अठारहवीं शती में बंगाल में जो तैल चित्रण हुआ उसे “डच बंगाल शैली” कहा जाता है। इससे स्पष्ट है कि यह माध् यम डच कलाकारों से बंगला कलाकारों ने सीखा था। आरम्भ में यह चिनसुरा, चन्द्र नगर तथा कलकत्ता में प्रयुक्त किया गया। इस समय इसकी सामग्री भी विदेशों से मँगाई जाती थी।
अठारहवी शती उत्तरार्द्ध से इस माध्यम में भारतीय विषयों का चित्रण होने लगा। सम्भवतः इसका प्रभाव कालीघाट की पट-चित्रकला पर भी पड़ा। आरम्भ में धार्मिक विषयों के चित्रण को संरक्षकों का प्रोत्साहन मिला।
अंग्रेजों की जीवन-पद्धति की नकल करने वाले भारतीय नरेश तथा अधिकारी अपने घरों को मिलाकर एक शब्द बनायें अथवा रोमाण्टिक शैलियों के चित्रों से सजाते थे। यद्यपि उस समय भारत में कुछ ब्रिटिश चित्रकार भी कार्य कर रहे थे पर बंगला कलाकारों परउनका प्रभाव नहीं पड़ा।
इनकी शैली का प्रधान तत्व भारतीय ही रहा। इन चित्रों का आकार यूरोपीय तैल चित्रों की भाँति बड़ा नहीं है। रंग योजनाओं तथा छाया-प्रकाश आदि में भी यूरोपीय तकनीक का अनुकरण नहीं है। केवल कहीं-कहीं यूरोपीय विधियों का प्रयोग हुआ है जैसे दूरगामी परिप्रेक्ष्य के नियमों का यथार्थवादी ढंग से पालन तथा देवी-देवताओं के चित्रण में मानवीय भावना का पुट ये चित्र तीन प्रकार के विषयों के है:-
- (1) भारतीय देवी-देवताओं के चित्र
- (2) वर्णनात्मक विषयों तथा घटनाओं के चित्र तथा
- (3) व्यक्ति-चित्र एवं जन-जीवन के चित्र
देवी-देवताओं में दुर्गा के चित्र अधिक बने। काली तथा अन्नपूर्णा का भी अंकन हुआ। द्वितीय प्रकार के चित्रों में पौराणिक घटनाओं का अंकन अधिक किया गया।
तीसरे प्रकार में व्यक्ति-चित्रों के अतिरिक्त प्राकृतिक दृश्यों आदि का अंकन हुआ। इन चित्रों का केवल माध्यम ही तैल था, अन्य बातों में ये भारतीय परम्परागत पद्धतियों का प्रयोग करते थे। प्रायः सपाट रंग भरकर बाहय सीमा-रेखा का भी अंकन किया जाता था। केवल मोटा-मोटा छाया-प्रकाश अंकित किया जाता था।
भारतीय पद्धति तथा मान्यताओं के अनुसार ही रंगों, परिधानों एवं पृष्ठभूमि का अंकन किया जाता था। कहना न होगा कि भारत में तैल-चित्रण का आरम्भ इसी विधि से हुआ।
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