श्री दासगुप्ता का जन्म 28 दिसम्बर 1917 को बंगाल में हुआ था। आपका बचपन आपके ताऊजी के पास बरहमपुर (ब्रह्मपुर) गांव में व्यतीत हुआ । वहाँ के प्राकृतिक सौन्दर्य का आप पर जो प्रभाव पडा वह आपकी कलाकृतियों में निरन्तर प्रतिबिम्बित होता रहा है।
1937 ई० में आपने कलकत्ता के राजकीय कला विद्यालय में प्रवेश लिया और 1943 में डिप्लोमा प्राप्त किया। आरम्भ में आपको युद्ध के कार्यालय में नौकरी करनी पड़ी। वहाँ आपकी कला प्रतिभा छिप न सकी और आपको “विक्ट्री” पत्रिका के सम्पादन विभाग में कला सहायक बना दिया गया।
1955 में आपने दक्षिण भारत का भ्रमण किया और वहाँ के ढेरों रेखांकन ( किये। जल रंगों में सागर के अध्ययन चित्र भी बनाये ।
केरल के सागर तट, लहरों के साथ उत्पन्न होने वाले फेन, बार-बार दिखायी देने और लहरों के साथ छिप जाने वाले निचले भागों के साथ समुद्री चट्टानों और सागर के साथ-साथ फैले हुए दूर तक दिखायी देने वाले तटीय दृश्यों का आपने सुन्दर चित्रण किया।
कुछ समय उपरान्त आपने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण किया और कन्या कुमारी से लेकर कश्मीर तक के अनेक प्राकृतिक दृश्यों का चित्रण किया।
इस अवधि में आप अपने चित्रों की अनेक प्रदर्शनियों भी करते रहे और पुरस्कार प्राप्त करते रहे। 1948 में आपको आल इण्डिया फाइन आर्ट्स एण्ड क्राफ्ट्स सोसाइटी नई दिल्ली का प्रथम जल रंग पुरस्कार प्राप्त हुआ।
1956 में आपको राष्ट्रीय ललित कला अकादमी द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित किया गया। 1961 में आपको सरकार द्वारा यूरोप भ्रमण के लिये भेजा गया। वहाँ अल्प समय में ही आपने पर्याप्त संख्या में स्केच बनाये 1963 में आप दिल्ली कालेज आफ आर्ट में कला के शिक्षक नियुक्त किये गये और 14 वर्ष तक वहाँ कार्य करने के उपरान्त 1977 में आप सेवा निवृत्त हुए, परन्तु आपने चित्रांकन का कार्य बन्द नहीं किया ओर निरन्तर सृजन एवं प्रदर्शन करते रहे आपने देश-विदेश में लगभग 60 सामूहिक तथा 39 एकल प्रदर्शनियाँ की हैं।
आपके कार्य से प्रभावित होकर केन्द्रीय ललित कला अकादमी ने आपको 1989 में अकादमी का फैलो निर्वाचित किया। 18 जुलाई 1995 को आपका निधन हो गया।
आरम्भ में आपने जल रंगों में प्राकृतिक दृश्यों का अभिराम अंकन किया । ये संस्कार आपकी कला में सदैव दृश्यांकन के विषयों के रूप में स्थिर हो गये। पहले बंगाल के प्राकृतिक एवं ग्रामीण दृश्य, फिर जयपुर आदि के नगरीय एवं ग्रामीण प्रसिद्ध स्थलों के दृश्य, तदुपरान्त दक्षिण के सागरीय दृश्य और फिर सम्पूर्ण भारत वर्ष के प्राकृतिक ग्रामीण एवं पर्वतीय दृश्य आपके चित्रण के विषय रहे हैं।
आपने आरम्भ में प्रभाववादी शैली का प्रयोग किया। उसके पश्चात् आप शनैः शनैः फन्तासी तथा तांत्रिक संयोजनों की ओर मुड़ गये। दक्षिण की यात्रा से आपकी रंग योजनाओं में उष्ण रंगों का प्रयोग प्रमुख हो गया। आबनूस जैसे गहरे रंग के तद्वीय स्त्री-पुरूष और समृद्ध गाढ़ी हरी वनस्पति।
माध्यम में टेम्परा तथा वाश का प्रयोग करने लगे। चित्र के संयोजन और ढाँचे पर अधिक बल देने से आपकी कला में और अधिक निखार आया। 1961 में जर्मनी, पोलेण्ड, फ्रॉस इटली तथा यूरोप के कुछ अन्य देशों की यात्रा से उनकी कला में अमूर्तन की प्रवृत्ति आरम्भ हुई।
उन्होंने इस प्रभाव में तेल माध्यम में अमूर्त संयोजन किये हैं। ये वस्तुओं के सरलीकरण तथा अमूर्तीकरण के रूप में है। शुद्ध अमूर्त संयोजनों में केवल चित्रकला के सूक्ष्म तत्वों का ही विचार किया गया है। 1970 के आस-पास वे तांत्रिक बिम्बों की ओर आकर्षित हुए किन्तु उन्होंने ज्यामितीय तांत्रिक आकृतियों का उपयोग नहीं किया।
केवल प्रकृति से मिलते-जुलते रूपों का तांत्रिक विधि से मिलता-जुलता संयोजन मात्र है। इन चित्रों में लैंगिक प्रतीकों अथवा स्त्री-पुरुषों की युग्म आकृतियों का भी प्रयोग नहीं है। चित्रों के केन्द्र में एक वृक्ष के समान काल्पनिक प्रतीक अंकित है जो सूर्य अथवा आकाश की ओर अभिमुख है।
उसमें से जो शाखाएँ निकलती है वे कहीं पर्णों के समान कहीं जल की लहरों या चट्टानी पर्तों के समान प्रतीत होती हैं और एक अतीन्द्रिय आभास देती हैं। केक्टस आदि का अंकन इसी प्रकार का है जिनमें आकृतियों, अमूर्त रूपों तथा फन्तासी का अद्भुत समन्वय है। इनके विन्यास में सुकुमारता है और प्रभाव में पारदर्शिता है।
इनके कार्य की सफाई को स्टेन्सिल के समान बताया गया है। फन्तासी के कारण इनके चित्र अतियथार्थ की भी अनुभूति कराते हैं।
जयपुर का मीरा मन्दिर, गल्ता जी, झोपड़ियाँ, नावे, केक्टस, रूपाकार, फन्तासी तथा पहाड़ी पर फूल आदि श्री दासगुप्ता के प्रमुख चित्र हैं।