कम्पनी शैली | पटना शैली | Compony School Paintings

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अठारहवी शती के मुगल शैली के चित्रकारों पर उपरोक्त ब्रिटिश चित्रकारों की कला का बहुत प्रभाव पड़ा। उनकी कला में यूरोपीय तत्वों का बहुत अधिक मिश्रण हो गया और इस प्रकार जो नयी शैली विकसित हुई उसे कम्पनी शैली कहते हैं। 

कुछ विद्वानों ने इसे पटना शैली कहा है पर यह नाम ठीक नहीं है क्योंकि इस शैली का प्रभाव बंगाल से सिन्ध तक, पंजाब से महाराष्ट्र तक एवं नेपाल में भी था। इस शैली का प्रभाव अंग्रेजों और ईस्ट इण्डिया कम्पनी के साथ-साथ बढ़ा था, अतः इसे कम्पनी शैली ही कहना चाहिये। 

ईस्ट इण्डिया कम्पनी की स्थापना लगभग 1600 ई० में इंग्लैण्ड में हुई थी जिसने भारत से व्यापार करने का उद्देश्य बनाया था। इससे सम्बन्धित जो ब्रिटिश अधिकारी भारत भेजे गये थे उन्होंने सत्रहवीं शती के आरम्भ में सूरत, बम्बई, अहमदाबाद और भडोच में व्यापारिक कोठियाँ बना लीं। 

तत्पश्चात् गोलकुण्डा, मद्रास, उड़ीसा तथा बंगाल में भी कम्पनी ने अपने पैर जमा लिये और कोठियों के रूप में सुदृढ़ किले-बन्दी भी कर ली। भारत के स्थानीय नरेशों से झगड़ा करके और फिर कूटनीतिक तरीकों से धीरे-धीरे सत्ता हथिया कर अन्त में 1857 ई० में भारत के अधिकांश भागों का शासन सीधे ब्रिटिश सरकार के हाथों में चला गया। राजाश्रय समाप्त हो जाने से कलाकार निराश्रित होकर इधर- उधर भटकने लगे। 

इनमें से कुछ चित्रकार बड़े-बड़े शहरों में जाकर बस गये। कुछ कलाकारों को ब्रिटिश अधिकारियों ने प्रोत्साहन दिया। ये कलाकार भारतीय जन-जीवन तथा भारतीय दृश्यों के चित्र जल- रंगों अथवा टेम्परा में बना कर बेचा करते थे। अंग्रेज सैनिक, व्यापारी तथा अधिकारी इन चित्रों को सबसे अधिक खरीदते थे तथा इंग्लैण्ड में अपने परिवारीजनों को भेजा करते थे और स्वयं भी इनसे मनोरंजन करते थे।

अठारहवीं शती के अन्तिम वर्षों में बंगाल में मुर्शिदाबाद से आकर कुछ कलाकार पटना में रहने लगे थे उस समय पटना चित्रकला का कोई महत्वपूर्ण केन्द्र नहीं था और ये चित्रकार मुर्शिदाबाद में कठिनाइयों के कारण ही पटना आये थे पटना, जिसे आजमाबाद कहते थे, में कुछ मुगल चित्रकार अंग्रेज संरक्षकों के हेतु 17 वीं शती में चित्रण करते रहे थे किन्तु वहाँ कोई स्थानीय शैली विकसित न हो सकी थी। 

मुर्शिदाबाद में 18 वीं शती में अनेक चित्रकार व्यक्ति-चित्रण, दरबारी दृश्यों तथा रागमाला आदि के चित्रण में व्यस्त थे। 1756 ई० में नवाब अलीवर्दी खाँ की मृत्यु से मुर्शिदाबाद की कला को भी धक्का लगा। उसके जीवन काल में भी अफगानों तथा मराठों ने नदी पार करके शहर को लूटा था। 

उसके उत्तराधिकारी सिराजुद्दौला (1756-57 तथा मीर जाफर (1757-61) के समय राज्य की दशा बहुत बिगड़ गयी और चित्रकारों को नये आश्रय खोजने को बाध्य होना पडा मिल्ड्रेड आर्चर का विचार है कि 1770 के लगभग ही ये कायस्थ चित्रकार पटना की ओर मुड़े जो उस समय व्यापारिक समृद्धि पर था। यहाँ कम्पनी की सुदृढ़ शासन व्यवस्था थी ।

पटना पहुँच कर इन चित्रकारों ने अपने नये आश्रयदाताओं की रुचि के अनुकूल भारतीय जीवन का चित्रण किया। विभिन्न जातियों, शिल्पियों, देशी वाहनों तथा यातायात के साधनों और भारतीय उत्सवों की चहल-पहल और रंगीनी ने अंग्रेजों को पर्याप्त आकर्षित किया। यहाँ के एक चित्रकार सेवकराम (1770-1830) से लार्ड मिन्टो ने अनेक चित्र खरीदे थे अंग्रेज अधिकारियों को बेचने के लिये चित्रकार उनके पास अपने चित्र ले जाते थे। 

ये चित्र प्रायः 8 ” x6″ के आकार के कागज पर बने होते थे। बड़े चित्र 22 ” x16″ तक के बनते थे। प्रायः जल रंगों का प्रयोग होता था और छाया के स्थान पर पहले सीपिया रंग का वाश देकर बाद में स्थानीय रंग लगाया जाता था। रंगों में मुगल कला जैसी चमक नहीं थी ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने हुलास लाल को अपने यहाँ रखा था। उसने बॉकीपुर में एक लिथो प्रेस भी लगाया था। 

जैरामदास इस कार्य में उसका विशेष सहायक था। इस समय के अन्य चित्रकार झूमकलाल (लग० 1884), तूनी लाल (लग० 1800), तथा फकीरचन्द लाल (लग० 1790-1865) थे जो पटना के बाजार में कागज तथा अभ्रक के चौकोर टुकड़ों पर चित्रण करते थे। 

फकीरचन्द लाल के पुत्र शिवलाल (1817-1887) के चित्र कलकत्ता तक बिकने जाते थे। वह कागज तथा हाथी दाँत पर व्यक्ति चित्र भी बनाता था और 1850-70 के मध्य का सबसे प्रसिद्ध चित्रकार था। शिवलाल का चचेरा भाई शिवदयाल भारतीय ढंग पर सपाट आकृतियों तथा चमकदार रंगों का प्रयोग करता था जो भारतीयों को अधिक पसन्द थे। 

मुकुन्द लाल, बनी लाल (1850-1901), ईश्वरी प्रसाद तथा गोपाल लाल यहाँ के अन्य चित्रकार थे। उन्नीसवीं शती में बनारस में भी यह शैली बहुत जोरों से चल रही थी। महाराजा ईश्वरी नारायण सिंह ने इसे संरक्षण दिया जहाँ इसके प्रसिद्ध चित्रकार डल्लूलाल, लाल चन्द एवं गोपाल चन्द थे। राय कृष्ण दास जी के अनुसार सम्भवतः ये अर्रा (आरा) घराने के थे। 

यहाँ उस्ताद राम प्रसाद ने भी कम्पनी शैली में चित्रांकन किया। केहर सिंह नामक एक सिख चित्रकार जो श्री रन्धावा के मत से सम्भवतः कपूरथला निवासी था, इसी शैली में अमृतसर में कार्य करता था। उसने भिखारियों, गायकों, ज्योतिषियों, संपेरों आदि के अनेक चित्र अंकित किये। 

1860 में भारत में कैमरे के प्रयोग से यह कला बहुत प्रभावित हुई। इसके अन्य केन्द्र दिल्ली, लखनऊ, पूना, सतारा, तंजौर एवं नेपाल आदि थे। कम्पनी शैली की मुख्य विशेषताएँ निम्नलिखित है

(1) मुगल तथा यूरोपीय शैलियों के यथार्थवादी तत्वों का सम्मिश्रण तथा छाया प्रकाश द्वारा वास्तविकता लाने का प्रयत्न । 

(2) अधिकांश लघु चित्रों की रचना जिनके हेतु कागज तथा हाथी दाँत की पतली-पतली परतों का प्रयोग आधार के रूप में हुआ है। छोटे आकार के केनवास चित्र भी बने।

(3) प्रायः छाया-प्रकाश के द्वारा गढ़नशीलता अथवा उभार दिखाकर चित्र की खुलाई मुगल पद्धति की बारीक रेखाओं द्वारा की गयी है तथा आभूषणों एवं वस्त्रों आदि के डिजाइन भी पर्याप्त बारीकी से बनाये गये हैं।

(4) प्रकृति चित्रण यथार्थवादी ढंग का किन्तु आलंकारिक है।

(5) प्रायः डेढ़ चरम चेहरे बनाये गये हैं।

(6) प्रायः प्रसिद्ध लोगों तथा आश्रयदाताओं के व्यक्ति-चित्र और भारतीय जन-जीवन हुए का चित्रण ही इस शैली के प्रमुख विषय रहे हैं। धार्मिक चित्र भी अंकित हैं। 

(7) भारतीय लोगों की विभिन्न प्रकार की वास्तविक वेश-भूषा तथा रहन-सहन का चित्रण हुआ है।

(8) वैज्ञानिक परिप्रेक्ष्य के आधार पर दृश्य-चित्रण का प्रयत्न हुआ है। 

(9) अंग्रेजी जल रंग पद्धति के आधार पर चित्रण तकनीक का विकास हुआ है।

विदेशी लोग इस शैली में भारतीय पहनावे आदि के चित्र बनवा कर अपने देशों को ले जाते थे। इनका आकार प्रायः पोस्टकार्डों जैसा होता था। पंजाब में रणजीत सिंह के शासन के उपरान्त सिख शैली भी लुप्त हो गयी। उत्तरी भारत के कुछ खानदानी चित्रकार तंजौर चले गये। वहाँ 1867 ई० तक वे अपना निर्वाह करते रहे।

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