गुजरात के प्रसिद्ध चित्रकार श्री यज्ञेश्वर कल्याण जी शुक्ल (वाई० के० शुक्ल ) का जन्म सुदामापुरी ( पोरबन्दर, गुजरात) में हुआ था । बचपन से ही उनका स्वभाव मधुर था अतः कला के संस्कार उनमें सहज ही पनपने लगे ।
उनके पिता भी अहमदाबाद में चित्रकला के शिक्षक पश्चात् रहे थे । यज्ञेश्वर का बचपन अपनी जन्म-भूमि में ही व्यतीत हुआ । हाई स्कूल में अध्ययन करने के साथ-साथ वे चित्रकला का अभ्यास भी करते रहे । उसके ये अहमदाबाद आये जहां उनकी भेंट रविशंकर रावल से हुई।
रावल जी की प्रेरणा और पथ-प्रदर्शन में पहले उन्होंने चित्रों की अनुकृतियां कीं । ये इतनी अच्छी थीं कि इन्हें बहुत सराहा गया और इनके माध्यम से वे अहमदाबाद के कलाकारों के सम्पर्क में आये । अहमदाबाद के एक उद्योगपति द्वारा दी गयी आर्थिक सहायता से उन्होंने सन् 1930 ई० में सर जे०जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में प्रवेश लिया ।
वहां उनका परिचय भारतीय कला के शिक्षक श्री जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी से हुआ और उन्होंने वाश तथा टेम्परा पद्धतियों में विशेष दक्षता प्राप्त की । 1934 में वहा से डिप्लोमा प्राप्त करने के पश्चात वे इटली गये और वहां रोम की रायल एकेडेमी आफ फाइन आर्ट्स से 1939 में आनर्स के साथ डिप्लोमा परीक्षा उत्तीर्ण की, साथ ही भित्ति अलंकरण तथा धातु के अम्लांकन एवं काष्ठ के उत्कीर्णन में विशेष योग्यता प्राप्त की।
1947-48 में चीन के राष्ट्रीय ललित कला संस्थान से डिप्लोमा उत्तीर्ण किया। 1940 में इटली से लौटने के पश्चात ही आपने जे० जे० स्कूल आफ आर्ट बम्बई में पहले शिक्षक और बाद में शिल्प विभाग में प्रोफेसर एवं अध्यक्ष के पदों पर कार्य किया 1960 में आप गुजरात सरकार के ड्राइंग तथा क्राफ्ट के कार्य के इन्सपैक्टर नियुक्त हुए और इस पद पर 1964 पर्यन्त रहे ।
1960 से 1966 तक ललित कला अकादमी नई दिल्ली की कार्यकारिणी के सदस्य रहे तथा 1960 में आपने वियना ( आस्ट्रिया) में यूनेस्को द्वारा आयोजित ग्राफिक कला कान्फ्रेंस में भारत का प्रतिनिधित्व किया।
1968 से 1970 तक आपने बनस्थली विद्यापीठ राजस्थान में विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा चित्रकला के प्रोफेसर एमेरिटस तथा 1983 में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में विजिटिंग प्रोफेसर के पदों पर कार्य किया। 1986 में आपका निधन हो गया ।
आपकी अनेक प्रदर्शनियां हुई और अनेक पुरस्कार मिले। जे० जे०स्कूल में आपको मेयो पदक मिला था।
1959 में कलकत्ता फाइन आर्ट सोसाइटी का स्वर्ण पदक तथा 1942 में बम्बई के राज्यपाल का पुरस्कार मिला 1958 में आपको फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स सोसाइटी नई दिल्ली द्वारा प्रथम पुरस्कार से सम्मानित किया गया ।
गुजरात तथा राजस्थान के मन्दिरों के मूर्ति शिल्प पर कार्य करने के लिए आपको विश्वविद्यालय अनुदान आयोग द्वारा विशेष अनुदान दिया गया तथा राजस्थान के भित्ति चित्रों पर शोध के लिए 1968 में पुरस्कृत किया गया।
1934 से 1972 तक आपने अन्तर्राष्ट्रीय प्रदर्शनियों में भाग लिया और 1939 मे रोम तथा 1947 में पेकिंग में एकल प्रदर्शनियां आयोजित कीं ।
आपके आरम्भिक जल-रंग के कार्य पर अहिवासी जी की पूरी-पूरी छाप है जिसमें आपने प्रायः ग्रामीण जीवन तथा परम्परागत धार्मिक विषयों का ही अधिक चित्रण किया है। “गोरस की लूट” इस प्रकार के उत्तम चित्रों में से एक है । 1947-48 में चीन की यात्रा से आपकी शैली में चीनी प्रभाव भी आया ।
श्री शुक्ल के कार्य में पश्चिमी यथार्थवादी तथा भारतीय आदर्शवादी- दोनों पद्धतियों को देखा जा सकता है । उनमें मानव मुखाकृतियों के अध्ययन-चित्रों में वस्तुवादी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति को देखा जा सकता है। इनमें शरीर शास्त्रीय नियमों का भी पूर्णतः परिपालन हुआ है ।
इन्होंने जो कोलाज चित्र बनाये हैं उनमें वस्तुवादी यथार्थ के केवल अत्यावश्यक पक्षों का ही चित्र के डिजाइन के अनुसार चयन किया गया है जिसका उदाहरण “बधू” नामक कोलाज में देखा जा सकता है। चीन की यात्रा से आपके कार्य पर जो चीनी प्रभाव आया उसके उदाहरण घोडे, मछलियां, नृत्य करती आकृति आदि हैं ।
शुक्ल के अधिकांश कार्य पर यूरोपीय रिनेसां कला का प्रभाव स्पष्ट है। प्रकृति के वस्तुगत अध्ययन तथा बैठने वाले माडेल की पात्रगत विशेषताओं के अंकन आदि पर उन्होंने विशेष बल दिया है। फिर भी राजस्थानी लघु चित्रण का आरम्भ में जिस प्रकार उन पर प्रभाव रहा उसी प्रकार बाद में भी रंग-योजनाओं तथा संयोजनों की लयात्मकता में वह सुरक्षित रहा है।
इसी प्रकार भारतीय कला की आलंकारिक प्रवृत्ति आपके चित्रों तथा ग्राफिक कृतियों में निरन्तर बनी रही है आपकी कई चित्राकृतियों में प्रभाववादी प्रवृत्ति भी देखी जा सकती है जैसे जयपुर की एक गली. ग्रामीण दृश्य, रात्रि में वेनिस आदि ।
श्री शुक्ल एक ग्राफिक कलाकार भी थे किन्तु इनके ग्राफिक्स आधुनिक ग्राफिक्स की भांति नहीं है। इन्होंने इनमें जीवन तथा प्रकृति से प्रेरणा ली है. तकनीक गौण रहा है।
प्रायः ग्रामीण दृश्य, किशोरी, श्रृंगार, झूला, एकतारा, पद्मिनी, शकुन्तला आदि उनके विषय रहे हैं। रेखा का भारतीय लावण्य सुरक्षित रखने का प्रयत्न हुआ है। मस्जिद तथा रोमन लैण्ड स्केप कुछ भिन्न प्रकार के और प्रभाव वादी पद्धति के हैं।
‘अम्लांकन – द्वारा दृश्य चित्रण में उन्होंने अकादमी पद्धति का सहारा लिया है किन्तु आकृतियां भारतीय आदर्श के अनुरूप हैं। पीछे पर्वत आगे झोंपड़ियां, लम्बे ताड़ वृक्ष, गांव का विस्तृत दृश्य आदि उनके लिनो चित्रों की विशेषताएं हैं। उनकी नर-नारी आकृतियां रोमाण्टिक हैं