रणबीर सिंह बिष्ट | Ranbir Singh Bisht

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रणबीर सिंह बिष्ट का जन्म लैंसडाउन (गढ़बाल, उ० प्र०) में 1928 ई० में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा गढ़वाल में ही प्राप्त करने के उपरान्त कला में विशेष रूचि होने के कारण उन्होंने लखनऊ कला विद्यालय में प्रवेश ले लिया जहां से 1948 से 1954 तक अध्ययन करके कला का डिप्लोमा प्राप्त किया और फिर एक वर्ष पश्चात् 1955 में विशेष योग्यता प्राप्त की । 

1956 तक वे एक जल रंग दृश्य चित्रकार के रूप में विख्यात हो चुके थे। 1956 में उनकी नियुक्ति ललित कला महाविद्यालय में ही प्रवक्ता के पद पर हो गयी। 

1960 से 1968 तक वे सहायक प्रोफेसर तथा आर्ट मास्टर्स ट्रेनिंग के अध्यक्ष रहे। 1966 में उन्होंने उत्तर प्रदेश सरकार के सूचना विभाग में आर्टिस्ट के रूप में भी कार्य किया । 

1968 में श्री बिष्ट को कालेज आफ आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स लखनऊ का प्रधानाचार्य बना दिया गया और 1973 में इस ललित कला महाविद्यालय के लखनऊ विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो जाने के उपरान्त वे ललित कला संकाय के डीन भी बन गये । तब से वे इन दोनों ही पदों पर कार्य करते रहे ।

ललित कला महाविद्यालय में विभिन्न पदों का कार्यभार सम्भालने के साथ-साथ वे कला-सृजन में भी निरन्तर लगे रहे। उनकी कला कृतियों का प्रदर्शन भारत, दक्षिण एशिया, जर्मनी, जापान एवं लैटिन अमरीका के अनेक देशों में हुआ जिनमें अनेक सांस्कृतिक संस्थानों ने सहयोग दिया । 

बिष्ट एक गम्भीर कला-चिन्तक होने के नाते अनेक सेमीनारों तथा गोष्ठियों में भी निरन्तर भाग लेते रहे । केन्द्रीय ललित कला अकादमी ने उन्हें 1965 में राष्ट्रीय पुरस्कार तथा 1966 में सर्वोत्तम जल रंग कार्य के लिए उत्तर प्रदेश के मुख्य मंत्री के स्वर्ण पदक से सम्मानिक किया तथा कला सम्बन्धी उच्च अध्ययन हेतु उत्तर प्रदेश ललित कला अकादमी एवं यूनेस्को की – फैलोशिप भी प्रदान की गयी। देश विदेश के अनेक कला-संग्रहालयों में उनकी कृतियां संग्रहीत है

बिष्ट की कला

बिष्ट पहाड़ों में जन्म लेने के कारण वहीं के संस्कारों में पले थे । प्रधानाचार्य श्री ललित मोहन सेन की देख-रेख में उनका व्यक्तित्व इन संस्कारों की ही पृष्ठ भूमि लेकर शनैः शनैः विकसित हुआ । उनकी कला में प्रकृति प्रेम का स्वर सबसे अधिक मुखर है फिर भी उनकी कला सदैव प्रयोग धर्मा रही है। 

कभी अत्यन्त आवेग में बनी उनकी आकृतियां अपूर्ण अथवा विस्फोस्टक-सी जान पड़ती है तो कभी उन्होंने अत्यन्त धैर्य पूर्वक मनोरम आकृतियों की भी रचना की है । सर्वत्र उन्होंने गहरी छाया वाले रंगों का ही प्रयोग अधिक किया है जिससे उनके चित्रों में एक रहस्मयता आ गयी है। 

आरम्भ में उन्होंने जल रंगों में सुन्दर दृश्य चित्र अंकित किये जिनमें केवल कुछ ही तूलिकाघातों में अत्यन्त शीघ्रता से अपेक्षित प्रभाव उत्पन्न कर देते थे। इनमें उन्होंने कोमल रंगों तथा परिप्रेक्ष्य का भी पर्याप्त ध्यान रखा है।

इसके पश्चात् बिष्ट ने मानवाकृतियों का चित्रण किया तथा ऐसे भी अनेक चित्र बनाये जिनमें माथे के ऊपर सिर अंकित नहीं है। उन्होंने इनसे सम्भवतः यह व्यक्त करने का प्रयत्न किया है कि यदि हम वर्तमान युग की अति-बौद्धिकता और जटिलता को छोडकर आदि मानव की स्थिति में आ जायें तो जीवन का विषाद कम हो सकता है । उनके इन चित्रों की आकृतियां आदि मानव से मिलती-जुलती हैं। 

इनके बाद वे फिर जल-रंगों पर आ गये जिनमें अस्पष्ट आकार है और रंगों का प्रयोग मुख्य है । श्री बिष्ट ने तैल-रंगों में भी प्राकृतिक सुषमा के चित्र अंकित किये हैं। ये चित्र रोमाण्टिक है, लाल तथा पीले रंगों का प्रधान्य है और पुष्पित वृक्षों का अंकन प्रचुरता से हुआ है जो बसन्त का सूचक है । 

बिष्ट ने 1960 की लखनऊ की बाढ़ के भी अनेक चित्र बनाये जिनमें उस समय की भयंकर विपत्ति और विभीषिका का अंकन है। यहां तक आते-आते बिष्ट के तूलिकाघात चौड़े होते गये हैं, अंकन पद्धति ओज पूर्ण होती गयी है तथा शैली धनवादी एवं अभिव्यंजनावादी प्रभावों को आत्मसात् क गयी है ।

इसके बाद बिष्ट नगर दृश्य अंकित करने लगे जिनमें भवनों तथा सड़कों के रूप (फॉर्म) को ही ध्यान में रखा गया है। चित्रों में इनके आकार का उतना ही महत्व है जितना रंगों का इनमें यदि मानवाकृतियाँ हैं भी तो वे मकानों के आकारों का ही एक अंग है ।

नगर-चित्रों के बाद बिष्ट ने अनावृत्ताओं के अनेक चित्र बनाये फिर हल्की उड़ती हुई कुछ रोमानी और धुंधली या रहस्यपूर्ण अस्पष्ट-सी पृष्ठ भूमि एवं आकृतियों सहित चित्रांकन किया। कुछ चित्रों में झोपड़ियों को छाया जैसी आकृतियों में बदल दिया है। 

इसके बाद वे नगर चित्रों में दृश्य को मानों दूर से देखकर शहर की रोशनियों का प्रभाव अंकित करने लगे। उन्होंने इन चित्रों में दृश्य को एक रंगीन और अमूर्त व्यवस्था में बदल दिया है ।

इसके पश्चात् उन्होंने पर्वतीय शिखरों और घाटियों को विभिन्न प्रकार के वातावरणों में अंकित करना आरम्भ किया और तैल माध्यम को बहाकर पतला रंग लगाया। 

इन चित्रों में मुख्य रूप से नीले रंग का प्रयोग था । इनमें दूर से दिखायी देने वाले किसी पर्वतीय दृश्य अथवा घाटी का आभास होता है और कहीं कहीं आकाश भी इसी का एक भाग प्रतीत होता है। इन चित्रों में स्त्री तथा कुत्तों की छोटी-छोटी आकृतियां भी बनी है जो सम्भवतः मानवीय मूल विकारों की प्रतीक है। 

आकाश में स्फुलिंग की भांति टूटते हुए तारों की एक रेखा दिखायी देती है । सम्भवतः यह उनकी अतियथार्थवादी प्रवृत्ति का उदाहरण है। सत्तर के दशक से यह प्रवृति विशेष झलकने लगी है ।

कला-सृजन के साथ-साथ श्री बिष्ट कला शिक्षण से भी जुड़े रहे हैं और उन्होंने कला- शिक्षण की समस्याओं पर भी महत्वपूर्ण विचार दिये हैं। 25 सितम्बर 1998 को श्री निष्ट का देहावसान हो गया ।

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