लक्ष्मण पै का जन्म (1926 ) गोवा के एक सारस्वत ब्राह्मण परिवार में हुआ था। गोवा की हरित भूमि और आनन्द प्रिय लोगों का उनके आरम्भिक जीवन पर बहुत प्रभाव पड़ा और वही उनकी प्रेरणा-स्थली रही है।
उसे वे बार-बार अनेक रूपों में और अनेक विधियों से चित्रित करते रहे हैं। आरम्भ में अपने मामा के फोटो स्टूडियो में लेब बॉय थे। तभी कला में उनकी रुचि जाग्रत हुई।
1943 से 1947 के मध्य सर जे० जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में उन्होंने शिक्षा प्राप्त की। उसके पश्चात् उन्होंने भारतीय लघु-चित्रण की शैली में कार्य आरम्भ किया और उसके आधार पर उन्होंने सरल तकनीक तथा वाश शैली में गोवा के सीधे-सादे धार्मिक ग्रामीण जीवन को चित्रित किया।
उन पर उस समय उनके बम्बई के शिक्षकों अहिवासी, शंकर पलसीकर तथा भोंसले का प्रभाव था।
मोहन सामन्त तथा वासुदेव गायतोंडे उनके समकालीन थे लघु चित्रों से पे ने संवेदनशील रेखा आलंकारिक तत्व लिये संयोजन, पार्श्वगत स्पष्ट आकृतियों जो वक्र रेखाओं द्वारा गढ़ी गयी है. वृक्षों तथा वस्त्रों के अलंकृत विवरण- ये सभी तत्व पै की इस समय की कृतियों में देखे जा सकते हैं। इस समय के उनके सर्वोत्तम चित्र 1950 की प्रदर्शनी में दिखाये गये।
कुछ दिन सर जे०जे० स्कूल में अध्यापन करने के उपरान्त पे सब कुछ छोड़ कर यूरोप चले गये। 1951 से 1962 तक वे लन्दन तथा यूरोप के अनेक बड़े नगरों में घूमे, पर उन पर विदेशी प्रभाव बहुत कम, लगभग नहीं के बराबर ही पड़ा।
चित्रों का संयोजन तो कुछ आधुनिक हुआ पर रेखा, सपाट रंग तथा अलंकरण प्रवृत्ति बनी रही।
कुछ ज्यामितीकरण की प्रवृत्ति भी आ गयी परन्तु विषय गोवा से सम्बन्धित रहे। कुछ टैक्सचर सम्बन्धी प्रयोग भी किये वे प्रायः जल-रंगों में ही कार्य करते थे किन्तु पेरिस में उन्होंने तेल माध्यम को गम्भीरता से लिया और इस नये माध्यम में दृश्य चित्र, अपनी माँ तथा जवाहरलाल नेहरू के व्यक्ति चित्र बनाये।
इन चित्रों में रंगों के विविधि बलों का सुन्दर प्रयोग हुआ है। इनमें उन्होंने प्रकाश तथा अँधेरे भागों के रंगों को धब्बों के रूप में प्रथम बार लगाया जो आगे चलकर उनकी शैली की विशेषता बन गयी।
1977 में पै की नियुक्ति गोवा के स्कूल आफ आर्ट में प्रिंसिपल के पद पर हो गयी।
पेने अनेक विषयों से सम्बन्धित चित्र-श्रृंखलाओं की रचना की है। इन्हें ये प्रोजेक्ट कहते हैं। 1955-57 में गीत गोविन्द, 1958 में रामायण तथा महात्मा गान्धी, 1959- 61 में बुद्ध जीवन, 1960 में ऋतु संहार, 1964 में पर्वतीय दृश्य अंकित किये।
बुद्ध जीवन के चित्र अम्लांकन में हैं तथा गीत गोविन्द तैल माध्यम में है।
पैने अपने आरम्भिक चित्रों में आकृतियों की वेश-भूषा का बहुत ध्यान रखा था पर बाद में यह कम होता चला गया। अलंकरण भी कम हो गये।
नारी की आकृति के विविध अंगों को ये फलों, फूलों आदि के रूपों के द्वारा अंकित करने लगे, किन्तु इनमें परम्परागत प्रतीकता नहीं अपनायी गयी है।
1964 में उन्होंने जिन पर्वतीय दृश्यों का अंकन किया उनमें मानवाकृतियाँ नहीं हैं, केवल प्राकृतिक आकृतियों की बनावट को महत्व दिया गया है।
1964 के आस-पास वे बहुत अलंकारवादी और व्यंजना में विशेष शैली के प्रयोगकर्ता हो गये थे।
ऐसा लगने लगा कि वे टेक्सटाइल डिजाइनों के स्तर तक उतर आये हैं। 1967 से पै संगीत के रागों पर चित्र बनाने लगे जिनमें रागों से उत्पन्न मनः स्थितियों का अमूर्त शैली में चित्रण किया गया है।
दो वर्ष बाद उन्होंने नृत्यों के चित्र बनाये जिनमें मुद्रा, अंगों तथा शरीर की बदलती हुई गतिपूर्ण स्थितियों को पकड़ने का प्रयत्न किया गया। इसमें उन्होंने रेखा के स्थान पर रंगों तथा तूलिका का प्रयोग किया।
एक दशक के उपरान्त उन्होंने तेल माध्यम में रामायण का पुनः चित्रांकन किया, किन्तु इन चित्रों में पहले जैसा आकर्षण नहीं है; यद्यपि रंगों का शक्तिशाली एवं ओजपूर्ण प्रयोग तथा तीव्र विकृति भी है।
1981-82 में प ने राजस्थान की संस्कृति, रहन-सहन तथा सामाजिक परिवेश का अंकन किया। इन चित्रों में राजस्थान के रंगीन वस्त्रों के कारण तेज रंगों का प्रयोग हुआ है और द्विआयामी प्रभाव सुरक्षित रखा गया है।
पै अपनी रंग योजनाओं में रोमाण्टिक हैं किन्तु शास्त्रीयता के प्रति उनका कोई आग्रह नहीं है तथा रंगों के अमूर्त प्रभाव पर बल है। उनके चित्रों में आनन्दित करने वाली सुन्दरता है साथही लय, गति, आन्तरिक तनाव और अचेतन की विकृतियाँ भी हैं।
उन्होंने वान गाग से लेकर पाल क्ली तक के शिल्प को सफलतापूर्वक आत्मसात् किया है। वे रेखाओं द्वारा विभिन्न आयामों का प्रभाव देने में समर्थ हैं।
रागों से सम्बन्धित उनके चित्र विशेष चर्चा के विषय रहे हैं। इनका प्रस्तुतीकरण पूरी तरह अमूर्त है और गीले तैल रंगों के धब्बों पर कंघी से खुरच कर बनाये गये कम्पन के विभिन्न प्रभाव उत्पन्न किए गए हैं।
कुछ ध्वनि-शास्त्रियों ने ध्वनियों का सम्बन्ध रंगों से बताया है। पै की कृतियों में उन्हीं का विकास देखा जा सकता है।
पै के चित्रों की प्रदर्शनियों, न्यूयार्क, लन्दन, म्यूनिख, दिल्ली, बम्बई, कलकत्ता तथा पेरिस आदि अनेक नगरों में आयोजित हो चुकी है और उन्हें अनेक पुरस्कार मिले हैं।
1961 में उन्हें ललित कला अकादमी नई दिल्ली के राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया था।
लक्ष्मण पै ने कला का आरम्भ उस समय किया था जब भारत में यूरोपीय प्रभाव जोरों पर था ।
पै की कला विदेशी प्रभाव से बहुत कुछ मुक्त रहकर भारतीय ढंग से विकसित हुई किन्तु यह विकास महत्वपूर्ण होते हुए भी वे आधुनिक भारतीय चित्रकला के क्षेत्र में महत्वपूर्ण कलाकार नहीं बन पाये।
उनके विकास की कोई एक निश्चित दिशा भी नहीं रही है। वे बदलती हुई मान्यताओं और तकनीकों के युग से गुजरे हैं। उन्होंने बिना किसी पूर्वाग्रह के जिसे उपयोगी समझा है उसे ग्रहण किया है।
लक्ष्मण पै के “मानव आकृतियाँ (तेल, 1972) शीर्षक चित्र में पुरुष तथा नारी ” की मुखाकृतियाँ, हाथ एवं पैर लोक कलाकी पद्धति पर संयोजित किये गये हैं जिनके साथ वास्तु एवं प्रकृति के अभिप्राय भी बीच-बीच में अंकित हैं जैसे नीचे पंचभुजाकृति तथा उसके ऊपर नुकीले महराब युक्त आला तथा नारी शिर के ऊपर मस्तक के मध्य त्रिपुष्प का अलंकरण आदि चित्र का संयोजन किसी अनुष्ठान अथवा तांत्रिक क्रिया के समान प्रतीत होता है।
विकास के अन्तिम चरण का प्रतीक उनका ‘बिम्ब’ शीर्षक चित्र (एक्राइलिक, 1982) एलीफेण्टा की सुप्रसिद्ध त्रिमूर्ति के संयोजनके समान नारी के तीन मुखों का संयोजन है जिसमें दोनों ओर के चेहरों के एक एक नेत्र अपभ्रंश शैली की भाँति मुखाकृति के बाहर अंकित हैं।
मछली जैसे नेत्र शास्त्रीय परम्परा का प्रभाव ध्वनित करते हैं। अलंकृत ग्रीवा, कर्णाभूषण आदि आकृति को सौन्दर्य प्रदान करने के साथ-साथ ऊँचे क्षितिज पर अंकित वृक्षावली को संतुलित करते हैं।
केश राशि को दोनों ओर फैलाकर टीलेदार हरित भूमि का अतियथार्थवादी भ्रमात्मक प्रभाव उत्पन्न किया गया है तथा नारी आकृति का सम्पूर्ण विन्यास प्रकृति के एक अंग के रूप में ही किया गया है।
साथ ही नारी की कल्पना प्रकृति की सृष्टि के पीछे छिपी उत्पादक शक्ति की देवी के रूप में की गयी प्रतीत होती है। इस शैली में उन्होंने अनेक चित्र अंकित किये हैं।