अपने आरम्भिक जीवन में “दत्तू भैया” के नाम से लोकप्रिय श्री देवलालीकर का जन्म 1894 ई० में हुआ था। वे जीवन भर कला की साधना में लगे रहे और अपना अधिकांश समय छात्रों की कलात्मक प्रतिभा के विकास में लगाया।
श्री देवलालीकर मुख्य रूप से बम्बई कला विद्यालय की परीक्षाओं के लिए छात्रों की तैयारी कराते थे अतः उनकी कला बंगाल शैली से पूर्णतः पृथक् थी और बम्बई के पश्चिमी पद्धति पर आधारित पाठ्यक्रम की आवश्यकताओं को पूरा करती थी।
इसमें न बंगाल शैली के धूमिल रंग थे, न अस्पष्ट रेखाऐं और न कृशकाय आकृतियाँ टेम्परा अथवा तैल माध्यम में किया गया उनका कार्य पश्चिमी कला जगत् के आधुनिक अन्दाज को पकड़ने का आरम्भिक प्रयत्न था।
देवलालीकर ने 1927 ई० में स्कूल आफ आर्ट इन्दौर में कला शिक्षक का पद सम्भाला। आरम्भ में उन्हें अनेक कठिनाइयाँ उठानी पड़ी। कला विद्यालय में ये हाई स्कूल की पेटिंग की कक्षाएँ लेते थे और हाई स्कूल के समय के बाद बम्बई की ड्राइंग की एलीमेण्ट्री तथा इण्टरमीडिएट ग्रेड की विशेष कक्षाएँ लगाते थे।
स्कूल आफ आर्ट में उस समय उन्हें केवल दो कमरे ही मिले हुए थे अतः वे कुछ कक्षाएँ बाहर छत्री बाग आदि में भी लगाते थे। प्रातःकाल सूर्योदय के समय के प्रकाश में वे दृश्य-चित्रण, दोपहर बाद स्टिल लाइफ आदि सिखाते थे।
बदलते हुए प्रकाश की चमक और रंगों के अध्ययन पर वे विशेष बल देते थे और कभी-कभी तो रात में भी चित्रण कराते थे। इससे छात्रों को रंग की विभिन्न विशेषताओं तथा प्रभावों का बहुत अच्छा ज्ञान हो जाता था।
प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात् भारत में प्रभाववाद ने कला के क्षेत्र में बड़ी हलचल मचा दी थी। देवलालीकर जी ने भी आधुनिक चित्रकला की एकेडेमिक, प्रभाववादी तथा अतियथार्थवादी कला की पुस्तकें मँगवार्थी और छात्रों को इन आन्दोलनों की विशेषताओं की विधिवत् शिक्षा दी। जब उनके विद्यार्थी परीक्षा देने बम्बई जाते तो संरक्षक की भाँति देवलालीकर भी उनके साथ बम्बई जाते।
अपने विद्यार्थियों को कला के विविध आन्दोलनों तथा शैलियों की शिक्षा देने के बावजूद देवलालीकर स्वयं प्रभाववाद से ही कुछ प्रभावित थे। उन्होंने अधिकांश धार्मिक चित्र ही बनाये जो कल्याण आदि में छपते रहे।
इन चित्रों में यद्यपि आकृतियाँ आलंकारिक हैं तथापि रंग-योजनाओं में वातावरण का सूक्ष्म प्रभाव दिया गया है जिसके कारण रंगों के बल परस्पर प्रभावित हुए हैं। गीता प्रेस गोरखपुर द्वारा छापे गये बी०के० मित्रा, टी० के० मित्रा, भगवान तथा जगन्नाथ आदि चित्रकारों की कृतियों से ये स्पष्टतः भिन्न हैं और तुरन्त पहचान में आ जाते हैं।
देवलालीकर के बनाये हुए व्यक्ति-चित्र भी उत्तम कोटि के हैं। उन्होंने बजाजवाडी में राष्ट्रपति डा० राजेन्द्र प्रसाद का चित्र भी अंकित किया था किन्तु उनका सर्वोत्तम व्यक्ति-चित्र ‘बैरिस्टर अभ्यंकर” का है। उनका पेंसिल का रेखांकन भी अद्वितीय था ।
श्री देवलालीकर का अन्तिम समय पर्याप्त कष्ट से व्यतीत हुआ। वे एक बहुत साधारण बस्ती में अपने पुत्र राजाभाऊ के साथ नागपुर में रहने लगे थे। कुछ समय में पश्चात् उन्होंने नागपुर भी छोड़ दिया था किन्तु देश की कलात्मक गतिविधियों से वे बेखबर नहीं रहते थे और दिल्ली में आयोजित ‘त्रिनाले’ अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों से लेकर विशिष्ट चित्रकारों से भी निरन्तर सम्पर्क बनाये रखते थे।
अपना अन्तिम समय उन्होंने दिल्ली में एकान्त और अज्ञातवास में व्यतीत किया और दिल्ली में ही 1978 में उनकी मृत्यु हुई। देवलालीकर आज इस संसार में नहीं हैं किन्तु एक सच्चे गुरु की भाँति उन्होंने अपने विद्यार्थियों को सदैव प्रोत्साहित किया।
शैली तथा प्रयोगशीलता सम्बन्धी उनकी अपनी सीमाएँ भी थीं इसीलिए वे प्रतिभावान् छात्रों को बम्बई चले जाने का परामर्श देते थे। उन्हीं के आरम्भिक छात्रों में से अनेक बम्बई जाकर आज अन्तर्राष्ट्रीय कला जगत् में अपना कीर्तिमान बनाये हुए हैं।