राजस्थान एक वृहद क्षेत्र है जो “अवोड ऑफ प्रिंसेज” माना जाता है इसके पश्चिम में बीकानेर, दक्षिण में बूँदी, कोटा तथा उदयपुर उत्तर में जयपुर तथा मध्य में जोधपुर है। यहाँ के निवासी हूण, गुर्जर, परिहार तथा मध्य एशिया की कुछ जातियों के वंशज माने गए हैं।
जिन्होंने 5वीं और 6वीं शताब्दी में भारत पर आक्रमण किया था धीरे-धीरे वह हिन्दुओं में सम्मलित होकर राजपूत कहलाये। इन्हीं राजपूत राजाओं के आश्रय में जो कला जन्मी वहीं राजस्थानी शैली कहलायी।
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राजस्थानी चित्र शैली की विशेषतायें
राजपूत लघु चित्रण परम्परा का एक सुदीर्घ इतिहास विभिन्न पुस्तकों में दृष्टान्त रूप में अथवा वसली पर छिन्न चित्रों के रूप में दिखायी देता है। जिसकी प्रेरणा कहीं मानव हृदय की गहनतम अनुभूतियों में छिपी थी। मानव स्वभाव की बारीकी एवं उसका मनोवैज्ञानिक अभिव्यक्तिकरण राजस्थानी कला का मूल मन्त्र रहा है।
राजस्थानी शैली का प्रत्येक चित्र मानवीय संवेदनाओं, पात्रों की भावनाओं तथा सूक्ष्म अनुभूतियों को अपनी तूलिका के रमणीय प्रकाश से मण्डित कर देता है। राजस्थानी शैली की कुछ प्रमुख विशेषताएँ इस प्रकार हैं:
रेखा सौष्ठव
राजस्थानी चित्रकारों ने विविध प्रकार की रेखाओं का आश्रय लेकर अभिव्यक्ति को सूक्ष्म बनाया है। सीधी एवं लयात्मक रेखाओं द्वारा वृक्षों, पत्तों, पुष्पों, पशु-पक्षियों तथा मुख्य रूप से मानवाकृतियों के सुन्दर आकारों को अलंकारिक शैली में प्रस्तुत किया है कहीं हल्की, कहीं गहरी, कहीं मोटी, कहीं पतली रेखाओं के माध्यम से बारीकी से चित्रण किया गया हैं प्रत्येक रेखा मूक होते हुए भी वाचाल है।
वर्ण नियोजन
राजस्थानी शैली में रंगों का उन्मुक्त प्रयोग हुआ है। अधिकांशत तीव्र एवं चमकदार रंग हैं। प्रायः लाल, हरा, पीला, श्वेत आदि का अधिक प्रयोग किया है।
प्रकृति चित्रण
प्रकृति की अवर्णनीय एवं अनुपम छटा राजस्थानी लघुचित्रों में हमें स्थान-स्थान पर दिखायी देती है। राजस्थानी कलाकारों ने बहुरूपी पल्लवित पुष्पों, मंजरियों एवं लताओं से युक्त पेड़-पौधों को जहाँ सौन्दर्यात्मक ढंग से प्रस्तुत किया है, वहीं पृष्ठभूमि में उसे प्रतीकात्मक सहयोगी रूप में प्रस्तुत कर आकृतियों के साथ संतुलित भी किया है।
पशु-पक्षी चित्रण
राजस्थानी शैली के विभिन्न चित्रों में यथासम्भव पशु-पक्षियों का चित्रण मनोवैज्ञानिक रूप लिए है जिनमें मुख्य रूप से गाय, मोर, हाथो, बत्तख, ऊँट, कोयल, चातक, हरिण आदि हैं। कहीं ये पशु-पक्षी मानवाकृतियों के व्यक्तिगत भावों के साथ सामञ्जस्य उत्पन्न करते हैं और कहीं पशुओं को देवता मान कर चित्रित किया गया है।
नारी चित्रण
नारियों के विविध रूपों के प्रस्तुतीकरण में राजपूत कला का सौन्दर्य सर्वोपरि है। अप्रतिम सौन्दर्य की देवी के रूप में नारी राजपूत चित्रों की शोभा बढ़ाती है। नारी को रानी, दासी, देवी, गोपिका के अतिरिक्त नायिका भेद के विविध रूपों जैसे खण्डिता, प्रोषित पतिका, वासक सज्जा, अभिसारिका आदि रूप भी दिए गए हैं।