कृष्णस्वामी श्री निवासुल का जन्म मद्रास में 6 जनवरी 1923 को हुआ था उनका बचपन नांगलपुरम् की प्राकृतिक सुषमा के मध्य बीता। उनके पिता को खिलौने बनाने तथा नाटकों में रूचि थी। इनका बालक श्रीनिवासुलु पर स्थायी प्रभाव पड़ा। स्कूली शिक्षा में भी उन्हें मिट्टी के खिलौनों तथा अन्य शिल्पों की ट्रेनिंग प्राप्त हुई।
वे नाटकों के परदे, कट-आउट आदि बनाने लगे। इनके विषय पूर्णतः पौराणिक अथवा लोक कथाओं से सम्बन्धित होते थे जिन्होंने श्रीनिवासुलु की कला पर निर्णायक छाप छोड़ी।
कुछ समय तक यह कार्य करने के उपरान्त 1937 में वे मद्रास कला विद्यालय में प्रविष्ट हुए जहाँ देवीप्रसाद रायचौधुरी प्रधान शिक्षक थे।
यहाँ ब्रिटिश एकेडेमिक पद्धति प्रचलित थी जिसमें बालक श्रीनिवासुलु के बचपन के संस्कारों के लिये कोई स्थान नहीं था। फिर भी उन्होंने कला-विद्यालय के पाठ्यक्रम में अपनी प्रतिभा का परिचय दिया और एक उत्तम दृश्य चित्रकार का यश अर्जित कर लिया।
1940 में कला का डिप्लोमा प्राप्त कर वे आड्यार चले गये जहाँ धार्मिक दार्शनिक समाज के साथ-साथ उन्हें लोक नृत्य, लोक नाट्य तथा लोक सज्जा का भी अवसर मिला 1948 से 1951 के मध्य उन्हें लेपाक्षी के भित्ति चित्रों की अनुकृति का कार्य मिला। उन्होंने यहाँ के वीरभद के मण्डप के लगभग पाँच सौ पेनलों की अनुकृति की ।
इसने उन्हें एक नयी शैली के विकास के लिये प्रेरित किया। श्रीनिवासुलु ने उसके आधार पर अधिक ओजपूर्ण, साहसिक तथा सरल शैली का विकास किया। कुछ समय पश्चात् उन्हें श्रीलंका की सिगिरिय तथा तंजावुर के मन्दिरों के चोलकालीन भित्तिचित्रों की अनुकृतियों के लिये भी आमन्त्रित किया गया।
यह कार्य करते हुए उन्हें जैन (अपभ्रंश) शैली के एक संग्रह तथा यामिनीराय की कलाकृतियों की एक पुस्तक को देखने का अवसर प्राप्त हुआ। इन दोनों ने उन्हें बहुत आकर्षित किया श्रीनिवासुलु ने अपनी शैली का कुछ भिन्न मार्ग पर विकास किया।
उनके कार्य में अलंकरण बहुत अधिक हैं। उन्हें आभूषणों तथा वस्त्रों के डिजाइनों में बहुत आनन्द आता है। साथ ही वे लोक कला के रूपों की शक्ति और सरलता से भी प्रभावित हैं। रायलसीमा क्षेत्र के सुखालियों के जन-जीवन से भी वे प्रेरित हुए हैं।
उनकी कला को विकसित करने में कोंडापल्ली तथा तिरुपति के खिलौनों, चमड़े की पुतलियों तथा मन्दिरों के भित्ति चित्रों का भी योगदान है। लेपाक्षी से उन्होंने गहरे रंग, नारी आकृति का ऐन्द्रिक सौन्दर्य, केश विन्यास तथा प्रवाहपूर्ण लावण्यमयी रेखा के तत्व ग्रहण किये है।
श्रीनिवासुलु के आरम्भिक चित्रों में सशक्त और त्रुटिहीन रेखांकन है। रेखा संक्षिप्त, सुन्दर और प्रवाहपूर्ण है। मानवाकृति का अंकन आदर्शीकृत और अतिशयतापूर्ण है। संस्कृत काव्य के उपमानों के समान ही उनकी नारी आकृति है। प्रायः पार्श्वगत चेहरों का ही अंकन किया है।
कुछ समय पश्चात् उन्होंने दैनिक जन-जीवन और ग्रामीण प्राकृतिक पृष्ठ भूमि का अंकन आरम्भ कर दिया। उसके पश्चात् आन्ध्रप्रदेश के खिलौनों के रंगों ने उन्हें आकृष्ट किया।
सुगठित शरीर वाले पुरुषों तथा कृष्णवर्णी सुन्दर नाक-नक्श वाली आन्ध्र की स्त्रियों का प्रतिबिम्ब उनके चित्रों में मिलता है। सागर तट, खजूर और नारियल के वृक्ष उनके चित्रों की पृष्ठभूमियाँ अलंकृत करते हैं।
1960 के लगभग से श्रीनिवासुलु की शैली में एक नवीन प्रयोग आरम्भ हुआ । वे जल-रंगों तथा क्रेयन के मिश्रित माध्यम में चित्रांकन करने लगे। इस माध्यम में रूपों का संयोजन और अधिक सरल तथा बड़े आकारों वाला हो गया। विवरण छोड दिये गये। रेखा पर्याप्त मोटी हो गयी।
नेत्र की विशेषता समाप्त हो गयी । केवल संयोजन की दृष्टि से महत्वपूर्ण विवरण ही अंकित किये जाने लगे। आकृतियाँ कुछ आदिम, कुछ अपरिष्कृत जैसी हो गयीं। शकर पारे के समान कोणीय नेत्र और बड़े शिर इस शैली की मुख्य विशेषता बन गये हैं।
इंग्लैण्ड तथा फ्रांस के अतिरिक्त कामनवेल्थ देशों में भी उनकी प्रदर्शनियाँ हो चुकी हैं। श्रीनिवासुलु डिजाइन प्रदर्शन केन्द्र मद्रास में आफीसर-इन-चार्ज के पद पर कार्यरत हैं। उनके कुछ प्रसिद्ध चित्र है मछुआरिनें, नादस्वरम्, वादक, कृष्णलीला, कमल-हार तथा श्रृंगार ।