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बंगाल में पुनरुत्थान
19 वीं शती के अन्त में अंग्रजों ने भारतीय जनता को उसकी सास्कृतिक विरासत से विमुख करके अंग्रेजी सभ्यता सिखाने की चेष्टा की अंग्रेजों ने भारतीय कला की भी कटु आलोचना की।
बर्डवुड नामक एक अंग्रेज अधिकारी ने प्राचीन बौद्ध प्रतिमाओं की तीखी समालोचना करते हुए कहा था कि ‘एक उबला हुआ चर्बी से बना पकवान भी आत्मा की उत्कट निर्मलता तथा स्थिरता के प्रतीक का काम दे सकता है।’
जिन यूरोपियनों को भारत से थोड़ी भी सहानुभूति थी उन्होंने श्रेष्ठ भारतीय मूर्तियों पर यूनानी प्रभाव बताया।
इन परिस्थितियों को देखते हुए रवीन्द्रनाथ ठाकुर तथा देशबन्धु चित्तरंजन दास आदि ने भारतीय जनता को उद्बोधित करने का प्रयत्न किया।
सन् 1884 ई० में श्री ई० बी० हैवेल मद्रास कला विद्यालय के प्रधानाचार्य बने। भारत में कॉंग्रेस की स्थापना होने से जागृति की कुछ लहर आई । हैवेल ने भी इसमें योग दिया।
1866 ई० में उन्होंने संसार भर का ध्यान भारत की चित्रकला की ओर आकर्षित किया। उन्होंने कहा कि यूरोपीय कला तो केवल सांसारिक वस्तुओं का ज्ञान कराती है पर भारतीय कला सर्वव्यापी, अमर तथा अपार है कुछ समय पश्चात् बे कलकत्ता कला-विद्यालय के प्रिन्सिपल भने यहाँ उनके सम्पर्क में अवनीन्द्रनाथ ठाकुर आये जिन्होंने आगे चलकर पुनरुत्थान का सूत्रपात किया अवनी बाबू की कला पर पश्चिमी (यूरोपीय), ईरानी, चीनी, जापानी, मुगल, राजपूत तथा अजन्ता का प्रभाव था।
अतः इन सबके समन्वय से उन्होंने नयी कला का आरम्भ किया। 1905 ई० में अवनी बाबू कलकत्ता आर्ट स्कूल के प्रिंसिपल नियुक्त किये गये।
वहाँ उन्होंने अनेक शिष्य तैयार किए जो देश के विभिन्न भागों में फैले और कला का प्रचार करने लगे। नन्दलाल बसु, असित कुमार हाल्दार, क्षितीन्द्रनाथ, मजूमदार, समरेन्द्रनाथ गुप्त, देवी प्रसाद रायचौधुरी तथा उकीलबन्धु इनमें प्रमुख थे।
व्यक्तिगत विशेषतायें होते हुए भी सब पर अवनी बाबू का प्रभाव था। बंगाल के गवर्नर सर कारमाइकेल तथा लार्ड रोनाल्डशे ने इस आन्दोलन की सब प्रकार सहायता की।
1907 ई० में “इण्डियन सोसाइटी आफ ओरिएण्टल आर्ट” की स्थापना हुई। लार्ड किर्चनर इसके सभापति तथा जान वुडराफ, अवनीन्द्रनाथ ठाकुर, गगनेन्द्रनाथ ठाकुर, जस्टिस रेम्पिनी, महाराजा जगदीन्द्रनाथ, सुरेन्द्रनाथ ठाकुर, समरेन्द्र नाथ ठाकुर तथा जैमिनी प्रकाश गाँगुली आदि इसके आरम्भिक सदस्य थे।
इस सोसाइटी का मुख्य कार्य व्याख्यानों, प्रदर्शनियों तथा प्रकाशनों द्वारा पूर्वी कला का प्रचार-प्रसार करना था।
सन् 1919 ई० में “रूपम्” नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ हुआ तथा भारतीय परम्परागत कला की शिक्षा के लिये अवनीन्द्रनाथ, गगनेन्द्रनाथ, नन्दलाल बसु और क्षितीन्द्रनाथ ने इसकी कक्षाएँ चलाई।
इस संस्था की प्रथम प्रदर्शनी में अवनीन्द्र नाथ ठाकुर, गगनेन्द्रनाथ ठाकुर, नन्दलाल बसु. सुरेन्द्र नाथ गांगुली, असित कुमार हाल्दार तथा के० वेंकटप्पा ने भाग लिया।
धीरे-धीरे पदर्शनियों में भाग लेने वाले कलाकारों की संख्या बढ़ती चली गयी। ई० बी० हैवेल, पर्सी ब्राउन, आनन्द कॅटिश कुमारस्वामी आदि ने भी इस संस्था को भरपूर सहयोग दिया।
अर्धेन्दुचन्द्र गांगुली (ओ०सी० गांगुली) ने ‘रूपम्’ का सम्पादन किया और कुमारस्वामी ने अपनी पैनी लेखनी से पाश्चात्य कला की कमियाँ बताते हुए पूर्वी कला की विशेषताओं का उद्घाटन किया।
ओ० सी० गांगुली तथा थियोसोफीकल सोसाइटी के जेम्स एच० कजिन ने विश्व भर में इसके समर्थन में लेख लिखे और चल प्रदर्शनियों तथा व्याख्यानों का आयोजन किया।
एन० सी० मेहता, आर० एम० रावल, स्टेला क्रामरिश तथा कार्ल खण्डालावाला आदि ने भी इसमें सहयोग दिया। फ्रांस, जर्मनी तथा अन्य देशों में इस शैली की प्रदर्शनियाँ आयोजित की गयीं।
अवनीन्द्रनाथ ने भी भारत शिल्प के षडंग तथा अल्पना आदि पुस्तकें लिखकर भारतीय कला का प्रचार किया। जापान के सुप्रसिद्ध कलाविद् तथा दार्शनिक विचारक ओकाकुरा 1902 में भारत आये थे वे पूर्वी कला के विकास के पक्षपाती थे और पूर्वी देशों के उन कलाकारों के तीव्र आलोचक थे जो पश्चिमी कला की नकल कर रहे थे।
1903 ई० में उनकी पुस्तक “आइडियल्स आफ द ईस्ट” प्रकाशित हुई। अवनी बाबू भी काउण्ट ओकाकुरा के सम्पर्क में आये और भारतीय कला के पुनरुत्थान के कार्य में प्राण-पण से लग गये।
दो जापानी चित्रकार याकोहामा ताइक्वान और हिशिदा भी भारत आये और लगभग दो वर्ष तक अवनी बाबू के साथ रहे।
अवनी बाबू ने उनसे चीनी- जापानी चित्रकला पद्धति सीखने के साथ-साथ अन्य कलाकारों से फारसी, तिब्बती, जावा तथा स्याम की कला शैलियों का ज्ञान भी प्राप्त किया और एक नवीन तकनीक का विकास किया जिसे “बंगाल शैली” अथवा “ठाकुर शैली” कहा जाता है अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के इन प्रयत्नों का सर्वत्र स्वागत हुआ और लन्दन की इण्डिया सोसाइटी ने अजन्ता के चित्रों के अनुकृति के लिये लेडी हेरिंघम की अध्यक्षता में जो दल भारत भेजा था उसमें अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के शिष्यों, नन्दलाल बसु, असित कुमार हाल्दार, समरेन्द्रनाथ गुप्त तथा वेंकटप्पा को भी आमन्त्रित किया गया।
ई० बी० हेवेल ने बंगाल की लोक पट चित्रकला के साथ-साथ भारतीय कला पर “आइडियल्स आफ इण्डियन आर्ट”, “इण्डियन पेण्टिंग एण्ड स्कल्पचर”, “दी बंगाल पट” तथा “अजन्ता फ्रेस्कोज आदि पुस्तकें लिखीं।
सभी प्रकार के प्रयोग किये गये जिनमें नन्दलाल बसु तथा असित कुमार हाल्दार अवनी बाबू के प्रमुख सहायक थे। काष्ठ, रेशम तथा भित्ति पर भी चित्रण किया गया।
बंगाल शैली की विशेषताएँ
(1) इस शैली की प्रेरणा के प्रधान स्रोत अजन्ता, मुगल तथा राजस्थानी चित्र थे। जापान, चीन, ईरान तथा यूरोप की कला का भी अप्रत्यक्ष रूप से प्रभाव पड़ा था
(2) इस शैली में सरलता, स्पष्टता तथा स्वाभविकता है। नियमों का इसमें इतना लचीलापन है कि इसका प्रत्येक चित्रकार पृथक् विशेषताओं का विकास कर सका है।
(3) कोमल तथा गतिपूर्ण रेखांकन में इसके चित्रकारों ने भारत की प्राचीन चित्रकला तक पहुँचने का प्रयत्न किया है।
(4) शरीर रचना के नियमों में प्राचीन सामान्य पात्र-विधान का पालन किया गया है।
(5) रंग योजना कोमल और सामंजस्यपूर्ण है। जल-रंगों का प्रयोग हुआ है जिन्हें कुछ चित्रकारों ने वाश पद्धति से भरा है। टेम्परा रंगों का भी प्रयोग हुआ है।
(6) प्रायः प्राचीन ऐतिहासिक, पौराणिक एवं साहित्यिक विषयों का चित्रण हुआ है तथा सामयिक भारतीय घरेलू जीवन के भी कुछ चित्र बने हैं; किन्तु तत्कालीन राजनीतिक वातावरण का इस पर तनिक भी प्रभाव नहीं है।
इस शैली का प्रादुर्भाव स्वतन्त्रता आन्दोलन के रूप में हुआ था। आरम्भ में तो इसका सर्वत्र विरोध हुआ क्योंकि लोगों ने समझा कि यूरोपीय संस्कृति की अच्छी बातों के प्रचार से भारत की उन्नति हो सकती है उसमें यह रोड़ा अटकाएगी; किन्तु आन्दोलन में भाग लेने वाले कलाकार तथा कला-आलोचक दृढ़ता से अपने मार्ग पर बढ़ते रहे और अन्त में देश भर में अपना प्रभाव फैलाने में सफल हुए।
भारत के बाहर भी इनके चित्रों की प्रदर्शनियों आयोजित की गयीं और उनके कारण यूरोपीय आलोचकों का मत भी भारतीय कला के प्रति कुछ उदार हो गया।
पुनरुत्थान काल के इस आन्दोलन का वास्तविक महत्व और स्वरूप जनता को समझाने में डा० जेम्स, श्री हैवेल, डा० स्टैला क्रामरिश, डा० आनन्द कुमारस्वामी, श्री एन० सी० मेहता, श्री असित कुमार हाल्दार तथा श्री ओ० सी० गांगुली आदि ने बहुत प्रयत्न किया।
इस आन्दोलन से भारतीयों में राष्ट्रीय शैली का विचार पनपा । यद्यपि आगे चलकर इसका हास हो गया और कलाकारों ने अपने-अपने व्यक्तिगत मार्गों पर बढ़ना आरम्भ कर दिया परन्तु जैसे राजनीतिक दृष्टि से कॉंग्रेस का राष्ट्रीय महत्व है वैसे ही कला के क्षेत्र में बंगाल स्कूल का महत्व है।
इस नव-जागृति को अग्रसर करने में अवनीन्द्रनाथ का योग कलाकार के रूप में, बल्कि मुख्यतया एक शिक्षक तथा गुरु के रूप में रहा है।
उन्होंने अपने शिष्यों की प्रतिभा के विकास में कभी भी रुकावट नहीं डाली उनके शिष्य शान्ति निकेतन, लखनऊ, जयपुर, मद्रास तथा लाहौर आदि के कला-विद्यालयों के प्रिंसिपल बने.
बंगाल शैली की कमियाँ
इस शैली में अनेक घटिया चित्रों का निर्माण हुआ। प्राचीन कला से प्रेरणा का दावा करते हुए भी यह प्राचीन परम्परा की निष्प्राण अनुकृति रह गई।
संयोजन, रंग योजना, भावों की उदात्तत्ता तथा चित्रण-विधि आदि में किसी भी पुरानी बात को नहीं अपनाया गया।
इस शैली में जो कुछ बनाया गया वह परिणामहीन अनुकृति मात्र था पतली बाँहें, लम्बी उँगलियाँ, अधखुली आँखें और घुले रंग- यह सब प्राचीन कला का उपहास नहीं तो क्या था?
आलोचकों ने यह भी कहा है कि इन चित्रकारों में कोरी भावुकता, दुर्बल रेखांकन, आधुनिक जीवन से पलायन, धूमिल रंग योजना तथापूर्व और पश्चिम की विभिन्न शैलियों की केवल एक घण्डचीथ है।
ये सभी बातें अंशतः ठीक हैं किन्तु इस शैली की केवल घटिया कृतियों पर ही लागू होती हैं। अवनीन्द्रनाथ, गगनेन्द्रनाथ, नन्दलाल बसु, वेंकटप्पा आदि के ऐसे अनेक चित्र हैं जो विदेशों में भी सम्मानित हुए हैं।
इस शैली में जो कमियों थीं, उनके कारणों को लक्ष्य करके अपनी बाबू ने कहा था, “हम भारत वासी वस्तुओं को केवल अपने ही भावों से चित्रित करते हैं। हम प्रसन्न नहीं हैं, क्योंकि भारत में मुस्कान नहीं।
हमारी आत्माओं में अन्धकार है, क्योंकि हम स्वतन्त्र नहीं”। इस प्रकार इस शैली की कमजोरियों का वास्तविक कारण यही था कि भारत के पढ़े-लिखे लोग अंग्रेजी कला और संस्कृति से अत्यधिक प्रभावित थे और उनकी दृष्टि में भारत के अतीत काल के पास उन्हें प्रेरित करने के लिए कोई सन्देश नहीं रह गया था।
ऐसी कठिन परिस्थिति में विरोधों का सामना करते हुए अवनी बाबू ने राष्ट्रीय विचारधारा को आगे बढ़ाया यह सचमुच साहस का कार्य था।
डा० आनन्द कुमारस्वामी ने इसे आश्चर्यजनक कार्य बताया है। बंगाल कला आन्दोलन की मूल भावना प्राचीन भारतीय कला की ओर प्रत्यावर्तन की नहीं थी इसीलिये बंगाल के कलाकारों ने प्राचीन भारतीय कला की अनुकृति नहीं की।
उन्होंने उसे एशिया के बीसवीं शताब्दी के वातावरण के अनुरूप नवीन रूप देने का प्रयत्न किया।
उनके विचार से पुनर्जागरण का यह प्रयत्न उसी प्रकार का था जैसा कि इटली के पुनरुत्थान-कालीन कलाकारों ने पन्द्रहवीं तथा सोलहवीं शताब्दियों में किया था।
उन्होंने भी यूनान की प्राचीन कला की अनुकृति न करके केवल उसकी मूल भावना को लिया था।’ अतः इसे बंगाल शैली न कहकर पुनरुत्थान कहना चाहिये जैसा कि इसकी विविध शैलियों से स्पष्ट है।
बंगाल स्कूल की परम्परा तीन पीढ़ियों में फैली मिलती है किन्तु समय की गति के साथ उसके आधार को ऐसी ठेस लगी कि वह संभल न सका और अवनीन्द्रनाथ ठाकुर ने उसकी छिन्नमुखी प्रवृत्ति अपने जीवन काल में ही देख ली।
पुनरुत्थान काल के प्रमुख चित्रकार
- अवनीन्द्रनाथ ठाकुर (1871-1951)
- नन्दलाल बसु (1882-1966 ई०)
समरेन्द्रनाथ गुप्त (1887-1964)
अवनी बाबू के शिष्यों में आपका भी प्रमुख स्थान है। आपने ठाकुर शैली का लाहौर में प्रचार किया।
जोगीमारा गुफा के चित्रों की अनुकृतियाँ तैयार करने में श्री हाल्दार के साथ आप भी गये थे। आप भारतीयता को ही अधिक महत्व देते थे। आपके भाव-चित्र बड़े सुन्दर हैं।
- बिनोद बिहारी मुखर्जी (1904-1980)
शैलेन्द्रनाथ दे
श्री शैलेन्द्रनाथ दे ठाकुर शैली के कुशल कलाकार थे। आपने अवनीन्द्रनाथ ठाकुर का शिष्यत्व 1909 ई० में ग्रहण किया और अपनी कला शिक्षा पूर्ण कर महाराजा स्कूल ऑफ आर्ट जयपुर में उप-प्रधानाचार्य हो गये।
यहां श्री के० के० मुकर्जी प्रधानाचार्य थे। जयपुर में श्री दे ने अनेक सुन्दर चित्रों की रचना की तथा चित्रकला के प्रति विशेष जन चेतना जाग्रत की। भारतीय चित्रकला का तकनीक जन-जन तक पहुंचाने की दृष्टि से और विशेषकर चित्रकला के विद्यार्थियों के लिये आपने “भारतीय चित्रकला-पद्धति शीर्षक एक पुस्तक भी लिखी जो पर्याप्त लोकप्रिय हुई। इस पुस्तक में चित्रकला के सभी पक्षों पर प्रकाश डाला गया है तथा रंग निर्माण ओर तूलिका प्रयोग पर भी विचार किया गया है। –
जयपुर में रहकर आपने जिन योग्य शिष्यों को कला की शिक्षा दी उनमें श्री रामगोपाल विजयवर्गीय श्री मोहनलाल, श्री शम्भूनाथ मिश्र, श्री अविनाश चन्द्र गौतम तथा श्री देवकीनन्दन मिश्र के नाम प्रमुख हैं ।
अन्य स्थानों के परम्परावादी चित्रकार
आधुनिक भारतीय कला में पुनरूस्थान का सूत्रपात बंगाल से हुआ था किन्तु पुनरुत्थान काल के सभी कलाकारों ने (जिनमें कि अवनी बाबू तथा नन्दबाबू के शिष्य भी सम्मिलित है ) बंगाल शैली का ही अनुकरण न करके स्वतंत्र शैलियां भी विकसित की थीं जैसा कि देवीप्रसाद रायचौधुरी, विनोदबिहारी मुखर्जी तथा रामकिंकर बैज की कला से पूर्णतः स्पष्ट है बंगाल के अतिरिक्त बम्बई तथा अहमदाबाद आदि में भी कुछ कलाकार बंगाल शैली से प्रेरित होकर अपने स्वतंत्र ढंग से या फिर परम्परागत कला का तत्व लेकर भावपूर्ण आकृति चित्रण कर रहे थे। जल रंग, वाश तथा टेम्परा, इनके प्रधान माध्यम थे इनमें निम्नलिखित कलाकार प्रमुख थे-
- रविशंकर रावल
- जगन्नाथ मुरलीधर अहिवासी
- सोमालाल शाह
- यज्ञेश्वर शुक्ल