सन् 1857 की क्रान्ति के असफल हो जाने से अंग्रेजों की शक्ति बढ़ गयी और भारत के अधिकांश भागों पर ब्रिटिश शासन थोप दिया गया। भारत की अनेक संस्थाओं को भी अंग्रेजों ने अपने हाथों में ले लिया।
पश्चिमी कला की शिक्षा देने के लिए कुछ बड़े नगरों में कला-विद्यालय स्थापित किये गये जहाँ यूरोपीय शिक्षकों के निर्देशन में भारतीय विद्यार्थियों को कला एवं शिल्प सिखाये जाने लगे। इनका आदर्श लन्दन की रायल एकेडेमी आफ आर्ट्स के अनुरूप रखा गया।
इन कला विद्यालयों ने धीरे-धीरे जन-रुचि को प्रभावित करना आरम्भ कर दिया। किन्तु इन्हीं कला-विद्यालयों में आगे चल कर भारतीय कला के प्रशंसक शिक्षक तथा विद्यार्थी आये जिनके कारण इनमें प्रचलित पाठ्यक्रमों में भी समय-समय पर परिवर्तन किये गये।
Table of Contents
मद्रास कला-विद्यालय
यह विद्यालय 1850 ई० में मद्रास रेजीमेण्ट के शल्य चिकित्सक डा० एलेग्जेण्डर हण्टर द्वारा स्थापित किया गया जिसे 1852 ई० में सरकार ने अपने हाथों में ले लिया। 1876 ई० में इसे वास्तु शिल्पीय कार्यशाला में बदल दिया गया।
1884 ई० में श्री ई० बी० हैवेल इसके प्रधान शिक्षक नियुक्त हुए। इसके पाठ्यक्रम में भारतीय पद्धति के चित्रांकन (Indian Design) का समावेश किया गया। यहाँ तैल माध्यम में जो चित्रण किया जाता था वह यथार्थवाद और प्रभाववाद के मिश्रित स्वरुप जैसा था।
दक्षिण भारत में वास्तु शिल्प, मूर्तियों के तक्षण तथा ढलाई की जो समृद्ध परम्परा थी, उसके कारण दक्षिण भारत के शिल्पियों को इस विद्यालय से कोई विशेष लाभ नहीं हुआ। सन् 1929 ई० में यहाँ देवी प्रसाद रायचौधुरी प्रधानाचार्य नियुक्त हुए वे अवनीन्द्रनाथ के सम्पर्क में रहे थे और उनके अनुगामी भी थे।
बंगाल शैली में वे पारंगत थे किन्तु मूर्ति रचना उनका प्रिय क्षेत्र था। मद्रास कला-विद्यालय में एक तो उन्होंने पाठ्यक्रम में पूर्वी कला-शैलियों का समावेश किया, दूसरे कला-विद्यालय की शिक्षा में आधुनिक तत्वों को भी जोड़ दिया। परिप्रेक्ष्य की परम्परागत पद्धति तथा प्राचीन कृतियों की अनुकृति के स्थान पर जीवित मॉडेल से स्केच तथा चित्रांकन पर उन्होंने बल दिया। आज भी यह विद्यालय इस प्रकार के पाठ्यक्रम की प्रसिद्ध शिक्षण संस्था है।
कलकत्ता कला विद्यालय
इस कला विद्यालय की स्थापना 1854 ई० में चित्रकला तथा मृत्तिकाआकृति-रचना (क्ले माडलिंग) की शिक्षा देने के लिए की गयी थी। कुछ समय पश्चात् उत्कीर्णन (एनग्रेविंग), अम्लांकन (एचिंग) तथा अश्ममुद्रण -(लिथोग्राफी) का भी पाठ्यक्रम आरम्भ किया गया।
यहाँ के आरम्भिक शिक्षक रिगॉड, एग्यार तथा फाउलर आदि थे। तदुपरान्त यहाँ रेखांकन (ड्राइंग) को एक स्वतंन्त्र विषय के रूप में समाविष्ट किया गया। 1864 में सरकार ने इसे अपने हाथ में लिया। 1876 ई० में यहाँ एक कला वीथी (आर्ट गैलरी) का आरम्भ हुआ।
इसमें ब्रिटिश चित्रकारों से क्रय किये गये दृश्य-चित्र, स्मारकों के चित्र तथा भारतीय जन-जीवन की विविध झाँकियाँ एवं वेश-भूषा के चित्र तथा अभियान्त्रिक रेखाचित्र (इन्जीनियरिंग ड्राइंग्स) प्रदर्शित किये गये। 1885 ई० में भारतीय पद्धति के भित्ति चित्रण का शिक्षण भी आरम्भ किया गया किन्तु वह लोक-प्रिय नहीं हो सका।
श्री ई० बी० हैवेल, जो मद्रास में थे, 6 जुलाई 1896 को स्थान्तरित होकर कलकत्ता आये। मद्रास में रहकर दक्षिण भारत के परम्परागत शिल्प के वैभव का उन्होंने अनुभव किया था। अतः उन्हें कलकत्ता कला विद्यालय के विदेशी पाठ्क्रम को देखकर निराशा हुई।
उन्होंने कहा कि “यहाँ आकार-कल्पना (डिजाइनिंग) पर बिल्कुल ध्यान नहीं दिया जाता जो समस्त कला की नींव है बल्कि यहाँ इंग्लैण्ड के प्रादेशिक विद्यालयों की चालीस वर्ष पुरानी निकृष्ट परम्परा अपनाई जा रही है और पूर्वी कला की उपेक्षा करके भारतीय कला-विद्यार्थियों को दिग्भ्रमित किया जा रहा है।
श्री हैवेल ने सर्वप्रथम कला वीथी के चित्रों को बदल दिया। फिर तत्कालीन वायसराय लार्ड कर्जन से आज्ञा लेकर यूरोपीय चित्र बेच दिये और नेपाल के पीतल के कलात्मक पात्र, अजन्ता के चित्रों की अनुकृतियाँ तथा मुगल शैली के लघु चित्र संकलित कर भारतीय चित्र वीथी की स्थापना की।
इन प्रयत्नों से प्रभावित होकर अवनीन्द्रनाथ ठाकुर उनके सम्पर्क में आये । श्री हेवेल ने अवनी बाबू को कलकत्ता कला विद्यालय में अपने सहयोगी के रूप आमन्त्रित किया और 1898 में उन्हें उप-प्रधानाचार्य के पद पर नियुक्त करा दिया। में 1905 से 1915 तक ये प्रधानाचार्य रहे।
भारत की स्वतन्त्रता के लिए चल रहे राष्ट्रीय आन्दोलन तथा जापानी दार्शनिक ओकाकुरा के विचारों से प्रभावित होकर अवनी बाबू ने भारत के साथ-साथ चीन तथा जापान की कलाओं के अध्ययन को भी पाठ्यक्रम में सम्मिलित कर लिया और भारतीय परम्परागत चित्रण पद्धति की शिक्षा देने के लिए पटना के चित्रकार ईश्वरी प्रसाद को तथा जयपुर से भित्ति चित्रकारों को आमन्त्रित किया।
श्री अवनीन्द्रनाथ के इन प्रयत्नों से अनेक प्रतिभाशाली युवक उनकी ओर आकर्षित हुए और उनके शिष्य बन गये ये थे नन्दलाल वसु, सुरेन्द्र नाथ कार वीरेश्वर सेन, सुधीर खास्तगीर, कनु देसाई, मनीषीडे, शैलेन्द्रनाथ डे, समरेन्द्रनाथ गुप्त, हकीम मुहम्मद खाँ, समी उज्जमा, शारदाचरण उकील, तथा नागहवटट आदि।
यहाँ पर शिक्षा प्राप्त कर ये शिष्य भारत भर में फैले गये और बंगाल शैली का प्रचार करने लगे। इस प्रकार कलकत्ता कला विद्यालय भारत के राष्ट्रीय आन्दोलन से जुड गया किन्तु अवनी बाबू के पश्चात् श्री पर्सी ब्राउन ने पुनः यहाँ का पाठ्यक्रम लन्दन की राबल बाबू के एकेडेमी आफ आर्ट्स की पद्धति पर आधारित कर दिया।
बम्बई कला विद्यालय
सन् 1857 ई० में बम्बई के एलफिन्स्टोन इन्स्टीट्यूशन में प्रसिद्ध पारसी उद्योगपति सर जमशेद जी जीजी भाई टाटा के उदार अर्थदान से 2 मार्च को कला की कक्षाएँ आरम्भ की गयीं जिनमें डिजाइन तथा उत्कीर्णन का पाठ्यक्रम सम्मिलित किया गया और शिक्षण एक नवीन भवन में स्थान्तरित कर दिया गया।
सन् 1866 में आलंकारिक चित्रण, माडलिंग तथा लोहे के जालीदार काम का पाठ्यक्रम भी आरम्भ हो गया। 1878 में एक नवीन भवन निर्मित किया गया और 1879 में ड्राइंग विषय अपने सम्पूर्ण पाठ्यक्रम के साथ सिखाया जाने लगा। 1891 में कला की कार्यशालाएँ आरम्भ की गयीं कला शिक्षकों के प्रशिक्षण की कक्षाएँ 1910 में खोली गयीं।
1914 में यहाँ वास्तु शिल्प का भी शिक्षण आरम्भ हुआ। 1936 के पश्चात् यहाँ व्यावसायिक कला का भी पाठ्यक्रम चालू किया गया। सर जे० जे० स्कूल आफ आर्ट के नाम से यह कला-विद्यालय सर्वत्र विख्यात है।
आरम्भ में यहाँ इंग्लैण्ड से ही शिक्षक बुलाये जाते थे सर्व प्रथम यहाँ लॉकवुड किपलिंग प्रधानाचार्य बने श्री सीसिल बर्न के समय 1900 ई० में यहाँ इंग्लैण्ड की कला शिक्षण एवं परीक्षा पद्धति लागू हुई। इनके पूर्व 1880 में श्री ग्रिफिथ्स के समय यहाँ साउथ केसिंगटन कला-विद्यालय (इंग्लैण्ड) के आधार पर शिक्षण की रूप-रेखा बनायी गयी थी।
1919 में श्री ग्लेडस्टोन सोलोमन के द्वारा कार्यभार सम्हालने के उपरान्त यहाँ ब्रिटिश कला की आभिजात्य शैली को शिक्षण का आधार बनाया गया। इस प्रकार उनके समय शुद्ध तथा अनुपातपूर्ण रेखांकन, रंगों के विभिन्न बलों का सही मिश्रण, माध्यम और सामग्री का पूर्ण कुशलता सहित उपयोग, जीवित रूपों का अध्ययन आदि विशेष महत्वपूर्ण हो गया।
यह सब बाहय आकृति-सादृश्य पर आधारित था। उनके सहायक चार्ल्स जेरार्ड 1936 ई० में प्रधानाचार्य बने जिन्होंने यूरोप में प्रचलित आधुनिक कला– शैलियों से भी विद्यार्थियों को परिचित कराया और प्रभाववादी शैली में चित्रांकन प्रारम्भ किया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् यहाँ पाठ्यक्रमों में सुधार किया गया है और भारतीय कला की अलग कक्षाएँ “इण्डियन डिजाइन क्लास ” के रूप में आरम्भ की गई हैं।
मेयो स्कूल आफ आर्ट लाहौर
सन् 1875 ई० में इस कला विद्यालय का आरम्भ आलंकारिक तथा उपयोगी कलाओं (Decorative and applied arts) की उच्चकोटि की शिक्षा प्रदान करने के लिए किया गया था यहाँ मुख्य रूप से काष्ठ शिल्प, वास्तु शिल्प, ताँबे की कला-कृतियों तथा सजावटी उपकरणों की ढलाई और आभियान्त्रिकी की शिक्षा दी जाती थी।
पंजाब में उस समय प्रचलित सिख शैली में भी अलंकरण पद्धति का प्राचतुर्य था। अवनी बाबू के शिष्य समरेन्द्रनाथ गुप्त के प्रधानाचार्य बनने से यहाँ बंगाल शैली का प्रभाव बढ़ा जिसमें अवनी बाबू के ही एक अन्य शिष्य चित्रकार मुहम्मद अब्दुर्रहमान चुगताई ने एक विशिष्ट शैली का विकास किया जो अत्यन्त आकर्षक है, साथ ही अलंकारपूर्ण भी है।
कुछ समय पश्चात् इस विद्यालय के पाठ्यक्रम में से शिल्पों को हटाकर इसे पूर्ण रूप से ललित कला-विद्यालय का रूप दे दिया गया।
लखनऊ कला- विद्यालय
सन् 1911 ई० में लखनऊ में कला तथा शिल्प विद्यालय की स्थापना की गयी। इसमें व्यावसायिक कला, वास्तु शिल्पीय मान-चित्रांकन तथा रेखा-चित्रांकन, अश्म- मुद्रण आदि की शिक्षा के साथ-साथ सुवर्ण एवं लौह की ढलाई, धातु शिल्प, काष्ठ शिल्प, मिट्टी के खिलौने बनाने तथा औद्योगिक कलाओं के हेतु नवीन डिजाइन तैयार करने की शिक्षा भी दी जाती थी।
प्रथम प्रिंसिपल के रूप में एक अंग्रेज श्री नेटहार्ड की नियुक्ति की गई। 1925 ई० में श्री असित कुमार हाल्दार यहाँ के प्रधान शिक्षक बने जो अवनी बाबू के शिष्य थे।
उन्होंने भारतीय कला को प्रमुख महत्व देने की दृष्टि से विद्यालय की शिक्षा-पद्धति में सुधार किया साथ ही कला शिक्षकों के प्रशिक्षण, मीनाकारी, बहुरंगी मुद्रण तथा मूर्तिकला विभागों की स्थापना करके विद्यार्थियों के लिये रोजगार के नये क्षेत्र भी प्रशस्त किये चित्रकला के क्षेत्र में यूरोपीय पद्धति की ‘माडेल’ विधि तथा दृश्य के साथ-साथ बंगाल शैली की वाश पद्धति में भारतीय विषयों का समावेश किया गया।
ब्रिटिश सरकार के इन प्रयासों के बावजूद भारतीय कला और शिल्प के स्तर में निरन्तर गिरावट आती गयी क्योंकि इन कला विद्यालयों के शिक्षक अंग्रेज थे जो अपने देश की कला शिक्षण पद्धति के अथवा अपनी व्यक्तिगत रुचि के आधार पर पाठ्यक्रम बनाते जो न तो भारतीय वातावरण के अनुकूल और न यहाँ की परम्परागत कलापद्धतियों के अनुरूप थे यहाँ शिक्षा प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों को दृश्य-चित्रण अथवा व्यक्ति चित्रण के अतिरिक्त अन्य क्षेत्रों में जीविकोपार्जन के साधन उपलब्ध नहीं थे।
इन विद्यालयों में सिखाई जाने वाली ब्रिटिश कला-शैली का स्तर भी था क्योंकि स्वयं ब्रिटेन में इस समय कला की परम्परा मृत प्रायः हो चुकी थी और प्राचीन कला शैलियों का केवल पिष्टपेषण ही हो रहा था।
कला महाविद्यालय इन्दौर
मध्य प्रदेश के इन्दौर नगर का कला महाविद्यालय प्रारम्भ से ही कला जगत् में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता रहा है। सन् 1904-5 में यहाँ एक उच्च शाला (हाई स्कूल) में कला की कक्षाएँ आरम्भ हुई। 1927 ई० में स्कूल आफ आर्ट्स को स्वतंत्र रूप मिला जो अब कला-महाविद्यालय के नाम से विख्यात है।
इस संस्था का एक अन्य नाम चित्रकला मन्दिर भी है। इस संस्था के आरम्भिक शिक्षक श्री दत्तात्रेय दामोदर देवलालीकर थे जिन्होंने अपना सम्पूर्ण जीवन कला के शिक्षण और सृजन के लिये समर्पित कर दिया था। उनके शिष्यों में नारायण श्रीधर बेन्द्रे, देव कृष्ण जटा शंकर जोशी, मनोहर श्रीधर जोशी, विष्णु चिंचालकर, हजारनीस, सालेगांवकर, देवयानी कृष्ण, लक्ष्मी शंकर राजपूत तथा मकबूल फिदा हुसेन आदि प्रमुख हैं जिन्होंने अन्तर्राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त की है।
इस संस्था के अन्य लब्ध प्रतिष्ठ कलाकार हैं कँवल कृष्ण, श्रेणिक जैन, आर०के० दुबे, एम० डी० साखड़कर, बसन्त चिंचवडकर, मीरा गुप्ता, गजेन्द्र, इस्माइल बेग तथा नलिनी चौसालकर आदि।
यहाँ जिन छात्रों ने कला की शिक्षा प्राप्त की उनमें से अधिकांश ने आकृति चित्रण की आधार भूमि को बनाये रखते हुए तथा पश्चिमी आधुनिक कला आन्दोलनों की मूल विचारधाराओं को आत्मसात् करते हुए अपनी शैलियों का विकास किया और अपनी कला शैली में क्रमशः परिवर्तन भी किया। यह परिवर्तन कहीं युग की और कहीं कलाकारों की निजी मानसिकता की आवश्यकता के अनुरूप हुआ है।