सतीश गुजराल | Satish Gujral Biography

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Satish Gujral Biography

सतीश गुजराल का जन्म पंजाब में झेलम नामक स्थान पर 1925 ई० में हुआ था। केवल दस वर्ष की आयु में ही उनकी श्रवण शक्ति समाप्त हो गयी थी। 

आरम्भिक शिक्षा स्थानीय संस्थाओं में प्राप्त करते समय ही आपकी कलात्मक रूचि बढ़ती चली गयी। अतः कला की शिक्षा के लिये गुजराल ने मेयो स्कूल आफ आर्ट लाहौर में 5 वर्ष (1939-44) तक अध्ययन किया। 

उसके पश्चात् तीन वर्ष सर जे० जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में अध्ययन किया। भारत विभाजन के बाद 1947 में ही वे दिल्ली आ गये और कुछ समय पश्चात् शिमला आर्ट स्कूल में अध्यापक हो गये। 

भारत विभाजन से उन्हें अत्यधिक मानसिक आघात पहुँचा था जिससे उनकी कला में एक भयंकर विकृति जन्म लेने लगी थी। 

उन्हीं दिनों सन् 1950 में दिल्ली में मेक्सिकन दूतावास खुला उसमें प्रसिद्ध मेक्सिकन कवि आक्टेवियो पाज सांस्कृतिक परामर्शदाता बनकर आये जो विद्यार्थी विनिमय कार्यक्रम के अन्तर्गत मेक्सिको भेजने के लिये किसी उपयुक्त भारतीय युवा चित्रकार की तलाश में थे। 

पाज को सतीश में मेक्सिन कला की भावना के अनुरूप प्रवृति का आभास हुआ अतः 1952 में स्कालरशिप पर वे दो वर्ष के लिये कलाके विशेष अध्ययन हेतु मेक्सिको भेज दिये गये। 

वहाँ उनकी कला शैली मेक्सिकन चित्रकारों डेविड सेक्वीरोस (David Sequieros), डिएगो रिवेरा (Diego Rivera) तथा ओरोज्को (Orozco) से प्रभावित हुई। 

लौटते समय वे न्यूयार्क, लन्दन, पेरिस आदि में रूके और अपने चित्रों की प्रदर्शनियाँ करते हुए 1959 में भारत लौटे। तब से वे दिल्ली में ही हैं। 

उन्होंने पेण्टिंग, सिरेमिक, कोलाज, शीशा, लकड़ी, धातु तथा मिट्टी आदि में खूब काम किया है। म्यूरल (भित्ति चित्रण) के क्षेत्र में वे एक विशेष नाम बन गये हैं। उन्होंने देश-विदेश में अनेक प्रदर्शनियों की हैं। 

अकेले अमरीका में ही उनकी दसियों प्रदर्शनियों लग चुकी हैं। वे राष्ट्रपति के स्वर्ण पदक के भी विजेता है। आपकी कलाकृतियाँ विश्व के अनेक प्रमुख संग्रहों में देखी जा सकती है। 

आपने अनेक वास्तु-कृतियों की भी रचना की है। संसद भवन में लाला लाजपतराय का चित्र तथा अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय में मौलाना अबुल कलाम आजाद तथा मिर्जा गालिब के चित्र आपकी ही रचनाएँ हैं। 

वास्तुशिल्प के क्षेत्र में बेल्जियन सरकार द्वारा उन्हें आर्डर आफ द क्राउन की उपाधि प्रदान की गयी है।

अपने आरम्भिक कला-जीवन में 1950-60 के मध्य गुजराल ने अपने चित्रों में मानवीय पीड़ा को चित्रित किया था जिस पर मेक्सिकन कला का पर्याप्त प्रभाव पड़ा था।

उन्होंने कहा था ‘दुःख शाश्वत है। मेरे चित्रों में बने भवन संकेत करते हैं कि दुनिया में क्या होता रहता है। मनुष्य दुःखों से भागना, इन भवनों से कूदना, चाहते हैं, पर उन्हें किसी दीवार (बाधा) का सामना करना पड़ता है।” 

उस समय गुजराल के प्रतीक थे कांटे, जंजीर, झोंपड़ी, सर्प, भग्न भवन, टूटे स्तम्भ और बुझे हुए ज्वालामुखी । 

उसके बाद आये वर्तमान जीवन के यथार्थ प्रतीक पुल, कोई रहस्य प्रकट करता क्षितिज, तारकोल के समान गाढ़ा पानी, अंधेरी दीवारों वाले भवन, प्रकाशयुक्त दीर्घाओं में से लेटकर देखती हुई आकृतियाँ, खम्भों तथा रस्सियों से रोक लगे स्थान जहाँ स्वतंत्र व्यक्ति कसरत कर रहे हैं, पंजे के समान मुड़े हुए सिरों वाले प्रकाश के खम्भे मानों किसी भी समय आग के समान धधक उठेंगे, और ऐसे स्थानों की ओर जाते या उनसे भाग कर आते स्त्री-पुरुष, छिपा हुआ प्रकाश खोत, गम्भीर किन्तु चमकदार रंगों से उत्पन्न तनाव और टेढ़े-मेड़े पैटर्न । 

इसी के साथ गुजराल ने धार्मिक चित्र भी बनाये और नेहरू तथा इन्दिरागांधी के व्यक्ति चित्र भी बनाये जिनमें व्यक्तिगत गुणों का बड़ा सजीव अंकन हुआ है।

प्रतिरूपात्मक कला से हटकर गुजराल ने 1960 के आस-पास कोलाज तथा म्यूरल बनाना आरम्भ किया। उन्होंने भित्ति चित्रों को जो नया रूप दिया है उसमें वे ऊँचे-नीचे तलों वाले लकड़ी के पटरों पर टेराकोटा आकृतियाँ बनाते हैं और फिर उन्हें रंग देते हैं। 

इनमें उन्होंने विभिन्न प्रकार के टाइलों, दर्पणों तथा विविध टेक्सचरों का भी भरपूर में उपयोग किया है। इनमें आदिम तथा लोक-शैलियों में प्रयुक्त होने वाले अनेक रूपों का भी प्रयोग देखा जा सकता है। 

यहीं से गुजराल तान्त्रिक जगत् की ओर मुड़े। उन्होंने प्राचीन यंत्रों (Diagrams) को आधार मानकर कलाकृतियाँ बनाना आरम्भ किया। ये तान्त्रिक कृतियाँ धातु, काष्ठ तथा प्लास्टिक आदि के द्वारा उसी प्रकार से निर्मित हैं जैसे हम घर में सजावटी फर्जीचर या शो-पीस रखते हैं। 

इससे पूर्व गुजराल ने पोपकला से प्रेरित होकर नेत्रीय भ्रम उत्पन्न करने वाली कुछ कृतियां भी बना थी पर उनमें भारतीयता नहीं थी अतः वे प्रसिद्ध नहीं हुई। 

किन्तु उनके बाद गुजराल ने जो तन्त्र से प्रेरित कलाकृतियाँ बनायी उनसे अमरीका में हलचल मच गयी। 

इनमें भीतर ही प्रकाश के स्रोत छिपे रहते हैं जो कृति के आवश्यक भागों को प्रकाशित करते रहते हैं। इन कृतियों के रंग, रूप तथा धरातलों के प्रभावों को देखकर दर्शक हतप्रद ( हैरान) सा हो जाता है। 

किन्तु इन कृतियों की व्याख्या सृजन तथा जीवनी-शक्ति के आधार पर की गयी है, धार्मिक अथवा कामाचार-परक नहीं। आज मशीन ने मानव जीवन में महत्वपूर्ण स्थाल ले लिया है और गुजराल के विचार से तन्त्र में उसी का सूक्ष्म विचार है। 

जिस प्रकार मशीन किसी वस्तु का निर्माण कर उसे बाहर निकालती है, उसी प्रकार तन्त्र में चक्र के द्वारा आन्तरिक ऊर्जा को उत्पन्न किया जाता है और फिर उससे मुक्ति प्राप्त की जाती है। 

इन कृतियों की रचना में उन्होंने बीसवीं शती की औद्योगिक सामग्री एलम्यूनियम, ताँबा, टिन, प्लेट, पाइप, प्लास्टिक, दर्पण तथा काँच आदि का उपयोग किया है। 

इनसे बनने वाले बिम्ब भी हमारे युग के अनुरूप हैं। आश्चर्य नहीं कि आगे चलकर वे इन कृतियों में ध्वनि का भी प्रयोग करने में सफल हों।

अपनी पिछले युग की आकृति मूलक कला के विषय में गुजराल ने कहा है कि में “मैं अपने चित्रों को असन्तोष और अभिशाप से आवेशित करता हूँ जिससे कि दर्शक स्वयं को अपराधी अनुभव करें। 

मैं सबमें सहृदयतापूर्ण सक्रियता चाहता हूँ मैं स्वयं भी सहृदयता से द्रवित हूँ। मनुष्य में मेरी आस्था है।” गुजराल के विचार से कला मन में हलचल उत्पन्न करती है, दुःख या प्रसन्नता नहीं। 

यह मनुष्य को ऊपर उठाती है, कोई उपदेश नहीं देती। यह दर्शक की आत्मा को सत्य के दर्शन के लिए स्वतन्त्र करती है। किन्तु गुजराल की कला में हिंसा और आतंक का भी अनुभव होता है। 

उनकी आकृतियाँ कुछ प्रतीक और कुछ अतियथार्थ हैं। देश के विभाजन के आघात से उन्होंने कला में जीवन के अन्धकारपूर्ण पक्षों को ही प्रस्तुत किया है।

जिस समय भारत के अन्य कलाकार फ्रांस तथा जर्मनी की कला से प्रभावित हो रहे थे, गुजराल एक भिन्न ढंग से कार्य कर रहे थे। 

उनके माध्यम तथा उनकी कलाकृतियों के संयोजन अन्य सभी कलाकारों से भिन्न हैं: इसी से उनकी कला लोगों को अजीब लगती है। 

उनकी कला के पात्र किसी महान आपत्ति से प्रस्त, किसी गुप्त साधना या कार्य में लगे हुए जैसे किसी मूक रहस्य से प्रेरित, अँधेरे में से प्रकाश की ओर आते अथवा प्रकाश से अँधेरे की ओर जाते, किसी स्वप्न को साकार करने की आशा में झुके-झुके से अथवा किसी अज्ञात पीड़ा से ग्रस्त आशा और निराशा के बीच झूलते हुए से दिखायी देते हैं। 

चित्रों का वातावरण निर्जन, अन्धकारपूर्ण, रहस्यमय, भयावह तथा किसी दुर्दान्त परिणाम को अपने गर्भ में छिपाये जैसा प्रतीत होता है। किन्तु आज की उनकी कला इस मनःस्थिति से निकल चुकी है। 

वे अमूर्तवाद के विरोधी नहीं हैं किन्तु आज वह अनुभूति से बिल्कुल कट गयी है और हम रेखाओं तथा रंगों की संगति खोजने का ही प्रयत्न करते रह जाते हैं। इसी से वे अमूर्त कला को अपने व्यक्तित्व के अनुरूप नहीं मानते ।

सतीश गुजरात की नई कृतियों भारत में उभरते हुए एक नये प्रतिमावाद की सूचक हैं। उन्होंने अनेक आकृतियों को नये ढंग से प्रस्तुत किया है। 

विशाल भित्ति चित्रों को स्थायित्व देने की उनकी बहुत दिन से इच्छा थी। उन्होंने एक रसायन शास्त्री के साथ मिलकर एक्राइलिक रंगों की खोज की और उन पर परीक्षण आरम्भ कर दिये। 

इसके परिणामस्वरूप उन्होंने जिन नित्ति अलंकरणों पर कार्य किया उनकी केवल भूरि-भूरि प्रशंसा ही नहीं हुई बल्कि इण्डियन इन्स्टीट्यूट ऑफ आर्कीटेक्चर ने उन्हें फैलोशिप से सम्मानित किया। 

इसके पश्चात् उन्होंने जली हुई काष्ठ का काम आरम्भ किया । इसके प्रयोग और परीक्षण भी लगभग 1978 से 1990 तक चलते रहे। 

वे काष्ठ की पट्टियों को जोड़कर धरातल तैयार करते हैं उसके सम्पूर्ण धरातल की ऊपरी सतह को जला देते हैं इसके पश्चात् उसे आवश्यकतानुसार कहीं-कहीं खुरच कर गड्ढे कर देते हैं। फिर सभी स्थानों पर सुरक्षात्मक रासायनिक घोल लगा देते हैं और ऊपर से आकृतियों के अनुसार विभिन्न रंगों से पेण्ट कर देते हैं। 

गणेश की आकृति उनके लिए बहुत अनुकूल है क्योंकि उसे जितने अंशों में पशु, मनुष्य या देवता बनाना चाहें, बना सकते हैं अतः इसमें रूप-संयोजन एवं कल्पनाशीलता की बहुत स्वतंत्रता है। 

इनमें धातु तथा चमड़े का भी प्रयोग है और सुवर्ण का भी काम है जिससे इनमें रंगों का पर्याप्त वैभव भी है। डिजाइन की नवीनता होते हुए भी विषय की प्राचीनता गुजराल की आधुनिकता पर एक प्रश्नचिन्ह के समान है ।

सतीश गुजराल ने अपनी प्रथम एकल प्रदर्शनी सन् 1952 में आयोजित की थी जिसमें दो चित्र सर्वप्रथम श्री जवाहरलाल नेहरू ने खरीदे थे वे सतीश के बड़े भाई इन्द्रकुमार गुजराल के साथ प्रदर्शनी देखने आये थे। 

तब से उनकी कला में अत्यधिक विविधता आयी है: पहले तैल चित्र केनवास, फिर कोलाज, म्यूरल, टेरोकोटा टाइल और जली हुई काष्ठ के म्यूरल आदि उन्होंने वास्तु कला के भी अनेक सुन्दर नमूने बनाये हैं जैसे बेल्जियम दूतावास, गोवा विश्वविद्यालय, भारतीय सांस्कृतिक केन्द्र मारीशस तथा इस्लामिक साँस्कृतिक केन्द्र नई दिल्ली आदि के भवन । 

उनकी विविधतापूर्ण मौलिक कृतियाँ आधुनिक भारतीय कला को सबसे बड़ा योगदान है।

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