परमजीत सिंह का जन्म 23 फरवरी 1935 अमृतसर में हुआ था। आरम्भिक शिक्षा के उपरान्त वे दिल्ली पॉलीटेक्नीक के कला को विभाग में प्रविष्ट हुए जहाँ उन्होने शैलोज मुखर्जी से 1953 से 1958 तक कला की शिक्षा प्राप्त की और कला के आन्तरिक रहस्यों को समझा।
मंसूरी के नेशनल इन्स्टीट्यूट आफ कम्यूनिटी डेवेलपमेण्ट एवं नई दिल्ली के मदर्स स्कूल में कुछ समय तक कार्य करने के उपरान्त 1963 ई० में वे जामिया मिलिया इस्लामिया विश्व विद्यालय नई दिल्ली में कला के प्रवक्ता नियुक्त हो गये और वहीं पर कायरत हैं।
1967 ई० से उन्होंने अपने कार्य की प्रदर्शनियाँ आरम्भ की। इसके पश्चात् देश-विदेश में उनकी अनेक प्रदर्शनियों हुई हैं और उनके चित्र अनेक संग्रहों में है। उन्हें अनेक पुरस्कार भी मिल चुके हैं। 1970 में उन्हें ललित कला अकादमी का राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त हुआ।
परमजीतसिंह वस्तुओं को रंगों द्वारा गढ़नशीलता प्रदान करते हैं, रेखाओं का प्रयोग नहीं करते। उनके रंगों के मूल स्त्रोत वास्तविक दृश्यों के रंगों में देखे जा सकते है, किन्तु वे प्रकृति के अगणित बदलते हुए रंगों में से अपने संयोजनों के अनुकूल रंगों का ही चयन करते हैं और चित्र के बड़े-बड़े क्षेत्रों में रंग फैला देते हैं।
इससे रंगों की प्राकृतिकता समाप्त हो जाती है और सम्पूर्ण चित्र एक अमूर्त रंग-संगति के क्षेत्र जैसा प्रतीत होता है। ये बिम्बों को नष्ट न करके उन्हें शाश्वतता प्रदान करने का प्रयत्न करते हैं।
चित्र में वस्तुओं पर पड़ने वाला प्रकाश प्राकृतिक स्रोतों से आता हुआ प्रतीत होता है। रंगों से वस्तुओं के भौतिक अनुभव में कोई कठिनाई नहीं होती।
परमजीत सिंह के चित्रों में वृक्ष, भूमि के टीले, धूप, जलाशय, पगडण्डी, घास, फुनगियों, सुबह, धुंधलका और रोशनी का ही अधिक चित्रण हुआ है।
उनके चित्रों में पत्थर पहले इतने सक्रिय नहीं थे जितने बाद में होते गये वे पत्थरों को अमूर्त शिल्पी की भाँति काट-छाँट देते हैं और उन्हें अपनी जगहों से अलग करके आकाश में तैरा देते हैं, जहाँ वे अपनी अलग लयात्मक संगति उत्पन्न करते हैं।
पत्थरों से पहले वे स्थिर जीवन के चित्र अधिक बनाते थे। अब वे स्थिर जीवन की वस्तुओं को अमूर्त प्राकृतिक दृश्य में संयोजित कर देते हैं जहाँ उनकी स्थिरता और भी बढ़ी हुई प्रतीत होती हैं।
उन्होंने अपने चित्रों में जबर्दस्ती किसी मानवाकृति को अंकित करने का प्रयत्न नहीं किया। उनके चित्र “लेण्ड स्केप नहीं हैं क्योंकि वे किसी विशेष दृश्य को देखकर नहीं अंकित किये गये हैं।
उनके प्रत्येक चित्र में अनेक दृश्यों का सार एकत्रित है। उनमें वस्तुओं के स्थान बदले हुए हो सकते हैं। पानी अथवा पत्थर आकाश में और आकाश पगडण्डी में अंकित किया जा सकता है।
परमजीत सिंह की कला पर पश्चिमी अभिव्यंजनावादी कलाकारों का प्रभाव पड़ा है। स्थिर आकृतियाँ, प्रकाश के नाटकीय प्रयोग, आकृतियों की अमूर्त बनावट आदि में उनका कार्य शिरिको (Chirico) के समान है।
ठोस आकार वाली वस्तुएँ शून्य में विचरण करती हैं किन्तु उन पर पड़ने वाला प्रकाश स्थिर रहता है। युगों की स्थिरता को उन्होंने वस्तुओं की स्थिरता के द्वारा व्यक्त किया है।
इससे वे शाश्वत की अभिव्यक्ति करना चाहते हैं। इस स्थिरता के कारण उनके आकाश बहुत भारी प्रतीत होते हैं। वस्तुओं की स्थितियाँ हमें अतियथार्थवादी संयोजनों के लोक में ले जाती हैं। “परमजीतसिंह दृश्य-चित्रण ही पसन्द करते हैं।
उनके चित्रों में लगभग एक जैसी ही पद्धति का प्रयोग होने से एकरूपता और नीरसता का अनुभव भी होता है।