बसोहली की चित्रकला

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बसोहली की स्थिति

बसोहली राज्य के अन्तर्गत ७४ ग्राम थे जो आज जसरौटा जिले की बसोहली तहसील के अन्तर्गत आते हैं। जसरीटा जिला जम्मू की सीमा में है। अतः बसोहली आज जम्मू तथा कश्मीर राज्य के अन्तर्गत है। बसोहली क्षेत्र की दृष्टि से एक नगण्य, छोटा सा राज्य था परन्तु उसका सांस्कृतिक क्षेत्र में विशेष योगदान होने के कारण उसका अपना महत्त्व है।

बसोहली के कला संरक्षक राजा-बसोहली का राजवंश अपने लिए पांडवों की संतान मानता था। बसोहली राज्य का संस्थापक राजा भोगपाल (७६५ ई०) था। वह कुल्लू राजवंश का था और उसने दिल्ली के राजा की शक्ति को समाप्त करके बेलोर राज्य और बेलोर या बालापुर राजधानी की स्थापना की ऐतिहासिक दृष्टिकोण से सोलहवीं शताब्दी तक बसोहली के राजाओं का विशेष महत्त्व नहीं है।

बसोहली का राजा कृष्णपाल सर्वप्रथम अकबर के समय में १५६० ई० में मुगल दरबार में बहुमूल्य भेंटों सहित उपस्थित हुआ। इस समय पहाड़ी क्षेत्रों के छोटे-छोटे ठाकुर शासक आपस में राज्य विस्तार तथा सत्ता के लिए लड़ते रहते थे।

कृष्णपाल के पश्चात् उसका पोत्र भूपतपाल (१५६४-१६५५ ई०) राजा हुआ परन्तु उसका समकालीन नूरपुर का राजा जगतसिंह उससे ईर्ष्या करने लगा। उसने मुगल सम्राट जहाँगीर को भूफ्तपाल के विरुद्ध भड़का दिया, जिसके फलस्वरूप भूपतपाल को मुगल कारागार में बंद कर दिया गया और नूरपुर के राजा जगतसिंह की सेना ने बसोहली पर अधिकार कर लिया।

परन्तु भूपतपाल मुगल कारागार से निकल भागा और उसने अपने सामंतों की सहायता से पुनः नूरपुर की सेना को पराजित कर १६२७ ईसवी में राज्य प्राप्त कर लिया। उसने ही आधुनिक नगर बसोहली की स्थापना की और वह शाहजहाँ के दरबार में उपस्थित हुआ।

शाहजहाँ का सम्मान करते हुए भूपतपाल को एक चित्र में दर्शाया गया है जो डोगरा आर्ट गैलरी (जम्मू) में सुरक्षित है। भूपतपाल का बसोहली शैली में बना एक चित्र प्राप्त है परन्तु वह समसामयिक चित्र नहीं है।

भूपतपाल के पश्चात् १६३५ ईसवी में उसका पुत्र संग्रामपाल १२ वर्ष की आयु में गद्दी पर बैठा। वह इतना सुंदर तथा सुकुमार युवराज था कि जब वह शाहजहाँ के दरबार में सम्मानित हुआ तो शाहजहाँ के पुत्र दाराशिकोह की बेगमों ने उसको देखने की इच्छा प्रकट की।

इस कारण उसको अन्तःपुर में ले जाया गया जहाँ उसके सौन्दर्य पर विमुग्ध बेगमों ने उसको अनेक उपहार भेंट किये। इस समय ही संग्रामपाल का मुगल दरबार के चित्रकारों से परिचय हुआ होगा और सम्भवतः उसने ही इन मुगल चित्रकारों से वसोहली चलने के लिए कहा हो।

संग्रामपाल के पश्चात् उसका छोटा भाई हिन्दालपाल (१६७३-१६७८ ई०) राजा बना। उसका एक व्यक्ति-चित्र पंजाब संग्रहालय, पटियाला में प्राप्त है हिन्दालपाल के पश्चात् कृपालपाल (जन्म १६५० ई०) गद्दी पर बैठा। उसकी दो रानियाँ थीं। इनमें से एक रानी बन्द्राल की राजकुमारी थी और दूसरी जो उसकी प्रिय रानी थी, मनकोट की राजकुमारी थी ।

कृपालपाल विद्वान था तथा कला-प्रेमी राजा था उसके शासनकाल में बसोहली कला का सर्वोत्तम विकास हुआ और उसने कलाकारों को संरक्षण प्रदान किया। राजा कृपालपाल का राज्यकाल (१६७८ ई० से १६६३ ई०) तक पन्द्रह वर्ष माना जाता है।

कृपालपाल के पश्चात् उसका ज्येष्ठ पुत्र धीरजपाल (१६६३-१७२५ ई०) गद्दी पर बैठा। वह अपने पिता के समान कला अनुरागी राजा था परन्तु चम्बा के राजा उजागर सिंह के साथ युद्ध करता हुआ रणभूमि में वीरगति को प्राप्त हुआ।

धीरजपाल के पुत्र मेदनीपाल (१७२५-१७३६ ई०) ने चित्रकारों को प्रोत्साहन प्रदान किया और उसने उजागर सिंह को भी पराजित कर पीछे हटा दिया। उसके समय में बसोहली के चित्रों का सुचारु रूप से निर्माण हुआ।

मेदनीपाल के पश्चात् जितपाल (१७३६ – १७५७ ई०) बसोहली की गद्दी पर बैठा। इसके समय में जम्मू के राजाओं की शक्ति बहुत अधिक बढ़ गई और महाराजा ध्रुवदेव का जम्मू के पहाड़ी राज्यों में बहुत अधिक प्रभुत्व स्थापित हो गया।

१७५७ ई० में अमृतपाल बसोहली का राजा बना। उसने जम्मू के महाराजा रंजीतदेव की पुत्री से १७५६ ई० में विवाह किया और बसोहली पर जम्मू की शक्ति स्थापित होने लगी। इसी समय पंजाब क्षेत्र में अहमदशाह दुर्रानी और सिक्खों के आक्रमणों के कारण कश्मीर और भारत का व्यापार मार्ग बदल गया और नवीन मार्ग बसोहली की ओर से बन गया जिससे बसोहली. राज्य की समृद्धि बढ़ गई।

अमृतपाल एक सुयोग्य शासक था। इस समय बसोहली नगर चित्रकला का केन्द्र बन गया और इसी राजा के राज्यकाल में बसोहली में भी कांगड़ा शैली ने बसोहली शैली का स्थान ग्रहण कर लिया। विजयपाल (१७७६-१८०६ ई०) तेरह वर्ष की आयु में बसोहली का राजा बना और इसी समय में चम्बा के राजा राजसिंह ने सिखों की सहायता से बसोहली पर विजय प्राप्त कर ली।

१८०६ ई० में समस्त पहाड़ी राज्य महाराजा रणजीतसिंह के अधीन आ गए। बसोहली का राजा महेन्द्रपाल (१८०६-१८१३ ई०) कलाप्रेमी शासक था। उसने जसरोटा की राजकुमारी से विवाह किया।

जब वह महाराजा रणजीतसिंह के दरबार में १८१३ ई० लाहौर में उपस्थित हुआ तो वह बीमार पड़ गया और उसकी मृत्यु हो गई। उसके पश्चात् भूपेन्द्रपाल (१८१३-१८३४ ई०) गद्दी पर बैठा और पिता के समान ही उसकी भी शीघ्र मृत्यु हो गई।

१८४५ ई० में बालक कल्यानपाल राजा बना और इसी समय रणजीतसिंह ने बसोहली राज्य को जम्मू की जागीर बनाकर जम्मू के राजा हीरासिंह को सौंप दिया। इस प्रकार बसोहली की कलानिधियाँ जिनमें चित्र भी थे, ब्राह्मण वंशों के हाथ आ गई।

१८४५ ई० में बेलोरिया राजपूतों ने सिक्खों को बसोहली से बाहर निकालकर, ग्यारह वर्षीय कल्यानपाल को पुनः बसोहली का राजा बनाया। परन्तु १८४६ ई० से जम्मू तथा कश्मीर राज्य महाराजा गुलाबसिंह के हाथ में आ गए और कल्यानपाल के लिए अनुवृति मिल गई।

कल्यानपाल ने सिरमौर तथा सालंगरी की राजकुमारियों से विवाह किया, जिससे यह नगर भी कालान्तर में बसोहली कला के केन्द्र बन गए। १८५७ ई० में सन्तानहीन राजा कल्यानपाल की मृत्यु के पश्चात बसोहली राजवंश समाप्त हो गया।

रावी नदी के दाहिने तट पर स्थित बसोहली नगर जो किसी समय जम्मू की सात आश्चर्य की वस्तुओं में से एक था, आज अपनी पुरातनगाथाओं को अपने वैभवहीन राजप्रसादों तथा अट्टालिकाओं के अवशेषों में छुपाए मौन खड़ा है। यह राजप्रसाद आज चमगादड़ों और पक्षियों का आवास स्थल बन चुका है।

आधुनिक बसोहली नगर की स्थापना राजा भूपतपाल ने १६३५ ईसवी में की थी। इस नवीन राजधानी में उसने तथा उसके उत्तराधिकारियों ने विभिन्न राजमहलों का निर्माण कराया।

मेदनीपाल ने रंगमहल और शीशमहल बनवाये जो नायिका भेद आदि विषयों पर आधारित भित्तिचित्रों से सुसज्जित थे, परन्तु आज ये चित्र नष्ट हो गए हैं। बसोहली राज्य के अतिरिक्त यह शैली अनेक पहाड़ी राज्यों में भी विकसित हुई।

बसोहली शैली के चित्रों का विषय

समकालीन सामाजिक तथा राजनैतिक स्थिति का कला पर सदैव प्रभाव पड़ा है और प्रत्येक कला समकालीन साहित्य, दर्शन तथा लोकभावना से प्रभावित हुई है। वास्तव में ग्यारहवीं शताब्दी में जो वैष्णव धर्म आरम्भ हुआ, उसका पूर्ण विकास उत्तरी भारत में सोलहवीं शताब्दी में हुआ।

पन्द्रहवीं शताब्दी में श्री वल्लभाचार्य ने ब्रज को अपना केन्द्र बनाया और यहाँ से ही बल्लभाचार्य ने वैष्णव धर्म के उपदेश दिये। उनके अनुयायियों में कविवर सूरदास, मीरा, केशवदास तथा बिहारी के नाम प्रमुख हैं जिनकी रचनाओं को उत्तरी भारत में बहुत लोकप्रियता और सम्मान प्राप्त हुआ।

इन कवियों ने भगवान को जीवन में खोजने की चेष्टा की और उन्होंने विष्णु के विभिन्न रूपों में विशेषतया श्रीकृष्ण और श्रीराम को अपना आराध्य देव माना।

धार्मिक चित्र


कृष्ण का जीवन भारत के सरल, साधारण लोकजीवन से सन्निकट है। इसी कारण कृष्ण भारतवर्ष में बहुत प्रिय देवता माने गए हैं। वास्तव में कृष्ण का उद्दन्डतापूर्ण बाल्यकाल और यौवन का जीवन कृषकों, जंगलों, ग्वालों, गोपियों, पशुओं और पक्षियों से सम्बन्धित था और गरीब जनता से बहुत मिलता-जुलता था।

वैष्णव धर्म राजस्थान तथा उत्तरी भारत के मैदानी क्षेत्र तक ही सीमित न रहा बल्कि पहाड़ी क्षेत्रों में भी पहुँच गया और पहाड़ी चित्रकार की प्रेरणा का मुख्य आधार बना बसोहली शैली के चित्रों में वैष्णव धर्म की विचारधारा और भक्ति भावना दिखाई पड़ती है। इस शैली में विष्णु तथा उनके दस अवतारों के चित्र प्राप्त हैं।

इस शैली में चित्रित रामायण की दो प्रतियाँ भी प्राप्त हैं, जिनमें से एक प्रति बसोहली में चित्रित की गई है और दूसरी कुल्लू में चित्रित की गई है। रामायण तथा भागवतपुराण वैष्णव सम्प्रदाय के कारण इन चित्रकारों का प्रमुख चित्र विषय बने ।

काव्य तथा रागमाला


चौदहवीं शताब्दी में रचित भानुदत्त की ‘रसमंजरी’ बसोहली के राजा कृपालपाल का प्रिय काव्य ग्रंथ था। इस ग्रंथ में नायक-नायिका भेद, रसों तथा श्रृंगार का सुंदर वर्णन है, परन्तु कृष्ण का वर्णन नहीं है।

सम्भवतः राजा कृपालपाल ने ही अपने चित्रकारों से रसमंजरी के चित्रों में कृष्ण को आदर्श प्रेमी का रूप दिलाया हो। इस प्रकार विभिन्न प्रकार की नायिकाएँ जैसे उत्का तथा अभिसारिका आदि भी आरम्भिक चित्रकारों का चित्रणविषय बनीं। 1

रसमंजरी के अतिरिक्त बारहवीं शताब्दी की जयदेवकृत गीतगोविंद काव्य रचना पर भी सुंदर चित्र बनाये गए। परवर्ती चित्रकारों ने बारह मासा’ चित्रावलियों के निर्माण में विशेष रुचि प्रदर्शित की इन विषयों के अतिरिक्त बसोहली शैली में ‘रागमाला’ पर आधारित चित्र भी प्राप्त होते हैं, जिनके उदाहरण ‘भारत कलाभवन’ काशी में प्राप्त हैं। इन रागमाला चित्रों तथा बारहमासा चित्रों में कृष्ण और राधा को नायक तथा नायिका का रूप प्रदान किया गया है।

व्यक्ति चित्र


चित्रकार प्रायः दरबार का एक सदस्य होता था और इस कारण उसका प्रमुख उद्देश्य राजाओं, दरबारियों तथा दरबार के अन्य सम्मानित सदस्यों जैसे विद्वानों, संगीतज्ञों, संतों आदि के चित्र बनाना था। इस प्रकार बसोहली में चित्रकार ने समसामयिक इतिहास को अमर बना दिया है।

मानव आत्मा


चित्रकार ने राधा और कृष्ण के प्रेम में मनुष्य की हृदयगत भावनाओं को बड़े मार्मिक ढंग से अभिव्यक्त किया है। जिस प्रकार कृष्ण के विरह में गोपियाँ व्याकुल हैं उसी प्रकार मनुष्य की आत्मा भी परमात्मा (कृष्ण) के संयोग के लिए व्याकुल है। इस प्रकार बसोहली शैली के चित्रों में रहस्यात्मकता का मधुर संयोग है।

बसोहली शैली के चित्रों की विशेषताएँ


बसोहली शैली के चित्रों की कुछ अपनी विशेषताएं हैं जिनके कारण इस शैली के चित्रों को राजस्थानी शैलियों तथा कांगड़ा शैली के चित्रों से पृथक किया जा सकता है। यद्यपि बसोहली शैली में कांगड़ा शैली जैसा सौकुमार्य, कोमलता और परिमार्जन नहीं है तो भी उसमें सरलता, सरसता, शक्ति और चमकदार रंगों की अपूर्व संवेगात्मक तीक्ष्णता है जो इस कला को एक महान स्तर पर पहुँचा देती है।

बसोहली के चित्रों में प्रत्येक विवरण को स्पष्टता के साथ सरल और शक्तिशाली ढंग से व्यक्त किया गया है। काव्यमय भावनाओं को कलाकारों ने मधुरता, सरलता और सरसता के साथ अभिव्यक्त किया है।

बसोहली शैली के चित्रकार ने कम से कम परिश्रम के द्वारा अधिक से अधिक भावाभिव्यक्ति की है, यद्यपि इन चित्रों में आध्यात्मिकता के स्थान पर वासना की अधिक झलक है।

बसोहली शैली के कुछ चित्र नितान्त सरल है और उनमें तनिक भी रहस्यात्मकता, व्यंग्य या ध्वनि नहीं है, परन्तु प्रत्येक शैली का मूल्यांकन उसकी उत्कृष्ट कलाकृतियों के आधार पर किया जाता है। बसोहली शैली के चित्रों में अभिव्यक्ति का ठेठपन, स्पष्टता, शक्ति, आकर्षक रंगों की चमक और भावों की मधुरता है जो अन्यत्र प्राप्त होना दुर्लभ है।

चित्रों के हाशिये तथा लेख-बसोहली शैली के चित्रों के हाशिये अधिकांश गहरे लाल रंग की पट्टी से बनाये गए हैं, तथापि कुछ चित्रों के हाशिये में गहरी लाल रंग की पट्टी के स्थान पर गहरी पीले रंग की पट्टी का प्रयोग किया गया है। ये हाशिये सादा सपाट रंग की पड़ियों से बनाये गए जो मुगल चित्रों के अलंकृत हाशियों से सर्वथा भिन्न प्रकार के हैं। रसमंजरी तथा गीतगोविंद पर आधारित चित्रों की पृष्ठिका पर संस्कृत में छन्द लिखे हैं, परन्तु लाल हाशियों पर सफेद रंग से टाकरी लिपि में लेख लिखे गए हैं।

रंग


कांगड़ा के उत्तम चित्रों के सौन्दर्य का रहस्य उनकी छन्दमय योजना है, जबकि बसोहली शैली के चित्रों के आकर्षण का मुख्य कारण, उनके चटक चुल-चुहाते रंगों की पवित्रता और प्राथमिक विरोधी रंगों का प्रयोग है। बसोहली शैली के चित्रों के रंगों में अन्तर्भेदनी आकर्षण है।

चमकदार और अमिश्रित लाल तथा पीले रंग, जिनका कलाकार ने स्वतंत्रता से प्रयोग किया है, दर्शक के नेत्रों में गहरे बैठ जाते हैं और उसके हृदय को उद्वेलित कर देते हैं। बसोहली के चित्रकारों ने रंगों का प्रयोग प्रतीकात्मक आधार पर किया है।

पीला रंग वसंत तथा सूर्य के ताप या प्रकाश का प्रतीक होता है। साथ ही पीला रंग ताप और प्रेमियों के प्रेम-ज्वर का प्रतीक भी है। बसोहली के चित्रकारों ने रिक्थ और बड़े-बड़े धरातल खण्डों में स्वतंत्रता से सूर्य प्रकाश दिखाने के लिए पीले रंग का प्रयोग किया है।

नीला रंग “कृष्ण तथा वर्षा के बादलों का प्रतीक है लाल रंग प्रेम के देवता का प्रतीक है और बसोहली शैली के शृंगारिक चित्रों में इस रंग के प्रयोग से चार चाँद लग गए हैं।

बसोहली शैली के चित्रों में पीले, लाल तथा नीले रंग का प्राथमिक विरोधी प्रयोग आनन्ददायक और सुंदर है। चित्रों में रंग इतनी कुशलता और सतर्कता से लगाये गए हैं कि वह मीने के समान चमकदार दिखाई पड़ते हैं। विशेष रूप से ‘गीत-गोविंद’ के चित्रों में लाल, पीले, ग्रे, नीले, हरे रंगों का प्रयोग सुंदरता से किया गया है।

बसोहली शैली के चित्रों में सोने तथा चाँदी के रंगों का प्रयोग कपड़ों की कसीदाकारी तथा अन्य साज-सामान के अलंकरण में किया गया है परन्तु चाँदी के रंगों प्रयोग खिड़कियों, स्तम्भों, छज्जों, जालियों तथा कपड़ों में अधिक किया गया है।

मोतियों की मालाएं बनाने के लिए कभी-कभी मोटे उभारदार रंग का प्रयोग किया गया है, जिससे मोतियों की गोलाई के साथ उनमें उभार का आभास होता है।

प्रकृति


बसोहली शैली के चित्रों में आलांकारिक ढंग से दृश्य-चित्रण किया गया है और अधिकांश चित्रों में क्षितिज रेखा को बहुत ऊपर रखा गया है। वृक्षों की पंक्तियों अलग-अलग आलंकारिक योजना में गहरी पृष्ठभूमि पर सफेद मिश्रित रंग से बनायी गई हैं। अधिकांश मंजनूं, आम, अखरोट तथा मोरपंखी के वृक्ष बनाये गए हैं।

वर्षा तथा बादल


बसोहली शैली की कृतियों में बादलों को झीना-झीना वक्राकार अभिप्रायों के द्वारा बनाया गया है। रसमंजरी के चित्रों में गहरे बादल बनाये गए हैं और इन बादलों में नागिन के समान चमकती हुई दामिनी की चमक दिखायी गई है। दामिनी की चमक को सोने के रंगों से दिखाया गया है।

हल्की वर्षा के चित्रण के लिए चित्रकार ने छोटी-छोटी मोती जैसी झिलमिल विन्दियों का प्रयोग किया है, परन्तु मूसलाधार वर्षा के लिए सीधी रेखाओं से जल-वृष्टि अंकित की गई है। नदी, झील या तालाब में पानी की लहरें बनाने के लए कुंडलाकार रेखाओं के अभिप्रायों का प्रयोग किया गया है।

जल में कमल पुष्पों का अंकन किया गया है और कभी-कभी बगुले भी बनाये गए हैं जिससे जल का किनारा और अधिक सुंदर बन गया है।

पशु-बसोहली शैली के चित्रों में ढोरों का अंकन निजी ढंग से किया गया है। बसोहली के चित्रों में पशुओं को दुबला, पतला, भूखा, पिचके पेट वाला तथा लम्बे कान और मुड़े हुए सींगों वाला बनाया गया है।

यह पशु जम्मू की स्थानीय जाति या वृंदावन की गौ- जाति के प्रतीक है, परन्तु कांगड़ा शैली के चित्रों में छोरों को हृष्ट-पुष्ट और मोटा-ताज़ा बनाकर हरियाणा जाति के पशुओं का ही अंकन किया गया है।

पहनावा


बसोहली शैली के चित्रों में पुरुष तथा स्त्रियों का पहनावा विशेष प्रकार का है। पुरुषों को घेरवार जागा (औरंगजेवकालीन मुगल ढंग का) तथा पीछे झुकी पगड़ी पहने दिखाया गया है। स्त्रियों को प्रायः सूथन चोली और ऊपर से पेशवाज़ या ढीला लम्बा घेरदार चोंगा पहने बनाया गया है, जो रेशमी या पारदर्शी है।

स्त्रियों को कभी-कभी छींटदार घाघरा, चोली और पारदर्शी दुपट्टा ओढ़े दिखाया गया है। कृष्ण को पीताम्बर तथा पीली धोती पहने ही बनाया गया है और सिर पर मुकुट तथा मोरपंख चित्रित किया गया है।

आकृतियाँ तथा शारीरिक सौन्दर्य-बसोहली के चित्रकारों ने रंग का मौलिक और सजीव प्रयोग ही नहीं किया है अपितु स्त्री तथा पुरुष मुखाकृति को नवीन रूप प्रदान किया है।

बसोहली शैली के चित्रों में मानव आकृतियों के चेहरों की बनावट विशेष प्रकार की है, जिसमें ढलवा माथा तथा ऊँची नाक को एक ही प्रवाहपूर्ण, अटूट रेखा से बनाया गया है। नेत्रों को कमलाकार रूप प्रदान किया गया है और नेत्रों की विशालता मनमोहक तथा अबोधतापूर्ण है बादामी वर्ण के शरीर वाली नायिका बसोहली के चित्रकार को प्रिय थी।

स्त्रियों को सुकोमल और सुंदर अंग-भंगिमाओं में अंकित किया गया है जिससे उनके रूप और लावण्य की शोभा और भी मनोहारी हो गई है।

आभूषण
बसोहली शैली के चित्रों में आकृतियों को आभूषणों से सुसज्जित बनाया गया है, और राक्षसों को भी आभूषणों से युक्त बनाया गया है। रत्नों से जड़े मुकुट, हार, कुंडल, भुजबंद सुंदरता के साथ बनाये गए हैं। इन आभूषणों में विभिन्न हीरे तथा रत्न खचित हैं।

भवन


बसोहली शैली के भवनों की भी अपनी विशेषता है। आलेखनों से युक्त कपाट तथा द्वार, जालीदार खिड़कियाँ, नक्काशीदार लकड़ी या पत्थर के स्तम्भों से युक्त भवन बहुत कुछ अकबरकालीन भवनों से मिलते-जुलते हैं। भवन के कक्षों की दीवारों को सुंदर लाखों या आलों से सजाया गया है।

इन ताखों में गुलाबपाश, इत्रदान, पुष्पपात्र तथा फूलों से भरी तश्तरियों को रखा दिखाया गया है। प्रायः इन सुसज्जित कक्षों में ही नायक और नायिकाओं को चित्रित किया गया है। अधिकांश चित्रों में कक्षों के साथ पिंजड़े में बंद सारिका या अन्य पक्षियों को अंकित किया गया है। विशेष रूप से इन पिंजड़ों में बंद या स्वतंत्र पक्षियों का प्रयोग नायिका भेद के चित्रों में प्रतीकात्मक आधार पर किया गया है।

बसोहली के चित्रों में रूप और लावण्य, यौवन और श्रृंगार से सजी नारी, वर्षा और तुफान की अंधेरी रात में भयानक जंगल को पार करती, अपनी बड़ी-बड़ी लजीली आँखों में प्रेम और अतृप्त वासना तथा जन्म-जन्म से अपनी आन्तरिक व्यथा को छुपाए पुरुष के प्रति अधीर दिखाई पड़ती है।

स्त्री मानव-प्रेम की प्रतीक है। यही प्रेम प्रकृति और महापुरुष आत्मा और परमात्मा का प्रतीक है। जन्म-जन्मान्तर से व्यथित नारीरूपी आत्मा पुरुषरूपी परमात्मा या प्रियतम में विलीन होने के लए विह्वल है, इस प्रकार बसोहली के चित्रकार का प्रेम सांसारिक पक्ष की वासना प्रस्तुत करता हुआ लोकोत्तर या पारलौकिक है और प्रेमाश्रयी आध्यात्मवाद का एक महान रूप है।

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