मुखर्जी महाशय (1904-1980) का जन्म बंगाल में बहेला नामक स्थान पर हुआ था। आपकी आरम्भिक शिक्षा स्थानीय पाठशाला में हुई और अस्वस्थता के कारण आपके अध्ययन में अवरोध भी आया।
1917 में आप शान्ति निकेतन पहुँचे और 1919 से आपने वहाँ कला का अध्ययन आरम्भ किया। आप नन्दलाल बसु के अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्यार्थियों में से थे अतः अध्ययन समाप्त करने के उपरान्त आपने शान्ति निकेतन में ही 1925 से अध्यापन आरम्भ कर दिया।
साथ ही यहाँ के पुस्तकाध्यक्ष तथा संग्रहाध्यक्ष का भी कार्यभार सम्भाला। अध्यापन काल में आपने अपने विद्यार्थियों से पूर्ण सहानुभूतिपूर्वक व्यवहार किया।
1937-38 में आप जापान गये और वहाँ से कई कलाकारों से प्रभावित हुए। 1949 तक आप शान्ति निकेतन में रहे।’ बाद में आप नेपाल चले गये और वहाँ संग्रहाध्यक्ष तथा शिक्षा विभाग के सलाहकार के पदों पर कार्य किया।
1951-52 में वनस्थली विद्यापीठ राजस्थान के कला विभाग के अध्यक्ष रहे। तत्पश्चात् मसूरी में जाकर बस गये और कला-प्रशिक्षण केन्द्र तथा बाल-विद्यालय की स्थानरा की 1954 में आपकी नियुक्ति पटना कला विद्यालय को संगठित करने के लिये हुई।
1956 में आँखों का आपरेशन कराने के पश्चात् 1958 में पुनः कला-सिद्धान्त व्याख्याता के रूप में शान्ति निकेतन आ गये।
1970 में आप ललित कला अकादमी के फेलो निर्वाचित किये गये। आपने समस्त भारत का विस्तृत भ्रमण किया और कला परम्पराओं का परिचय प्राप्त किया।
आपने कला-सिद्धान्त विषयक लेखन-कार्य भी किया है। आपकी प्रसिद्ध पुस्तकों के नाम हैं आधुनिक शिल्प– शिक्षा और चित्रकार। आपने दैनिक जीवन से विषय चुनकर चित्र बनाना आरम्भ किया था। आप हल्के तथा कम रंग लगाकर ही विषय की रूप-रेखा को उभारते थे।
बुनियादी आकारों को आपने रेखाओं के द्वारा साकार किया है। अपनी कला में आपने वीर भूमि के निवासियों तथा उनकी विशेषताओं को साकार कर दिया है। आपने प्रायः टेम्परा, जल रंगों तथा फ्रेस्को में ही कार्य किया है।
बिनोद बिहारी मुखर्जी नन्दलाल बसु तथा असित कुमार हाल्दार के योग्यतम शिष्य थे आपने चीनी, जापानी तथा पश्चिमी शैलियों का गम्भीर अध्ययन किया था अतः आपको ठाकुर शैली की सीमाओं का भी अनुमान हो गया था।
आप यूरोप के नवीनतम आन्दोलनों को भी देख रहे थे अतः आपने एक अलग मार्ग का विकास किया।
यही कारण है कि अपने छात्रों को ठाकुर शैली का परिश्रमपूर्ण अभ्यास करने के बजाय अपने व्यक्तित्व के अनुकूल मार्गों पर बढ़ने में आप सहायता करते थे।
आपके कार्य का अभी तक समुचित मूल्यांकन नहीं हो पाया है और बंगाल शैली के कलाकारों ने अपनी रचनाओं में आपका उल्लेख भी नहीं किया है।
बिनोद बाबू ने नन्दलाल बसु की तकनीकी विशेषताओं को गम्भीरता पूर्वक ग्रहण किया था अतः उनका तूलिका संचालन बहुत कुछ नन्द बाबू के टच वर्क जैसा और त्यारित है।
आप नन्द बाबू के भित्ति चित्रण से भी पर्याप्त प्रभावित हुए थे और आप मुख्य रूप से एक भित्ति चित्रकार के रूप में ही विकसित हुए थे।
हिन्दी भवन शान्ति निकेतन में आपने मध्यकालीन हिन्दी कवियों की जिस चित्र श्रृंखला को 1948 में पूर्ण किया था वह आपका इस तकनीक का सर्वोत्तम कार्य है।
प्राचीन कला के जिन स्रोतों से अवनी बाबू ने प्रेरणा ली थी उन्हें मुखर्जी ने अपने ढंग से देखा और समझा।
आपने पूर्वी देशों की लिपि की कलात्मकता के अनेक स्केच बनाये जिनमें सहजता के साथ अजन्ना के लयात्मक प्रवाह का सामंजस्य किया।
चौडी तूलिका द्वारा शीघ्रता से खींची गयी रेखाएँ इन चित्रों में विशेष दर्शनीय हैं। किन्तु इनमें सपाटपन नहीं है। सभी आकृतियाँ ठोस तथा स्थापत्य के समान प्रभाव से युक्त बनी है।
भारतीय कला परम्परा में विनोद बिहारी मुखर्जी का योगदान बहुत महत्वपूर्ण है।
आपने कला को बंगाल शैली की भावुकता से बाहर निकाला और साहित्यिक विषयों का प्रभुत्व हटाकर कला को विशुद्ध चित्रात्मक तत्वों-रेखा, रंग, रूप, टेक्सचर आदि को महत्व दिया। आपकी कला में विविधता है।
भित्ति चित्र, कोलाज, वुडकट तथा केलीग्राफी-सभी प्रकार का कार्य आपने किया है। मुखर्जी की कला भारत की आधुनिक चित्रकला के विकास की वह कड़ी है जिसने उसे ऐसी स्वायत्तता प्रदान की जिसका आज वह सुख भोग रही है।
चित्रकार, कला-शिक्षक, टिप्पणीकार तथा आलोचक के रूप में आपका बहुत योगदान है। आपने अतीत को अनदेखा नहीं किया बल्कि उसके ।
आवश्यक पक्षों को नये युग के सन्दर्भ में प्रस्तुत किया। पुल, जंगल, मन्दिर का घण्टा तथा मध्यकालीन हिन्दी सन्त आपकी कुछ प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।