जहाँगीर साबावाला का जन्म बम्बई में 1922 ई० में हुआ था। आरम्भ में उन्होंने बम्बई विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया और 1936 से 41 तक वहाँ के स्नातक छात्र रहे: 1942 से 1943 पर्यन्त सर जे० जे० स्कूल ऑफ आर्ट बम्बई में कला की शिक्षा प्राप्त की और तत्पश्चात् विदेश चले गये।
1945 से 1947 तक वे हेदरले स्कूल आफ आर्ट लन्दन में प्रविष्ट रहे: तत्पश्चात् पेरिस की अकादेमी जूलियाँ एवं अकादेमी आन्द्रे ल्होते में 1948 से 1951 तक, 1953 से 1954 तक तथा अकादेमी दे ला ग्रान्दे शॉमीर में 1957 में कला की विभिन्न शैलियों का विशेष अध्ययन किया।
लन्दन में जहाँगीर ने रायल अकादमी की रूढ़िवादी पद्धति तथा आधुनिक प्रवृत्तियों का अध्ययन किया। उसके पश्चात् पेरिस में काफी समय तक प्रभाववादी तथा अन्य शैलियों का अनुशीलन करनेके पश्चात् घनवादी शैली के परिष्कृत चित्रकार आन्दे होते की कार्यशाला में पहुँच गये।
1958 में भारत आने पर उन्होंने शास्त्रीय तथा प्रभाववादी शैलियों में कार्य न करके घनवादी चित्रांकन आरम्भ किया। तब से लेकर अपने विकास के प्रत्येक चरण में ये घनवाद के ही विभिन्न रूपों के प्रयोग अधिक संख्या में करते रहे हैं किन्तु उनकी कला कभी अमूर्त नहीं हुई।
उनके चित्रों में जाने पहचाने रूप किसी-न-किसी विधि से उपस्थित रहे हैं। इनके पीछे जहाँगीर की स्वयं की प्रकृति तो है ही, चित्रों के भारतीय दर्शकों का मनोभाव (एप्रोच) भी है जो उनकी कला के विषय में चर्चा करने का एक सामान्य आधार बनता है।
जहाँगीर साबावाला ने आरम्भिक कला में तीन-चार बार शैली बदली। पहले घनवादी शैली में चित्रांकन आरम्भ किया। कुछ चित्र अकादमी पद्धति में भी बनाये और प्रभाववाद शैली में भी। फिर उनकी घनवादी शैली में प्रभाववाद का कुछ अंश मिल गया। इसके उपरान्त पुनः घनवादी द्वन्द्वात्मक शैली में चित्रांकन करने लगे।
फिर 1963 से अमूर्त चित्रण करते हुए एक विशेष त्रिकोणात्मक शैली में कार्य किया जिसमें आकारों को सूक्ष्मता से विभाजित कर अनुभूतियों को पूरे चित्र फलक पर रंगों के माध्यम से उतारा जाता है। वस्तुगत यथार्थ के स्थान पर कल्पनागत यथार्थ का अंकन होने लगा और प्रकाश तथा अन्तराल की एक नई संवेदना प्रकट हुई।
1970 के पश्चात् के उनके चित्रों में अन्तराल के अधिकाधिक विस्तार की अनुभूति प्रकट हुई। चमकदार चटख रंगों का सामंजस्य इनकी पद्धति का अनिवार्य अंग रहा है। फिर वे हल्के धुंधुले रंगों का भी प्रयोग करने लगे। अमूर्त चित्रण इसी का अगला कदम था।
साबावाला के अमूर्त चित्रण में प्रभाववाद का गीतितत्व, घनवाद का विश्लेषक बुद्धि तत्व और क्रियात्मक उत्साह घुल-मिल गये हैं जिनसे कलाकार की आन्तरिक भावना को निर्बाध अभिव्यक्ति का अवसर मिला है।
1980 के आस-पास वे पुनः आकृति के सम्बन्ध में प्रयोग करने लगे। उनकी आकृतियाँ सम्पूर्ण दृश्य (लैण्ड स्केप) में से उभरती और विलीन होती प्रतीत होती हैं। अपने अन्तिम प्रयोगों में उनके चित्र बहुत अधिक आकृति प्रधान हो गये हैं उनके धनात्मक तुलिकाघात मिश्रित होकर कोमल प्रभाव उत्पन्न करते हैं और उनमें अन्तराल का भी एक संकुल अनुभव होता है।
साबावाला के कुछ प्रमुख चित्र है शीरी की शबीह (अकादमी शैली), पवित्रात्मा कुमारी मेरी (अभिव्यंजनावादी शैली), झील के नीले आँचल में पत्रहीन वृक्ष ( प्रभाववादी शैली), ऊँटों का विश्राम तथा उजड़ा गाँव (घनवादी शैली), अस्वीकृत प्रणय (घनवादी
शैली), शान्ति (धनवाद तथा अमूर्त शैली का समन्वय), झरना (समन्वयात्मक) तथा बौद्ध भिक्षु ( आकृतिमूलक धनवादी शैली) ।