गांधार शैली का विकास और इसकी विशेषताएँ

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गांधार शैली का विकास और इसकी विशेषताएँ

गांधार शैली

कुषाण काल में गान्धार एक ऐसा प्रदेश था जहां एशिया और यूरोप की कई सभ्यताएं एक-दूसरे से मिलती थीं। पूर्व में भारतीय और पश्चिम से यूनानी, रोमन ईरानी और शक संस्कृतियों का यह संगमस्थल था। सिकन्दर के आक्रमण, वैक्ट्रिया शासन तथा शक, पल्लव और कुषाणों के माध्यम से भी यूनानी सम्पर्क गान्चार मे दीर्घकाल तक बना रहा। इसके परिणामस्वरूप गान्धार में एक ऐसी मूर्तिकला का विकास हुआ जिसे गान्धार कला कहा जाता है। इस कला के प्रमुख केन्द्र तक्षशिला, पुरुषपुर तथा निकटवर्ती क्षेत्र थे।

गांधार शैली का समय 

गान्धार कला के जन्म की तिथि के विषय में यद्यपि विद्वानों में विवाद है. परन्तु ऐसा प्रतीत होता है कि द्वितीय शताब्दी ई. पू. तक गान्धार कला का आविर्भाव हो चुका या तथा कनिष्क के शासनकाल में यह उन्नति की चरमसीमा पर पहुंच गयी थी।

गान्धार-कला के विषयविषय 

गान्धार-कला के विषय भारतीय किन्तु तकनीक यूनानी है, इसी कारण गान्धार-कला को इण्डो ग्रीक, इण्डो बैक्ट्रियन, इण्डो हैलेनिक, इण्डो-रोमन, ग्रीको-रोमन तथा ग्रीको-बुद्धिस्ट कला के नाम से भी जाना जाता है, किन्तु भौगोलिक आधार पर प्रमुख रूप से इस कला को गान्धार कला ही कहा जाता है।

बौद्ध धर्म की महायान शाखा के उदय से पूर्व बौद्ध महात्मा बुद्ध को ही महापुरुष मानते थे, ईश्वर का अवतार नहीं, इसी कारण महात्मा बुद्ध की मूर्ति की पूजा नहीं की जाती थी। महात्मा बुद्ध के अस्तित्व को प्रदर्शित करने के लिए उनके घोड़े, छत्र, सिंहासन, चरण पादुकाओं, आदि का प्रयोग किया जाता था. परन्तु महायान धर्म के अन्तर्गत मूर्ति पूजा भी प्रारम्भ हो गई, इस प्रकार महात्मा बुद्ध की मूर्तियों का तीव्रता में निर्माण होन लगा। 

कुछ विद्वानों का विचार है कि महात्मा बुद्ध की मूर्ति का निर्माण सर्वप्रथम गान्धार में गान्धार-कला के अन्तर्गत ही हुआ. अतः इस दृष्टिकोण से गान्धार कला का विशेष महत्व है।

गान्धार-कला के अन्तर्गत निर्मित मूर्तियां बौद्ध-केन्द्रों से उपलब्ध हुई है। अधिकांश मूर्तिया इसमें महात्मा बुद्ध की हैं वैसे शाक्यमुनि गौतम, प्रव्रजित बुद्ध आदि के चित्र भी इसमें बने है। 

इस प्रकार गान्धार शैली का मुख्य विषय बुद्ध का जीवन ही है तथा उनके जीवन से सम्बन्धित 61 घटनाओं के दृश्य भी प्रदर्शित किए गए हैं। 

वासुदेव शरण अग्रवाल ने लिखा, इनसे सूचित होता है कि गान्धार के शिल्पी इस दिशा में सबको पीछे छोड़ गए थे। उन्हें बुद्ध-जीवन की छोटी-बड़ी सभी घटनाओं में रुचि थी और और वे मानवी गौतम के इहलौकिक स्वरूप में रुचि प्रदर्शित कर रहे थे। साथ ही बुद्ध के लोकोत्तर जीवन की ओर से भी ये निरपेक्ष न थे। यदि इन घटनाओं के साथ बुद्ध की जातक लीलाओं को मिला दिया जाए तो गान्धार-कला का महान चित्र आ जाता है।" 

इस कला के द्वारा महात्मा बुद्ध के जन्म सम्बोधि, धर्मचक्र प्रवर्तन, महापरिनिर्वाण आदि को प्रमुख रूप से प्रदर्शित किया गया है। कुछ मूर्तियों में महात्मा बुद्ध को अतिमानवीय रूप में प्रदर्शित किया गया है। हर संग्रहालय की खड़ी बोधिसत्व मूर्ति अत्यन्त सुन्दर है। बर्लिन संग्रहालय को ध्यानमग्न बुद्ध की मूर्ति भी अपनी शान्त मुद्रा के लिए प्रसिद्ध है। लाहौर संग्रहालय की सिंहासनस्य खड्गधारी कुबेर की ऊँची मूर्ति भी गान्धार कसा की अभिराम सन्धि प्रस्तुत करती है।

गान्धार कला पर यूनानी प्रभाव

गान्धार कला पर यूनानी प्रभाव निर्विवाद है। अधिकांश विद्वान इस तथ्य को स्वीकारते हैं कि वास्तव में गान्धार-कला के अन्तर्गत निर्मित मूर्तियों का विषय भारतीय किन्तु तकनीक यूनानी है। 

बुद्ध की जीवनलीला और जातक कथाओं का अंकन करते समय गान्धार के शिल्पियों ने ईरानी और यूनानी कला के अनेक प्रभाव और अलंकरण स्वीकार किए। 

अतः गान्धार कला में भारत, ईरान एवं यूनान रोम की कलाओं का सम्मिश्रण हुआ। इसी कारण इस कला के अन्तर्गत निर्मित महात्मा बुद्ध का आकार-प्रकार यूनानी देवता अपोलो से मिलता है। महात्मा बुद्ध के शरीर पर वस्त्र व अलंकरण भी भारतीय नहीं है। अधिकांश मूर्तिया मासल है, होठ मोटे व आंखें दूर तक खिंची हुई प्रदर्शित की गई है। मूर्तियों को मोटे कपड़े पहने दिखलाया गया है। 

महात्मा बुद्ध के भाल पर अर्णा है और शीश पर उष्णीश भी है। उन्हें आसन-मुद्रा में दिखाने के स्थान पर सिंहासन पर आसीन तथा किन्हीं मूर्तियों में आभूषण धारण किए हुए तथा केशयुक्त दिखाया गया है। इन सब तथ्यों से गान्धार कला पर यूनानी प्रभाव स्पष्ट रूप से प्रमाणित होता है क्योंकि यदि किसी भारतीय कलाकार ने इन मूर्तियों का निर्माण किया होता तो निश्चित रूप से वह यह जानता होता कि तथागत ने संन्यासी होते समय केशों को कटवा दिया था।

विदेशी प्रभाव होने के कारण ही गान्धार कला की मूर्तियों में आध्यात्मिकता का सर्वथा अभाव है क्योंकि भारतीय प्रमुख रूप से भावुकता तथा आध्यात्मिकता पर बल देते थे, जबकि इस कला के शिल्पियों ने शारीरिक सौन्दर्य तथा बौद्धिकता पर अधिक ध्यान दिया है।

इसी कारण कुमारस्वामी ने लिखा है, पश्चिमी रूपों का समस्त परवर्ती भारतीय तथा चीनी बौद्ध कला पर स्पष्ट रूप से ढूंढ़ा जा सकता है, परन्तु गान्धार की वास्तविक कला निगूढ़ मिथ्याभास का आभास देती है क्योंकि बोधिसत्वों की सन्तुष्टि अभिव्यक्ति तथा आडम्बरपूर्ण वेशभूषा तथा बुद्ध मूर्तियों की स्त्रैण तथा निर्जीव मुद्राएं बौद्ध विचारधारा की आध्यात्मिक शक्ति को अभिव्यक्त नहीं कर पाती।'

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गान्धार कला का मूल्यांकन 

गान्धार कला एक उच्चकोटि की कला थी अथवा नहीं इस विषय में विद्वानों में मतभेद हैं। कुछ विद्वानों का विचार है कि गान्धार-कला उच्चकोटि की कला नहीं थी क्योंकि भारत व यूनान की कला सम्बन्धी मान्यताओं में इतने मूलभूत अन्तर है कि एक यूनानी कला के द्वारा भारतीय विषयों की वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं हो सकती थी।

जिस आदर्श व भावनाओं को गान्धार-शिल्पी व्यक्त करना चाहते थे उन्हें अभिव्यक्त करने में वे अक्षम रहे। गान्धार कला के अन्तर्गत निर्मित महात्मा बुद्ध की मूर्तियों में आध्यात्मिकता व विश्व बन्धुत्व की भावनाओं का सर्वथा अभाव है।

महात्मा बुद्ध की मुखमुद्रा कठोर अथवा खैण सुलभ प्रदर्शित की गयी है। उनके मुख पर सहज भावों को अभिव्यक्त करने में शिल्पी असफल रहे।

यही कारण है कि कुमारस्वामी ने इन मूर्तियों को ‘आत्मारहित पुतले’ कहा है। निहाररंजन रे ने भी लिखा है कि गान्धार-कला की मूर्तियों को देखने से ऐसा आभास होता है कि यह मूर्तियां कलाकारों द्वारा नहीं अपितु वृहत संख्या में कारखाने में मशीनों द्वारा निर्मित हो।

इसके विपरीत कतिपय विद्वान इस तर्क से सहमत नहीं हैं कि गान्धार कला उच्चकोटि की नहीं थी। वासुदेवशरण अग्रवाल ने लिखा है, “बहुसंख्यक निर्माण, देशगत विस्तार, देशकाल में विस्तृत व्याप्ति, संस्कृतियों के परस्पर सम्मिलन, शैलियों के समन्वय और मानवीय सहृदयता के कारण गान्धार-कला की गणना विश्व की महती कलाओं में होनी चाहिए।

” डॉ. रमाशंकर त्रिपाठी ने इस विषय में लिखा है, “इसमें सन्देह नहीं कि गान्धार शैली में गुप्त-शैली की शक्ति और निखार, सफाई और ‘फिनिश’ नहीं आ सकी, परन्तु निःसन्देह स्वयं उस शैली की बारीकियां भी कुछ कम नहीं।”

प्रो. जी. एन. बनर्जी ने भी गान्धार-शैली के विषय में कुमारस्वामी व निहाररंजन रे के विचारों की आलोचना की है। प्रो. बनर्जी ने लिखा है कि गान्धार-कला की मूर्तियों को आत्मा रहित पुतले कहना उचित नहीं है। उदाहरण के तौर पर बर्लिन संग्रहालय बोधिसत्व की मूर्ति के लिए ऐसा नहीं कहा जा सकता। इसी प्रकार अनेक मूर्तियां भाव एवं रूप की अभिव्यक्ति करती हैं। गान्धार कला को उच्च कोटि की कला स्वीकार न करना अनुचित है।

गान्धार कला के अंतर्गत मूर्तियाँ स्लेटी पत्थर की हैं। कुछ मूर्तियाँ प्लास्तर, स्टुको धातु निर्मित हैं। गान्धार-कला के अन्तर्गत स्तूपों निर्माण किया गया। ये स्तूप चबूतरे के ऊपर बनाए गए तथा स्तूपों के ऊपर एक छत्र भी लगाया गया, जिससे इन स्तूपों की ऊंचाई बहुत बढ़ गई।

यह शैली पश्चिमोत्तर भारत के गांधार क्षेत्र में विकसित हुई थी। इस कारण इस शैली को गांधार शैली के नाम से पुकारा गया। गांधार शैली को 1870 ई० में डा० लिटनर द्वारा प्रकाश में लाया गया।

डा० लिटनर ने गांधार कला के उत्तम नमूनों की खोज की और उन्हें अपने साथ विदेश ले गये। उन्होंने इन नमूनों को ‘ग्रेको बुद्धिस्ट’ नाम से सम्बोधित किया गांधार अपने समय में भारतीय शिल्प व स्थापत्य का प्रमुख केन्द्र था गांधार के शासक नग्नजित थे।

नग्नजित द्वारा चित्र लक्षण ग्रन्थ का निर्माण किया गया और विद्वानों द्वारा उन्हें भारत का प्रथम चित्राचार्य माना जाता था। निश्चित ही इनके चित्रलक्षण का प्रभाव गांधार की कलाकृतियों पर भी पड़ा है।

यद्यपि गांधार क्षेत्र यूनानी, ईरानी तथा भारतीय राजाओं के आधीन रहा है। अतः इसमें विषयों में भी विविधता दिखायी देती है। बुद्ध और बोधिसत्वों की खड़ी और बैठी दोनों मुद्राओं में मूर्तियों का अंकन इस शैली में हुआ है।

बौद्ध विषयों में सिद्धार्थ के जन्म, मायादेवी का स्वप्न, लुम्बिनो-उद्यान जाना, सप्तपदी, शिक्षा, विवाह, अभिनिष्क्रमण आदि को प्रायः चित्रित किया गया है। निःसन्देह बुद्ध के में जीवन की छोटी-बड़ी सभी घटनाओं को चित्रित किया गया है, जो शिल्प एवं सौन्दर्य की दृष्टि से भी उच्चकोटि की हैं।

गांधार शैली की बहुत सी मूर्तियाँ अफगानिस्तान से मिली हैं, जो हाथी दाँत की बनी हैं। कनिष्क ने गांधार क्षेत्र में जिस प्रकार की कला शैली को संरक्षित किया वह निरन्तर भारत में उत्तरोत्तर वृद्धि एवं नये प्रतिमानों को प्रस्तुत करती हुई अनेक शताब्दियों तक कलाजगत को अपनी रचनाओं से अभिव्यन्जित करती रहीं।

गांधार शैली की विशेषतायें

गान्धार-कला की निम्नलिखित प्रमुख विशेषताएं हैं।

  • इस शैली में बनी मूर्तियों के शरीर तथा प्रत्येक अंग को यथासम्भव वास्तविक रूप में बनाने का प्रयत्न किया गया है।
  • महात्मा बुद्ध की मूर्ति जिसमें वह घोर तपस्या में लीन हैं तथा सूखकर काँटा हो गये हैं गांधार कला की अद्वितीय कृतियों में से एक है जिसमें बुद्ध का पेट अन्न के अभाव में अन्दर की ओर धंसा है। उनकी पसलीय तथा नाड़ी माँस के सूख जाने से बिल्कुल नंगी दिखायी देती हैं।
  • मूर्तियों को आभूषण, वस्त्र आदि पहनाये गये हैं जिसके कारण मूर्तियों में शोभा व सजीवता परिलक्षित होती हैं।
  • अधिकांश मूर्तियाँ स्लेटी पत्थर, चिकनी मिट्टी तथा टैराकोटा से बनायी गयी हैं। 
  • मूर्तियों में सिलवटदार वस्त्र दिखाए गए हैं। 
  • अधिकांश मूर्तियां महात्मा बुद्ध के जीवन से सम्बन्धित हैं।
  • गान्धार-मूर्तियों में आध्यात्मिकता एवं भावुकता का आभाव है।
  • महात्मा बुद्ध के सिर पर घुँघराले वालों का गुच्छा अधिक बना है। केश व उष्णीश (जूड़ा) दिखाए गए हैं तथा वे आभूषण धारण किए हुए हैं।
  • गान्धर-कला के विषय भारतीय व तकनीक यूनानी है।
  • महात्मा बुद्ध को सिंहासन पर बैठे हुए दिखाया गया है तथा कहीं-कहीं चप्पल भी धारण किए हैं। 
  • यूनानी प्रभाव के कारण गान्धार मूर्तियों में बुद्ध अपोलो देवता के समान लगते हैं।
  • गान्धार-कला के अन्तर्गत निर्मित स्तूप अत्यन्त ऊंचे हैं।

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