनता में जो विश्वास विकसित हुआ उसमें भारतीय तथा बौद्ध तन्त्र मुख्य था।

12वीं शताब्दी की नेपाल दरबार लाइब्रेरी में एक पाण्डुलिपि मिलती है. पिंगला माता जो तन्त्र से ही सम्बन्धित है वुडन कवर पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश, गणेश और कार्तिकेय के भावमय चित्र पाल शैली की विशिष्टताओं सहित रचित हैं।

यहाँ से 14वीं शताब्दी की एक और रचना मिलती है नित्यानिकतिलाकाम (Nityahnikatilakum) । वुडन कवर पर गरूड़ की सवारी करते विष्णु, कमल पर लक्ष्मी और वीणा के साथ सरस्वती का चित्रण है।

पाल शैली की विशेषताएँ

  1. पाल शैली के चित्रों में तल विभाजन की कोई विशेष प्रक्रिया को नहीं अपनाया गया परन्तु प्रभाविता के सिद्धान्त को अपनाते हुए प्रमुख आकृति को केन्द्र में अथवा बड़े आकार में बनाया गया है।
  2. पाल शैली के चित्रों में भित्ति चित्रों (मुख्य रूप से अजन्ता) की विशेषताएँ संक्षेप रूप में उभर आयी हैं। मुख्य रूप से वास्तु, पृष्ठभूमि, शिल्प, आभूषण आदि में अजन्ता का प्रभाव है।
  3. वनस्पति का सीमित प्रयोग है कहीं-कहीं कदली या नारियल का वृक्ष दृष्टिगोचर होता है।
  4. महायान सम्प्रदाय सम्बन्धी चित्र हैं जो पोथियों तथा पटरों पर मिलते हैं।
  5. नीला, लाल, पीला, प्राथमिक रंगतों के अतिरिक्त श्वेत वर्ण का सुन्दर प्रयोग इन चित्रों में दिखायी देता है। सिंदूर, महावर तथा हिंगूल से लाल रंग, नील से नीला रंग तथा पीली मिट्टी से पीला रंग कलाकारों द्वारा स्वयं तैयार किए गए। इन प्राथमिक रंगतों को मिलाकर भी कलाकारों ने अन्य रंग तैयार किए बाहय रेखा के लिए स्थानीय रंग को गहरा करके तथा काले रंग का प्रयोग किया गया है।
  6. अधिकतर सवाचश्म चेहरे हैं जिसमें नाक परले गाल से बाहर चित्रित है। सम्मुख चेहरे में आँख तथा नाक चेहरे को बाह्य रेखा के भीतर ही हैं। अर्धनिमीलित नेत्र, मुद्राएँ, माँसलता तथा भाव-भंगिमाओं में अजन्ता का प्रभाव है।
  7. आकृतियों की भीड़-भाड़ का अभाव है। प्राय: 2 या तीन आकृतियों वाले सरल संयोजन हैं
  8. विषय आलेख के मध्य में महायान देवी-देवताओं तथा बुद्ध सम्बन्धी आयताकार या वर्गाकार चित्र है।
  9. पाल शैली में अधिकतर दृष्टान्त चित्र हैं जिन पर नागरी लिपि में सुन्दर आलेख मिलता है इसमें अक्षरों को बनावट का सौन्दर्य अनुपम हैं। कहीं-कहीं काली पृष्ठभूमि पर सफेद रंग से लिखाई की गयी है। रेखाकन बहुत सुन्दर है।
  10. चित्रों का आधार ताड़पत्र) अथवा वुडन कवर है (इन वुडन कवर पर बने चित्रों की सुरक्षा हेतु पीछे की लाख लगायी जाती थी) कुछ पट चित्र भी मिलते हैं।
  11. नेपाल के पाल चित्रों की मुखाकृति में मंगोलपन है।

FAQ

पाल शैली के अंतर्गत चित्रित होने वाला ग्रंथ कौन सा है?

पाल शैली के अन्तर्गत चित्रित होने वाला प्रमुख ग्रन्थ प्रज्ञापारमिता है,पाल शैली की अधिकांश पोथियाँ एशियाटिक सोसाईटी ऑफ़ बंगाल में सुरक्षित हैं।

पाल शैली के कलाकार कौन थे?

पाल शैली के प्रमुख चित्रकार धीमान, वितपाल, नीलमणि दास , बाल दास , गोपालदास थे।

पाल चित्रकला शैली पर किसका प्रभाव रहा था ?

पाल शैली की विषयवस्तु पर बौद्ध धर्म का प्रभाव रहा है।

पाल चित्रकला किस प्रदेश की है?

यह एक प्रमुख भारतीय चित्रकला शैली हैं। 9 वीं से 12 वीं शताब्दी तक बंगाल में पालवंश के शासकों धर्मपाल और देवपाल के शासक काल में विशेष रूप से विकसित होने वाली चित्रकला पाल शैली थी।

पाल शैली के प्रमुख विषय क्या हैं?

पाल शैली के प्रमुख विषय बौद्ध व जैन कथाएं थी।

1 thought on “पाल शैली | पाल चित्रकला शैली क्या है?”

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