क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार का जन्म 1891 ई० में पश्चिम बंगाल के मुर्शिदाबाद जिले में निमतीता नामक स्थान पर हुआ था। उनके पिता श्री केदारनाथ मजूमदार जगताई में सब-रजिस्ट्रार थे।
क्षितीन बाबू जब केवल एक वर्ष के थे तभी उनकी माता का देहान्त हो गया। बचपन में प्रारम्भिक शिक्षा ग्रहण करने के साथ-साथ चित्रकला में विशेष रुचि होने के कारण चौदह वर्ष की आयु में उन्होंने पढ़ाई छोड़ दी और चित्रकला में अपना मन लगाया।
सन् 1909 में वे कलकत्ता कला विद्यालय में प्रविष्ट हो गये और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का शिष्यत्व प्राप्त किया। श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर अपने किसी भी छात्र को चित्र की विषय-वस्तु के सम्बन्ध में कुछ भी नहीं कहते थे अतः अपनी इच्छा से श्री मजूमदार ने बालक ध्रुव की तपस्या का चित्र बनाया।
दूसरा चित्र “राधा का अभिसार” बनाया। यह घटना 1909-1910 की है। पहला चित्र एक अंग्रेज ने अस्सी रूपये में खरीद लिया। उस समय रायल कालेज ऑफ आर्ट्स लन्दन के अध्यक्ष श्री रोथेन्स्टीन भारत भ्रमण करते हुए कलकत्ता कला विद्यालय भी गये।
वे विद्यार्थी मजूमदार के व्यक्तित्व से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने दस रूपये प्रतिदिन देकर उनके तीन दिन में तीन स्केच बनाये और अन्तिम दिन उनका “राधा का अभिसार” चित्र एक सौ रूपये में क्रय कर लिया।
श्री रोथेन्स्टीन को छात्र क्षितीन के मुख पर गौतम बुद्ध जैसी शान्ति का अनुभव होता था। श्री मजूमदार की रूचि चैतन्य विषयक चित्र बनाने में थी अतः अवनी बाबू के परामर्श से उन्होंने पुरी की यात्रा की जहाँ चैतन्य के अनेक स्मृति-चिन्ह हैं।
श्री मजूमदार कीर्तन के सुन्दर पद भी गाते थे अतः अवकाश के क्षणों में अवनीन्द्रनाथ उनसे कीर्तन भी सुना करते थे।
छः वर्ष तक अध्ययन करने के उपरान्त क्षितीन बाबू इण्डियन सोसाइटी ऑफ ओरिएण्टल आर्ट, कलकत्ता में शिक्षक के पद नियुक्त हो गये तथा कुछ समय पश्चात् प्रधान शिक्षक बना दिये गये बंगाल के गवर्नर श्री शिशिर कुमार घोष इन्हें वैष्णव चित्रकार कहा करते थे और श्री घोष ने मजूमदार के 25-26 चित्र भी खरीदे थे।
श्री मजूमदार के एक चित्र “श्री चैतन्य का गृह-त्याग” पर मुग्ध होकर अवनी बाबू ने उन्हें दो सौ रूपये पुरस्कार स्वरूप भी दिये थे। अवनीन्द्रनाथ ने मजूमदार के अनेक चित्र भी क्रय किये।
नन्दलाल बसु तथा असित कुमार हाल्दार आदि क्षितीन्द्रनाथ के सहपाठी थे अवनीन्द्रनाथ कहते थे कि तीन विद्यार्थियों ने सिद्धि लाभ की है।
नन्दलाल ने शिव की सिद्धि की है, में स्वयं मुगल विषयक सिद्ध हूँ तुम (क्षितीन) चैतन्य-सिद्ध हो। क्षितीन्द्रनाथ द्वारा अंकित चित्र वायसराय लार्ड हार्डिन्ज, लार्ड रोनाल्डशे आदि अनेक प्रतिष्ठित व्यक्तियों ने खरीदे।
कलकत्ता में क्षितीन्द्रनाथ की भेंट विपिन चन्द्र पाल, राधा विनोद गोस्वामी, प्राण गोपाल गोस्वामी, महेन्द्र मास्टर, कनखल में भोलानन्द गिरि तथा हरिद्वार, वृन्दावन एवं नवद्वीप (बंगाल) में अनेक महापुरूषों तथा वैष्णव सन्तों से हुई।
इलाहाबाद विश्व विद्यालय के तत्कालीन कुलपति डॉ. अमरनाथ झा इंग्लैण्ड गये तो वहाँ उन्होंने बंगाल के भूतपूर्व अंग्रेज गवर्नर सर रोनाल्डशे के संग्रह में क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार के कुछ चित्र देखे।
वे उनसे प्रभावित हुए और भारत लौटने पर डा. अमरनाथ झा ने श्री मजूमदार को आमंत्रित कर इलाहाबाद विश्वविद्यालय में चित्रकला की शिक्षा का सूत्रपात किया ।
1 सितम्बर सन् 1942 को वे इस विभाग के प्रथम अध्यक्ष नियुक्त हुए पाँच छः वर्ष पश्चात् इण्डियन प्रेस इलाहाबाद के मालिक श्री हरिकेशव घोष ने क्षितीन्द्रनाथ से गीत गोविन्द तथा चैतन्य के जीवन से सम्बन्धित चित्र बनाने का प्रस्ताव किया।
इनमें से कुछ चित्र इण्डियन प्रेस द्वारा “चित्रे-गीत-गोविन्द” नामक चित्रावली के रूप में प्रकाशित भी हुए हैं।
इसके पश्चात् इनके बनाये हुए चित्रों की प्रदर्शनियाँ 1949, 1963 तथा 1964 में आयोजित की गयी। बंगाल कांग्रेस कमेटी ने 1963 में उन्हें अशोक स्तम्भ के पुरस्कार द्वारा सम्मानित किया।
1964 तक श्री मजूमदार इलाहाबाद विश्व विद्यालय में शिक्षक रहे। वहाँ से अवकाश ग्रहण करने के पश्चात् वे अपने अन्तिम समय तक इलाहाबाद में ही रहे। 9 फरवरी 1975 को वे अपने उपास्यदेव में लीन हो गये।
क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार की कला श्री अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के चार प्रमुख – शिष्य गिने जाते हैं नन्दलाल बसु, असित कुमार हाल्दार, क्षितीन्द्रनाथ मजूमदार तथा शैलेन्द्रनाथ दे।
श्री मजूमदार की कला कृतियाँ भावों से परिपूर्ण हैं, उनमें अत्यधिक आवेश है। उन्होंने प्रायः चैतन्य के विचारों पर आधारित राधा कृष्ण की भक्ति की ही विभिन्न मानसिक अवस्थाओं का अंकन किया है जो बंगला साहित्य की भी एक प्रमुख विशेषता है।
उनकी कृतियों में ऐन्द्रिक सौन्दर्य भी है। पौराणिक विषय उनकी रूचि के अनुकूल नहीं थे। श्री मजूमदार अपने कला जीवन में एक सीधे मार्ग पर चलते रहे। वे प्रयोगशीलता के चक्कर में नहीं पड़े।
मुख्यतः उनकी कला आकृति-रचना से ही प्रेरित रही। तकनीकी प्रयोगों की अपेक्षा वे भावानुभूति की गहराई पर अधिक बल देते थे। यही कारण है कि उनकी रचनाओं का मुख्य स्वर भक्ति मूलक है।
कलकत्ता में रहकर भी वे पूरी तरह ‘शहरी’ नहीं बन पाये और ग्रामीण संस्कृति सदैव उनकी कल्पना पर छाई रही।
अपने गुरू अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के प्रति पूर्णतः समर्पित होकर भी उन्होंने उनकी कला शैली की अनुकृति नहीं की अपितु एक मौलिक शैली की उद्भावना की।
उनके चित्रों की आकृतियाँ शास्त्रीय परम्परागत रूपों पर आधारित न होकर बंगाल के लोक-जीवन से प्रेरित हैं। इन्हीं के द्वारा उन्होंने रामायण तथा महाभारत जैसे महाकाव्यों के पीछे छिपी मूल भावना को व्यंजना प्रदान की है।
उनके व्यक्तित्व का सच्चा प्रतिबिम्ब ‘राधा’ के रूप में मिलता है। उन्होंने अन्य नारी पात्रों में भी राधा की ही झाँकी देखी है जो उनके ‘रासलीला’ नामक चित्र से पूर्ण स्पष्ट है उनके चित्रों में मानवाकृतियों के साथ वृक्षों, लताओं तथा कुटियों का बड़ा ही संगतिपूर्ण संयोजन हुआ है चमकदार, कोमल तथा पारदर्शी रंगों और विशेष रूप से मुक्ता की आभा के समान श्वंत रंग के प्रयोग से वे चित्रों में संगीतमय वातावरण का सृजन कर देते है फिर भी उनमें सरलता है।
कला की तत्कालीन कसोटी, जिसमें परिष्कृति पर बहुत बल दिया जाता था, की दृष्टि से उनके चित्रों को अपने समुचित सम्मान नहीं मिल पाया।
युग में क्षितीन्द्रनाथ का रेखांकन अद्वितीय है चित्र प्रायः अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा आविष्कृत वाश टेकनीक में बनाये गये हैं।
कागज पर रेखांकन करने के उपरान्त स्थान-स्थान पर आवश्यकतानुसार रंगों के हल्के गहरे बल पतले-पतले वाश के रूप में लगाये गये हैं।
सूखने के उपरान्त चित्र को एक चौड़े पात्र में थोड़ी देर तक भिगो दिया गया है। तत्पश्चात् चित्र को हल्का सुखाने के उपरान्त पुनः रंग लगाये गये है।
कई बार ऐसा करने से रंगों में कोमलता तथा सम्पूर्ण चित्र में एक मिश्रित जैसा वातावरण बन गया है। अन्त में कोमलता से चित्र को पूर्ण कर दिया गया है।
ये चित्र लघु आकार में हैं और किसी कमरे में बैठकर सुने जाने वाले संगीत के समान ही आस्वादनीय है। चित्रों का संयोजन प्रायः ऊर्ध्व और असम्मात्रिक है।
सरल पृष्ठ-भूमि के आगे आकृतियाँ प्रायः सम्मुख स्थितियो में दिखायी गयी हैं जो कोमल, भावपूर्ण तथा लम्बी है। केश तथा वस्त्र काल्पनिक और सुन्दर फहरान-युक्त हैं।
अत्यधिक विवरणात्मकता से बचा गया है। उनके सर्वोत्तम चित्र चैतन्य सीरीज के हैं।
उनके चित्रों में वृक्षों तथा लताओं की शाखाओं के घुमाव संयोजनों को एक विशेष प्रकार का सौन्दर्य प्रदान करते है वृक्ष-लताओं के अत्यन्त टेढ़े-मेढ़े रूपों से उनके मन की आकुलता सजीव हो गयी है।
यमुना, अभिसारिका, गीत गोविन्द, चैतन्य, लक्ष्मी तथा पुष्प-प्रचायिका आदि उनकी प्रसिद्ध कृतियाँ हैं।
जया अप्पासामी का कथन है कि श्री मजूमदार प्रायः किसी घटना की मनः स्थिति का अंकन करते हैं। उनके विषय चयन तथा प्रस्तुति में संगीतात्मकता रहती है; सन्त कवियों के गीतों के समान यद्यपि वे परम्परावादी हैं किन्तु चित्रण की पद्धति बीसवी शती के आरम्भ की है।
क्षितीन्द्रनाथ के चित्रों में रेखांकन सर्वाधिक महत्व का है और उनकी शैली का आधार भी वही है। ये स्वयं कहा करते थे कि में रेखांकन पर बहुत ध्यान देता हूँ क्योंकि यही चित्र का आधार है।
क्षितीन्द्रनाथ की पूर्ण विकसित कला में रेखाएँ लम्बी तथा प्रवाहपूर्ण है और सावधानी से आकृतियों को बाँधती हैं।
उनकी रेखाओं के छोर पृथक से एक कोमल लय उत्पन्न करते हैं तथा दुपट्टों के छोरों, उड़ते और तैरते हुए केशों तथा आभूषणों आदि में देखे जा सकते हैं।
रेखाओं की तुलना में रंग कोमल तथा सामंजस्यपूर्ण हैं, वर्णिका सीमित और मधुर है। कहीं-कहीं उन्होंने रंग के विभन्न बलों का भी प्रयोग किया है।