अब्दुर्रहमान चुगताई (1897-1975) 

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वंश परम्परा से ईरानी और जन्म से भारतीय श्री मुहम्मद अब्दुर्रहमान चुगताई अवनीन्द्रनाथ ठाकुर के ही एक प्रतिभावान् शिष्य थे जिन्हें बंगाल शैली का प्रचार करने के लिये श्री समरेन्द्रनाथ गुप्त था। 

वे के पश्चात् मेयो स्कूल आफ आर्ट लाहौर भेजा गया था स्वतन्त्रता के पश्चात् पाकिस्तान चले गये और वहीं उनकी मृत्यु हुई। 

लाहौर में ये चाबुक स्वरन मुहल्ले में रहते थे औरवहीं उनका अपने चित्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। चुगताई की इच्छा गालिब तथा उमर खय्याम की कविताओं के आधार पर चित्रांकन करने की थी। 

कुछ यूरोपीयन कलाकारों द्वारा तथा अपने गुरू अवनीन्द्रनाथ ठाकुर द्वारा बनाये गये इन कविताओं के चित्रों से श्री चुगताई सन्तुष्ट नहीं थे। 

सर्वप्रथम उन्होंने गालिब की गजलों पर आधारित चित्र-संग्रह तैयार किया। बड़ी सावधानी से इसका मुद्रण कराया गया और इसका नाम रखा गया “मुरक्का-ए-चुगताई”। 

उनके इस प्रकाशन को कलात्मक पुस्तकों के मुद्रण के क्षेत्र में श्रेष्ठ उदाहरण माना गया स्वयं अवनी बाबू ने भी इसकी बहुत प्रशंसा की। 1930-32 के लगभग इसका प्रथम प्रकाशन हुआ। 

सन् 1936 चुगतई का दूसरा संग्रह नक्श-ए-चुगताई प्रकाशित हुआ। तत्पश्चात् लगभग 40 सादा तथा रंगीन चित्रों का एक संग्रह जनता की माँग को पूरा करने के लिए मुद्रित किया गया। 

इनके अतिरिक्त भी चुगताई ने अनेक उत्तम चित्रों की रचना की, अनेक यूरोपीय देशों का भ्रमण किया और लन्दन तथा पेरिस आदि में प्रदर्शनियों आयोजित की सभी स्थानों पर उनकी भूरि-भूरि प्रशंसा की गयी। 

उनकी प्रतिभा को भारत सरकार ने भी औपचारिक रूप से स्वीकार किया।

श्री चुगताई मध्य कालीन विषयवस्तु को सुन्दर रेखांकन और मोहक रंग-विन्यास द्वारा चित्रित करने में सिद्ध हरत थे। 

रचना-शल्प की दृष्टि से उनके चित्रों में एक विशेष प्रकार की मधुरता है जो सहज ही दर्शक को मंत्र-मुग्ध कर लेती है। 

हिन्दू कथाओं तथा पौराणिक विषयों को चरित्र प्रधान शैली द्वारा मूर्तिमान करने की कुशलता और प्रतिभा को विश्व के प्रख्यात कला-आलोचकों ने सराहा है और उन्हें “रंगों का सम्राट” कहा है। 

उनकी कला में भारतीय तथा फारसी तत्वों का सुन्दर समन्वय हुआ है। आकृतियाँ रेखा प्रधान, कलात्मक, नाजुकपन लिए हुए तथा आलंकारिक है। उनमें गहरी भावुकता भी है रंग योजना अत्यन्त कोमल है जिसमें हल्के रंगों का प्रयोग है। 

अधिक है। श्री चुगताई की कला में भारतीय ईरानी (मुगल ) पद्धति की उत्तम फिनिश है । उनकी शैली सहज तथा स्पष्ट है और उसमें एक स्वाभाविक सरलता है। 

उनके रूप डिजाइन की दृष्टि से पूर्ण हैं, रेखाओं में कोमल प्रवाह है और नारी आकृतियों के वस्त्रों तथा अलंकरणों में अनश्वर आकर्षण है। 

ये विषय के कोमल पक्ष को बड़ी चतुरता से भाँप लेते हैं और अनावश्यक को छोड़ देते हैं। 

प्रायः अलंकार-रहित स्थापत्य उनकी आकृत्तियों की पृष्ठभूमि में अंकित रहता है जिसके कारण आकृतियाँ रिलीफ की भाँति उभर कर आती तथा प्राणवान् प्रतीत होती हैं।

नीले तथा सिंदूरी रंग की महीन रेखाओं के द्वारा श्वेत भूमि पर वे प्रेम तथा उत्तेजना का संसार सर्जित कर देते हैं। 

उनके होली शीर्षक चित्र में प्रेमियों की रंग-क्रीडा को सौंदर्य तथा लावण्युक्त रेखाओं से ऐसी विधि से प्रस्तुत किया गया है कि उससे दोनों प्रेमियों की आत्माओं के मिलन की अनुभूति होने लगती है।

सहारा की राजकुमारी, बहनें, प्रिंस सलीम, जंगल में लैला, जीवन, बुझी हुई ली. गीत की भेंट, जीवन-जाल, कवि (तुलसीदास), सन्यासी, राधा-कृष्ण, हीरामन तोता आदि उनके कुछ प्रसिद्ध चित्र है। 

एक सन्ध्याकालीन दृश्य में उन्होंने एक लता के पत्तों के किनारों पर सुनहरी आभा तथा पृष्ठभूमि में क्रमशः हल्के होते हुए बलों में गुलाबी रंग लगाकर, साथ ही एक छोटी-सी टहनी पर पक्षी-युगल दिखाकर बड़ा मनोहारी वातावरण चित्रित कर दिया है। 

चुगताई के चित्रों में इस विषम संसार से भिन्न एक सुन्दर संसार की कल्पना है, एक प्रकार का पलायन है; पर यह अत्यन्त मोहक भी है।

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