अठारहवीं शती उत्तरार्द्ध में पूर्वी देशों की कला में अनेक पश्चिमी प्रभाव आये। यूरोपवासी समुद्री मार्गों से खूब व्यापार कर रहे थे। डचों, पुर्तगालियों, फ्रांसीसियों तथा अंग्रेज व्यापारियों ने भारतीय सागर तटों पर अपनी बस्तियाँ स्थापित कर ली थीं। इनके लिए अनेक चित्रकार यूरोपीय काँच-चित्रण के अनुकरण पर चित्रांकन कर रहे थे।
यह कार्य मुख्यतः चीनी चित्रकार कर रहे थे। भारतीय राजाओं ने भी विदेशी चित्रकारों को अपने दरबारों में स्थान दिया। टीपू सुल्तान ने भी इनसे अनेक चित्र बनवाये सतारा, कच्छ तथा मुम्बई में भी अनेक चित्रकार थे जिनकी शैली में चीनी-यूरोपीय पद्धतियों का सम्मिश्रण था।
काँच पर चित्रण आरम्भ में दक्षिण भारत में प्रचलित हुआ था। तमिलनाडु, कर्नाटक, आन्ध्र तथा महाराष्ट्र में यह माध्यम भारत के अन्य क्षेत्रों की तुलना में पहले आरम्भ हुआ था। सभी क्षेत्रों में स्थानीय शैलियों के प्रभाव से परिवर्तन भी हुए। तंजौर में यह काष्ठ-चित्रण से प्रभावित हुआ।
भीड़ युक्त सपाट संयोजन, कृत्रिम अलंकरणों की प्रचुर सजावट और प्रदर्शन, सुवर्ण का अत्यधिक प्रयोग, रंगों में छाया देने के उपरान्त भी प्रायः सपाट तथा आलंकारिक प्रभाव, रेखांकन में भारीपन आदि इन चित्रों की प्रमुख विशेषताऐं हैं।
मैसूर के चित्रों का रेखांकन अधिक स्पन्दनयुक्त है, अलंकरण कम है और आकृतियों में गति तथा सजीवता है कालीघाट की काँच चित्रण कला में मोटी सीमा रेखा, ओजपूर्ण आकृतियाँ तथा भारीपन है पृष्ठभूमि रिक्त रहती है। सभी स्थानों पर प्रायः देवी-देवताओं, राज दरबारों तथा गणिकाओं का अंकन इस कला में अधिक हुआ है।