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लघु चित्रकला की जैन शैली के बारे में आप क्या जानते है?

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इस शैली का प्रथम प्रमाण सित्तनवासल की गुफा में बनी उन पांच जैनमूर्तियों से प्राप्त होता है जो 7वीं शताब्दी के पल्लव नरेश महेन्द्र वर्मन के शासनकाल में बनी थीं।

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भारतीय चित्रकलाओं में कागज पर की गई चित्रकारी के कारण इसका प्रथम स्थान है।

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इस कला शैली में जैन तीर्थंकरों-पार्श्वनाथ, नेमिनाथ, ऋषभनाथ, महावीर स्वामी आदि के चित्र सर्वाधिक प्राचीन हैं।

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इस कला का नमूना जैन ग्रंथों के ऊपर लगी दफ्तियों या लकड़ी की पटरियों पर भी मिलता है जिसमें सीमित रेखाओं के माध्यम से तीव्र भावाभिव्यक्ति तथा आंखों के बड़े सुन्दर चित्र बनाये गये हैं।

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इस शैली पर मुगल और ईरानी शैली का भी प्रभाव पड़ा है।

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सातवीं शताब्दी एवं चौदहवीं शताब्दी के मध्य विकसित इस शैली में जैन तीर्थंकरों के ही चित्र चित्रित किए गए हैं।

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इन चित्रों की पृष्ठभूमि गहरी लाल है, जिन पर बेलबूटों का आकर्षण ढंग से चित्रीकरण प्रभावशाली बन पड़ा है।

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जैन सिद्धों की पांच श्रेणियां-  1. तीर्थकर : जिसने मोक्ष प्राप्त किया हो।  2. अर्हत: जो निर्वाण प्राप्ति की ओर अग्रसर हो।  3. आचार्य : जो जैन भिक्षु समूह का प्रमुख हो ।  4. उपाध्याय: जैन शिक्षक,  5. साधू: सामान्यतः सभी जैन भिक्षु ।

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जैन साहित्य के चार मूल सूत्र-  1. उत्तराध्यन,  2. षडावशयक  3. दशवैकालिक,  4. पिण्डनिर्युक्ति (पाक्षिक सूत्र) ।

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जैन साधुओं को ‘तीर्थंकर’ कहा जाता था। महावीर स्वामी से पूर्व इस सम्प्रदाय के 23 तीर्थंकर हो चुके थे।

जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव थे, जिन्हें जैन धर्म का प्रवर्तक माना जाता था।

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विष्णु पुराण तथा भागवत पुराण में ‘ऋषभदेव’ का उल्लेख नारायण के अवतार के रूप में मिलता है।

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जैन साहित्य को ‘आगम’  कहा जाता है। जैन साहित्य के छह भेद सूत्र-निशीथ, महानिशीथ, व्यवहार, आचारदशा, कल्प, पंचकल्प हैं।

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