अभिव्यंजनावाद | भारतीय अभिव्यंजनावाद | Indian Expressionism

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यूरोप में बीसवीं शती का एक प्रमुख कला आन्दोलन “अभिव्यंजनावाद” के रूप में 1905-06 के लगभग उदय हुआ । इसका प्रधान प्रयोक्ता जर्मन कलाकार एडवर्ड मुंक था। 

लगभग उसी समय अभिव्यंजनावादी प्रवृत्ति फ्रांस में भी ‘फॉववाद’ के नाम से प्रचलित हुई जिसका प्रमुख कलाकार हेनरी मातिस था। जर्मनी कलाकार विषय-वस्तु पर अधिक बल देते थे जबकि फ्रेंच कलाकार चित्र के सम्पूर्ण रूपात्मक तत्वों को महत्वपूर्ण मानते थे।

मातिस ने कहा था कि अभिव्यंजना मुखाकृति से प्रकट होने वाले भावों अथवा उद्वेगपूर्ण मुद्राओं में न होकर सम्पूर्ण चित्र के व्यंजनापूर्ण संयोजन में होती है। 

जर्मन अभिव्यंजनावादी मनोवैज्ञानिक चरित्र-चित्रण एवं परिवेश के द्वारा अभिव्यंजना करने के पक्षपाती थे। उन्होंने प्रकृति को पूर्णतः व्यक्तिगत ढंग से चित्रित किया और अत्यन्त सहजता तथा तात्कालिकता पर बल दिया। 

विरोधी रंगों, सशक्त प्रभावों से युक्त रेखाओं आदि का उन्होंने प्रकृति की सुसम्बद्ध व्यवस्था, समाज में प्रचलित बुराइयों तथा मानवीयभावों के विस्फोटक स्वभाव- इन तीनों में परस्पर संघर्ष दिखाने के उद्देश्य से पूर्ण उन्मुक्त विधि से प्रयोग किया। 

वे अपनी बात को तीव्रतम रूप में कहना चाहते थे अतः उन्होंने प्रकृति के आदिम रूपों को माध्यम बनाया।

भारत में रवीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा देशवासियों को सभी स्रोतों से प्रेरणा लेने तथा विश्व में अर्जित ज्ञान और अनुभवों द्वारा स्वयं को समृद्ध बनाने का परामर्श देने के फलस्वरूप इण्डियन सोसाइटी आफ ओरियण्टल आर्ट द्वारा सन् 1922 में कलकत्ता में बौहौस कलाकारों की एक चित्र प्रदर्शनी लगायी गयी। 

इसका भारतीय कलाकारों पर व्यापक प्रभाव पड़ा। प्रगतिशील विचारों वाले जो कलाकार ‘केवल स्वदेशी’ अथवा केवल परम्परागत भारतीय’ के विरोधी थे उन्होंने भी इस विदेशी कला-प्रवृत्ति का स्वागत किया।

भारत में फॉव कला की प्रेरणा सर्वाधिक प्रबल रूप में शैलोज मुखर्जी की कृतियों में मिलती है। जब वे पेरिस गये थे तो हेनरी मातिस से मिले थे और उसके प्रभाव से उनक चित्रों में सपाट धरातल, लम्बी आकृतियाँ, व्ययंजनापूर्ण रेखाओं क्या रंगों का ताजगीपूर्ण प्रयोग हुआ। 

अमृता शेरगिल की कला में पर्याप्त अभिव्यंजना है किन्तु उनकी शैली पर अजन्ता का भी प्रभाव है। पश्चिम भारत के अन्य कलाकारों को जर्मन अभिव्यंजनावाद का परिचय बम्बई के माध्यम से मिला। 

बम्बई में कुछ विदेशी अभिव्यंजनावादी कलाकार सक्रिय थे जिनमें श्लेसिंगर, लीडन बन्धु (रुडीवान लीडन तथा लौलीवान लीडन) तथा वाल्टर लॅगहेमर प्रमुख थे। 

श्लेसिंगर कला-संरक्षक के समान आदरणीय समझे जाते थे। उनके द्वारा लिखी गयी कला-सम्बन्धी पुस्तकों ने उस समय यूरोप की अनेक नई बातों से भारत के कला जगत को परिचित कराया था। लीडन टाइम्स आफ इण्डिया में थे और समय-समय पर कला-विषयक लेख भी लिखते रहते थे। 

लगहेमर इलस्ट्रेटेड वीकली में कला-निर्देशक थे और उनके घर कलाकारों का जमघट लगा रहता था। अनेक कलाकरों ने उनसे कला का मर्म सीखा था और उन्हें गुरु मानते थे। इन विदेशी कलाकारों ने भारत में अभिव्यंजनावाद के प्रचार का प्रयत्न किया। 

भारतीय कलाकारों ने अभिव्यंजना की दृष्टि से रंगों के प्रयोग को महत्वपूर्ण माना और तूलिकाघातों द्वारा भी चित्र में एक प्रकार की धरातलीय (Textural) संगति उत्पन्न की जाने लगी इसकी भी अभिव्यंजनात्मक दृष्टि से रचना की जाने लगी। 

चालीस और पचास के दशकों (1941 1960) में यह प्रभाव विशेष रहा। 1940 के लगभग भारत की स्वतंत्रता के संघर्ष को दबाने में अंग्रेजों ने पाशविक शक्ति का नृशंसता से प्रयोग करना आरम्भ कर दिया, बंगाल में भयंकर दुर्भिक्ष पड़ा, देश के विभाजन, साम्प्रदायिक दंगों और कई करोड़ शरणार्थियों के आगमन ने लोगों का हृदय हिला दिया। 

इन सामाजिक, सांस्कृतिक तथा राजनीतिक परिस्थितियों ने कलाकारों को भावों का ज्वार रोकने में असमर्थ कर दिया। प्रतीकवाद और रहस्यवाद के छलावे को छोड़कर तथा सहज मानवीय सहानुभूति से प्रेरित होकर भारत के अनेक कलाकारों ने समाज की समस्याओं और इन नर्थी विकृतियों को सशक्त रूपों में चित्रित किया। 

फुटपाथों पर जीवन बिताने वाले दीन-हीनों, मानवीय पीड़ा और निराशा, राक्षसी क्रूरता, छटपटाहट तथा मानव चरित्र की उद्दाम प्रवृत्तियों आदि को व्यक्त करने वाले कलाकारों में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ( ब्रूडिंग), रामकिंकर (मातृत्व), के० सी० एस० पनिक्कर (पेवमेण्ट ड्वेलर्स), रामकुमार (टाउन), सतीश गुजराल (डेसोलेशन), फ्रांसिस न्यूटन सूजा (बार्सीलोना), अविनाशचन्द्र (जंगल) आदि प्रमुख हैं जिन्होंने गहरे-गहरे रंगों का ही प्रयोग नहीं किया है बल्कि तनावपूर्ण रेखा आदि के द्वारा दबी हुई मन की शक्तियों को भी बन्धन-मुक्त किया है। इन चित्रों में गर्भवती महिलाओं की मार्मिक वेदना और यातना, आधुनिक शहरों के विषाक्त होते हुए वातावरण, गरीबों के अव्यवस्थित जीवन तथा सामाजिक जीवन के घृणित पक्षों आदि को दर्शकों को झकझोर देने वाले रूपों में प्रस्तुत किया गया है। 

चित्रों में रेखा, रंग, धरातलीय प्रभाव आदि की विकृतियों तथा चित्रों के सम्पूर्ण व्यंजनात्मक संयोजन की दृष्टि से नन्दलाल बसु (माँ और शिशु), शैलोज मुखर्जी (वन में श्रृंगार), अकबर पदमसी (नारंगी) अनावृता), नारायण श्रीधर बेन्द्रे (पूरक रंगों में भैस तथा सारस), तथा गुलाम रसूल सन्तोष (लेटी हुई अनावृता) आदि भी सुन्दर उदाहरण हैं। 

विषय-वस्तु की सीमा में रहकर भारतीयता को अक्षुण्ण रखने का प्रयत्न के०के० हैब्बार (महाबलेश्वर, कविता का जन्म, बाजार जाते ग्रामीण एवं मुर्गो की लड़ाई) तथा मकबूल फिदा हुसैन (सूर्योदय एवं विश्वामित्र तथा रामायण और महाभारत चित्र श्रृंखलाएँ) आदि ने किया है। इनकी शैली में भारतीय परम्परागत कलाओं तथा भारतीय साहित्य आदि का प्रभाव स्पष्ट है।

कुछ अन्य भारतीय चित्रकारों ने भारतीय अथवा ईसाई धार्मिक, पौराणिक अथवा साहित्यिक विषयों का चित्रण अभिव्यंजनावादी विधि से अथवा अभिव्यंजनात्मकता के किंचित् प्रभाव के साथ किया है। 

यामिनीराय तथा लक्ष्मण पै में रेखात्मक तथा आलंकारिक अभिव्यंजना है। के० एस० कुलकर्णी, दिनकर कौशिक, भवेश सान्याल तथा गोपाल घोष आदि में अभिव्यंजनावाद तथा शास्त्रीयतावाद के समन्वय की प्रवृत्ति है। 

सतीश गुजराल की कला में मेक्सिकन पद्धति का अभिव्यंजनावाद है जो पीड़ा, भयानकता, वीभत्सता तथा आतंक आदि की ध्वनियों से तरंगित रहता है। 

रामकुमार, कृष्ण खन्ना, ए० रामचन्दन तथा तैयव मेहता आदि की कला में रंगों तथा रेखाओं के सन्तुलित रूप में अभिव्यंजनावाद का प्रयोग हुआ है। 

इन दोनों में रंग प्रतीक के स्तर पर भी सक्रिय हैं। जेराम पटेल में दिवास्वप्न के समान अनुभूति होती है। 

कृष्ण रेड्डी, कँवल कृष्ण, देवयानी कृष्ण, जगमोहन चोपड़ा, मनु पारेा, जतीनदास, स्वामीनाथन तथा गायतोंडे भी सशक्त अभिव्यंजनाओं में समर्थ है। 

मोहन सामन्त ने भी अभिव्यंजनावादी पद्धति में अनेक चित्र बनाये है विवान सुन्दरम, सुधीर पटवर्धन, नलिनी मलानी आदि आज की परिस्थितियों को रंगों तथा मनोवैज्ञानिक स्थितियों द्वारा व्यक्त कर रहे हैं। 

गणेश पाइन ने लोककला तथा बंगला साहित्य से प्रेरणा ली है। गुलाम मुहम्मद शेख सामाजिक यथार्थवाद से जुड़ गये हैं । रामेश्वर बूटा सामाजिक व्यंग्य के लिए हिप्पी संस्कृति आदि के विषय लेते हैं। 

इस प्रकार भारतीय अभिव्यंजनावाद का मुख्य दौर गुजर जाने के बाद भी इसमें अनेक कलाकार प्रभावशाली कार्य कर रहे हैं।

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