इस समय यूरोपीय कला से राजस्थान भी प्रभावित हुआ। 1851 में विलियम कारपेण्टर तथा 1855 में एफ०सी० लेविस ने राजस्थान को प्रभावित किया जिसके कारण छाया-प्रकाश युक्त यथार्थवादी व्यक्ति-चित्रण मेवाड में 1855 ई० से ही आरम्भ हो गया।
डा० सी० एस० वेलेण्टाइन के आचार्यत्व में जयपुर में 1857 ई० से ही महाराजा राम सिंह ने “हुनरी मदरसा स्थापित किया जो कालान्तर में “महाराजा स्कूल आफ आर्ट्स” के नाम से प्रसिद्ध हुआ। कुछ राजस्थानी चित्रकार विदेशों में शिक्षा प्राप्त करने गये जिनमें कुन्दनलाल का नाम प्रमुख है।
इन्होंने 1886 ई० में सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में कला की शिक्षा प्राप्त की फिर 1889 में लन्दन के स्लेड स्कूल आफ आर्ट्स में कला का विशेष अध्ययन करने गये। 1893 से 1896 तक लन्दन में कला शिक्षा ग्रहण करने के बाद वे स्वदेश लौट आये। यहाँ उनका पर्याप्त सम्मान हुआ और उन्हें कई पुरस्कार भी प्राप्त हुए।
कुन्दनलाल ने उदयपुर में राजा रवि वर्मा के साथ-साथ स्वयं भी राजघराने के व्यक्ति-चित्रों का अंकन किया। भारतीय जन-जीवन के चित्र उन्होंने प्रभाववादी शैली में भी चित्रित किये। उनके शिष्यों में रघुनाथ, लहरदास, नारायण, राम नारायण तथा अम्बालाल प्रमुख थे।
सोभागमल गहलौत, नन्दलाल शर्मा, घासीराम तथा खूबीराम आदि ने भी यूरोपीय तकनीक के मिश्रण से अपनी शैलियों का विकास किया। इन कलाकारों में यथार्थवाद अथवा प्रभाववाद की ओर झुकाव तथा मॉडेल बिठाकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति थी।
भारतीय विषयों तथा भारतीय समाज के विभिन्न वर्गों का चित्रण होने के कारण वेश-भूषा तथा वातावरण तो भारतीय है पर भारतीय व्यंजना-पद्धतियों जैसे मुद्रा-विधान, रस विधान आदि का प्रयोग नहीं है; अतः व्यंजना- क्षमता का अभाव है।
तकनीक प्रायः यूरोपीय है और तेल माध्यम में अधिकांश कार्य किया गया है। यह स्थिति बहुत दिनों तक चलती रही किन्तु इसके विरोध में एक नया आन्दोलन आरम्भ हुआ जिसे बंगाल का पुनरुत्थान आन्दोलन कहा जाता है।
यह ऐसे कलाकारों और कला-मर्मज्ञों का दल था जो भारतीय परम्परा को जीवित रखते हुए अजन्ता आदि की शास्त्रीय अथवा मध्यकालीन लघु चित्र शैलियों में विकसित रूप पद्धतियों का प्रयोग करने के पक्ष में था ये कलाकार कोमल घुमावदार रेखाओं और वाश पद्धति के रंगों का ही प्रयोग मुख्यतः करते थे और एक पवित्र धार्मिक कृत्य की भाँति अपने विषय अथवा मनः स्थिति के प्रति पूर्ण आस्था से कार्य करते थे।
ये सभी चित्रकार आकृति-मूलक थे। कुछ कलाकारों ने टेम्परा में भी पर्याप्त कार्य किया जिनमें नन्दलाल बसु का नाम प्रमुख है।