पटना शैली

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उथल-पुथल के इस अनिश्चित वातावरण में दिल्ली से कुछ मुगल शैली के चित्रकारों के परिवार आश्रय की खोज में भटकते हुए पटना (बिहार) तथा कलकत्ता (बंगाल) में जा बसे यहाँ पर इन चित्रकार परिवारों ने एक विशिष्ट शैली को जन्म दिया, जो पटना या कम्पनी शैली के नाम से प्रसिद्ध है। 

दिल्ली सल्तनत की ओरंगजेब काल में अवस्था बिगड़ने पर अनेक कलाकार दिल्ली छोड़कर नवाव मुर्शिदाबाद के आश्रय में पहुँच गए। नवाब मुर्शिदाबाद ने इन कलाकारों को लगभग चालीस वर्ष तक अच्छा संरक्षण दिया परन्तु अफगान, मराठा, रुहेला और जाट आक्रमणों के कारण तथा विशेष रूप से कम्पनी के झगड़ों आदि के कारण नवाब की स्थिति खराब हो गई। 

इन चालीस वर्षों तक मुर्शिदाबाद कला का केन्द्र बना रहा परन्तु १७५०-१७६० ई० के मध्य कलाकारों को पुनः आश्रय की खोज में भटकना पड़ा। ये चित्रकार मुर्शिदाबाद छोड़कर इस समय पटना होते हुए कलकत्ता जा बसे, इस प्रकार पटना में भी दिल्ली-कलम पहुँची। इसी समय दूसरे कलाकार परिवार भी वहाँ जाकर बस गए।

पटना व्यापारिक केन्द्र था और अंग्रेज़ी सरकार के अनेक कार्यालय पटना में थे। इस प्रकार अंग्रेज़ों का यहाँ रहना स्वाभाविक था ये अंग्रेज अधिकारी इन भारतीय चित्रकारों से अपने लघु व्यक्तिचित्र बनवाते थे और विशेष रूप से भारतीय पशु-पक्षी तथा प्रकृति के चित्रों की मांग करते थे इस प्रकर के अनेक चित्र कमिश्नर टेलर तथा दूसरे अंग्रेज़ अधिकारियों ने बनवाये और इंग्लैंड भेजे, इसलिए इस शैली को कम्पनी शैली या जान कम्पनी शैली के नाम से पुकारते हैं। इस प्रकार के अनेकों चित्र पटना संग्रहालय तथा विदेशी कला दीर्घाओं में सुरक्षित हैं।

पटना शैली के दो चित्रकारों को वाराणसी के महाराजा ईश्वरीनारायण सिंह (१८३५-१८०६ ई०) ने संरक्षण दिया। ये कलाकार लालचंद और उसका भतीजा गोपालचंद थे। कहा जाता है कि ये दोनों काशी के चित्रकार दल्लूलाल के शिष्य थे। ये दोनों चित्रकार पटना शैली में व्यक्ति चित्र बनाने में निपुण थे।

पटना शैली या कम्पनी शैली के अधिकांश चित्र राजा, रईसों जागीरदारों या अंग्रेजों के आदेश पर बनाये गए। इसी समय चित्रकारों ने अबरक (अभ्रक) के पन्नों पर अति लघु चित्रों का निर्माण आरम्भ किया।

उन्नीसवीं शताब्दी को पटना शैली के उत्थान का समय माना जाता है। इस समय में पटना शैली के चित्रकारों में सेवकराम का नाम प्रमुख हे लाला ईश्वरी प्रसाद (कलकत्ता आर्ट स्कूल के भूतपूर्व उपाध्यक्ष) के पितामह शिवलाल भी पटना के वंश परम्परागत चित्रकार थे। 

इनके अतिरिक्त हुलासलाल, जयराम दास, झूमकलाल, फकीरचंद आदि चित्रकारों का कार्यकाल १८३०-१६५० ई० के मध्य माना गया है। इस समय पटना के चित्रकारों ने फिरका – चित्रों के अतिरिक्त कागज़ तथा हाथी दांत फलकों पर भी चित्र बनाये। 

पटना शैली के चित्रकारों ने हाथी, घोड़े आदि जानवरों तथा सवारियों आदि के चित्र भी अंकित किये। पटना शैली के चित्रों में जनसाधारण जैसे ‘मछली बेचने वाली’, ‘टोकरी सुनने वाले’, ‘चक्की वाले’, ‘लोहार’, ‘दर्जी’, ‘सेविका’ आदि को भी चित्रित किया गया.

पटना शैली के चित्रों में रेखांकन की यथार्थता है, तथापि भावना की कमी है, परन्तु आकृति की सीमारेखाएँ बहुत संतोषजनक बनायी गई हैं। 

कुछ समय तक पटना शैली के चित्रकारों को ईस्ट इंडिया कम्पनी के यूरोपियन व्यवसाइयों और एंगलो इंडियन्स का संरक्षण प्राप्त होता रहा। इन संरक्षकों ने भारतीय तथा यूरोपियन मिश्रित शैली के शबीह चित्रों की मांग की। इन चित्रों में मानव आकृतियों को बहुत कोमलता से चिकना, गठनयुक्त और बारीकी से बनाने की चेष्टा की गई है। 

इन चित्रों में दिल्ली-कलम की कारीगरी पर्याप्त समय तक बनी रही, परन्तु रंग भद्दे हैं। सामान्यतः भूरे, गंदे हरे, गुलाबी तथा काले (स्याही) रंगों का चित्रों में प्रयोग किया गया है। इस प्रकार के अनेकों चित्र प्राप्त हैं जो ‘जान कम्पनी’ काल की कला के द्योतक हैं।

दक्षिणी भारत के राज्यों की कला मुगल साम्राज्य के पतन के साथ ही उत्तरी भारत की राजनैतिक अवस्था विशृंखलित होने लगी, परन्तु दक्षिणी भारत के अनेक राज्य स्थिर रूप में कला विकास में योगदान प्रदान कर रहे थे। दक्षिणी भारत में चित्रकला का उत्तरी भारत की अपेक्षा भिन्न रूप में विकास हुआ। 

दक्षिण में सोलहवीं शताब्दी से ही फारसी चित्रण शैली प्रचलित थी। सम्भवतः फारसी चित्रकला को तुर्कमान शासकों ने अपने-अपने मुसलमान राज्यों में आश्रय प्रदान किया। 

इस शैली के आरम्भिक चित्र उदाहरणों में तैमूरिया कला का प्रभाव परिलक्षित होता है परन्तु कालान्तर में स्थानीय अपभ्रंश तथा राजस्थानी कला के संयोग से इस शैली का रूप परिवर्तित हो गया और यह शैली बहुत कुछ मुगल शैली के समान दृष्टिगोचर होने लगी, परन्तु फिर भी इस चित्रकला में कुछ नगण्य सी अपनी निजी विशेषताएँ स्थायी रूप से प्रचलित रहीं, जिनके फलस्वरूप इस शैली का विकास उत्तरी भारत की चित्रकला से सर्वथा भिन्न रहा। 

मुगल साम्राज्य के पतन से चित्रकारों के अनेक परिवार दक्षिण में भी आश्रय की खोज में पहुँचे। इन चित्रकारों ने सम्भवतः दक्षिणी शैलियों को वल तथा शक्ति प्रदान की। 

दौलताबाद तथा औरंगाबाद के चित्रकारों की कृतियाँ उत्तरी भारत के चित्रकारों की कृतियों की तुलना में छोटी हैं और उनमें वह जीवन तथा गति नहीं है और चित्रों के विषय प्रायः ऐतिहासिक हैं जो समकालीन दक्षिण के शासकों से सम्बन्धित हैं। इन चित्रकारों के वंशज आज भी हैदराबाद तथा निकोण्डा में परम्परागत रूप से कारीगरी आदि के काम करते हैं।

भारत के सुदूर दक्षिणी क्षेत्रों में चित्रकला भिन्न रूप में ही जीवित रही, परन्तु चित्रों की परम्परा तथा शैली उसको उत्तरी भारत की कला से निबद्ध कर देती है। तारानाथ ने दक्षिण की चित्रकला का संक्षिप्त इतिहास प्रस्तुत किया है। लामा तारानाथ ने दक्षिण के तीन कलाकारों जय, पराजय तथा विजय का उल्लेख दिया है। इन चित्रकारों के अनेक अनुयायी थे। दक्षिण की चित्रकला का विकास दो भिन्न-भिन्न संस्थाओं- तंजौर तथा मैसूर में हुआ।

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