पटना चित्रकला | पटना या कम्पनी शैली | Patna School of Painting

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पटना चित्रकला

औरंगजेब द्वारा राजदरबार से कला के विस्थापन तथा मुगलों के पतन के बाद विभिन्न कलाकारों ने क्षेत्रीय नवाबों के यहाँ आश्रय लिया। इनमें से कुछ कलाकारों ने दिल्ली त्याग कर मुर्शिदाबाद में बसने का निर्णय लिया। किंतु दुर्भाग्य ने इनका पीछा यहाँ भी नहीं छोड़ा। 

1757 ई. में प्लासी युद्ध के बाद मीरन (बंगाल के नवाब मीर जाफर का पुत्र) द्वारा लगाई गई कला संबंधी बंदिशों के कारण इन कलाकारों को एक बार पुनः मुर्शिदाबाद छोड़ना पड़ा। इन्हीं कलाकारों के कुछ समूह बिहार राज्य के पटना एवं पूर्णिया आदि नगरों में आकर बसे 18वीं शताब्दी के अंत में इन्हीं कलाकारों ने उस महान कला शैली को जन्म दिया, जिसे हम आज पटना कलम शैली के नाम से जानते हैं। 

यह शैली चित्रकला का एक क्षेत्रीय रूप है, जो बिना किसी राजाश्रय के फली फूली। इस कला के संरक्षक और खरीददार तत्कालीन नवधनाढ्य भारतीय एवं ब्रिटिश कला प्रेमी थे।

इस चित्रकला के विकास का युग 18वीं सदी के मध्य से लेकर 20वीं सदी के आरंभिक काल तक रहा। इस शैली के कलाकारों के पूर्वज मुगल अथवा पहाड़ी आदि चित्र शैलियों के सुप्रसिद्ध चित्रकार थे। अतः इस शैली के प्रारंभिक चित्रों पर मुगल एवं पहाड़ी शैली की छाप स्पष्ट दिखाई देती है। 

इन कलाकारों का मुर्शिदाबाद और कलकत्ता से भी संपर्क रहा था। इनके माध्यम से इस शैली ने यूरोपीय प्रभाव को भी ग्रहण किया एवं अपनी कृतियों में उसे प्रदर्शित भी किया। अर्थात् पटना कलम शैली मुगल, यूरोपीय और स्थानीय चित्रकला परंपराओं का मिश्रण है। परंतु, आगे चलकर इन चित्रों की प्रस्तुति में सादगी एवं विषयवस्तु में सरलता तथा मौलिकता आती चली गई।

पटना शैली के चित्र लघुचित्रों की श्रेणी में आते हैं, जिन्हें अधिकतर कागज पर और कहीं-कहीं हाथी दाँत पर भी बनाया गया है। इस शैली की प्रमुख विशेषता इसका सादगीपूर्ण तथा समानुपातिक होना है। इन चित्रों में मुगल चित्रों जैसी भव्यता का अभाव है। साथ ही कांगड़ा चित्र शैली के विपरीत इनमें भवन स्थापत्य कला की विविधताएँ भी अनुपस्थित हैं। इनमें चटख रंगों का प्रयोग नगण्य है। इस शैली के हर चित्र में विविधता एवं नयापन है तथा पूरी कृति में लयात्मकता है।

यह शैली विषयवस्तु के लिहाज से राजकला न होकर जनकला थी। इस शैली में बिहार के सामान्य जन-जीवन का चित्रांकन हुआ है। इन चित्रों में श्रमिक वर्ग (कसाई, कहार, नौकरानी, भिश्ती), दस्तकारी वर्ग (बढ़ई, लोहार, सोनार, रंगरेज), तत्कालीन आवागमन के साधनों (पालकी, घोड़ा, हाथी, एक्का, बैलगाड़ी), बाजार के दृश्य (मछली, ताड़ी, गांजे तथा मिठाई की दुकान आदि) का चित्रांकन हुआ है। 

इसी तरह मदरसा, पाठशाला, दाह संस्कार, त्योहारों (होली, दशहरा आदि) एवं साधु-संतों के भी चित्र बनाए गए हैं। साथ ही प्राचीन स्मारकों (गोलघर, पश्चिमी दरवाजा आदि) के अलावा फूल-पत्ती एवं जीव-जंतुओं को भी प्रचुरता में दर्शाया गया है।

जहाँ तक बारीकियों का प्रश्न है पटना शैली के चित्रकारों को इसमें महारत हासिल थी। इस शैली के चित्रों में चिड़ियों का चित्रण खासतौर से देखने योग्य है। इन चित्रों को देखकर ऐसा प्रतीत होता है कि इन कलाकारों को पक्षियों के शरीर विज्ञान की गहन जानकारी थी। इन लघु चित्रों में पक्षियों के एक-एक पंख एवं रोयें का इतना स्पष्ट चित्रण किया गया है कि देखने वाले मंत्रमुग्ध हो जाते हैं।

कहीं-कहीं इन कलाकारों की दबी हुई कल्पनाएँ अलंकरण के साथ मुखरित हो उठी हैं। जैसे महादेव लाल द्वारा बनाया गया ‘रागिनी गांधारी चित्र’ जिसमें नायिका के विरह के अवसाद को बहुत बारीकी से दर्शाया गया है। 

माधोलाल द्वार बनाया गया ‘रागिनी तोड़ी’ पर आधारित चित्र भी उल्लेखनीय है, जिसमें विरहिणी नायिका को वीणा लिए हुए दिखाया गया है। इसी तरह शिवलाल द्वारा निर्मित ‘मुस्लिम निकाह’ का चित्र तथा यमुना प्रसाद द्वारा चित्रित बेगमों की शराबखोरी का चित्र भी महत्त्वपूर्ण है।

इस शैली में पृष्ठभूमि एवं लैंडस्केप का ज्यादा प्रयोग नहीं किया गया है क्योंकि चित्रकार की कल्पना को मूर्त रूप देना पूर्ण रूप से संभव नहीं था। उसके लिए पृष्ठभूमि एवं प्राकृतिक दृश्यों को बढ़ाना पड़ता, जो महँगा था और इसकी पूर्ति करने वाला कोई नहीं था। 

अतः इन लोगों ने कम खर्चीले प्रयोग करना ज्यादा उचित समझा। जैसे मनुष्य के चित्रों में ऊँची नाक, भारी भवें, पतले चेहरे, गहरी आँखें और घनी मूंछें दिखाई गई हैं।

कलाकार एक-दो बालों वाले ब्रशों का इस्तेमाल महीन कार्यों के लिए किया करते थे। तूलिकाएँ गिलहरी की दुम के बालों से तैयार की जाती थीं। कारण वे सुदृढ़ एवं मुलायम होती थी। मोटे कामों के लिए बकरी, सुअर अथवा भैंस की गर्दन के बालों का इस्तेमाल किया जाता था जो अपेक्षाकृत कड़े होते हैं। 

कड़े होने के कारण इन बालों को पहले उबाला जाता था, जिससे उनका कड़ापन कुछ कम हो जाता था, तब उन्हें तूलिका के लिए इस्तेमाल किया जाता था।

इस शैली की विषयवस्तु को पेंसिल से रेखांकित (स्केच) कर उन्हें रंगने की प्रक्रिया सामान्यतः नहीं अपनाई जाती थी, बल्कि तूलिका एवं रंग से सीधे कागज पर चित्रांकन किया जाता था। चित्रों को अंकित करने की आधारभूमि सर्वप्रथम कागज पर ही बनाई जाती थी. परंतु विविधता एवं स्थायित्व लाने के लिए बाद में इसे चमड़ा, धातु, शीशा, अभ्रक, हाथी दाँत आदि पर भी बनाया जाने लगा। वे सामग्रियाँ सामान्यतः बनारस से मँगाई जाती थीं। 

कागज हस्तनिर्मित होता था, जो रद्दी कागजों की लुग्दी से कलाकार द्वारा स्वयं तैयार कर लिया जाता था। बाँस से निर्मित नेपाली कागजों का इस्तेमाल भी चित्रकारी के लिए होता था। हालांकि बाद में चित्रकारी के लिए कागज यूरोप से भी आयातित होने लगा था।

इसके रंग प्राकृतिक होते थे, जो चित्रकारों द्वारा स्वयं तैयार किए जाते थे। चित्रकार विभिन्न छाँहों (शेड्स) के लाल रंग लाख से, सफेद रंग विशेष प्रकार की मिट्टी से, काला रंग कालिख अथवा जलाए गए हाथी दाँत की राख से, नीला रंग नील से, लाजवर्दी रंग लैपिस लाजुली नामक पत्थर से एवं गेरुआ रंग एक विशेष प्रकार की स्थानीय मिट्टी से तैयार करते थे। 

नीला और पीला रंग मिश्रित कर वे हरा रंग बनाते थे। इसके अलावा सोने एवं चाँदी के वर्कों से क्रमश: सुनहरा एवं चोदी सा रंग भी तैयार करते थे। पटना शैली पर मुगल शैली का प्रभाव होते हुए भी यह शैली मुगल शैली से कई अर्थों में पूर्णतः भिन्न है। 

इस शैली में मुगल शैली के चित्रों जैसी भव्यता का अभाव है। इसमें न तो मुगल शैली के चित्रों की भाँति राजे-रजवाड़ों से संबंधित विषयवस्तु है और न ही इन चित्र में उस वैभव के ही दर्शन होते हैं। 

पटना शैली चित्रों की सजीवता और सामान्य जीवन से उनका घनिष्ठ संबंध सबसे महत्त्वपूर्ण बात है। इसके अलावा रंगों के उपयोग और छायांकन के तरीके में भी स्पष्ट अंतर दिखता है। सजीवता एवं सुंदरता में पटना शैली के हाथी के दाँत पर बने लघुचित्र मुगल शैली के चित्रों से बेहतर माने गए हैं।

पटना शैली के कलाकारों में सबसे पहला नाम सेवकराम (1770-1830 ई.) का है। उन्हीं के समकालीन हलासलाल (1785-1875 ई.) थे। अन्य महत्त्वपूर्ण चित्रकारों में प्रमुख श्री जयराम दास, शिवदयाल लाल, गुरुसहाय लाल आदि । 

इस चित्रकला के अंतिम कलाकार ईश्वरी प्रसाद वर्मा के पटना से कलकत्ता चले जाने के बाद बिहार में इस कला की पहचान बरकरार रखने के लिए राधामोहन बाबू ने दिन-रात अथक प्रयास किया। इस कला शैली के पारखी राधामोहन बाबू को छाया चित्र (पोर्ट्रेट) की सर्जना का आचार्य कहा जाता है। पटना शैली के आखिरी संरक्षक राधामोहन बाबू की मृत्यु 1997 ई. में हो गई।

लगभग डेढ़ शताब्दी तक यह शैली प्रचलित रही, लेकिन 19वीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में इस शैली का पतन आरंभ से गया। क्योंकि इस समय तक अनेक कला संरक्षक काल-कवलित एवं अनेक कलाकार आश्रयहीन हो गए थे। 

परिणामत: रोजी-रोटी की तलाश में एक-एक कर वे लोग सरकारी नौकरी अथवा अन्य व्यवसायों में लग गए। कुछ कलाकार रोजगार की तलाश में कलकत्ता एवं कुछ मथुरा आदि स्थानों पर चले गए। अतः पटना कलम शैली विनष्ट हो गई। पटना शैली एक लोककला थी, जिसमें प्राकृतिक रूपों का विशेष ध्यान रखा गया। 

धन एवं आश्रय के अभाव में इस कला शैली का पतन हो गया किंतु इसके चित्रों की महत्ता आज भी है। साथ ही, यह बिहार की गौरवशाली कला परंपरा की अमूल्य धरोहर है। इस शैली के चित्रों का संग्रह खुदाबख्श लाइब्रेरी, पटना एवं पटना म्यूजियम में सुरक्षित है।

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