के० जी० सुब्रमण्यन् | K. G. Subramanian

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सुब्रमण्यन् (मनी) का जन्म (1824 ) केरल के पाल घाट में हुआ था। वे मद्रास चले गये और फिर बंगाल। वहाँ 1944 से शान्ति निकेतन में नन्दलाल बसु और विनोदबिहारी मुखर्जी से कला की शिक्षा ली । 

नन्द बाबू से मनी थोड़े परेशान हुए किन्तु मुखर्जी बाबू में मनी को एक उत्तम कलाकार और शिक्षक के दर्शन ही नहीं हुए बल्कि एक सहानुभूति रखने वाले सदृश्य मानव का भी साक्षात्कार हुआ। 

वहाँ की तकनीक के कठिन परिश्रम और अतीत पर आवश्यकता से अधिक बल देनेकी पद्धति के बावजूद मनी को आधुनिक पश्चिमी कला के महत्व का अहसास बना रहा। आरम्भ में वे नन्दलाल के प्रशंसक थे किन्तु बाद में वे पश्चिम की आधुनिक कला की ओर मुड़े गये। उ

न्होंने अनुभव किया कि दोनों में बाहरी रूप में भेद अधिक हैं, आन्तरिक रूप से दोनों की कुछ बातें एक समान हैं। 1955 में वे स्लेड स्कूल आफ आर्ट लन्दन में अध्ययन करने चले गये। 1966 में रॉकफैलर छात्रवृत्ति पर अमेरिका गये।

मनी ने आधुनिक शैली में चित्रांकन आरम्भ किया। अपने चित्रों में उन्होंने घनवादी ज्यामितीय ढाँचे को प्रमुखता दी। चित्र में रूप तो थे पर सम्पूर्ण चित्र के अन्दराल का बारीकी से विचार किया गया था। “मुर्गा बेचने वाला” इस समय का अच्छा उदाहरण है। बाद में वे स्पेनिश अमेरिकन चित्रकार उबेदा की कला की ओर भी आकर्षित हुए।

मनी एक अच्छे मूर्तिकार और मिति चित्रकार भी हैं उन्हें भित्ति तथा टेक्सटाइल्स में द्वि-आयामी डिजाइन बनाने में कमाल हासिल है हैण्डलूम बोर्ड के डिजाइन विभाग के अध्यक्ष रहकर उन्होने भारतीय डिजाइनों के स्वरूप और स्वभाव को समझ लिया है अतः उनकी कला में उलझे हुए पैटर्न तथा विवरणात्मकता का समावेश हो गया है। 

वे चिकने धरातलों वाले डिजाइनों में ऊपर से सुलिपि का भी प्रयोग करते हैं। चमकदार रंग लगाते हैं। विभिन्न प्रभाव उत्पन्न करनेके लिये उन्होंने रेत, बालू, संगमरमर का चूर्ण आदि भी प्रयुक्त किया है और चमक के लिये विभिन्न पदार्थों का भी। प्लाईवुड, माचिस की तीलियाँ तथा उलझे हुए तार का भी प्रयोग किया है। 

इस स्थिति में रंगों का महत्व गौण हो गया है अतः इकरंगे या भूरे रंग ठीक समझे गये है। कुछ चित्रों की श्रृंखला को लोग “खाकी चित्र श्रृंखला” कहने लगे हैं। वे प्रत्येक आकृति के अनेक छोटे-छोटे भाग करके उनमें उलझे डिजाइन अंकित करते हैं।

भित्ति चित्रण में उन्होने नया प्रयोग किया है। टेराकोटा टाइलों का पहले निर्माण कर लिया है, फिर उन्हें दीवार पर लगाया गया है। इनमें यदि कहीं त्रुटि हो तो सुधार की गुंजाइश रहती है।

वे एक अच्छे चित्रकार, भित्ति चित्रकार, डिजाइनर तथा विचारक हैं, वे बहुत अच्छे शिक्षक भी हैं। उन्होंने केनवास के अतिरिक्त शीशे पर भी पेण्टिंग की है। 1978 में उनकी एक पुस्तक “मूविंग फोकस प्रकाशित हुई जो बहुत चर्चित हुई है। 

बड़ीदा के एम०एस० विश्वविद्यालय से तीस वर्ष तक जुड़े रहने के पश्चात् वे अब शान्ति निकेतन में हैं। 1982 में भारत भवनके उद्घाटनके अवसर पर 13 फरवरी को श्रीमती इन्दिरा गांधी द्वारा उन्हें एक लाख रूपये के “कालिदास पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। 

उन्होंने अपने शिक्षक विनोद बिहारी मुखर्जी के साथ शान्ति निकेतन के हिन्दी भवन के भित्ति चित्रों को 1948 में पूर्ण किया था। विनोद बाबू से उन्हें भित्ति चित्रण के विभिन्न तकनीकों का विस्तृत और गम्भीर ज्ञान प्राप्त हुआ ।

सुब्रमण्यन ने भारत में नियिमत रूप से प्रदर्शनियों करने के अतिरिक्त 1961 में साओ पाओलो में प्रदर्शन किया। भारत, जापान तथा लन्दन आदि की अनेक प्रदर्शनियों में भाग लिया; अनेक खिलौनों तथा भित्तिचित्रों की रचना की। 

बीस वर्ष तक वे भारत सरकार के डिजाइन परामर्शदाता रहे। आस्ट्रेलिया तथा मेक्सिको में उन्होंने भारत का प्रतिनिधित्व किया। 1985 में उन्होंने चीन की यात्रा भी की।

श्री सुब्रमण्यन को आरम्भ से ही कई महत्वपूर्ण पुरस्कार प्राप्त हुए। 1957 से 1959 तक उन्हें बोम्बे आर्ट सोसाइटी के पुरस्कार मिले। 1961 में उन्होंने महाराष्ट्र राज्य प्रदर्शनी में प्रथम पुरस्कार प्राप्त किया। 

1961 में ही साओ पाओलो ब्राजील में वे विशिष्ट सम्मान पदक से विभूषित किये । 1965 में ललित कला अकादमी के रत्न-सदस्य (फैलो) निर्वाचित हुए। 

उनके कुछ प्रसिद्ध भित्ति-चित्र ज्योति लिमिटेड बडौदा (1955, 65, 76 ): रवीन्दालय लखनऊ (1963): भारतीय मण्डप न्यूयार्क विश्व मेला (1964-65 ) : ललित कला संकाय बड़ौदा (1964) में तथा “मेरे सपनों का भारत” मण्डप, गांधी दर्शन, नई दिल्ली (1969) में हैं। 1975 में उन्हें पद्मश्री’ तथा 1981 में कालिदास सम्मान प्रदान किये गये।

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