मैसूर शैली

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दक्षिण के एक दूसरे हिन्दू राज्य मैसूर में एक मित्र प्रकार की कला शैली का विकास हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में मैसूर की चित्रकला राजा कृष्णराज के संरक्षण में अत्यधिक उन्नति को प्राप्त हुई। 

राजा कृष्ण राज के संरक्षण से पूर्व ही मैसूर शैली लगभग एक सौ वर्ष से प्रचलित थी और विकासोन्मुख हो रही थी। राजा कृष्णराज के शासन काल में दरबारी कलाकारों ने अधिक ख्याति प्राप्त की। 

राजा ने चित्रकारों को अत्यधिक प्रोत्साहन प्रदान किया। इस प्रकार के प्रमाण हैं कि राजा स्वयं एक मनोनीत विषय पर अनेक चित्रकारों को तुलनात्मक ढंग से चित्रांकन करने के लिए बहुत अधिक प्रेरणा देता था। 

तंजौर के चित्रकारों के समान मैसूर के चित्रकारों ने भी हाथी दाँत के फलकों पर अनेक शबीह चित्र बनाये जिनका संग्रह मैसूर के राजमहल में प्रदर्शित किया गया है। १८६८ ई० में राजा कृष्णराज के निधन के साथ ही चित्रकार भी इधर-उधर चले गए और यह शैली समाप्त हो गई।

विदेशी कला का आगमन उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट है कि उन्नीसवीं शताब्दी के अंत में भारतवर्ष में चित्रकला का अधपतन हो गया और चित्रकला की कलात्मक विशेषताओं का लोप हो गया। चित्रकार पुरानी लकीरें पीटते रह गए और सृजनात्मक सत्ता का पूर्णतया लोप हो गया। 

इस प्रकार की चित्रकला की बुझती लो बाज़ारू कृतियों की धूमिल टिमटिमाइट बनकर उत्तरोत्तर घटती गई। अट्ठारहवीं शताब्दी के अंत में और उन्नीसवीं के आरम्भ में लगभग पचास से अधिक अंग्रेज़ी चित्रकार भारतवर्ष में आये, इनमें से कई चित्रकार अपने व्यवसाय में बहुत दक्ष थे। 

विशेष रूप से ये विदेशी चित्रकार राजाओं और रईसों के व्यक्तिचित्र तैल रंगों से बड़े आकार (आदम कद, मानवाकार) में बनाकर धन कमाने की लालसा से भारत आये थे इनके चित्रों की मांग देश के धनी वर्ग, राजाओं, नवाबों, जागीरदारों तथा जमींदारों आदि में इतनी बढ़ी कि भारतवर्ष की रूढ़िवादी परम्परागत चित्रकला की बाज़ारू शैली भी समाप्त हो गई। भारतीय चित्रकला का भविष्य अनिश्चित सा दिखाई पड़ने लगा। 

१८५७ के प्रथम भारतीय स्वतंत्रता युद्ध में भारतीय पराजय के बाद अंग्रेज़ी राज्य और सत्ता ने सम्पूर्ण भारत की आस्था और विश्वास को ऐसी ठेस पहुचाई कि देश की चित्रकला के विषय में सोचना कठिन था। देश में विदेशी सत्ता और शासन आ जाने के साथ विदेशी शिक्षा और मशीनें भी भारत में आने लगीं।

देश में अनेक विदेशी चित्रकारों के आने से और तैलचित्रों की उत्तरोत्तर बढ़ती मांग के कारण उन्नीसवीं शताब्दी के अंतिम भाग में एक नवीन कलाधारा का प्रवाह प्रस्फुटित हुआ जो अधिक स्थायी न था। 

यह धारा पाश्चात्य कला की थी, और इससे प्रेरित अनेक भारतीय चित्रकारों ने दक्षिण भारत में सर्वप्रथम पाश्चात्य चित्रकला में दक्षता प्रदर्शित की। इन चित्रकारों में राजा रविवर्मा का नाम अग्रगण्य है। राजा रविवर्मा ने यूरोपियन कला पद्धति के अनुरूप भारत की चित्रकला की धारा को नव-ज्योति प्रदान करने की चेष्टा की।

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