कला संस्कृति का यह महत्त्वपूर्ण अंग है जो मानव मन को प्रांजल सुंदर तथा व्यवस्थित बनाती है। भारतीय कलाओं में धार्मिक तथा दार्शनिक मान्यताओं की अभिव्यक्ति सरल ढंग से की गई है।
भारतीय चाक्षुष कलाओं में दार्शनिक तत्वों को प्रतीक रूप में संजोया गया है और धार्मिक प्रसंगों को विस्तृत रूप से प्रतिबिम्बित किया गया है। इस प्रकार संस्कृति यदि किसी देश की आत्मा है तो सभ्यता उस देश का तन है।
मनुष्य ने प्रत्येक काल में अपने विकास के प्रयत्नों से अपने कार्यकलापों में निपुणता एवं कुशलता, अग्रसरता तथा विस्तीर्णता की परम सीमाओं को प्राप्त करने की चेष्टा की है जिससे उसकी सभ्यता का निरंतर विकास हुआ है।
यही सभ्यता संस्कृति को बल प्रदान करती है और उसका अंग बनकर उसकी मान्यताओं को निरंतर आगे बढ़ाती रहती है। इस प्रकार हमारा रहन-सहन मानसिक विकास तथा जीवनचर्या, हमारी सभ्यता का प्रतीक है।
सभ्यता से विकसित नवीन साधनों यन्त्रों तथा प्रविधियों का प्रयोग करना हर प्रगतिशील कलाकार का उद्देश्य है, इस प्रकार कलाकार की कला कृतियाँ संस्कृति के परम्परागत रूप को दर्शाती हुई, परिवर्तन ग्रहण करती हुई गतिमान रहती हैं।
कलाकार की प्रविधियों तथा क्रियात्मक रूपों का समाज में शनैः शनैः प्रचलन होता जाता है एक व्यक्ति दूसरे की कला देखकर कलाकार की रचना-विधियों को ग्रहण करता जाता है इस प्रक्रिया को परम्परा कहते हैं।
इन सांस्कृतिक, सामाजिक एवं कलात्मक व्यवहारों के प्रचलन को ही परम्परा कहते हैं। प्रत्येक देश की इसी प्रकार एक कला परम्परा बन जाती है जिसका उस देश की संस्कृति तथा सभ्यता में महत्त्वपूर्ण स्थान होता है।