प्रगतिशील कलाकार दल | Progressive Artist Group

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प्रगतिशील कलाकार दल

कलकत्ता की तुलना में बम्बई नया शहर है किन्तु उसका विकास बहुत अधिक और शीघ्रता से हुआ है। 1911 में अंग्रेजों ने भारत की राजधानी कलकत्ता से दिल्ली में स्थान्तरित कर दी थी। 1933-34 में बंगाल में दुर्भिक्ष पड़ा और 1947 में स्वतंत्रता के साथ ही बंगाल का विभाजन करके उसका पूर्वी भाग पाकिस्तान को दे दिया गया।

इसके विपरीत बम्बई का बन्दरगाह के रूप में भी पर्याप्त विकास हुआ और द्वितीय विश्वयुद्ध के समय यहाँ सप्लाई डिपो होने के कारण मित्र राष्ट्रों की सेनाओं का आवागमन रहा जिससे यहाँ के आर्थिक क्रिया-कलापों में पर्याप्त गतिशीलता रही। कनु देसाई तथा अचरेकर जैसे कलाकारों ने फिल्मों में कला-निर्देशन भी किया और कलाओं को चहुँमुखी विकास का अवसर मिला।

बम्बई कला-विद्यालय अंग्रेज शिक्षकों की परिपाटी पर ही चल रहा था बम्बई के जन-जीवन की ही भाँति कलाओं पर भी अन्तर्राष्ट्रीय प्रभाव पड़ा। बम्बई कला विद्यालय केवल वाश तकनीक का ही पक्षपाती नहीं था, वह कलामें सार्वभौमिक प्रवृत्तियों को विकसित करना चाहता था यहीं पर 1948 में प्रगतिशील कलाकार दल की स्थापना हुई।

यद्यपि इस दल ने केवल दो प्रदर्शनियाँ ही मुख्य रूप से आयोजित की और 1952 में इसका विघटन भी हो गया। तथापि आधुनिक भारतीय चित्रकला में यह अपनी अमिट छाप छोड़ गया है। आरा, रजा, सूजा, हुसैन, गाडे, बाकरे, रायबा तथा गायतोंडे आदि के इस दल ने मुख्यतः पश्चिमी कला शैलियों से प्रेरणा ली और तेल माध्यम का प्रयोग किया।

इन्होंने गुजराती लघु चित्रों का आधार लेकर अपनी रूप-योजना विकसित की तथा धीरे-धीरे राष्ट्रीय कला- शैलियों का विकास किया। इनकी कला में मातिस, पिकासो, गॉगिन तथा क्ली आदि पश्चिमी आधुनिक कलाकारों और भारत के कथकलि नृत्य, आदिवासी मुखौटों, लोक प्रचलित खिलौनों, गुजराती (अपभ्रंश) लघु चित्रों, कालीघाट के बाजार में बिकने वाले पट-चित्रों, मंदिरों की मूर्तिकला तथा शास्त्रीय संगीत की प्रेरणा भी है। इस दल के कलाकारों की देश-विदेश में काफी चर्चा हुई है ।

इनमें हुसैन आज भारत के सर्वाधिक प्रसिद्ध तथा अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चित्रकार हैं। सूजा तथा रजा विदेश में रहते हैं और कभी-कभी भारत आते रहते हैं सभी कलाकारों का उद्देश्य प्रायः अभिव्यंजनात्मक है। इन्हें नव गुजराती शैली के चित्रकार भी कहा गया है।

तथा कथित नव-गुजराती स्कूल- इस स्कूल के अन्तर्गत पनपने वाली प्रवृत्ति 1940 से 1960 के मध्य ही अधिक सक्रिय रही। इनमें बम्बई के चित्रकार अधिक थे।

चार्ल्स फाबरी ने इन्हें “नव गुजराती स्कूल” नाम दिया है। 14वीं, 15वीं तथा 16वीं शती के प्राचीन गुजराती पुस्तक-चित्रों की अत्यन्त अलंकृत पैटर्न युक्त शैली पर आधारित होते हुए भी ये उनकी नकल नहीं है।

इनमें बहुत अधिक मौलिकता हैं और इन्होंने नये विचारों को प्रस्तुत करने के लिए ही इस कला-रूप की तात्विक विशेषताओं का उपयोग किया है ।

इनके चित्रों में पुरानी विशेषताएँ कम या अधिक मौजूद हैं किन्तु वे भारतीयता की अनुभूति कराने के लिए एक अकृत्रिम व्यंजना- माध्यम के रूप में पुनः पहचानी गयी हैं।

बड़ी-बड़ी तथा विस्तृत आँखें, कोणीय आकृतियाँ, सीधी बड़ी नासिका जिसका सिरा नुकीला है, बिना छाया-प्रकाश के खनिज रंगों का प्रयोग, धरातलों का वैपरीत्यपूर्ण अंकन, सुन्दर अलंकरण-युक्त कालीनों आदि के समान बिना छाया वाले धरातल, अलंकृत पत्र विन्यास वाले वृक्ष, अलंकृत वस्त्र, परिप्रेक्ष्य रहित दृश्य-संयोजन, आकृतियों को एक तल के ऊपर बने दूसरे तल पर अंकित करते जाना, सबका एक ही स्तर- ये सब विशेषताएँ गुजराती चित्रों में भी हैं।

ये भारतीय स्वभाव के अनुकूल हैं और आधुनिक प्रतीत होती हैं, विशेष रूप से तब जबकि इन्हें सपाटेदार तूलिकाघातों के द्वारा चित्रित किया गया है। हुसैन तथा हैब्बर जैसे बड़े कलाकार भी इनसे प्रभावित हुए हैं।

प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप (PAG) पैग, बम्बई (1948-1952)- जिस समय कला के क्षेत्र में बंगाल शैली के साथ-साथ अमृता शेरगिल, रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा यामिनीराय आदि को भी मान्यता मिलने लगी थी, भारतीय कलाकार आधुनिकता की खोज में यूरोप के अनेक नये कला-आन्दोलनों का ही पिष्टपेषण कर रहे थे। किन्तु भारत की आधुनिक कला का न तो बंगाल शैली से ही उद्धार हो सकता था और न पश्चिम की थोथी अनुकृति से ही बड़े-बड़े नगरों में कला को प्रोत्साहन देने की दृष्टि से जो आर्ट सोसाइटियाँ बन गयी थीं उनमें भी खुले विचारों वाले व्यक्ति बहुत कम थे। ऐसी स्थिति में कलाकारों ने स्वयं ही मिल-जुल कर अपने लिये कार्यक्रम और घोषणा पत्र तैयार किये । इस प्रकार बनने वाले सभी दलों का इतिहास भारतीय स्वतंत्रता के आस-पास आरम्भ होता है।

सन् 1948 में बम्बई में कुछ कलाकारों ने मिलकर एक दल बनाया जिसे “प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप” कहा गया । संक्षिप्त रूप में इसे ‘पैग’ भी कहते हैं। पैग से पूर्व कलकत्ते में 1943 में भी एक दल बनाया। जिसका संकेत दिया जा चुका है। बम्बई में पैग के निर्माण की भी एक रोचक घटना है।

बम्बई के एक कलाकार कृष्ण हावला जी आरा अपना एक विशाल केनवास प्रदर्शन के उद्देश्य से “बम्बई आर्ट सोसाइटी” में लेकर गये। वहाँ उनका चित्र अस्वीकृत कर दिया गया। आरा को इससे बड़ी खिन्नता हुई, वे तुरन्त सूजा के यहाँ पहुँचे। वहाँ उन्हें रज़ा भी मिल गये।

सबने मिलकर एक दल बनाने का निश्चय किया और उसका नाम रखा गया “प्रोग्रेसिव आर्टिस्ट्स ग्रुप” । ग्रुप में अधिक सक्रियता लाने के लिये तीन सदस्य और लिये गये हुसेन, गाडे तथा बाकरे। बम्बई की एक औषधि-निर्माता कम्पनी ने इस दल को संरक्षण दिया।

दल की प्रारम्भिक बैठक गिरगाम में हुई । अपने घोषणा-पत्र में इन्होंने लिखा कि “प्रो का अर्थ आगे (फारवर्ड) से है, जहाँ कि हम जाना चाहते हैं।” इस दल की प्रथम प्रदर्शनी 7 जुलाई 1949 को हुई ।

इस ग्रुप को सौन्दर्य शास्त्रीय स्तर पर कलात्मक ऊँचाई और नयी दिशा देने में सूजा की महत्वपूर्ण भूमिका रही है, अतः सूज़ा को “पैग” का महासचिव मनोनीत किया गया। इन सबके कार्य, ग्रुप की विचारधारा तथा उद्देश्यों के अनुसार केटेलाग तैयार किया गया।

गाडे कोषाध्यक्ष, आरा जन सर्क अधिकारी, रजा कला के संग्रहकर्त्ताओं से तालमेल बिठाने वाले बने। शेलशिंगर के अतिरिक्त आर० वी० लीडन, हर्मन गोएत्ज तथा हार्टवेल आदि विदेशी कला-संग्रह-कर्त्ताओं तथा कला-प्रशंसकों ने भी पैग के विकास को प्रोत्साहित किया।

पैग की प्रथम प्रदर्शनी 7 जुलाई 1949 को “बम्बई आर्ट सोसाइटी” के सेलून में हुई जिसका उद्घाटन मुल्कराज आनन्द ने किया। इस प्रदर्शनी के केटेलाग में सूजा ने कहा था कि आज जिस प्रकार कलाकारों के मध्य की दूरी बहुत अधिक है।

उसी प्रकार आम आदमी और कलाकार के मध्य की खाई भी बहुत बड़ी है और इसे पाटा नहीं जा सकता पैग के हम कलाकार अराजकता की सीमा तक स्वतंत्र होते हुए भी सौन्दर्यशस्त्र के कुछ नियमों, सामंजस्य तथा रंग-सेयाजनों के कुछ शाश्वत सिद्धान्तों से परिचालित हैं।

हम किसी स्कूल या आन्दोलन को पुनः जीवित करने का प्रयत्न नहीं कर रहे हैं। हम विभिन्न शैलियों का अध्ययन कर चुके हैं और एक शक्तिशाली समन्वयात्मक रचना-पद्धति तक पहुँचना चाहते हैं।

पैग की इस प्रदर्शनी का संचार माध्यमों ने बहुत प्रचार किया। कला प्रेमियों तथा दर्शको ने भी इनकी प्रशंसा की और अन्य कलाकारों ने भी सराहना की। कला-समीक्षक आर०पी० लीडन ने लिखा था कि यह प्रदर्शनी संघर्ष, प्रयोगों तथा उसकी पृष्ठभूमि के परीक्षण की विचारणीय उपलब्धियों को प्रस्तुत करती है।

कला-आलोचक श्री जगमोहन ने इसकी पर्याप्त प्रशसा की। उन्होंने लिखा कि “प्रत्येक कलाकार ने स्वयं को एक नयी दिशा में विकसित किया है। आरा जो फूलों और दृश्यों के चितेरे थे, अब वेश्याओं, जुआरियों और निखारियों को चित्रित कर रहे हैं।

प्रभाववादी रजा अब आकर्षक ज्यामितीय और घनवादी प्रयोग कर रहे हैं। सूजा की विकृति का आधार आदिम और क्लासीकल मूर्तियाँ हैं। परिप्रेक्ष्य और संयोजन में गाडे वान गॉग के समान ” सूरत, बड़ौदा, अहमदाबाद आदि में भी इस ग्रुप की प्रदर्शनियों आयोजित की यी बम्बई की एक प्रदर्शनी में सूजा पर अश्लीलता का आरोप लगाया गया और उनके स्टुडियो पर पुलिस ने असफल छापा मारा।

समाचार-पत्रों में भी इस घटना की चर्चा हुई। सूजा इन दिनों विदेश यात्रा की तैयारी में थे। वे चित्रों को बेच कर आर्थिक साधन जुटाकर अपनी पत्नी मारिया के साथ लन्दन चले गये। 1951 से वे विदेशों में ही हैं।

पैग तथा कलकत्ता ग्रुप के कलाकारों की एक सम्मिलित प्रदर्शनी 1950 में बम्बई में भी आयोजित की गई। इसके एक भाग को प्रेस ने कंजरवेटिव तथा दूसरे भाग को नये आन्दोलन के रूप में चर्चित किया। इस प्रदर्शनी के कुछ समय पश्चात् फ्रेंच छात्रवृत्ति मिलने के कारण रज़ा भी अक्टूबर 1950 में पेरिस चले गये और उनके बाद सदानन्द बाकरे भी अपना भाग्य आजमाने लन्दन चले गये।

यहीं से यह ग्रुप बिखरने लगा सूजा, रजा तथा बाकरे के विदेश चले जाने के पश्चात् तैयब मेहता, कृष्ण खन्ना तथा गायतोंडे ने हुसैन, आरा तथा गाडे के साथ दल की गतिविधियों को चालू रखा।

उन दिनों चित्रकारों के चित्रों की प्रदार्शनियाँ टाउन हाल, सर कावसजी जहाँगीर हाल तथा चेतना रेस्तरों में होती थीं। फ्रेम-निर्माताओं की दुकानों पर भी कलाकारों के चित्र प्रदर्शन एवं विक्रय हेतु रखे जाते थे। उन दिनों फ्रेम भी कलाकारों के नाम से प्रसिद्ध ये जैसे हेब्बार स्टाइल, चावड़ा स्टाइल, आलमेलकर स्टाइल आदि प्रोफेसर लेंगहॅमर आस्ट्रेलिया के एक कलाकार थे जो 1937 से भारत में आकर रह रहे थे।

पैग कलाकारों के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध थे अतः उनक’ कहने पर सर कावस जी जहाँगीर ने इन लोगों को प्रदर्शन हेतु एक स्थान दे दिया जहाँ २९ जनवरी १६५२ को महाराष्ट्र के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री बी० जी० खेर ने जहाँगीर आर्ट गैलरी का उद्घाटन किया।

6 सितम्बर 1952 को बम्बई आर्ट सोसाइटी सेलून द्वारा पैग की दूसरी एवं अन्तिम प्रदर्शनी का आयोजन किया गया। इसमें सूजा, रजा, आरा, हुसैन और गाडे के वी०एस० गायतोंडे, कृष्ण खन्ना, एम० छापर और राजोपाध्याय आदि बारह कलाकारों अतिरिक्त कुछ नये कलाकारों भानु स्मार्त, ए० ए० रायबा जी० एम० हज़ारनीस, के चित्र रखे गये।

इस बार कृष्ण खन्ना ने पैग के लिये केटेलाग तैयार किया। हुसैन जो इस समय तक काफी प्रसिद्ध हो चुके थे, 1953 में विदेश यात्रा पर निकल पड़े।

इस प्रकार चार मूर्धन्य कलाकारों सूजा, रजा, बाकरे तथा हुसैन के बाहर चले जाने से पैग ग्रुप एक प्रकार से निष्क्रिय हो गया। कुछ समय पश्चात् बम्बई एक नये ग्रुप का भी निर्माण हुआ जिसमें पलसीकर, हैबार, बेन्द्रे, लक्ष्मण पै, मोहन सामन्त, अकबर पदमसी, तैयब मेहता तथा वी० एस० गायतोंडे थे, किन्तु यह ग्रुप अधिक सक्रिय नहीं रह सका।

प्रगतिशील कलाकारों के दल (पैग) की सबसे महत्वपूर्ण देन यह है कि इसने कला को राष्ट्रीय परिधि से बाहर निकाला और पाश्चात्य कला की तकनीक एवं अभिव्यक्ति के समान्तर भारतीय कला को अन्तर्राष्ट्रीयता से जोड़ दिया। कला को नई दिशा देने की ओर यह साहसिक कदम था।

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